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सरकारी इंकार से पैदा हुआ है उर्वरक संकट 

मौजूदा संकट की जड़ें पिछले दो दशकों के दौरान अपनाई गई गलत नीतियों में हैं, जिन्होंने सरकारी कंपनियों के नेतृत्व में उर्वरकों के घरेलू उत्पादन पर ध्यान नहीं दिया और आयात व निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादन पर ही अपनी निर्भरता बनाए रखी।
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उर्वरकों की कमी और उनकी कीमतों में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी के चलते भारतीय किसान एक बड़े संकट से जूझ रहे हैं। उर्वरक कृषि के लिए एक जरूरी चीज है, इसकी कमी से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पर ख़तरा पैदा हो सकता है। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए भारत के लिए उर्वरकों की आपूर्ति एक बुनियादी रणनीतिक हित है। हालांकि सरकार ने इनकी कीमतें कम करने के लिए सब्सिडी बढ़ाई है, लेकिन इससे भी मौजूदा समस्या का हल नहीं हुआ। ऊपर से सरकार ने मौजूदा समस्या के हल के लिए ऐसे गंभीर कदम नहीं उठाए हैं, जो संकट के लिए जिम्मेदार बुनियादी ढांचे को हल करते हों।

मौजूदा संकट की जड़ पिछले दो दशकों में अपनाई गई गलत नीतियों में छुपी है, जिनके चलते सरकारी कंपनियों द्वारा देश में घरेलू उर्वरक उत्पादन में बढ़ोत्तरी नहीं हुई और हमें आयात व निजी कंपनियों द्वारा किए जाने वाले उत्पादन पर निर्भर होना पड़ा। भारत के पास उर्वरकों के उत्पादन के लिए जरूरी कच्चे माल की उपलब्धता नहीं है, ऐसे में सरकारों को कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए योजना बनानी थी और उर्वरकों का घरेलू उत्पादन करना था, यह भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में ऐतिहासिक कदम होता। पिछले दो दशकों के दौरान आयातित उर्वरकों और घरेलू निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादित उर्वरकों पर निर्भरता ने हमें आत्मनिर्भर होने से रोका है। तुरंत के मुनाफ़े की चाहत में घरेलू निजी क्षेत्र ने भी पर्याप्त दीर्घकालीन निवेश नहीं किए। 

हालिया महीनों में जबसे वैश्विक आपूर्ति  श्रृंखला  में समस्या आई है और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उर्वरकों की कीमतें बेतहाशा बढ़ गई हैं, तब हमारे सामने उर्वरक संकट खड़ा हो गया है। आयात पर भारत की निर्भरता के बुनियादी जोख़िम पर तुरंत काम करने की जरूरत है, साथ ही घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिए दीर्घकालीन रणनीति बनाने की जरूरत है। 

अंतरराष्ट्रीय कीमतों में हुई बढ़ोत्तरी

2020 के बाद से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उर्वरकों की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। रसायन और उर्वरक मंत्रालय द्वारा जारी किए गए हालिया आंकड़ों बताते हैं कि एक साल के भीतर (नवंबर 2020 से नवंबर 2021 के बीच) एक मीट्रिक टन यूरिया की कीमत (मौजूदा कीमत 923 डॉलर) 230 फ़ीसदी बढ़ गई, जबकि डीएपी (डॉइमोनियम फॉस्फेट) की कीमत में 120 फ़ीसदी (मौजूदा कीमत 804 डॉलर), अमोनिया की कीमत में 224 फ़ीसदी (मौजूदा कीमत 825 डॉलर) और पोटाश की कीमत में 22 फ़ीसदी (230 से बढ़कर 280 डॉलर) की बढ़ोत्तरी आई है। अक्टूबर, 2021 से नवंबर 2021 के बीच एक महीने में यूरिया की कीमतें 690 डॉलर प्रति मीट्रिक टन से बढ़कर 932 डॉलर प्रति मीट्रिक टन हो गईं। जबकि इस दौरान डीएपी की कीमतें 15 फ़ीसदी बढ़ते हुए 682 डॉलर प्रति मीट्रिक टन से बढ़कर 804 डॉलर प्रति मीट्रिक टन पहुंच गईं। 

