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राजद्रोह क़ानून को निरस्त करने के लिए गांधी से जुड़ा एक मामला

मुख्य न्यायाधीश ने बिल्कुल ठीक सवाल किया है कि स्वतंत्रता सेनानियों को दोषी ठहराने के लिए इस्तेमाल में लाये जाने वाले औपनिवेशिक-युग के कानून को स्वतंत्र भारत में लागू करने की आवश्यकता क्यों है क्योंकि यह कानून तब तक कायम नहीं रह सकता है, जब तक कि औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेष मौजूद न हो।
राजद्रोह क़ानून को निरस्त करने के लिए गांधी से जुड़ा एक मामला

हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह के प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया है। इसने कुछ चुभते हुए सवाल उन लोगों के बीच खड़े किये हैं जो संविधान से सम्बद्ध हैं, जो स्वतन्त्रता, लोकतंत्र और असहमति की संस्कृति के सवालों को लेकर आंदोलित हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने नोटिस जारी करते हुए आश्चर्य व्यक्त किया है कि जिस राजद्रोह कानून को स्वतन्त्रता आंदोलन को कुचलने के लिए और लोकमान्य तिलक और महात्मा गाँधी जैसे नेताओं की आवाज को शांत करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। वह आजादी मिलने के तिहत्तर वर्षों के बाद भी क्यों आवश्यक है। उन्होंने पाया कि जहाँ एक तरफ सरकार कई पुराने कानूनों को निरस्त कर रही है। उन्हें समझ में नहीं आता कि राजद्रोह कानून उनमें से एक क्यों नहीं है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश के द्वारा राजद्रोह पर कानून को बनाये रखने के बारे में पूछताछ करना हमारे लोकतंत्र के संकट को चिन्हित करता है। वास्तव में देखें तो, यह एक संकट की स्थिति है क्योंकि यह कानून हमारे संविधान की किताब में मौजूद है और अक्सर इसे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले शासन से असहमति और आलोचना को दबाने के लिए लागू, दुरुपयोग और प्रताड़ित करने के लिए किया जाता है।

गाँधी ने कहा था कि राजद्रोह के आरोपों से कोई भी उदारवादी खुद को बरी नहीं समझ सकता  

मुख्य न्यायाधीश द्वारा पूछे गए अन्वेषी प्रश्न गाँधी के विचारों के तर्ज पर हैं, जिसे उन्होंने आज से 92 वर्ष पूर्व “निरंतर विद्यमान खतरा” नामक शीर्षक के साथ एक लेख में व्यक्त किया था और यंग इंडिया में इसे 18 जुलाई 1929 को प्रकाशित किया था। इसमें, वे पंजाब के एक स्वतन्त्रता सेनानी, सत्यपाल की कैद का उल्लेख करते हैं, जिनके ऊपर ब्रिटिश सरकार द्वारा राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। उन्होंने पाया कि धारा 124ए हर उस व्यक्ति के सामने एक तलवार की धार की तरह लटकती रहती है जो कोई भी स्वतंत्रता संग्राम में शामिल है। उन्होंने स्पष्टता से सवाल किया था “वो कौन सा भारतीय है, वो चाहे उदारवादी हो या राष्ट्रवादी, मुसलमान या हिन्दू हो, जो अन्जाने में राजद्रोह का दोषी नहीं है, यदि डॉ. सत्यपाल इसके दोषी हैं?” ये शब्द आज भी सच बने हुए हैं जब सभी उदारवादियों, हिन्दुओं और मुस्लिमों और जीवन और मान्यताओं के सभी क्षेत्रों को मानने वाले लोगों पर सरकार पर सवाल उठाने और सरकार की आलोचना करने के अपने संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करने पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा है और जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया जा रहा है। यदि वे अपनी राय व्यक्त करते हैं तो सरकार इसे जानबूझकर अपने खिलाफ असंतोष फैलाने के रूप में व्याख्यायित करती है।

यदि राजद्रोह क़ानून खत्म हुआ तो देश आज़ाद हो जाएगा

अपने इसी लेख में, गाँधी ने राजद्रोह पर कानून को निरस्त किये जाने की मांग की है। वे लिखते हैं “डॉ सत्यपाल की कैद इसलिए धारा 124ए को निरस्त करने के लिए एक व्यापक आंदोलन चलाए जाने का संकेत देती है।” जिस भावना के साथ उन्होंने 1929 में जो लिखा, वह अब राजद्रोह के प्रावधान को समाप्त करने की मांग के साथ क़ानूनी चुनौतियों के रूप में और कई अन्य वर्गों की ओर से एक मजबूत एवं निडर अभिव्यक्ति को सामने ला रही है।

यह बेहद महत्वपूर्ण है कि गाँधी ने स्पष्ट तौर पर इस बात पर जोर दिया था कि इस कानून के निरस्त होने से भारत से बर्तानवी औपनिवेशिक शासन से स्वराज या आजादी का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। उनके लिए इसे रद्द करना उतना ही महत्वपूर्ण था जितना कि ब्रिटिश शासन का खात्मा और भारत का आजादी हासिल करना।

