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गुजरात चुनाव : राज्य में 2017 से वन अधिकारों के नए दावों का नहीं हुआ निपटान

चुनाव प्रचार के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आदिवासी समुदायों की बुरी दशा के लिए भाजपा के अलावा अन्य सभी सरकारों को दोषी ठहराया।
FRA

नई दिल्ली: भले ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 2017 के विधानसभा चुनावों में गुजरात के आदिवासी बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में खराब प्रदर्शन किया हो, लेकिन लगता है भाजपा ने पिछले पांच वर्षों में अब तक आदिवासी समुदायों के अधिकारों के दावों के निपटान मामले में कोई सबक नहीं लिया है। केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, 2017-2022 के बीच गुजरात में भाजपा के शासन के दौरान वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत दावों/अधिकारों के निपटान के लिए कोई नया दावा हासिल नहीं हुआ।

जून 2017 तक, अधिनियम के लागू होने की तारीख से व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों अधिकारों के निपटारे के मामले में गुजरात सरकार को प्राप्त कुल दावों की संख्या 1,90,056 थी। जून 2022 तक उपलब्ध नई रिपोर्ट से पता चला कि यह आंकड़ा अभी भी 1,90,056 पर अटका है! इस विशेष अवधि के दौरान अन्य सभी राज्यों में 2.75 लाख से अधिक नए आवेदन हासिल हुए हैं।

इसी तरह, 2017-2022 के दौरान, व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों दोनों के संदर्भ में, गुजरात सरकार द्वारा वितरित भूमि के टाइटल की कुल संख्या 11,624 थी। इसके विपरीत, इस अवधि के दौरान अन्य सभी राज्यों में 4.30 लाख से अधिक भूमि के टाइटल वितरित किए गए। जुलाई 2022 तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, लगभग 34,500 दावे (या प्राप्त दावों का 18 प्रतिशत) राज्य सरकार के विभिन्न स्तरों पर गुजरात में निपटान के लिए लंबित पड़े हैं। जबकि, गुजरात में प्राप्त दावों में से 31 प्रतिशत दावों को खारिज कर दिया गया है।

आजम दानिश, दिल्ली स्थित एक स्वतंत्र शोधकर्ता ने मुताबिक, दावों की अस्वीकृति की ऊंची दर और लंबित पड़े दावों का उनकी आजीविका के लिए बने वनों और वन संसाधनों पर निर्भर समुदायों पर बहुमुखी प्रभाव पड़ता है। इसमें लघु वन उपज के संग्रह और विपणन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, चरागाह भूमि का नुकसान होता है और जो एक अन्य मुद्दा है अवह यह कि वन विभाग इन गतिविधियों का अपराधीकरण कर देता है।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय सहित देश की विभिन्न अदालतों ने आदिवासी समुदायों के हितों की रक्षा के लिए गुजरात सरकार की पहल और ड्राइव की कमी पर नाराजगी जताई है। अतीत में खारिज किए गए दावों की समीक्षा के लिए गुजरात सरकार जिस तरह से न्यायपालिका के निर्देशों को लागू कर रही है, उसमें पारदर्शिता की कमी है। जो गुजरात में वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन की स्थिति को दर्शाती है।

अधिनियम/कानून - जिसे अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम के रूप में जाना जाता है - 2006 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन केंद्र सरकार संसद में लाई थी ताकि वन भूमि पर रहने वाले आदिवासियों और अन्य पारंपरिक समुदायों के अधिकारों को मान्यता दी जा सके, जो अपनी आजीविका के लिए इसके संसाधनों पर निर्भर हैं।

मई 2013 में, गुजरात उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को राज्य के 13 जिलों के अस्वीकृत किए गए वन अधिकारों के दावों की दोबारा से समीक्षा करने का निर्देश दिया था। जबकि, संबंधित ग्राम सभाओं ने अनुमोदन स्वीकार कर लिए थे लेकिन फिर भी दावों को खारिज कर दिया गया। उच्च न्यायालय का फैसला कुछ जनहित याचिकाओं के आधार पर आया था, जिनमें आरोप लगाया गया था कि गुजरात सरकार वन अधिकार अधिनियम, 2006 के प्रावधानों को लागू करने में ढिलाई बरत रही है, जबकि राज्य की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों की संख्या लगभग 14.75 प्रतिशत है। 

