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हिंदुत्व के नाम पर मज़दूर वर्ग पर सीधा हमला

जैसे-जैसे कॉर्पोरेट-समर्थक हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी कार्यक्रम आर्थिक संकट को ख़त्म करने की अपनी असफल कोशिशों में ख़ुद को विस्तारित करेगा, वैसे-वैसे मज़दूरों और अल्पसंख्यकों पर हमलों में भी बढ़ोत्तरी होती जाएगी।
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दिन ब दिन हिन्दुत्ववादी समूह का वर्गीय चरित्र साफ़ होकर सामने आ रहा है। हिंदुत्व की आड़ में मोदी सरकार व्यापक स्तर पर सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के लिए एक सेतु के रूप में काम कर रही है, और मज़दूर वर्ग पर हमले कर रही है। इस तरह का कार्यक्रम किसी “सामान्य” बुर्जुआ शासन की परिस्थितियों में किसी भी हालत में लागू करना संभव नहीं हो पाता; और इसके ख़िलाफ़ ज़बर्दस्त विरोध पैदा होता। लेकिन आज सरकार इसे पूरी ताक़त से लागू कर रही है क्योंकि आज राष्ट्र हिंदुत्व के नाम पर विभाजित है, जिसमें बहुसंख्यक समुदाय को “दूसरे समुदाय” का भय दिखा कर नफ़रत की घुट्टी पिलाई जा रही है।

भय का वातावरण अपने लिए किसी  “रक्षक” की आवश्यकता को जन्म देता है; और यदि वह बहुरूपिया “रक्षक” भी निजीकरण को बढ़ावा देने लगे तो आमजन उसका तीव्र विरोध नहीं कर पाते। वे आज हिंदुत्व की बहस के चलते इतने अधिक भ्रमित हो चुके हैं कि निजीकरण के कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र के वर्गीय एजेंडा के ख़िलाफ़ कोई प्रतिरोध नहीं खड़ा कर सकते।

निजीकरण के कार्यक्रम को हमारे सामने विविध रूपों में प्रस्तुत किया गया है। कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों को तो पूरी तरह से बेच देने के रूप में चिन्हित किया गया है, जिसमें वे ही निगम शामिल नहीं हैं जो वित्तीय घाटे में चल रहे हैं, बल्कि वे भी शामिल हैं जो अच्छा ख़ासा मुनाफ़ा भी कमा रहे हैं। बाक़ी में, सरकार का इरादा है कि वह अपनी हिस्सेदारी को विनिमेश के ज़रिये 51% से कम कर दे। बाक़ी बचे क्षेत्र में, सरकार का इरादा है कि एक निगम के सारे काम को अलग अलग विशिष्ट कार्यकलापों के रूप में बाँट दिया जाए, और उनमें से कुछ सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को धीरे धीरे निजी क्षेत्र में उतार दिया जाए; रेलवे के निजीकरण के लिए इसी अंतिम रास्ते को उपयोग में लाया जा रहा है।

सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण करने के इन हथकण्डों के अलावा, इस बात के भी प्रयास जारी हैं कि जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्षेत्र शामिल हैं, उनको धता बताकर उनके लिए कम से कम जगह बची रहे। जैसे कोयला खनन के क्षेत्र में, जो कि कमोबेश पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित था, अब उसे क्षेत्र में विदेशी पूंजी तक को आमंत्रित किया जा रहा है। रेलवे कॉम्पोनेन्ट क्षेत्र, जैसे इंजन निर्माण क्षेत्र में, विदेशी पूंजी को भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है, और उसी अनुपात में घरेलू सार्वजनिक क्षेत्र के उत्पादन को घटाया जा रहा है; जो और कुछ नहीं बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के सम्पूर्ण ख़ात्मे की प्रस्तावना है।

इसी तरह, आगामी लोक सभा सत्र में मौजूदा श्रम क़ानूनों में “सुधार” के नाम पर फेरबदल की तैयारी है, जिससे मज़दूरों को निकाल बाहर करने का रास्ता आसान हो जायेगा। वास्तव में अगर देखें तो देश में मौजूद श्रम शक्ति का मात्र 4% श्रमिक वर्ग ही वर्तमान श्रम क़ानूनों के अंतर्गत आते हैं, क्योंकि “संगठित क्षेत्र” में भी दिहाड़ी मज़दूरों का चलन बड़ी तेज़ी से जारी है; और श्रम क़ानूनों में प्रस्तावित बदलाव का वास्तविक लक्ष्य है कि किसी भी तरह की ट्रेड यूनियन गतिविधि को करना असंभव बना दिया जाए, और जो भी मज़दूरों को संगठित करने की कोशिश करे उसे तत्काल प्रभाव से निकाल बाहर किया जाए।

सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण में तब्दील होने से भी इसी तरह के नतीजे देखने को मिलेंगे। पूरी दुनिया में सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र में श्रमिकों की ट्रेड यूनियन में भागीदरी काफ़ी कम है। उदाहरण के लिए अमेरिका में, जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र (जिसमें शिक्षा क्षेत्र भी शामिल है) में 33% कामगार ट्रेड यूनियन के ज़रिये संगठित हैं, वहाँ निजी क्षेत्र में यह भागेदारी मात्र 7% ही है। सार्वजनिक क्षेत्र से किसी कम्पनी के निजी क्षेत्र में हस्तांतरण का सबसे अधिक दुष्प्रभाव उसके कर्मचारियों के सांगठनिक स्वरूप पर ही पड़ेगा।

इस प्रकार नरेंद्र मोदी सरकार का वास्तविक उद्देश्य है मज़दूर वर्ग पर सीधा हमला करना, जिसे कॉर्पोरेट-वित्तीय तंत्र वास्तव में बेहद पसंद करेगा, लेकिन जिसे आज से पहले लागू करना आसान काम नहीं होता। हिंदुत्व की आड़ में इस लक्ष्य को हासिल किया जा रहा है।

हिंदुत्व की आड़ में कॉर्पोरेट के हित का सधना कोई दुर्घटना के रूप में नहीं हो रहा। वास्तव में, हिंदुत्व समर्थक वोटर लॉबी की आर्थिक विचारधारा बिना पलकें झपकाए पूरी बेशर्मी से कॉर्पोरेट समर्थक है। इस तथ्य को सबसे स्पष्ट रूप से ख़ुद मोदी ने तब उद्घाटित कर दिया जब उन्होंने कहा कि पूंजीपति ही देश के असली “धन और वैभव के निर्माता” हैं, जिसका दावा बुर्जुआ अर्थशास्त्र ने भी कभी नहीं किया।

पूंजीवादी अर्थशास्त्र के आदर्श पाठ्यक्रम में समृद्धि की उत्पत्ति के लिए जिन 4 “उत्पादन के कारक” का ज़िक्र किया जाता है, उसमें ज़मीन, श्रम, पूंजी और उद्दमशीलता के एक साथ मिलने और उसके द्वारा उत्पादन के ज़रिये होना संभव बताया गया है। उनकी ओर से यह सदाशयता इस बात की ओर इंगित करती है कि वे यह दिखाना चाहते हैं कि पूंजीपति समृद्धि के निर्माण में जिस पूंजी का योगदान करता है वह किसी भी प्रकार से श्रम की भूमिका से कमतर न दिखे। दूसरे शब्दों में कहें तो समाजवादियों द्वारा पूंजीपतियों को शोषणकारी की भूमिका में चिन्हित करने की तुलना में इन्हें पूंजी निर्माण में सह-भागी की नज़र से देखा जाए।

दक्षिणपंथी हिन्दू, इन बुर्जुआ आदर्श पाठ्यपुस्तकों से भी दो क़दम आगे चला गया है। इसने पूंजी निर्माण में श्रम की भूमिका को सिरे से नकार दिया है। यह बुर्जुआ पाठ्यपुस्तकों के बताए पूंजी निर्माण की सहभागी भूमिका के बजाय उसे ही एकमात्र पूंजी निर्मित करने वाले के रूप में देखते हैं। यह पूंजीपतियों से एक और कायरतापूर्ण क्षमा भाव पैदा करना है, और इस प्रकार आज की दुनिया में कॉर्पोरेट के लिए आदर भाव दिला पाना अपने आप में दुर्लभ है।

असल में, अगर बुर्जुआ पाठ्यपुस्तकों से आगे जाकर देखें तो हम कह सकते हैं कि प्रकृति के दोहन पर आधारित  मानव श्रम ही सभी पूंजी निर्माण का वास्तविक स्रोत है या उस वस्तु का उपयोग मूल्य। इन्सान के प्रकृति के दोहन में कुछ अन्य चीज़ें इस्तेमाल की जाती हैं, जैसे मशीनें (पूंजी निवेश के द्वारा) आदि। पूंजीपति ख़ुद को इन श्रम के औज़ारों का मालिक बताता है, इसलिए ख़ुद कोई श्रम किये बिना जो भी उत्पादित होता है उसके एक हिस्से पर अपना हक़ जताता है। उस लाभ के एक हिस्से का वह ख़ुद उपभोग करता है और बाक़ी हिस्से को वह श्रम के औज़ारों को और अधिक बढ़ाने में इस्तेमाल करता है।

