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मनरेगा के मज़दूरों को एससी/एसटी/अन्य श्रेणियों में बांटने की सरकार की कोशिश सामयिक भुगतान पर असर डाल सकती है

जब भी भुगतान के तौर-तरीकों में बदलाव किया गया, तब-तब श्रमिकों को भुगतान की प्रणाली में 'शुरुआती परेशानियों' का सामना करते हुए विलंबित वेतन भुगतान का खामियाजा भुगतना पड़ा है।
मनरेगा के मज़दूरों को एससी/एसटी/अन्य श्रेणियों में बांटने की सरकार की कोशिश सामयिक भुगतान पर असर डाल सकती है
छवि सौजन्य :बिजनेस टुडे 

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने बगैर किसी विचार-विमर्श के इस साल दो मार्च को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अधिनियम (मनरेगा) के तहत किए जाने वाले मजदूरी के भुगतान को विभिन्न श्रेणियों-अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य वर्ग को अलग-अलग खांचे में दर्ज करें। मंत्रालय ने इस निर्देश की कोई वजह भी नहीं बताई। 

मनरेगा संघर्ष मोर्चा,  पूरे देश में संगठनों और निजी समूहों का मुख्य संगठन है। इसने श्रमिकों को इन श्रेणियों में विभाजित करने के कदम का विरोध किया है और इस बारे में ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र तोमर को एक पत्र लिखकर इस “एडवाइजरी” को तुरंत प्रभाव से वापस लेने की मांग की है। 

कामगारों को उन श्रेणियों में बांटे जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि इस श्रेणी में भी सभी समान मजदूरी ही पाते हैं। विगत में भी हर बार भुगतान का तरीका बदलते रहने से मजदूरी मिलने में देरी हो जाती रही है, जिसका खामियाजा मजदूरों को उठाना पड़ता है। आज से 12 साल पहले ही यह व्यवस्था बनाई गई थी कि मजदूरी का नकदी भुगतान काम की साइट पर न कर, मजदूरों के सीधे बैंक खाते के जरिए किया जाएगा। यह भी नियम बनाया गया कि काम खत्म होने के 15 दिन बाद मजदूरी का भुगतान कर दिया जाएगा। लेकिन इतने दिनों के बाद भी इस नियम का पालन नहीं किया जा रहा है। केंद्रीय मंत्री को भेजे पत्र में मोर्चा ने लिखा है,“समय की मांग है कि मजदूरी के भुगतान की प्रणाली को फिर से जटिल न बनाया जाए बल्कि इसे सरल बनाया जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि मजदूरों को तय समय पर और उचित मजदूरी मिल जाए।” 

मनरेगा संघर्ष मोर्चा के देवमाल्य नंदी ने कहा, “मैं सरकार के इस कदम का कोई फायदा नहीं देखता हूं, सिवाय पहले से ही चली आ रही भुगतान की जटिल प्रक्रिया को और जटिल बनाने के। ऐसे में ग्राम सभा अवश्य ही इस स्कीम के लिए योजना प्रक्रिया का नेतृत्व करना चाहिए। पहले से ही, भुगतान को महीने भर रोक दिया जाता रहा है।”

ग्रामीण विकास मंत्रालय जबकि इस स्कीम में काम करने वाले एससी/ एससी/ महिला कामगारों के आंकड़े अलग-अलग रखता है, पर भुगतान का तरीका सभी के लिए समान है। इस मसले पर शोध करने वाले इनके आंकड़ों को मनरेगा की वेबसाइट पर देख सकते हैं। 

राजस्थान में बजट विश्लेषण अनुसंधान केंद्र के निसार अहमद ने कहा, “शोध-अनुसंधान और योजनाएं बनाने के मकसद से मंत्रालय मजदूरों का अलग-अलग डेटा रख सकता है। हालांकि, मैं नहीं समझता कि इसको भुगतान के तरीके में शामिल किए जाने की जरूरत है। यह सिर्फ भुगतान को विलंबित करेगा और मजदूरों पर खराब असर डालेगा।”

1970 के दशक में योजना आयोग के तत्वावधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति उप योजना लागू की गई थी। इसका मकसद जनसंख्या के अनुपात में तरक्की के रास्ते में पीछे छूट गए इन प्रतिनिधित्व समुदायों का विकास करना था। यह सुनिश्चित करने के लिए इस मद में आवंटित राशि किसी अन्य काम में न खरच दी जाए, केंद्र सरकार ने 2006 में, घोषणा की कि ये आवंटन असमापक  (non-lapsable) और अपरिवर्तनीय (non-divertable) होंगे। हालांकि यह व्यवस्था भी 20017-18 में योजना और गैर योजना बजट के खत्म होने के बाद छिन्न-भिन्न हो गई। 

