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विकलांग स्त्रियों पर जबरन नसबंदी थोपना गैरकानूनी है!

तमाम कानूनों के बावजूद भारत में विकलांग महिलाओं एवं लड़कियों पर जबरन नसबंदी के कई उदाहरण हैं और ऐसा करने के पीछे की वजह के तौर पर मासिक-धर्म स्वच्छता प्रबंधन और बलात्कार की वजह से गर्भावस्था के भय को गिनाया जाता है।
विकलांग स्त्रियों पर जबरन नसबंदी थोपना गैरकानूनी है!
प्रतीकात्मक चित्र। साभार: एनडबल्यूएचएन.ओआरजी

तमाम कानूनों के बावजूद, भारत में विकलांग महिलाओं और लडकियों पर जबरन बंध्याकरण थोपने के अनेक उदाहरण हैं, और ऐसा करने के पीछे के कारणों के लिए मासिक-धर्म से जुड़े स्वच्छता प्रबंधन और बलात्कार के परिणामस्वरूप गर्भावस्था के भय का हवाला दिया जाता है। लेकिन ऐसा करके, स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े पेशेवर लोग इन महिलाओं को संविधान द्वारा प्रदत्त गारंटीशुदा मौलिक मानवाधिकारों और समानता का उल्लंघन करते हैं। अल्मास शेख लिखती हैं, समय आ गया है कि विकलांग महिलाओं एवं लड़कियों के जबरन बंध्याकरण को अपराध घोषित किया जाये, क्योंकि इससे उन्हें प्राथमिक तौर पर राज्य और निजी दोनों तरह के कृत्यों से प्रारंभिक सुरक्षा मिलनी शुरू हो जायेगी।
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ब्रिटनी स्पीयर्स के संरक्षक-पद के फैसले की खबर ने विकलांग महिलाओं और लड़कियों (डबल्यूडब्ल्यूडी - WWD) के यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य के अंतर-अनुभागीय शोषण जैसे महत्वपूर्ण पहलू को सामने लाने का काम किया है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य के लिहाज से, क़ानूनी प्रणाली में लिंग, प्रजनन एवं विकलांगता अधिकारों के एक दूसरे से गुंथे मुद्दे पर्याप्त और वाजिब सुरक्षा मुहैय्या नहीं कराते हैं। जबरन नसबंदी एक कड़वी हकीकत है, जिसे कई WWD को सामना करना पड़ता है।

जबरन नसबंदी का इतिहास

1994 में WWD के गर्भ निकाले जाने की प्रक्रिया की खबरों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया था। इंडिया टुडे ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि कई मामलों में, यह WWD के परिवारों के साथ-साथ महाराष्ट्र सरकार, डाक्टरों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं द्वारा लिया गया संयुक्त फैसला था। सुस्पष्ट तौर पर, WWD के उन मुद्दों पर उनकी रजामंदी की आवश्यकता थी, जो उनके यौन और प्रजनन स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, उन अधिकारों पर कोई बातचीत नहीं की गई थी। उल्टा, उनमें से एक डॉक्टर का कहना था कि “ऐसे मामलों में गर्भाशय निकालना उपचार का एक स्वीकृत स्वरुप रहा है।”

इसके एक दशक पश्चात, 2005 में, ऑक्सफेम ट्रस्ट द्वारा जारी एक रिपोर्ट में 729 WWD का सर्वेक्षण किया गया था और विकलांग महिलाओं के बंध्याकरण और प्रजनन स्वास्थ्य जैसे जटिल मुद्दे का अध्ययन करने की कोशिश की गई थी। इसने घरों में रह रही बौद्धिक तौर पर विकलांग महिलाओं की दयनीय स्थिति को सामने लाने की कोशिश की थी।

यह अध्ययन “दुर्व्यवहार एवं गतिविधि सीमा: भारत के उड़ीसा में विकलांग महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा पर एक अध्ययन” ने विकलांग महिलाओं और लड़कियों पर जबरन नसबंदी के स्पष्ट प्रमाण पेश किये। इसमें पाया गया कि शारीरक तौर पर विकलांग महिलाओं में से 6% और बौद्धिक तौर पर अपंगता की शिकार 8% महिलायें जबरन नसबंदी का शिकार थीं।

