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सीमांत गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष: सभी रूढ़िवादिता को तोड़ती उनकी दिलेरी की याद में 

राजमोहन गांधी की लिखी किताब, 'गफ़्फ़ार ख़ान: नॉनवायलेंट बादशाह ऑफ़ द पख़्तून्स' का एक अंश।
Ghaffar Khan

बादशाह ख़ान अक्टूबर 1969 में गांधी जयंती के समय नई दिल्ली आये थे। लेकिन, गांधी की उस पुण्यतिथि के कुछ ही समय बाद, तक़रीबन चार महीने बाद काबुल लौट गये थे। बादशाह ख़ान भारत के एक ऐसे ग़ैर-मामूली राजकीय अतिथि थे, जो अपना सामान ख़ुद ही ढोते थे और अपने कपड़े खुद ही धोते थे। वह हर सार्वजनिक भाषण और कुछ निजी बातचीत में भी पूरी तरह साफ़-साफ़ और खुलकर बोलते थे।

क्षणिक आवेग के वशीभूत होकर कई भारतीयों ने बादशाह ख़ान से भारत में ही बस जाने के लिए कहा था। लेकिन,1969 में भारत की सार्वजनिक जीवन की जो हक़ीक़त थी,उससे आहत होकर बादशाह ख़ान ने इसके लिए माफी मांग ली थी। 7 अक्टूबर को उन्होंने कहा था, 'अगर मैं भारत में सौ साल तक भी रहूं, तो भी इसका कोई असर नहीं होगा। यहां किसी को इस देश या यहां के लोगों की परवाह नहीं है।'

इस बात से निराश होकर कि भारत खाने-पीने की चीज़ों का आयात कर रहा है और जापान से भी सहायता ले रहा है, उन्होंने कहा था: 'आप बोलते बहुत हैं, लेकिन काम करना नहीं जानते। ऐसा लगता है जैसे कि आप सोच रहे हों कि ताली बजाना, भाषण देना या सुनना और फ़ोटो खिंचवाना ही काम होता है। आज़ादी के 20 साल बाद भी आप छोटे-छोटे देशों से याचना कर रहे हैं, लेकिन आपको अपने ग़रीब लोगों की याद नहीं आती।'

भारत में रहते हुए भी वह या तो पाकिस्तान में लोकतंत्र की माँग करने या इस बात का ऐलान करने से नहीं हिचकिचाते थे कि वह पाकिस्तान के नागरिक हैं। पठानों की मांगों के सिलसिले में गफ़्फ़ार ख़ान ने कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता पाकिस्तान के भीतर पख़्तून की स्वायत्तता हासिल करना है।

चाहे संयोग हो या फिर इरादतन किया गया हो, गांधी शताब्दी में गांधी के अहमदाबाद सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। दिल्ली में तीन दिन तक गफ़्फ़ार ख़ान ने शांति को लेकर अनशन किया था। इसके बाद वह अहमदाबाद चले गये थे, जहां उन्होंने इस बात को लेकर (18 अक्टूबर को) निराशा जतायी थी कि 'हिंदू सिर्फ़ हिंदू इलाक़ों में ही काम करते हैं।' उन्होंने लोगों से मिन्नतें करते हुए कहा था, 'मुसलमानों के क़रीब जाइये। उन्हें बाहरी मत समझिए।'

नवंबर 1969 में वर्धा में उनसे मिलने और उन्हें सुनने के बाद इस लेखक ने बॉम्बे साप्ताहिक, हिम्मत (14 नवंबर) में लिखा था:

भारतीयों के बीच रात-दिन के हर समय खुली जगहों, मैदानों और स्टेशन प्लेटफ़ॉर्मों पर उन्हें देखने-सुनने वालों की भीड़ लगी रहती है। बादशाह ख़ान वर्धा में अपने साथ बात करने वालों की बातें ग़ौर से सुनते हैं, उनकी नज़रें उन लोगों पर ही टिकी रहती हैं। जब किसी नाई से बाल कटवाने के बाद चाय की एक ट्रे उनके पास लायी गयी, तो बादशाह ख़ान ने चाय की एक प्याली तैयार की और कहा कि इसे नाई को दे दी जाये। वर्धा में एक भाषण में उन्होंने कहा था, 'कल रात मैंने रेडियो पर सुना कि मैं अहमदाबाद छोड़ चुका हूं, मेरी इस यात्रा पर मेरा बहुत स्वागत किया गया है, और लोगों ने मुझे वर्धा में आने पर माला पहनायी है। लेकिन, रेडियो पर वह नहीं बताया गया, जो कुछ मैंने कहा था!'