बड़े निर्यातकों की तरफ से बाधित हुई आपूर्ति

भारत में उर्वरकों की उपलब्धता बड़े स्तर पर आयात पर निर्भर है। 2021 में देश में उपलब्ध कुल यूरिया में से 21 फ़ीसदी (6.4 मिलियन मीट्रिक टन) आयात किया गया था। डीएपी के लिए यह हिस्सेदारी 55 फ़ीसदी (4.5 मिलियन मीट्रिक टन) है। जबकि भारत पूरा पोटाश (करीब़ 1.5 मिलियन मीट्रिक टन) आयात करता है। 

हाल के सालों में चीन भारत के लिए डीएपी का मुख्य निर्यातक बनकर उभरा है। डीएपी के कुल व्यापार का चीन से एक तिहाई आयात होता है। 2021 में 40 फ़ीसदी भारतीय डीएपी आयात चीन से हुआ था। लेकिन दिसंबर 2021 में एक ऊर्जा संकट के चलते चीन ने डीएपी का निर्यात जून 2022 तक रोक दिया। डीएपी की बढ़ी हुई कीमतों की यह एक अहम वज़ह है। 

प्राकृतिक गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी के बाद रूस ने यूरिया निर्यात दिसंबर 2021 में कम कर दिया। यूरिया, नाइट्रोजनिक उर्वरकों में उपयोग होने वाला मुख्य उत्पाद है। रूस ने फरवरी 2022 नाइट्रोजन उर्वरकों के निर्यात पूरी तरह बंद कर दिए। 

जैसा पहले भी बताया है कि भारत में उपयोग होने वाला पोटाश पूरी तरह से आयातित होता है। भारत के लिए पोटाश का सबसे बड़ा निर्यातक बेलारूस है, जो करीब़ हमारे आयात का 30 फ़ीसदी पोटाश निर्यात (2021 में) करता है। लेकिन अब बेलारूस पर अमेरिका और यूरोपीय संघ की तरफ से प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। इसके चलते पोटाश की अंतरराष्ट्रीय कीमतें और भारत को आयात दोनों ही प्रभावित होंगे। 

ऊपर से रूस-यूक्रेन संकट और इसके बाद यूरोपीय संघ और अमेरिका द्वारा रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों की वज़ह से कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी हुई है। जिससे जहाज यातायात बाधित हुआ है। इससे भी उर्वरकों की कीमत भविष्य में और बढ़ने का अनुमान है, जिससे इनका आयात करने वाले देशों को बहुत समस्या का सामना करना पड़ेगा। 

दूसरे शब्दों में कहें तो मुख्य निर्यातक देशों से तीनों सबसे अहम उर्वरकों के निर्यात में रुकावट आई है। इसके साथ-साथ कोविड महामारी और शिपिंग कंटेनरों की कमी के चलते भी उर्वरक उत्पादों और उर्वरक बनाने में इस्तेमाल होने वाले रॉक फॉस्फेट और फॉस्फोरिक एसिड की आपूर्ति में कमी आई है। 

घरेलू उपलब्धता में कमी

घरेलू उत्पादकों के लिए कच्चे माल और समग्र आयात में आई कमी से पूरे देश में उर्वरकों की उपलब्धता का संकट खड़ा हो गया है। चित्र-1 में बताए गए आंकड़े, संसद में उर्वरक आपूर्ति में किसी भी तरह की कमी से केंद्रीय मंत्री मनसुख मंडाविया द्वारा इंकार किए जाने की बात को नकारती है। बल्कि मंत्री ने किसानों पर उर्वरकों की जमाखोरी और कालाबाज़ारी का आरोप लगाया। 

डीएपी की कमी महामारी की शुरुआत के साथ शुरू हो गई थी (चित्र-1)। लेकिन इससे चेतने और ढांचागत कमजोरियों को ठीक करने के बजाए सरकार ने इसे शुरुआत में कोविड लॉकडाउन के चलते कम वक़्त के लिए आई रुकावट बताया। सरकार ने कहा कि एक बार जब यातायात पहले की तरह शुरू हो जाएगा, तब रुकावटें खत्म हो जाएंगी। फिर उर्वरकों की बढ़ती हुई कीमत भी बड़ा मुद्दा है, जिसे सब्सिडी बढ़ाकर हल किया जा सकता है। सरकार ने इसी विश्वास के साथ मई 2021 और अक्टूबर, 2021 में सब्सिडी बढ़ाई। लेकिन संकट और भी गहरा होता गया और एक फ़सल के बाद अगली फ़सल के लिए डीएपी की कमी की समस्या बढ़ती ही गई। चित्र-1 बताता है कि पोटाश की उपलब्धता की कमी भी कमोबेश ऐसी ही है।

