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संसद नहीं चलने देने का इंतज़ाम तो सरकार ने पहले ही कर लिया!

प्रश्नकाल निलंबित करने के फैसले से समूचा विपक्ष नाराज़ है। सरकार को यह स्थिति खूब रास आती है, क्योंकि वह हंगामे और नारेबाज़ी के बीच बिना बहस या संशोधन के ही अपने सारे विधेयक पारित करा लेती है।
संसद

सरकार ने संवैधानिक बाध्यता के चलते संसद का मानसून सत्र बुलाया तो है लेकिन हमेशा की तरह इस सत्र के लिए इस बात का इंतजाम कर लिया है कि बिना किसी बहस और सवाल जवाब के वह बहुमत के दम पर अपने सारे ‘जरूरी’ काम निबटा सके।

दरअसल संसद के हर सत्र से पहले सरकार या भारतीय जनता पार्टी की ओर कुछ न कुछ ऐसा कर दिया जाता है, जिससे कि संसद में हंगामा शुरू हो जाता है और किसी भी महत्वपूर्ण मसले पर सार्थक चर्चा नहीं हो पाती। कई बार तो प्रश्नकाल भी हंगामे और नारेबाजी का शिकार हो जाता है। सरकार को यह स्थिति खूब रास आती है, क्योंकि वह हंगामे और नारेबाजी के बीच बिना बहस या संशोधन के ही अपने सारे विधेयक पारित करा लेती है।

यह एक पेटर्न है, जिसे संसद के अमूमन हर सत्र में देखा जा सकता है।

संसद का मानसून सत्र आमतौर पर जुलाई महीने से शुरू होकर अगस्त तक चलता है, लेकिन कोरोना महामारी की आड़ में सरकार अभी तक इस सत्र को टालते आ रही थी। चूंकि संसद के दो सत्रों के बीच छह महीने से ज्यादा का अंतराल नहीं हो सकता है और पिछला सत्र 23 मार्च को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया था, लिहाजा संवैधानिक बाध्यता के चलते सरकार ने संसद का बेहद संक्षिप्त अधिवेशन इस महीने की 14 तारीख से बुलाने का फैसला किया। 14 सितंबर से 1 अक्टूबर तक आयोजित होने वाले इस सत्र में सरकार को लगभग एक दर्जन उन अध्यादेशों पर संसद की मंजूरी की मुहर लगवानी है, जो पिछले पांच महीने के दौरान जारी किए गए हैं। इसके अलावा कुछ मंत्रालयों से संबंधित और विधेयक हैं, जिन्हें सरकार इस सत्र में पारित कराएगी।

इस सत्र की एक खास बात यह भी होगी कि इसमें प्रश्नकाल नहीं होगा। यानी सदस्य सरकार से किसी भी मामले में कोई जानकारी नहीं मांग सकेंगे।

देश की सीमाओं पर पड़ोसी देशों के चल रहे तनाव, देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, लगातार बढ रही बेरोजगारी और कोरोना महामारी से निबटने में सरकार की नाकामी जैसे लोक महत्व के किसी ज्वलंत मसले पर भी शायद कोई चर्चा नहीं हो सकेगी। कहा जा सकता है कि महज संवैधानिक खानापूर्ति के लिए ही यह सत्र बुलाया जा रहा है।

संसद के दोनों सदनों के सचिवालय की ओर से जारी अधिसूचना के मुताबिक कोरोना महामारी के मद्देनजर संसद के इस सत्र में प्रश्नकाल नहीं होगा। सरकार के सुझाव पर राज्यसभा और लोकसभा सचिवालय ने प्रश्नकाल को निलंबित रखने का फैसला किया है। इसके अलावा इस सत्र में कोई गैर सरकारी विधेयक भी नहीं लाया जा सकेगा। यानी इस सत्र में राष्ट्रीय महत्व के तमाम मसलों पर सरकार जवाबदेही से पूरी तरह मुक्त रहेगी। उसे विपक्ष के किसी भी सवाल का सामना नहीं करना पडेगा और वह सभी विधायी कार्य लोकसभा में अपने बहुमत के बूते संपन्न करा लेगी। हालांकि राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं है, लेकिन इसके बावजूद वहां भी उसे अपना कार्य पूरा कर लेने की 'कला’ आती है।