याचिकाकर्ताओं के अनुसार, गुजरात सरकार ने अब तक प्राप्त 1.82 लाख दावों में से 1.13 लाख दावों को खारिज किया है। इनमें से, लगभग 45,000 दावों को खारिज कर दिया गया क्योंकि दावों को हासिल करने के लिए कम से कम दो साक्ष्य, चाहिए जैसा कि गुजरात में कानून के तहत जरूरी है, जिन्हे दावेदारों प्रस्तुत नहीं कर सके थे। गुजरात सरकार ने माना कि इन दावों को उपग्रह इमेजरी समर्थन नहीं करती है। 

सैटेलाइट इमेजरी अध्ययन गुजरात सरकार ने, गांधीनगर स्थित भास्कराचार्य इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस एप्लीकेशन एंड जियो-इंफॉर्मेटिक्स (बीआईएसएजी) से इसे         प्रमाणित कराया था, जो एक राज्य स्तरीय एजेंसी है जो भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी में सेवाएं और समाधान प्रदान करती है। उच्च न्यायालय ने अन्य निर्देशों के साथ-साथ राज्य सरकार को बीआईएसएजी के अलावा अन्य स्रोतों से प्राप्त नक्शों और छवियों के आधार पर खारिज किए गए दावों की जांच करने को कहा था।

हालाँकि, नवंबर 2020 में, गुजरात स्थित एक एनजीओ, एक्शन रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ एंड डेवलपमेंट ने एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें आरोप लगाया गया कि वन अधिकारों के लिए 1.28 लाख दावों पर, उच्च न्यायालय के आदेश जारी करने के लगभग सात साल बाद तक राज्य सरकार से इनदावों के निपटान का इंतजार करते रहे।  

इसी तरह, न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा (अब सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने फरवरी 2019 में एक आदेश जारी किया, जिसमें सभी राज्य सरकारों को विभिन्न आधारों पर खारिज किए गए वन अधिकारों के दावों की समीक्षा करने का निर्देश दिया गया था।

उपरोक्त आदेशों के बावजूद, गुजरात सरकार राज्य में वन अधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधानों को लागू करने के मामले में पूरी तरह से पारदर्शी नहीं रही है। अस्वीकृत दावों की समीक्षा में पारदर्शिता की कमी ने वन/देहाती समुदायों को भी प्रभावित किया है, जाबकी गुजरात में औद्योगिक इस्तेमाल के लिए निजी कॉर्पोरेट संस्थाओं को सरकारी भूमि को बड़े पैमाने दिया गया है।

"वन/देहाती समुदायों को अपनी सामान्य चरागाह भूमि के निजीकरण और अपनी आजीविका गतिविधियों के लिए अवसरों के नुकसान का अनुभव किया है। गुजरात में बन्नी की बहुतायत है, जो एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों में से एक है, और इसे पारंपरिक रूप से इसके वन/देहाती समुदायों द्वारा पोषित और संरक्षित किया जाता है। बन्नी में समुदायों के लिए सीएफआर [सामुदायिक वन अधिकार] अधिकार अस्पष्ट रहे हैं, क्योंकि सीएफआर दावों पर टाइटल नहीं दिए गए हैं। अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि महत्वपूर्ण चरागाह पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण पर इसका प्रतिकूल दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है।

गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र क्षेत्रों में स्थानीय कार्यकर्ताओं का दावा है कि राज्य सरकार ने बन्नी इलाके में रहने वाले समुदायों द्वारा 2014 से दर्ज किए गए 47 दावों को अभी तक भूमि का टाइटल नहीं दिया है। लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी द्वारा संसद में रखे गए एक प्रश्न के जवाब में, जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 25 जुलाई, 2022 को एक लिखित उत्तर के माध्यम से निम्नलिखित सूचना दी थी:

“… गुजरात सरकार ने सूचित किया कि कच्छ जिले के भुज तालुका के बन्नी क्षेत्र के 55 गांवों में, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति का गठन किया गया है ( संक्षेप में एफआरए)। इन गांवों में अब तक कोई भी एफआरए  का दावा पारित नहीं किया गया है। 47 सामुदायिक दावों को उप-मंडल स्तर की समिति के स्तर पर स्वीकृत किया गया है और मंजूरी के लिए जिला स्तरीय समिति के पास लंबित पड़ा है।