संसद के दोनों सदनों के संयुक्त सत्र को 24 नवंबर को सम्बोधित करते हुए भी गफ़्फ़ार ख़ान ने साफ़-साफ़ कहा था: 'आपका राजस्व टैक्स और शराब पर लगने वाले शुल्क से आता है। आप गांधी को वैसे ही भूलते जा रहे हैं, जिस तरह आपने बुद्ध को भुला दिया है।' उन्होंने हाल में हुए दंगों से बेहाल हुए शहरों-अहमदाबाद, जबलपुर, रांची, राउरकेला, जमशेदपुर, इंदौर और मालेगांव का ज़िक़्र किया और कहा कि यह डरावना है कि किसी को भी इन दंगों को अंजाम देने या क़त्ल करने के सिलसिले में दंडित नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, 'आपके क़ानून महज़ दिखावे के लिए हैं'। कुछ ही दिन पहले राष्ट्रपति वी.वी. गिरी से अंतर्राष्ट्रीय समझ को लेकर नेहरू पुरस्कार लेते हुए उन्होंने वह बात कही, जो गुजरात में किसी मुस्लिम लड़की ने उनसे कही थी: 'मुसलमानों से कहा जा रहा है कि वे या तो देश छोड़ दें या यहां अछूतों की तरह रहें।'

उन्होंने भारत के मुसलमानों से कुरान के हवाले से बदला नहीं लेने की गुज़ारिश करते हुए कहा: 'अगर आप एक थप्पड़ से उकसाये जाने के बाद एक थप्पड़ जड़ देते हैं, फिर तो कुरान को मानने वालों और दुर्जनों के बीच फ़र्क ही क्या रह जाता है?'

जब वह इंदिरा से मिले, तो ऐसा लगता है कि उन्होंने कहा, 'आपके पिता और पटेल ने गांधीजी की पीठ के पीछे मुझे और मेरे पख़्तूनों को भेड़ियों के हवाले कर दिया था।' इंदिरा को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने बादशाह ख़ान की इस स्पष्टवादिता पर उन्हें कुछ भी नहीं कहा और बादशाह ख़ान की ज़रूरतों को पूरा करने को लेकर काबुल और पाकिस्तान के तमाम राजदूतों को निर्देश दिया। 1969 और बाद के सालों में इंदिरा में जितनी भावुकता थी, वह गफ़्फ़ार ख़ान को लेकर उससे कहीं ज़्यादा भावुक थीं। वह बादशाह ख़ान को 'उस जत्थे के एकमात्र बचे हुए शख़्स के रूप में देखती थीं, जिसने भारत को स्वतंत्रता दिलवायी थी और इस तरह, उन लोगों के चलते ही ‘उन्हें भारत का प्रधानमंत्री' बनने का मौक़ा मिला था।

बादशाह ख़ान ने भारतीय श्रोताओं को बताया कि कांग्रेस नेताओं ने अपने मार्गदर्शक को छोड़ दिया था और बंटवारे को लेकर उन्हें धोखा दिया गया। गांधी को लेकर उन्होंने आगे कहा, 'हर मुश्किल और इम्तिहान में उन्होने हमारी मदद की। उन्होंने भारतीयों में बैठे डर को साहस से बदल दिया था और पूरी दुनिया को अहिंसा दी थी। उन्हें भूलाकर हमने उन्हें नहीं, बल्कि ख़ुद को ही नुक़सान पहुंचाया है।' फ़रवरी 1970 में भारत छोड़ने से पहले गफ़्फ़ार ख़ान ने अपने सत्कार के लिए सरकार सहित सभी लोगों को धन्यवाद दिया और कहा, 'अगर मैं झूठी तारीफ़ कर दूं, फिर तो मैं दोस्त नहीं हूं।'

लेकिन, उन्होंने यह भी कहा था, 'मैंने ख़ुद को आप का हिस्सा माना है और आपको अपना हिस्सा माना है।' उनका साक्षात्कार करने के बाद डोम मोरेस ने 'इस लंबे-चौड़े बुज़ुर्ग और जादूई असर करने वाले इस पठान सरदार' के बारे में  किसी अभिशाप के शिकार वाले स्वर में उनकी उस महान सज्जनता को लेकर लिखा, जो उन्हें एक योद्धा के लबादे की तरह ढंकी रहती है' और उसमें वह एक शांतिपूर्ण और पूरी तरह से सच्ची आभा' में दिखायी देते हैं।

