Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

कैसे अमेरिका का अफ़ग़ानिस्तान में खड़ा किया गया 20 साल का झूठ भरभरा कर ढह गया?

सबसे गहरी सच्चाई तो यही है कि भले ही अमेरिकी राष्ट्रपति कुछ भी कहें कि उन्होंने अफगानिस्तान की कई स्तर पर मदद की। लेकिन हकीकत यह है कि बम, बारूद, गोली और सेना के बलबूते समाज को नहीं बदला जा सकता। समाज के रसूखदारों को पैसा खिलाकर समाज पर कब्जा किया जा सकता है लेकिन उसे बदला नहीं जा सकता। अमेरिका ने पिछले 20 साल में यही काम किया है।
afgan

ट्राईकॉन्टिनेंटल सोशल इंस्टीट्यूट के रिसर्च निदेशक और इतिहासकार विजय प्रसाद कहते हैं कि 20 साल के बाद तालिबान फिर से काबुल पर हुकूमत करने जा रहा है। अल कायदा के जो सदस्य अफगानिस्तान की जेलों में बंद थे, उन्हें रिहा कर दिया गया है। क्या इसे टाला जा सकता था? निश्चित तौर पर नहीं। अमेरिका अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने से जुड़े किसी मिशन पर नहीं था। इस तरह की बातों में किसी को भी भटकना नहीं चाहिए। आप बंदूक और बम के सहारे काम करने वाली सेना के बलबूते किसी समाज को बदल नहीं सकते। अफगानी सरदारों को करोड़ों रुपए की घूसखोरी की आदत डाल कर समाज नहीं बदला जा सकता। अमेरिका ने किसी भी तरह के व्यापक स्तर पर मजबूत बुनियादी ढांचे का विकास नहीं किया। ऐसा प्रोजेक्ट खड़ा नहीं किया, जिसका अफगानिस्तान के लोगों पर बड़ा असर हो। इसलिए गरीबी, बेकारी और निरक्षरता की दर हमेशा बहुत ऊंची रही। 20 साल की मारामारी में अमेरिका की तरफ से तकरीबन 2.4 ट्रिलियन डॉलर खर्च हुए। तकरीबन कम से कम ढाई लाख लोगों की जान गई। इसके बाद जो अफगानिस्तान को मिला है वह यह है कि वह फिर से लौटकर साल 2001 में पहुंच चुका है। काबुल पर फिर से तालिबान की हुकूमत चलने जा रही है।

तो सबसे गहरी सच्चाई तो यही है कि भले अमेरिकी राष्ट्रपति कुछ भी कहें कि उन्होंने अफगानिस्तान की कई स्तर पर मदद की। लेकिन हकीकत यह है कि बम, बारूद, गोली और सेना के बलबूते समाज को नहीं बदला जा सकता। समाज के रसूखदारों को पैसा खिलाकर समाज पर कब्जा किया जा सकता है लेकिन उसे बदला नहीं जा सकता। अमेरिका ने पिछले 20 साल में यही काम किया है।

इस बात की पुष्टि हाल फिलहाल अमेरिका के वह सारे कदम करते हैं जो अमेरिका ने अफगानिस्तान से खुद को अलग करने के लिए उठाए। यह कदम ऐसे हैं जिन्हें समझने के बाद लगता है जैसे अमेरिका अफगानिस्तान को किसी भी हालत में छोड़कर भागने की कोशिश कर रहा हो।

2020 की फरवरी में अमेरिकियों ने अफगान सरकार से समझौता कर अफगानिस्तान से बाहर जाने का प्रस्ताव नहीं रखा। बल्कि अमेरिकियों ने दोहा में जो समझौता किया उसमें अफगान सरकार को बाहर रखा और तालिबान से बातचीत की। बातचीत करते हुए तालिबान से ऐसा कोई खाका नहीं मांगा जिससे यह पता चले कि वह अफगानिस्तान को कैसे संभालेगा। अमेरिका की छटपटाहट किसी भी तरह से खुद को अफगानिस्तान से बाहर निकालने की रही। इसलिए बात यह तय हुई कि तालिबानी अमेरिकी सैनिकों को निशाना बनाना छोड़ देंगे। अमेरिका अपने फौजियों को वापस बुला लेगा। तालिबानी अफगानिस्तान में सत्ता के अन्य दावेदारों के साथ शांतिपूर्ण वार्ता करेंगे और अल-कायदा या फिर किसी अन्य आतंकवादी संगठन को अफगानिस्तान को अपना ठिकाना नहीं बनने देंगे।

अंतरराष्ट्रीय मसलों के जानकारों का कहना है कि अमेरिका ने जिस तरीके से तालिबान को थाली में परोस कर अफगानिस्तान को सौंप दिया, ऐसे समझौते से तालिबान को एक तरह से जीत का एहसास हुआ। इस तरह के समझौते ने अफगान सरकार और अफगानी सैनिकों के हौसले को पस्त कर दिया। तालिबानियों को लगा कि अगर वह अमेरिकी सेना को पीछे हटने के लिए इस तरीके से मजबूर कर सकते हैं तो अफगान सैनिकों की क्या औकात?