उन्होंने जोर देकर कहा: “...उस अंश को निरस्त करने और इसी प्रकार के अन्य का अर्थ है मौजूदा शासन की प्रणाली का खात्मा, जिसका अर्थ है स्वराज की प्राप्ति।”

आंतरिक दृष्टि से देखें तो, गाँधी ने पाया कि “उस अंश को निरस्त करने के लिए जिस प्रकार के आवश्यक बल की जरूरत है, उतना ही स्वराज की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।” उनका यह आकलन बेहद चौंकाने वाला है और इसका तात्पर्य यह है कि यदि आजाद भारत में राजद्रोह के खिलाफ कानून अभी भी कायम है तो इसका मतलब है कि औपनिवेशिक शासनकाल की मानसिकता किसी न किसी स्वरुप में आज भी बरकरार है। यही कारण है कि मुख्य न्यायाधीश का यह प्रश्न पूरी तरह से वाजिब है कि औपनिवेशिक-काल का कानून जिसमें स्वतंत्रता सेनानियों को राजद्रोह जैसी गतिविधियों के नाम पर ठहराया जाता था, उसकी स्वतंत्र भारत में आज भी जरूरत क्यों बनी हुई है।

राजद्रोह क़ानून को और मज़बूती प्रदान करने की पक्षधर भाजपा  

आज अनेकों आंदोलनों एवं व्यक्तियों ने जिनमें वे भी शामिल हैं जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में क़ानूनी चुनौती दायर की हैं को एक “बल” के तौर पर देखा जा सकता है, जैसा कि गांधी राजद्रोह कानून के खिलाफ बात करते हैं। यहाँ तक कि छात्रों के द्वारा भी आज इसके खात्मे की मांग की जा रही है। ये सभी कोशिशें इस कानून को उलटने के लिए आवश्यक शक्ति को ज़ाहिर करती हैं।

2019 के आम चुनाव के दौरान, कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र में धारा 124ए को रद्द करने का वादा किया गया था। कुछ भाजपा नेताओं ने इसका विरोध यह कहते हुए किया था कि यदि वे सत्ता में चुने जाते हैं तो उनकी पार्टी इसे और कड़ा बनाएगी। तब के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने अपने बयान में कहा था कि यदि उनकी पार्टी चुनाव जीतती है तो राजद्रोह कानून को इतना सख्त बना दिया जायेगा कि इस आरोप को आमंत्रित करने का विचार मात्र भी “रीढ़ की हड्डियों में कंपकंपी उत्पन्न करने वाला साबित होगा”।

बहरहाल, राजद्रोह कानून के खात्मे को लेकर जो आवश्यक बल चाहिए वह गति पकड़ता जा रहा है। यहाँ तक कि मुख्य न्यायाधीश तक इन ताकतों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। इसके बावजूद पुरातनपंथी ताकतें जो राजद्रोह के प्रावधान का समर्थन करती हैं, वे भी मौजूद हैं। वे औपनिवेशिक दृष्टि की याद ताजा करा देती हैं जो कि इस दल की विश्वदृष्टि में गहराई से गुंथी हुई हैं जो इस कानून को और भी सख्त बनाने का वादा करती है।

इस सबके बावजूद लोकतंत्र और आजादी की चाहत से ओतप्रोत लोगों के कोलाहल और इस कानून को निरस्त करने का जज्बा एक उम्मीद जगाता है। अंततः एक औपनिवेशिक स्मृतिचिन्ह को इतिहास के कूड़ेदान में फेंका जाना तय लग रहा है। हालाँकि एक आशंका यह बनी हुई है कि कहीं इस कानून में बिना कोई व्यापक बदलाव किये ही महज कुछ छोटे-मोटे बदलावों से ही संतुष्ट न कर दिया जाये।

राजद्रोह क़ानून को संशोधित कर उसे बरकरार रखने की कोई जरूरत नहीं है

गाँधी ने 1929 में आगाह किया था कि राजद्रोह के प्रावधान को “दिखावे के लिए रद्द” किया जा सकता है, जो इसे “चोरी-छिपे रास्ते से” कायम रखने के समान है। इसे “छलावे” का नाम देते हुए उन्होंने कहा था कि यह लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकता और न ही उन्हें इससे संतुष्ट होना चाहिए।

हाल के दिनों में, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सर्वोच्च न्यायालय में इस कानून की वैधता के बचाव में इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए “कुछ दिशानिर्देशों” को प्रस्तावित किया था। यह उपर जिक्र किये गए “छलावे” का ही एक स्पष्ट उदाहरण है।

