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पहले शिक्षा संसाधन, अनुसंधान, रोज़गार का सृजन भारतीय भाषा के अनुकूल करिए

अगर ढंग का माहौल मिला तो अंग्रेज़ी के अलावा दूसरी भाषाओं में भी पठन-पाठन हो सकता है। ढंग के माहौल का मतलब है कि भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन की सामग्री का होना और जॉब मार्केट में अंग्रेज़ी के आधार पर होने वाले भेदभाव को खत्म करना।
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भारत जब आजाद हुआ तो संविधान बनाने वालों ने फैसला लिया कि अंग्रेजी और हिंदी को अगले 15 साल के लिए राजभाषा के तौर पर इस्तेमाल किया जाए। अगले 15 साल तक इनका साथ-साथ इस्तेमाल होता रहा। इसके बाद हिंदी अपनाने की बात कही गयी। मगर इस ऐलान पर दक्षिण भारत के राज्य गुस्सा हो गए। हिंदी विरोध में जमकर आंदोलन हुआ। सरकार ने फैसला किया कि साल 1965 के बाद भी अंग्रेजी का इस्तेमाल राजभाषा के तौर पर होता रहेगा। तब जाकर दक्षिण का उग्र आंदोलन रुका। 18 जनवरी 1968 को संसद ने राजभाषा संकल्प पारित किया। इसका मकसद था कि ऐसा व्यापक प्रोग्राम बनाया जाए जो प्रशासनिक कामकाज की दुनिया में हिंदी के इस्तेमाल को बढ़ावा देने का काम करें।

द ऑफिसियल लैंग्वेज एक्ट 1963 के मुताबिक साल 1976 में ऑफिसियल लैंग्वेज पर एक संसदीय कमिटी बनी थी। इस कमिटी का काम था कि वह राजभाषा  के तौर पर हिंदी के कामकाज पर निगरानी रखे। इस पर सलाह दे कि आधिकारिक कामकाज के लिए हिंदी के इस्तेमाल को कैसे बढ़ाया जाए? इस कमिटी की अध्यक्षता गृह मंत्री करते हैं। यह कमिटी अपनी रिपोर्ट देश के राष्ट्रपति को सौंपती है। इसके बाद इस रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में पेश किया जाता है। राज्य सरकार को सौंपा जाता है। अब तक इस कमिटी की तरफ से तकरीबन 9 रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी हैं। अमित शाह की अध्यक्षता में बनी इस पैनल की रिपोर्ट 9 सितम्बर को राष्ट्रपति मुर्मू को सौंपी गयी। इस कमिटी की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है। मगर फिर भी सूत्रों के हवाले से यह बात कही जा रही है कि तकरीबन 100 से ज्यादा सिफारिशें की गयी हैं, जिसमें यह कहा कि उत्तर भारत के हिंदी पट्टी के राज्यों में उच्च शिक्षण संस्थानों जैसे आईआईटी, आईआईएम जैसी जगहों पर हिंदी में पठन- पाठन हो। बाजार में यह ख़बर फैलते ही फिर से हिंदी बनाम दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की बहस जोर पकड़ चुकी है। तो चलिए मसले को सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं।

भारत के आधिकारिक क्षेत्र में हिंदी के कामकाज का क्या हाल है? जवाब मिलेगा कि इतना बुरा हाल है कि बिना अंग्रेजी के मदद के काम चल ही नहीं पाता है। प्रशासनिक और न्याय क्षेत्र से जुड़े जो ऊंचे पद हैं, वहां सब कुछ अंग्रेजीमय है। जो निचले पद हैं वहां कामकाज हिंदी में होता है। यहां बात-विचार हिंदी में रखी जाती है। मगर हिंदी को बढ़ावा देने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता है। सरकारी दुनिया में हिंदी के विकास को देखना है तो एक काम यह किया जा सकता है कि भारत सरकार के मंत्रालयों की जितनी भी वेबसाइट है, उन्हें खंगाला जाए। उन्हें खंगालने पर यह निष्कर्ष निकलेगा कि अगर आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो तकरीबन 90% से ज्यादा जानकारियों को नहीं समझ सकते हैं। अनुवादों का स्तर इतना बुरा है कि हिंदी भी अपने पर शर्मसार हो जाए। कहने का मतलब यह है कि राजभाषा के तौर पर हिंदी के विकास को लेकर तमाम बातें की गई हैं, मगर हकीकत है कि दुनिया में हिंदी अपनाने से ज्यादा हिंदी को नजरअंदाज कर देने की कोशिश दिखती है।

अब आते हैं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में।  इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, लॉ, कॉमर्स, ह्यूमैनिटी - इन सभी क्षेत्रों में मानक के तौर पर जिन किताबों को पढ़ाया जाता है, उनमें हिंदी की किताबें मुश्किल से 1% भी शामिल नहीं है। यानी 99% से ज्यादा सोर्स अंग्रेजी से जुड़ा हुआ है। जब ज्ञान का निर्माण ही हिंदी में नहीं हुआ तो हिंदी में पठन-पाठन कैसे मुमकिन है? रातों-रात इसमें बदलाव कभी नहीं होने वाला। एक कानून, नियम और आदेश बनाकर तो कभी नहीं होने वाला।