2011 में, ह्यूमन राइट्स वाच ने “विकलांग महिलाओं एवं लड़कियों की नसबंदी” पर एक ब्रीफिंग पेपर प्रकाशित किया था। इसने जबरन नसबंदी के पक्ष में दिए जाने वाले तर्कों का विश्लेषण किया, जिसमें दावा किया गया था कि इसे WWD के “सर्वोत्तम हित” में किया जा रहा था। इसने यह निष्कर्ष निकाला कि नसबंदी का उनके अधिकारों के साथ बेहद कम और सामजिक कारकों से काफी कुछ लेना-देना था, जैसे कि सेवाप्रदाताओं को असुविधा से बचाना, उन्हें यौन दुर्व्यवहार और शोषण से बचाने के लिए पर्याप्त उपायों की कमी और WWD के माता पिता बनने के फैसले में उन्हें यथोचित सेवाओं का अभाव पाया गया था।

2017 में, विकालंग व्यक्तियों के अधिकारों पर विशेष प्रतिवेदक, कैटलीना देवंदास ने जोर देकर कहा था कि अब दुनिया भर में विकलांग लड़कियों और नौजवान महिलाओं पर जबरन बंध्याकरण, गर्भपात और गर्भनिरोधक जैसी प्रचलित प्रथाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र ने कई देशों में विकलांग व्यक्तियों की जबरन नसबंदी को यातना के तौर पर माना है, भले ही इसका क़ानूनी स्वरुप कुछ भी हो। जबरन बंध्याकरण घोर मानवाधिकार उल्लंघन के तौर पर है और यह WWD के उपर होने वाली प्रणालीगत हिंसा का हिस्सा है।

इसके अतिरिक्त, जबरन नसबंदीकरण को रोम संविधि के अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय के तहत मानवता के खिलाफ अपराध के तौर पर वर्गीकृत किया गया है।

भारत के क़ानूनी दायित्व

वर्तमान में, भारत में, विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 (आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम) और मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम, 2017 विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को निर्धारित करते हैं।

इन कानूनों को कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ़ पर्सन्स विद डिसअबिलीटीज (सीआरपीडी) की पुष्टि के बाद भारत के दायित्वों का पालन करने के लिए लाया गया है।

सीआरपीडी का अनुच्छेद 16 (1) राज्य के अंगों को सभी उचित विधाई, प्रशासनिक, सामाजिक, शैक्षणिक और अन्य उपायों को घर के भीतर और बाहर दोनों जगह, विकलांग व्यक्तियों को सभी प्रकार के शोषण, हिंसा और दुर्व्यवहार से रक्षा करने के लिए जवाबदेह बनाता है, जिसमें उनके लिंग-आधारित पहलू भी शामिल हैं।

इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 23 (1) (बी) राज्य के पक्षों को विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को बरकरार रखने के लिए प्रश्न उठाता है ताकि उनकी स्वतंत्र रूप से और जिम्मेदारी के साथ उनके बच्चों की संख्या के बीच में दूरी पर फैसला लेने और उम्र के मुताबिक जानकारी तक पहुँच के अधिकारों को सुनिश्चित कराने की बात करता है। प्रजनन एवं परिवार नियोजन शिक्षा को मान्यता दी जाती है, और उन्हें इन अधिकारों को अमल में लाने के लिए सक्षम बनाने के लिए आवश्यक साधन प्रदान किये जाते हैं। इस प्रकार अनुच्छेद 23, किसी विकलांग महिला को यह फैसला लेने की स्वायत्तता प्रदान करता है कि क्या वह जन्म देना चाहेगी या नही। इससे यह स्पष्ट होता है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत जबरन बंध्याकरण की अनुमति नहीं है।

सीआरपीडी की पुष्टि के द्वारा, भारत सभी प्रकार के शोषण से विकलांग व्यक्तियों की सुरक्षा के सन्दर्भ में लिंग-आधारित दृष्टिकोण अपनाने के लिए बाध्य है।

आरपीडबल्यूडी अधिनियम की धारा 4 (1) में कहा गया है कि उपर्युक्त सरकार और स्थानीय प्रशासन को यह सुनिश्चित करने के लिए कि विकलांग महिलायें और बच्चे अन्य के साथ समान रूप से अपने अधिकारों का उपभोग कर पा रहे हैं या नहीं, के लिए आवश्यक उपाय अपनाने होंगे। धारा 25 विशेषकर विकलांग महिलाओं के लिए यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं को प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार और स्थानीय प्रशासन के उपर डालती है। हालाँकि जबरन नसबंदी को अपराध के तौर पर व्याख्यायित करने के लिए स्पष्ट तौर पर उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन बिना रजामंदी के गर्भ को गिराने के मामले में धारा 92 (एफ) में दंड का प्रावधान रखा गया है।