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और द हिंदू के वरिष्ठ पत्रकार स्टेनली जॉनी लिखते हैं कि अशरफ गनी की सरकार अंदर से बहुत अधिक बंटी हुई थी। साल 2014 और 2019 के राष्ट्रपति चुनाव पर धांधली के आरोप लगे थे। अंदर के बंटवारे के बावजूद राष्ट्रपति गनी की सरकार केवल अमेरिकी मदद और रहनुमाई पर चल रही थी। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अपने प्रतिस्पर्धी नेताओं के सामने खुद को पश्तून समुदाय के नेता के तौर पर प्रस्तुत किया। जबकि वह आधे पश्तून और आधे ताजिक हैं। ऐसा करते वक्त उन्होंने दूसरे समुदायों को अलग-थलग कर दिया। ताजिक, उजबेक, हजारा और दूसरे समुदाय जिनसे मिलकर नॉर्दन एलायंस बनता है। वह राष्ट्रपति अशरफ गनी से अलग-थलग रहा। नॉर्दन एलायंस की अहमियत यह है कि साल 1990 में इन्हीं की अगुवाई में तालिबान के खिलाफ संघर्ष हुआ था। यह अलायंस आपस में मिलकर तालिबान विरोधी समूह बनाते हैं। इसीलिए राष्ट्रपति अशरफ गनी तालिबान विरोधी समूह बनाने में पूरी तरह से नाकामयाब रहे। सरकार में रहते हुए कई तरह के सरदारों को आपस में जोड़कर राष्ट्रपति अशरफ गनी नहीं चल रहे थे बल्कि अमेरिका और अमेरिकी सेना के प्रभाव की वजह से राष्ट्रपति अशरफ गनी के इर्द गिर्द भीतर से बहुत कमजोर सरकारी समूह तैयार हुआ था। इसीलिए जैसे ही अमेरिकी सेना ने वहां से वापस जाने का फैसला लिया तो सारा सरकारी तामझाम भरभरा कर ढह गया। इसके बाद तालिबान को बाहर से दबाव डालना था। तालिबान ने यही किया और देखते देखते पूरे मुल्क पर कब्जा कर लिया।

लड़ाई के दौरान तालिबानियों के लिए असली सिर दर्द अमेरिकी हवाई हमला हुआ करता था। अमेरिकी हवाई हमले की वजह से तालिबान की अनेक लड़ाके मारे गए। अमेरिका के साथ तालिबानियों की दोहा में हुई बातचीत के बाद अमेरिका ने तालिबानियों पर हवाई हमला करना बंद कर दिया। तालिबानियों ने अमेरिकियों पर हमला करना बंद कर दिया। लेकिन इसके बाद तालिबानियों का सबसे बड़ा डर खत्म हो गया। वह पूरे देश में बिना किसी रोक टोक बेधड़क आवाजाही करने लगे। पूरे देश में पसर गए।

अफगान सरकार अमेरिकी एयरफोर्स की मदद से अफगानिस्तान के दूरदराज के इलाकों में शासन कर रही थी। बाइडेन सरकार ने अमेरिकी एयरफोर्स वापस बुला लिया। उन अमेरिकी ठेकेदारों को वापस बुला लिया, जो एयर फोर्स को मदद पहुंचाने का काम करते थे। रायटर्स की खबर यह बताती है कि तालिबानी यह सब कुछ होता है देख रहे थे। उन्होंने इसी दौरान तकरीबन 9 पायलटों को मार दिया। मारने का मकसद यही था कि किसी भी तरह से एयरफोर्स का सामना ना करना पड़े। इन सारे घटनाक्रमों में अफगानी सरकार और सैनिकों के भीतर जो बचा खुचा हौसला था उसे पूरी तरह से पस्त कर दिया।