अगर इस समय उनके सफ़र का आख़िरी चरण सही मायने में शुरू हो गया होता, तो बादशाह ख़ान कुछ अनिर्धारित यात्रा पर ज़ोर देते। एक ऐसी ही यात्रा बॉम्बे की थी, जहां बादशाह ख़ान ने 1985 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शताब्दी समारोह में भाग लिया था। 1987 में वे फिर से भारत आये, जहां उन्हें देश का सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न दिया गया। भारत में रहते हुए उन्हें सम्मान देने का मौक़ा पाने वालों में यह लेखक भी था। उस समय यह लेखक बॉम्बे के राजभवन में लगे उस बिस्तर के पास गया था, जहां बादशाह ख़ान बैठे हुए थे; बादशाह ख़ान ने इस लेखक के माथे को चूम लिया था।

इस समय तक सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान से हट जाने का फ़ैसला कर लिया था। हालांकि सोवियत वापसी को लेकर औपचारिक जिनेवा समझौते पर अप्रैल 1988 में जाकर ही हस्ताक्षर किये जाते, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने का फ़ैसला 1986 में ही ले लिया गया था। इस पर बादशाह ख़ान ने राहत और ख़ुशी जतायी थी। 1987 की गर्मियों में उन्हें दौरा पड़ा। इसके बाद उन्होंने पेशावर के लेडी रीडिंग अस्पताल में कई बार अपना समय बिताया, जो कि अक्सर क़ैद में अपना समय बिताने वाले बादशाह ख़ान की वह आखिरी क़ैद थी। आख़िरकार तकिए ने उस थककर चूर हो चुके उनके सिर को ख़ुद पर टिकाये रखने से इन्कार कर दिया। 20 जनवरी, 1988 की सुबह 6.55 बजे अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान ने आख़िरी सांस ली।

खट्टक कबीले की ओर से उल्लेखित ऐलान के अलावा बादशाह ख़ान ने लंबे समय से चुनौती दे रही उस मौत को पूरी तरह से कभी खारिज नहीं किया था, तभी तो उन्होंने अपने परिवार से पख़्तून देश के बीचो-बीच स्थित अपने जलालाबाद घर के बगीचे में दफ़नाने के लिए कहा था। उनकी उस इच्छा को पूरा किया गया । हालांकि, अफ़ग़ान संघर्ष अब भी ख़त्म नहीं हुआ था, फिर भी काबुल सरकार और मुजाहिदीन दोनों ने इस मौक़े पर युद्धविराम का ऐलान कर दिया था।

सीमांत के शोक में डूबे लाखों शोकाकुल पख़्तूनों ने उनके ताबूत के साथ डूरंड रेखा को पार किया। पाकिस्तान के सैन्य शासक, जिया-उल हक़ (जो बाद में एक विमान दुर्घटना में मारे गये थे), और भारत के प्रधान मंत्री, राजीव गांधी (वह भी बाद में एक हिंसक मौत के शिकार हुए) भी बादशाह ख़ान के अंतिम संस्कार में मौजूद थे।

बादशाह ख़ान के पाकिस्तानी आलोचक कोरेजो ने लिखा था कि 'उत्मानज़ई से जलालाबाद तक अंतिम संस्कार का वह जुलूस इतिहास में कुछ इसी तरह की दूसरी घटनाओं के तर्ज पर दर्ज हो गयी। उन्हें मानने वालों, दोस्तों और प्रशंसकों को ले जाने वाली कारों, बसों, ट्रकों और दूसरी गाड़ियों के काफ़िलों का कोई अंत नहीं था। जलालाबाद में बेशुमार लोगों ने उन्हें आख़िरी सलाम दिया। कहा जा सकता है कि यह अमन का काफ़िला था।'

इस मंज़र को देखते हुए कोरेजो को लगा कि सिकंदर, तैमूरलंग, ग़ज़नी, ग़ोरी, बाबर और अब्दाली के ज़माने में ख़ैबर दर्रे से गुज़र रहे जुलूसों के साथ बादशाह खान के जनाज़े के इस जुलूस की तुलना में कोई नुक़सान नहीं है।

राजमोहन गांधी की पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया से प्रकाशित 'गफ़्फ़ार ख़ान:ननवायलेंट बादशाह ऑफ़ द पख़्तून्स' से अनुमति प्राप्त अंश।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

On Frontier Gandhi’s Death Anniversary, Remember his Courage to Breach Every Stereotype

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