वहीँ दूसरी तरफ, मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम, 2017, विशेष रूप से जबरन नसबंदीकरण के खिलाफ सुरक्षा मुहैय्या कराता है। अधिनियम की धारा 95 के तहत, पुरुषों या महिलाओं के बंध्याकरण में, जब इस तरह की नसबंदी को उनकी मानसिक बीमारी के इलाज के तौर पर किया जाता है, तो इसे निषिद्ध प्रक्रिया के तौर पर वर्गीकृत किया जाता है।

जहाँ बौद्धिक तौर पर विकलांग महिलाओं के लिए जबरन नसबंदीकरण से त्वरित सुरक्षा के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम के तहत उपाय उपलब्ध है, वैसी ही सुरक्षा सभी WWD को भी दी जानी चाहिए।

तमाम कानूनों के बावजूद, भारत में जबरन बंध्याकरण के उदाहरण देखने को मिलते हैं। इसके लिए आमतौर पर तर्क दिए जाते हैं कि ऐसी लड़कियों के लिए मासिक धर्म संबंधी स्वच्छता प्रबंधन और बलात्कार के चलते गर्भावस्था के भय से ऐसा किया जाता है।

सर्वश्रेष्ठ हित का सिद्धांत

इन सभी परिदृश्यों में, सुरक्षा मुहैय्या कराने के लिए देखभाल का दायित्व राज्य पर है।

हालाँकि, अक्सर ही यह देखने में आता है कि जबरन बंध्याकरण का फैसला चिकित्सकों, क़ानूनी अभिभावकों और अन्य निजी गैर-राज्य व्यक्तियों द्वारा लिया जाता है, जो बड़े पैमाने पर बेरोक-टोक चलते रहते हैं।
WWD के जीवन से जुड़े सभी पक्षों, वो चाहे डॉक्टर हों, सेवा-सुश्रुषा करने वाले हों या स्थानीय प्रशासन हो, को उनके सर्वश्रेष्ठ हित में कार्य करना चाहिए। जबरन बंध्याकरण WWD के सर्वश्रेष्ठ हित में नहीं है। नसबंदी करवाकर, स्वास्थ्य कर्मी विकलांग लड़कियों के मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता और लैंगिकता और प्रजनन के बारे में अपने फैसले लेने की क्षमता का उल्लंघन होता है।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सुचिता श्रीवास्तव एवं अन्य बनाम चंडीगढ़ प्रशासन (2009) मामले में विकलांग व्यक्तियों के प्रजनन स्वास्थ्य की स्थितियों में लागू होने वाले सर्वश्रेष्ठ हित परीक्षण के सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। फैसले में कहा गया है कि सर्वश्रेष्ठ हित परीक्षण के लिए न्यायालय को वह रास्ता अख्तियार करना पड़ता है जो प्रश्न में शामिल व्यक्ति के सर्वश्रेष्ठ हितों के अनुरूप हो।
इसे हासिल करने के लिए पीडिता द्वारा गर्भधारण की व्यवहार्यता पर चिकत्सकीय राय के साथ-साथ सामाजिक परिस्थितियों पर सावधानीपूर्वक निरीक्षण करने के जरिये किया जा सकता है। उक्त निर्णय को सिर्फ पीडिता के हितों के अनुरूप निर्देशित होना चाहिए, न कि अभिभावकों या आमतौर पर समाज जैसे हितधारकों के अनुरूप।
जहाँ एक तरफ यह स्पष्ट है कि विचाराधीन महिला को देखभाल और सहायता की आवश्यकता होगी, जिसके लिए बदले में कुछ लागत लगती है, इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इसकी वजह से उसके प्रजनन अधिकारों का प्रयोग करने से उसे रोके जाने का कोई आधार नहीं हो सकता है।

फैसले में यह भी कहा गया कि जबरन नसबंदीकरण को भारतीय संविधान द्वारा गारंटीशुदा समानता के उल्लंघन के तौर पर माना गया है। इसमें कहा गया है कि “जो व्यक्ति सीमारेखा, हल्के या कम मानसिक दुर्बलता की स्थिति में पाए जाते हैं, वे अच्छे माता-पिता बनने की क्षमता रखते हैं।”