यह तो मौजूदा समय का हाल है। अब बात करते हैं कि होना क्या चाहिए? सबसे पहली बात भारत जैसे बड़े मुल्क में केवल हिंदी को स्थापित करना भारत को तोड़ने जैसा होगा। हिंदी के अलावा दूसरे क्षेत्रीय भाषाओं को नकार कर केवल अंग्रेजी का दबदबा स्वीकार करना भारत को सांस्कृतिक तौर पर गुलाम करने जैसा होगा। यह दो तरह की स्थितियां हैं- जिनके बीच रास्ता निकालना है। अगर केंद्र सरकार उच्च शिक्षण संस्थानों में केवल हिंदी के बढ़ावे की बात कर रही है तो यह किसी को स्वीकार नहीं होनी चाहिए। मगर हिंदी के साथ दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं - जैसे कि तमिल, मलयालम, तेलुगू, कन्नड़ जो बहुत बड़ी आबादी के बीच बरती जाती हैं, अगर उन्हें भी बढ़ावा दिया जा रहा है तो एक सकारात्मक कदम होगा। मगर सोचने और समझने वाली बात है कि यह कहने में जितना आसान लगता है बरतने में उतना ही अधिक मुश्किल है। मगर बरता जाए तो भारत की बहुत बड़ी आबादी के भाषा के आधार पर होनेवाला भेदभाव खत्म होगा। वह जब अपनी भाषा में विचार करेंगे तो देश और दुनिया की परेशानियों के साथ ज्यादा गहरे तौर पर जुड़ पाएंगे। अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाएंगे।

इन सब के बाद कुछ सवाल आते है जिनका जवाब देना भी जरूरी है। सबसे पहला सवाल तो यही आता है की इंजीनियरिंग, मेडिकल जैसी पढ़ाई क्या हिंदी तमिल तेलुगू कन्नड़ मलयालम में संभव है? जवाब है कि अगर ठोस तरीके से कोशिश की जाए तो बिल्कुल संभव है। चीन, जापान और रूस इसके लिए सबसे बेहतरीन उदाहरण है। इन्होंने तकनीक की पढ़ाई के लिए अंग्रेजी को नहीं अपनाया। अपनी भाषा में पढ़ाई की और दुनिया के कद्दावर मुल्क बने। चीन में मंदारिन, जापान में जापानी में मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई बताती है कि तकनीक के भाषा के तौर पर केवल अंग्रेजी की बपौती नहीं है। अगर ढंग का माहौल मिला तो अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओ में भी पठन-पाठन हो सकता है। ढंग के माहौल का मतलब है कि भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन की सामग्री का होना और जॉब मार्केट में अंग्रेजी के आधार पर होने वाले भेदभाव को खत्म करना।

एक सवाल और पूछा जाता है कि क्या क्षेत्रीय भाषाओं की वकालत करते समय आप अंग्रेजी नहीं पढ़ने की वकालत कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब है बिल्कुल नहीं। कोई भी सुलझा हुआ व्यक्ति क्षेत्रीय भाषाओं की वकालत करता है तो उसकी मंशा यह नहीं होती कि अंग्रेजी को न पढ़ा जाए। अंग्रेजी को खारिज कर दिया जाए। उसकी मंशा सिर्फ इतनी होती है कि भारतीय भाषाओं के ऊपर मौजूद अंग्रेजी के आधिपत्य को तोड़ दिया। अंग्रेजी की गुलामी से खुद को दूर रखा जाए। इसका मतलब यह है कि कई उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने-पढ़ाने, लिखने-बोलने को लेकर केवल अंग्रेजी का प्रचलन है। कई बड़ी नौकरियों में सारा कामकाज अंग्रेजी में होता है। जब भारतीय भाषाओं की बात की जा रही होती है तो अंग्रेजी के दबदबे को तोड़ने की बात की जा रही होती है, उसे खारिज करने की बात नहीं की जा रही होती है ताकि भाषा की बाधा किसी के जीवन को बर्बाद ना कर दे।

कई सारे शिक्षाविद दशकों से सलाह देते आ रहे हैं कि प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई लिखाई मातृभाषा में होनी चाहिए। सेकेंडरी स्कूल के बाद की पढ़ाई लिखाई संविधान की अनुसूचित भाषाओं में होनी चाहिए। इसके साथ सहयोगी पठन-पाठन के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी जैसी भाषाओं को भी शामिल किया जा सकता है।

अब चलते चलते अंतिम बात। पढ़ाई लिखाई का मतलब केवल किताब स्कूल मास्टर नहीं होता। हमारी आसपास का परिवेश भी होता है। जो हम किताबों में पढ़ते हैं, मास्टर से समझते हैं क्या हम उसे अपने आसपास के परिवेश में सोच समझ सकते हैं? अगर हमेशा कर पा रहे हैं तो हमारे पढ़ने लिखने का मतलब है। और यदि नहीं कर पा रहे हैं तो हमारे पढ़ने लिखने का कोई मतलब नहीं है। इस आधार पर सोचकर देखिए कि भारत के कितने इलाके ऐसे हैं  जहां के परिवारों में रिश्तेदारों में और आसपास के परिवेश में अंग्रेजी बरती जाती है?

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