प्रश्नकाल निलंबित करने के फैसले से समूचा विपक्ष नाराज है। सरकार की ओर से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने रूस यात्रा पर रवाना होने से पहले कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल आदि पार्टियों के नेताओं से इस मसले पर बात की थी। लेकिन वे भी इस मसले पर विपक्ष की नाराजगी दूर नहीं कर पाए हैं। जाहिर है कि संसद सत्र में पहले दिन से ही टकराव होगा। विपक्षी दल दोनों सदनों में प्रश्नकाल निलंबित रखने को मुद्दा बनाएंगे। ऐसी स्थिति सरकार को बहुत रास आती है, क्योंकि ऐसे में विपक्षी दल या तो वॉकआउट कर जाते हैं या फिर नारेबाजी करते रहते हैं। इसके अलावा सभापति और स्पीकर के पास हंगामा कर रहे सदस्यों को सदन की कार्यवाही से निलंबित करने का अधिकार भी है, जिसका इस्तेमाल करने में मौजूदा सभापति और स्पीकर जरा भी संकोच नहीं करते हैं।

दरअसल प्रश्नकाल को संसदीय व्यवस्था की आत्मा कहा जा सकता है। संसद में ज्यादातर समय पार्टी लाइन पर बहस चलती है, लेकिन प्रश्नकाल में दृश्य अलग होता है। इस दौरान सांसद अपने तारांकित प्रश्नों में सरकारी तंत्र के कामकाज से जुड़े सवाल पूछते हैं। अपने सवाल के सरकारी जवाब से संतुष्ट न होने पर दो पूरक प्रश्नों के जरिए सरकार को स्पष्ट जवाब देने के लिए मजबूर करते हैं। इस दौरान अक्सर पार्टी लाइन भी धुंधली होती नजर आती है। जब-तब अपने पक्ष के ही सांसदों के सवालों से घिर जाने पर सरकार की बड़ी किरकिरी होती है। भारतीय संसद के इतिहास में यह पहला मौका है जब प्रश्नकाल को पूरे सत्र में निलंबित रखने का फैसला हुआ है।

बहरहाल, सरकार ने संसद के मानसून सत्र में जिस तरह कोरोना महामारी के बहाने प्रश्नकाल और गैर सरकारी विधेयक पेश किए जाने के प्रावधान को स्थगित रखने का फैसला किया है, उससे यही साबित हो हुआ है कि भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां सरकार ने कोरोना महामारी के इस दौर में जनता को उसके हाल पर छोडकर इस आपदा को अपने लिए मनमानी का एक अवसर बना लिया है। इस अवसर के तहत लोकतंत्र को एक तरह से निलंबित कर दिया गया है। संसद और उससे जुडी समूची संसदीय गतिविधियां पिछले पांच महीने से पूरी तरह ठप है। सरकार अध्यादेश के जरिए मनमाने फैसले ले रही है, जनविरोधी कानून बना रही है। लोगों के कई नागरिक अधिकार परोक्ष रूप से छीन लिए गए हैं।

कोरोना संक्रमण के बहाने लोक महत्व के मसलों पर संबंधित संसदीय समिति की बैठकें तक नहीं होने दी जा रही हैं। सरकार की सुविधा को ध्यान में रखते हुए अब जिन कुछ संसदीय समितियों की बैठक की अनुमति दी भी गई है तो राज्यसभा के सभापति और लोकसभा के अध्यक्ष ने फरमान जारी कर दिया है कि इन समितियों की बैठक में होने वाली चर्चाओं को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता और समिति का जो सदस्य ऐसा करेगा उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। सख्त कार्रवाई यानी विशेषाधिकार हनन का मामला चला कर उस सदस्य को संसद से निष्कासित किया जा सकता है।