राजद्रोह के आरोप नियमित रूप से दायर किये जा रहे हैं

राजद्रोह प्रावधान अपराधों के लिए अस्पष्ट परिभाषाओं का उपयोग कर लोगों को दण्डित करता है, जैसे कि “सरकार के प्रति वैमनस्य भाव का प्रदर्शन”। इसीलिए, गाँधी ने बेहद स्पष्ट शब्दों में कहा था कि भारतवासियों को इसे निरस्त करने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन को तब तक मजबूती देनी चाहिए जबतक कि “एक ऐसी सरकार को विकसित न कर लें, जिसके प्रति हमारा सच्चा अनुराग हो, जिसे हम अपनी खुद की सरकार कह सकें।” इसके साथ ही उन्होंने जो बात कही वह आज के सन्दर्भ में बेहद मौजूं प्रतीत होती है। वह यह थी : “इसके बाद फिर राष्ट्रव्यापी स्तर पर कोई राजद्रोह नहीं होगा।”

लेकिन दुःखद बात यह है कि आजादी हासिल होने के बाद से लोगों के पास चुनी हुई सरकारें हैं, किंतु राजद्रोह कानून बरकरार है और इसके तहत पहले से कहीं अधिक निरंतरता के साथ आरोप दर्ज किये जाते हैं। इसके तहत सरकार की आलोचना या शासन के खिलाफ असहमति की ही जरूरत होती है। ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल, आर्टिकल 14 ने हाल ही में पिछले एक दशक के दौरान दर्ज किये गए राजद्रोह मामलों की पृवत्ति की पड़ताल की है। इसने खुलासा किया है कि 2014 में मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद से ऐसे मामलों के पंजीकरण में 28% की बढ़ोत्तरी हुई है, विशेषकर सरकार से असहमति रखने वालों और आलोचकों के खिलाफ मामले दर्ज किये गए हैं। इसे व्याख्यित करने की आवश्यकता है कि एक हालिया अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में भारत को “आंशिक रूप से स्वतंत्र” देश की श्रेणी में ठेल दिया गया है और एक अन्य के द्वारा इसे “निर्वाचित निरंकुश शासन” जैसे अवांछनीय टैग की पहचान से नवाजा गया है। इस गिरावट का बड़ा श्रेय (अन्य पहलूओं के साथ-साथ) शासन की आलोचना करने वालों के खिलाफ राजद्रोह के आरोपों के संवेदनहीन एवं सोचे-समझे इस्तेमाल को जाता है।  

इक्कीसवीं सदी के भारत में ब्रिटिश युग की पुनरावृत्ति  

1922 में, महात्मा गाँधी पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था और इसके लिए उन्हें छह साल की कैद हुई थी। उनका यह वाक्य काफी प्रसिद्ध हुआ था “धारा 124ए, जिसके तहत जिसपर मैं ख़ुशी-ख़ुशी आरोपी हूँ, यह शायद नागरिक की आजादी को कुचलने के लिए भारतीय दंड संहिता की राजनीतिक धाराओं में से राजकुमार के तौर पर डिजाईन किया गया है।” 7 सितंबर 1924 को नवजीवन में गांधी ने लिखा था “...सरकार की आलोचना को राजद्रोह माना जाता है और शायद ही किसी ने सच बोलने की हिम्मत की है।” ये शब्द 2021 में एक बार फिर से गूंजने लगते हैं जब सच बोलने पर अंधाधुंध तरीके से गिरफ्तारियां और राज्य की दमनकारी कार्यवाही जोर पकड़ रही है। एक बार धारा लागू हो जाने के बाद लंबे समय तक चलने वाली क़ानूनी प्रक्रियाओं में बिना मुकदमे और दोष सिद्धि के बिना भी काफी सजा हो जाती है। इस सन्दर्भ में, मुख्य न्यायाधीश की हालिया टिप्पणियाँ, जिन्होंने इस दमनकारी औपनिवेशिक-युग के कानून के बनाये रखने पर सवाल खड़े किये हैं, एक उम्मीद जगाती है।

असली स्वराज सत्ता को विनियमित करने में है

चूँकि गाँधी ने राजद्रोह के खिलाफ कानून के खात्मे के साथ स्वराज की तुलना की थी, इसलिए हमें निश्चित तौर पर उनके स्वराज की परिभाषा की समीक्षा करनी चाहिए। 1925 में उन्होंने कहा था “असली स्वराज कुछ लोगों के द्वारा सत्ता के अधिग्रहण करने से नहीं आने वाला, बल्कि सत्ता का दुरूपयोग होने पर सभी के द्वारा शासन के प्रतिरोध करने की क्षमता हासिल करने के जरिये आएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो स्वराज को हासिल करने के लिए जनता को शासन को विनियमित और नियंत्रित करने की उनकी क्षमता के अहसास को शसक्त बनाकर हासिल किया जा सकता है।

राजद्रोह के खात्मे का दूरगामी प्रभाव देखने को मिल सकता है। इससे शासन को और अधिक विनयमित और नियंत्रित किया जा सकता है और लोगों को अपनी सरकार की आलोचना करने का अधिकार देगा, और जैसा कि गाँधी ने हमेशा संस्तुति की थी, जो अंतःकरण को जगाने का काम करेगा।

लेखक भारत के दिवंगत राष्ट्रपति केआर नारायणन के प्रेस सचिव रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीच दिए गए लिंक पर क्लिक करें

A Gandhian Case to Repeal Sedition Law

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