एससी और एसटी समूहों के किसी भी मामले में सरकार ने उनकी वास्तविक जरूरतों की तुलना में अपनी व्यय-राशि घटा दी है। दलित मानवाधिकार के लिए राष्ट्रीय अभियान ने दो वर्ष पहले दलित और आदिवासियों के लिए बजट अनुमानों पर आधार पर एक विश्लेषण किया था। इसने 2014 से 2019 के बीच नीति-निर्देशिका के आधार पर अपेक्षित आवंटन की गणना की थी। इसने पाया कि इस अवधि के लिए एससी के लिए आवश्यक राशि 6.2 लाख करो़ड़ थी जबकि सरकार ने उसकी आधी रकम  महज 3.1 लाख करोड़ ही आवंटित किए थे। एससी आबादी देश की सकल आबादी का 16 प्रतिशत है लेकिन केंद्रीय योजनाओं या केंद्र प्रायोजित स्कीमों में की महज 8 फीसद ही इस कोटि की आबादी को आवंटित की जाती है। 

अनुसूचित जनजातियों के लिए 2014-19 के बीच अपेक्षित आवंटन 3.28 लाख करो़ड़ रुपये था जबकि सरकार का वास्तविक आवंटन महज दो लाख करोड़ था, जो मांग का मात्र 60 फीसद था। एसटी आबादी देश की सकल जनसंख्या की 8 फीसदी है, जबकि उनके लिए आवंटन कुल व्यय का महज 5 फीसदी था। इस नाम मात्र के आवंटन के बाद भी वास्तविक खर्च बहुत ही कम है। 

मनरेगा के भुगतान को एससी/एसटी कोटियों में बांटने का लाभ सरकार को शायद यह होगा कि वह इन समूहों पर अधिक व्यय किए जाने का दावा करेगी। 

मनरेगा के लिए 2021 के केंद्रीय बजट के तहत 73,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है; इसके पहले साल में 61,500 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था। शहरी केंद्रों से बड़े पैमाने पर मजदूरों के पलायन से गांवों में काम की मांगों में बढ़ोतरी के बाद मनरेगा के अंतर्गत अतिरिक्त 40,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इसलिए 2021 के बजट में मनरेगा के लिए दोनों आवंटनों को मिलाकर भी यह राशि पहले वर्ष के आवंटन की तुलना में कम है, जबकि क्षेत्रीय तालाबंदी लगातार जारी है और मई महीने में बेरोजगारी की दर बढ़कर 14 फ़ीसदी हो गई है। 

मौजूदा वित्तीय वर्ष के 2 महीने में ही 36 हजार घर-परिवारों ने मनरेगा के तहत पूरे साल भर में 100 दिन काम मिलने का कोटा पूरा कर लिया है। 2020-21 मई 72 लाख घर परिवारों ने इस स्कीम के तहत निर्धारित 100 दिन के काम को पूरा किया था, जिसमें हर रोज ₹200 रुपये की मजदूरी मिलती है। 2021 की शुरुआत में ऐसी रिपोर्ट है कि मजदूरों को मनरेगा के तहत तभी काम दिया जाता है जब अन्य विकल्प समाप्त हो जाते। 

 यह याद रखना उचित होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फरवरी 2015 में संसद में कहा था कि उनकी राजनीतिक सूझबूझ की निशानी होगी मनरेगा को जीवित रखना। यह स्कीम कांग्रेस पार्टी की विफलता की लगातार याद दिलाती है,  जिसने आजादी के इतने  दशकों बाद भी गरीबों से गड्ढा खुदवाने का काम जारी रखे हुई है। 

कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने केंद्र की ताजा एडवाइजरी का विरोध किया है। उन्होंने कहा, मैं भारत का पहला पंचायती राज मंत्री हूं, जो मनरेगा स्कीम की शुरुआत के समय मौजूद था। इस हैसियत से मैं विरोध-पत्र का समर्थन करूंगा।”

ग्रामीण विकास मंत्रालय  के सचिव एनएन सिन्हा वीडियो कांफ्रेंसिंग में व्यस्त थे और उन्होंने इस रिपोर्टर के फोन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। सरकार के इस फैसले के कारणों के बारे में उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर खबर में संशोधन किया जाएगा।  

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Govt’s Bid to Divide NREGA Wages into SC/ST/Others Categories May Affect Timely Payment

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