कोरोना महामारी की आड़ में इन सारी अलोकतांत्रिक कारगुजारियों पर न्यायपालिका तो आश्चर्यजनक चुप्पी साधे हुए है ही, मुख्यधारा का मीडिया भी खामोश है। विपक्षी दलों या नागरिक समूहों की ओर से कोई आवाज उठ भी रही है तो उसे यह कह कर दबाने की कोशिश हो रही है कि ऐसे मामलों में राजनीति नहीं की जानी चाहिए। राजनीति न करने की नसीहत सिर्फ टीवी चैनलों पर आने वाले डिजाइनर राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं दे रहे हैं, बल्कि वे लोग भी दे रहे हैं जो राजनीति के जरिए ही इस समय बड़े संवैधानिक पदों पर पहुंचे हुए हैं। सवाल है कि ऐसे मामलों पर राजनीति की जा सकती तो फिर राजनीति कैसे मामलों पर होनी चाहिए?

गौरतलब है कि राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने पिछले दिनों सूचना एवं तकनीक मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति दो सदस्यों के बीच हुई बहस की खबर मीडिया में आने पर नाराजगी जताते हुए सभी संसदीय समितियों के अध्यक्षों को पत्र लिख कर कहा है कि समितियों की बैठक में उठने वाले विषय बेहद गोपनीय होते हैं, लिहाजा उन्हें किसी भी सूरत में सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। पत्र में कहा गया है कि इस निर्देश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का मामला चलाया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की संसदीय समिति ने दो सप्ताह पहले फेसबुक प्रतिनिधियों को समन जारी कर समिति के समक्ष पेश होने का निर्देश दिया है। फेसबुक पर कुछ भाजपा नेताओं के सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले बयानों को नजरअंदाज करने का गंभीर आरोप है। अमेरिकी अखबार 'वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के जरिए यह मामला सामने आने के बाद भाजपा के कई नेता और यहां तक कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद भी खुल कर फेसबुक के बचाव में आए हैं, जबकि फेसबुक की भारत स्थित जिस अधिकारी पर यह आरोप है, उसने अपनी गलती कुबूल करते हुए माफी मांग ली है।

फेसबुक के जरिए सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाली गतिविधियों के प्रति उदासीनता बरतने अथवा ऐसी गतिविधियों को संरक्षण देने का मामला चूंकि बेहद गंभीर है, लिहाजा इस पर विचार करने के लिए सूचना एवं प्रौद्योगिकी मामलों की संसदीय समिति की बैठक दो सितंबर को बुलाई गई थी। इस समिति में शामिल भाजपा के सदस्यों ने पहले तो समिति की बैठक बुलाए जाने का विरोध किया और जब बैठक अधिसूचना जारी हो गई तो बैठक के एजेंडा में शामिल विषयों पर आपत्ति जताई गई। कहा गया कि जम्मू-कश्मीर में बंद इंटरनेट सेवा का मसला बैठक में नहीं उठाया जा सकता। बैठक में फेसबुक प्रतिनिधियों को तलब किए जाने का भी विरोध किया गया। समिति के सदस्य और भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने तो इस सिलसिले में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को पत्र लिखकर शशि थरुर को समिति के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग ही कर डाली।

सवाल है कि जब सरकार यह दावा कर रही है कि जम्मू-कश्मीर में हालात बिल्कुल सामान्य हैं तो फिर सामान्य हालात में वहां इंटरनेट सेवा बाधित करने का क्या औचित्य है? वहां के बाशिंदों को इंटरनेट सेवा निर्बाध रूप से क्यों नहीं मिलना चाहिए और इस मसले पर संसदीय समिति की बैठक में चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए? इसी तरह सवाल है कि देश में फेसबुक के जरिए सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने वालों और उनका सहयोग करने वाले फेसबुक अधिकारियों से जवाब तलब क्यों नहीं होना चाहिए और भाजपा के नेता इस तरह की आपराधिक मानसिकता वाले अपनी पार्टी के लोगों और फेसबुक अधिकारियों का बचाव क्यों कर रहे हैं?

भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के पत्र लिखे जाने के बाद लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा संसदीय समितियों के अध्यक्ष को पत्र लिखकर समितियों की बैठकों की कार्यवाही को गोपनीय बनाए रखने संबंधी निर्देश जारी किया जाना यह बताता है कि पारदर्शिता से परहेज सिर्फ सरकार को ही नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था यानी संसद के दोनों सदनों के मुखिया भी जाने-अनजाने इस काम में सरकार की मदद कर रहे हैं।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि राज्यसभा के सभापति और लोकसभा अध्यक्ष कुछ दिनों पहले तक तो इन समितियों की बैठक आयोजित करने की अनुमति भी नहीं दे रहे थे। गौरतलब है कि हमारे यहां विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित 24 स्थायी संसदीय समितियां हैं, जिनमें से इस समय 20 समितियों के अध्यक्ष सत्तारूढ दल के सांसद हैं। संसद के प्रति सरकार की उदासीनता को देखते हुए सत्तारूढ़ दल के सांसदों ने भी अपनी अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों की बैठक आयोजित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जिन विपक्षी सांसदों ने अपनी अध्यक्षता वाली समितियों की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बुलाने की पहल की थी, उन्हें भी राज्यसभा और लोकसभा सचिवालय ने रोक दिया था।

राज्यसभा में कांग्रेस के उप नेता आनंद शर्मा गृह मंत्रालय सें संबंधित मामलों की संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं। वे तीन महीने से अपनी अध्यक्षता वाली समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए करना चाह रहे थे पर राज्यसभा सचिवालय की ओर से अनुमति नहीं मिल रही थी। इसी तरह सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसदीय समिति के अध्यक्ष शशि थरुर ने भी अपनी समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए कराने की अनुमति मांगी थी, जो लोकसभा सचिवालय से नहीं मिली। दोनों सदनों के सचिवालयों की ओर से दलील दी गई कि संसदीय समिति की बैठकें गोपनीय होती हैं, लिहाजा वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बैठक करना नियमों के विरुद्ध है। अभी भी इन संसदीय समितियों की बैठक की अनुमति महज इसलिए दी गई है, क्योंकि अब संसद का मानसून सत्र बुलाया गया है।

कोरोना महामारी की आड़ में सरकार की लगातार बढ़ रही मनमानी कारगुजारियां और संसद तथा संसदीय गतिविधियों को इस तरह महत्वहीन बनाया जाना इस बात का संकेत है कि हमारा लोकतंत्र खतरे में है और देश गंभीर संकट की तरफ बढ़ रहा है।

कोरोना महामारी की आड़ में संसद और संसदीय गतिविधियों को जिस तरह महत्वहीन बनाया जा रहा है, उससे मशहूर इजराइली इतिहासकार और दार्शनिक युवाल नोहा हरारी की छह महीने पहले की गई भविष्यवाणी की याद आना स्वाभाविक है। उन्होंने फरवरी महीने में ब्रिटेन के अखबार फाइनेंशियल टाइम्स में अपने अपने एक लेख के जरिए भविष्यवाणी की थी कि कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर में लोकतंत्र सिकुड़ेगा, अधिनायकवाद बढ़ेगा और सरकारें अपने आपको सर्वशक्तिमान बनाने के लिए नए-नए रास्ते अपनाएंगी और खौफनाक सर्विलेंस राज की शुरुआत होगी। उनकी यह भविष्यवाणी दुनिया के किसी और देश में तो नहीं, लेकिन दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र कहे जाने वाले देश भारत में जरूर हकीकत में तब्दील होती दिख रही है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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