गुजरात के कार्यकर्ताओं और सामाजिक संगठनों ने आरोप लगाया है कि अनुसूचित जनजातियों के अलावा अन्य पारंपरिक वन-निवास समुदायों के दावों को निपटाने में राज्य सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड कहीं अधिक निराशाजनक है। 2017-2022 के बीच मात्र 1,081 सामुदायिक अधिकार टाइटल ही वितरित किए गए हैं।

सौराष्ट्र क्षेत्र में बड़ी संख्या में वन/देहाती समुदाय हैं, जिनमें रब्बारी, चरण और भरवार समुदाय भी शामिल हैं। कच्छ इलाके में वन/देहाती समुदाय हैं जो पारंपरिक रूप से अपनी आजीविका के स्रोत के रूप में तटीय मैंग्रोव में खराई ऊंटों के झुंड पर निर्भर हैं। इनमें से कई समुदायों ने वन भूमि पर दावों के लिए आवेदन किया है, लेकिन ये विभिन्न स्तरों पर लंबित हैं,” भुज स्थित एनजीओ सहजीवन के रमेश भट्टी ने उनके बाते बताईं, जो पर्यावरण, पारिस्थितिकी और आदिवासी अधिकारों के क्षेत्र में काम करते हैं। 

यहां तक कि पारंपरिक रूप से गुजरात के तट पर प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समुदाय, वन अधिकार अधिनियम के तहत अपने दावों के निपटारे का इंतजार कर रहे हैं, गुजरात में भाजपा के पिछले कुछ दशकों के शासन के भूमि के बड़े हिस्से, विशेष रूप से कच्छ की खाड़ी और कैम्बे की खाड़ी के में  औद्योगिक विकास के लिए भूमि को मोड़ दिया गया है। 

फिर भी, चुनावी प्रचार के दौरे पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचमहल जिले के जम्बुघोड़ा में कहा कि कांग्रेस सहित पिछली सरकारों ने आदिवासी क्षेत्रों के "सर्वांगीण विकास" की उपेक्षा की थी। उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदायों के कल्याण के लिए विशेष रूप से समर्पित एक मंत्रालय का गठन पहली बार तब किया गया था जब दिवंगत भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे। अपने अभियान के दौरान, मोदी ने राज्य में आदिवासी समुदायों के लाभ के लिए शुरू की गई कई विकास परियोजनाओं को सूचीबद्ध किया।

जून 2017 के बाद से गुजरात में वन अधिकारों के निपटान के लिए कोई नया दावा क्यों दायर नहीं किया गया है, इस बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए गुजरात के जनजातीय विकास विभाग को प्रश्नों का एक पुलिंदा ईमेल किया गया था लेकिन इस लेख के लिखे जाने तक, इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं मिला है। जब भी हमें जवाब मिलेगा, इस लेख को अपडेट कर दिया जाएगा।

भाजपा आगामी गुजरात विधानसभा चुनाव, राज्य में अपने 23 साल के बेरोकटोक शासन का बचाव करने के लिए लड़ेगी, जिसके लिए मतदान दिसंबर की शुरुआत में दो चरणों में होगा। इसने 2017 के विधानसभा चुनावों में कुल 99 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन अनुसूचित जनजाति समुदायों के सदस्यों के लिए राज्य में आरक्षित 27 सीटों में से केवल 9 सीटें हासिल करने में सफल रही थी। 2012 में हुए पिछले चुनावों की तुलना में इसकी सीटों की संख्या 16 कम हुई थी। हालांकि, कांग्रेस ने अपनी सीट हिस्सेदारी में 2012 के चुनावों में 61 से 2017 के चुनावों में 77 तक की वृद्धि की थी, मुख्य रूप से वह ऐसा इसलिए कर पाई क्योंकि आदिवासी समुदायों में वह बेहतरीन प्रदर्शन कर पाई थी- और अपने वर्चस्व वाले निर्वाचन क्षेत्रों में उसने 27 में से 15 सीटों पर जीत हासिल की थी।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Gujarat Elections: No new Claims for Settlement of Forest Rights in the State Since 2017

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