चलिए मान लेते हैं और उदारता से इस बात को समझते हैं कि मोदी द्वारा पूंजीपतियों का समर्थन इसलिये किया गया क्योंकि वे श्रम के साधनों में अपना योगदान देते हैं। लेकिन तब भी, उन्हें “धन-निर्माता” का दर्जा सिर्फ़ इसलिए देना कि वे जो कुछ हासिल करते हैं उसके पूरे हिस्से का उपभोग न कर श्रम के औज़ारों में अपना योगदान देते हैं, इस पूरी प्रक्रिया के बारे में सम्पूर्ण अज्ञान को ज़ाहिर करता है।

इससे भी बड़ी अज्ञानता मोदी जी तब दिखाते हैं जब वे टिप्पणी करते हैं कि उनकी सरकार द्वारा कॉर्पोरेट के लिए 1.45 लाख करोड़ रुपयों की टैक्स में छूट की घोषणा से समाज के सभी वर्गों को लाभ मिलेगा, वे दावा करते हैं कि यह 120 करोड़ भारतीय के लिए “लाभ ही लाभ की स्थिति” है। 

यहाँ पर मोदी पूंजीपतियों के “धन और वैभव के निर्माता” होने के दावों से भी एक क़दम आगे जाते दिखते हैं। अगर कॉर्पोरेट इस पूरे 1.45 लाख करोड़ से बिना किसी श्रम के साधनों में इज़ाफ़ा किये सारी रकम को अपने पास रख ले (जिससे कारण असल में कुल मांग में कमी के चलते भारी संख्या में बेरोज़गारी बढ़ेगी), तब भी उन्हें यह “लाभ ही लाभ की स्थिति” नज़र आएगी!

हिंदुत्व विचारधारा का आर्थिक मत स्पष्ट है: जितना अधिक पैसा कॉर्पोरेट के पास रहे, उतना ही यह समाज के लिए अच्छा है। अब इसे किस सीमा तक कॉर्पोरेट को दिया जाना चाहिए, यह इस बात पर निर्भर करता है कितने रुपयों से श्रमिक वर्ग ज़िन्दा रह सकता है, इस प्रकार हिंदुत्व विचारधारा सुझाव देती है कि जितना कम से कम श्रमिकों को मिले, वह उतना ही समाज के लिए बेहतर होगा! संक्षेप में कहें तो हिंदुत्व दर्शन, न सिर्फ़ अल्पसंख्यक विरोधी, दलित विरोधी, आदिवासी विरोधी, महिला विरोधी है, जैसा कि सर्व-विदित है, यह अवश्यंभावी रूप से और मूलतः मज़दूर विरोधी भी है।

यहाँ पर एक दोषपूर्ण द्वन्द काम करता दिखाई देता है। आर्थिक मंदी के जिस दौर में देश घिरा हुआ है, उसमें हिंदुत्व के पास उपचार के रूप में कॉर्पोरेट को अधिक से अधिक पैसा देने का ही उपाय नज़र आता है, उसके पास इसके अलावा कोई विचार पैदा ही नहीं हो सकता। इसे लागू करने के लिए वह और अधिक आक्रामक तरीक़े से पूरी बहस को बदल कर, “एक राष्ट्र-एक भाषा”, नागरिकता सूची का पंजीकरण (NRC), नागरिकता संशोधन क़ानून जैसे मुद्दों को हवा देकर और अधिक “झटकों और विस्मय” के दौर में ले जाएगी। इन प्रत्येक मुद्दों के अंदर वह ताक़त है जो लोगों की ज़िन्दगी और राष्ट्र की एकता पर विनाशकारी प्रभाव डालेगी।

लेकिन इसके अतिरिक्त,  मंदी से उबरने के बजाय कॉर्पोरेट के हाथों में और अधिक पैसा देना हालात को बद से बदतर की ओर ले जायेगा, लेकिन हिंदूवादी सरकार इन ख़तरनाक उपायों से बचाव के उपाय सोचने के बजाय इसे और अधिक बढ़ाती ही जाएगी। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो, जैसे-जैसे संकट और अधिक गहराता जायेगा, और कॉर्पोरेट समर्थक नीतियों के चलते इस संकट से बचने के व्यर्थ उपाय इसे उल्टा बढ़ा देंगे, उसी के परिणामस्वरूप असहाय अल्पसंख्यक समुदाय के ऊपर सांप्रदायिक हमलों में बढ़ोत्तरी देखने को मिलेगी।

हिंदुत्व-कॉर्पोरेट की यह धुरी जिसे ख़ास वर्ग विश्लेषण पर आधारित हिंदुत्व विचारधारा ने हृदयंगम किया हुआ है, इस घुमावदार द्वन्द को खोल देती है। और इसका सबसे कमज़ोर पहलू भी इसी द्वन्द में छिपा है, कि इससे संकट में बढ़ोत्तरी ही होगी, जो अंततः प्रतिरोध को आमंत्रण देगा जो इसे अंततः पराजित करेगा।

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