चित्र-1 डीएपी और पोटाश की 2020 और 2021 में मासिक उपलब्धता की कमी की 2019 के महीनों से तुलना (हजार मीट्रिक टन)

डीएपी की कमी सबसे ज़्यादा रबी की फ़सल के मौसम में 2021 में महसूस की गई। कई बार, कई दिनों तक किसानों को उर्वरक दुकानों, सोसायटियों और सरकारी कार्यालयों के पास खड़ा रहना पड़ा। कई जिलों में राशनिंग कर दी गई। किसानों की सीमित मात्रा में उर्वरक दिए गए। उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में 55 साल के किसान भोगी पाल की उर्वरकों के लिए लगी लाइन में खड़े रहने के दौरान मौत हो गई। मध्य प्रदेश में एक किसानों ने उर्वरक न मिलने पर कथित तौर पर खुदकुशी कर ली। 

उर्वरकों की कमी के चलते अक्टूबर-नवंबर 2021 में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए, तब तक संकट बहुत गहरा चुका था। हरियाणा के हांसी जिले में किसानों ने भूख हड़ताल की। हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार में कई जगहों पर ऐसे ही प्रदर्शन हुए।

 अब भी नहीं मान रही सरकार

दुर्भाग्य से सरकार इस बड़े स्तर के संकट को पहचानने में नाकामयाब रही है और सिर्फ़ तात्कालिक और अस्थायी कदम ही उठाए गए हैं, जिनका मक़सद सिर्फ़ अख़बारों की सुर्खि़यों को प्रबंधित करना है। उर्वरक क्षेत्र में पूंजीगत निवेश बेहद कम है, इसे बढ़ाने के लिए भी कोशिशें नहीं की जा रही हैं। 2020-21 के बजट में उर्वरक क्षेत्र में काम करने वाली सरकारी कंपनियों के लिए 943 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था, संशोधित अनुमानों के मुताबिक़ इसमें से सिर्फ़ 468 करोड़ रुपये ही ख़र्च किए जा सके। हाल के बजट में आवंटन को कम कर 654 करोड़ रुपये कर दिया गया। हालांकि सरकार अस्थायी नीतिगत बदलावों के द्वारा कीमतों पर नियंत्रण की व्यवस्था वापस लेकर आई है, लेकिन उर्वरक सब्सिडी के लिए आवंटन को 25 फ़ीसदी घटा दिया गया है। जबकि घरेलू कीमतों को बढ़ने से रोकने का सब्सिडी ही एकमात्र आपात तरीका है। 

पिछले दो दशकों के दौरान, अलग-अलग सरकारों की दिशाहीन नीतियों के चलते एक अहम रणनीतिक क्षेत्र को जोख़िम में धकेल दिया गया है और भारत की खाद्य सुरक्षा ख़तरे में डाल दी गई। कम कीमत पर उर्वरकों की निश्चित आपूर्ति किसानों के ऊपर से भार कम कर सकती है। जबकि कीमतों पर नियंत्रण और बढ़ी हुई सब्सिडी, उर्वरकों की कीमतों को ऊपर जाने से रोकने के लिए जरूरी हैं, इन रणनीतिक लक्ष्यों को तब ही हासिल किया जा सकता है जब उर्वरक क्षेत्र में सरकारी कंपनियों को पहले मोर्चे पर तैनात किया जाए और कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करने व घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिए दीर्घकालीन योजनाएं बनाई जाएं।

सुरेश गारिमेल्ला एसएसईआर (सोसायटी फॉर सोशल एंड इक्नॉमिक रिसर्च) के साथ वरिष्ठ शोध सहायक हैं। पवन जांगड़ा ने इस लेख में इस्तेमाल किए गए आंकड़ों को इकट्ठा किया है। यह लेखक के निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

 

Fertiliser Crisis a Making of Government's Denial

 

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