अनुभवजन्य अध्ययनों में निर्णयात्मक तौर पर सुजनन विज्ञान के सिद्धांत को ख़ारिज कर दिया है कि मानसिक दोष अगली पीढ़ी को हस्तगत होने की संभावना बनी रहती है। उक्त ‘सुजनन विज्ञान सिद्धांत’ का इस्तेमाल अतीत में मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों के जबरन बंध्याकरण और गर्भपात कराने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता रहा है। हमारा दृढ मत है कि इस तरह के उपाय अलोकतांत्रिक हैं और हमारे संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रतिपादित ‘कानून के समक्ष समान सुरक्षा’ की गारंटी का उल्लंघन करते हैं।”

विकलांगता न्याय आंदोलन की जरूरत

भारत में राज्य-प्रायोजित जनसंख्या नियंत्रण का एक काला इतिहास रहा है, जिसे अक्सर सुजनन उद्देश्यों के साथ, गरीबों और वंचितों को इसका शिकार बनाना रहा है। इसे विकलांग महिलाओं और लड़कियों तक विस्तारित किया गया है और उनके अस्तित्व को मुख्य रूप से उनकी विकलांगता से जोड़कर स्थापित करता है। यह उन समुदायों के लिए विशेष रूप से सच है जहाँ विकलांगता अधिकारों और विकलांगता न्याय के बारे में जागरूकता का पूर्ण अभाव है।

कभी-कभी, अपंगता को लेकर समुदायिक दृष्टिकोण WWD के लिए गतिविधियों की सीमाओं की तुलना में कहीं अधिक बड़ी समस्या हो जाती है। जबरन बंध्याकरण अक्सर ऐसे समुदायों के एक हिस्से के तौर पर होता है, जहाँ एक विकलांग महिला के तौर पर उसकी पहचान उसके एक नारी और इंसान होने की पहचान पर भारी पड़ जाती है।

WWD के अधिकारों के क्रियान्वयन के लिए यौन और प्रजनन स्वास्थ्य इर्दगिर्द समर्थन, सहयोग, जागरूकता की आवश्यकता है। इसे न सिर्फ विकलांग व्यक्तियों के लिए बल्कि उनके सेवा प्रदाताओं के प्रति भी निर्देशित किये जाने की जरूरत है।

चूँकि सेवा प्रदाता के द्वारा कई दैनिक कार्य प्रभावित होते हैं, ऐसे में एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र को पैदा किये जाने की सख्त आवश्यकता है जो न सिर्फ WWD के उपर उनके नियंत्रण के लिए जिम्मेदार हो, बल्कि उनकी अपनी खुद की जरूरतों को भी पूरा करता हो, जिससे कि WWD के अधिकारों पर आधारित समग्र विकास को बढ़ावा मिल सके। WWD के संपूर्ण यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य को साकार करने की दिशा में मुफ्त या सस्ती स्वास्थ्य सुविधा का एक गारंटीशुदा वादा होना चाहिए।

कानून में जबरन बंध्याकरण का आपराधिकरण स्पष्ट रूप से राज्य और निजी दोनों कृत्यों में प्रारंभिक सुरक्षा को शुरू करने में सहायक सिद्ध होगा।

व्यापक बदलावों को साकार करने के लिए व्यापक चर्चा और सामाजिक बदलावों की आवश्यकता होती है। भारत में एक समावेशी विकलांगता न्याय आंदोलन के लिए विकलांगता अधिकार दृष्टिकोण, जो अभी भी सक्षम सामाजिक दायरे के भीतर काम करता है, में बदलाव बेहद आवश्यक है। विकलांगता अधिकार आंदोलन के दायरे से बाहर निकलते समय, हमें एक समावेशी नीति पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है जो भारत में सक्षमता, जातिवाद, लिंगभेद, वर्ग और समलैंगिकता सहित शोषण की व्यवस्था को चुनौती देती हो।

(अल्मास शेख बेंगलुरु स्थित एक मानवाधिकार अधिवक्ता हैं, जिनके पास लैंगिक अधिकारों के अंतर्संबंधों का तजुर्बा है। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।}

साभार: द लीफलेट

इस लेख को अंग्रेजी में इस लिंक के जरिए पढ़ा जा सकता है

Forced Sterilisation on Women and Girls with Disabilities is Against Law

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