अब थोड़ा बहुत यहां अफगानी सैनिकों की हालत भी समझ लेते हैं। अमेरिका का कहना है कि उसने चार करोड़ की आबादी पर 20 साल में तकरीबन 3 ट्रिलियन पैसा खर्च किया है। यह पैसा कहां खर्च हुआ है? मानव संसाधन बनाने में है पैसा नहीं खर्च हुआ। यह पैसा अफगानिस्तान में आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अमेरिकी हथियारों पर खर्च हुआ है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अमेरिका द्वारा बनाई गई पिट्ठू सरकार के सैनिक बनाने पर खर्च हुआ। लेकिन हकीकत यह है कि बिना बेहतर मानव संसाधन निर्मित किए हुए किसी भी तरह का सांगठनिक ढांचा खड़ा करना मुश्किल होता है। यही अफगानिस्तान के साथ भी हुआ।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार भद्रकुमार न्यूज़क्लिक में लिखते हैं कि अफ़ग़ान सशस्त्र बलों में लड़ने की कोई इच्छा न होने का रहस्य वास्तव में कोई रहस्य नहीं है। इसका मुख्य कारण रक्षा बजट का दुरूपयोग रहा है। गनी के ताम-झाम में, उनके भरोसेमंद चाटुकार ही रक्षा मंत्रालय को नियंत्रित करते थे। सैनिकों को शायद ही कभी अपना पूरा वेतन मिलता था क्योंकि अधिकारी सारा पैसा अपनी जेबों में रखते थे, जो गनी के नुमाइंदों के परित्याग की व्याख्या करता है। सैनिक अक्सर अपने जीवन-यापन के लिए अमेरिका द्वारा आपूर्ति किए गए हथियारों को काले बाजार में बेच देते थे। सीधे शब्दों में कहें तो सेना ने एक जर्जर सरकार के लिए लड़ने की अपनी इच्छाशक्ति खो दी थी। जिसमें वैधता की भारी कमी थी, जो लोगों की जरूरतों और शिकायतों के प्रति अयोग्य और उदासीन थी। ऐसा माना जाता है कि पिछले बीस वर्षों में, अमेरिका ने नाटो मानकों के आधार पर 3 लाख अफ़ग़ान सेना के सैनिकों और अफसरों को प्रशिक्षित किया था, लेकिन जब मई में वे लड़ाई में शामिल हुए, तो सेना तालिबान के दबाव में ढहने लगी। जब भ्रष्टाचार किसी राष्ट्र के जीवन को खा जाता है, तो राज्य की संरचनाएँ टूट जाती हैं और ढह जाती हैं। और जब नेतृत्व लोगों का सम्मान खो देता है, तो वह युद्ध हार जाता है।

द वॉल स्ट्रीट जर्नल का कहना है कि तालिबानियों ने अफगानी सेना को पूरी तरह से अपने खेमे में शामिल कर लिया। उनके सामने प्रस्ताव रखा कि उन्हें बहुत दिनों से पैसा नहीं मिला है इसलिए वह पैसा लें और अफगान सेना का साथ छोड़ दें नहीं तो मरने के लिए तैयार हो जाए। इस प्रस्ताव की वजह से हर 7 अफगानी सैनिक में से 5 अफगानी तालिबान की तरफ चल आए। सुरक्षाबलों के इस तरह से पाला बदलने की वजह से तालिबान के लिए पूरा अफगानिस्तान आसानी से कब्जे में आता चला गया।।

जिसका परिणाम अमेरिकन इंटेलिजेंस एजेंसी अनुमान से बिल्कुल उल्टा साबित हुआ। वाशिंगटन पोस्ट की खबर थी कि अमेरिकन इंटेलिजेंस एजेंसी का अनुमान है कि काबुल को हड़पने में तालिबान को तकरीबन 90 दिन लगेंगे। आसानी से काबुल पर कब्जा नहीं जमा पाएगा। लेकिन तालिबान ने काबुल पर केवल 1 दिन में कब्जा जमा लिया और राष्ट्रपति अशरफ गनी को अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ा। 6 अगस्त तक तालिबान ने अफगानिस्तान के 106 जिलों पर कब्जा जमा लिया था। अगले 10 दिनों यानी कि 16 अगस्त तक तालिबान के कब्जे में 345 जिले हैं। कुल मिलाकर तकरीबन पूरा अफगानिस्तान तालिबान के कब्जे में है।

अमेरिका और अफगानी सरकार की बुरी तरह की कारगुजारियों की वजह से तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा जमा पाया। लेकिन इसमें अफगानी सामाजिक संरचना की भी एक अहम भूमिका है। अफगानी संविधान के अनुच्छेद 4 के अनुसार अफगानिस्तान में तकरीबन 14 नृजातीय समुदाय हैं। यह तो केवल संविधान में लिखे गए नृजातीय समुदाय की संख्या है। इसके अलावा भी ढेर सारी कबीलाई समुदाय हैं। आपस में जुड़े हुए भी हैं और कई तरह से बटे हुए भी हैं। इनमें सबसे बड़ा समुदाय पख्तूनों का है। जिसकी आबादी तकरीबन 35 से 40 फ़ीसदी की संभावना है। इसी समुदाय से तालिबान के अधिकतर लड़ाके आते है। (आबादी के बारे में भी ठीक-ठाक आंकड़ा नहीं दिया जा सकता। क्योंकि गोली बम बारूद से पता नहीं कितने लोग मरे हैं और जनगणना बहुत सालों से नहीं है।) इस तरह की पृष्ठभूमि वाला समाज बहुत मुश्किल से एक हो पाता है। काफी वक्त लगता है। जबकि वक्त के तौर पर अफगानिस्तान को बहुत लंबे समय से केवल बम गोली बारूद से जूझता हुआ वक्त और समाज मिला है। इसलिए समाज को धीरे-धीरे परिपक्व बनाने का ढंग का काम भी नहीं हो पाया।

कानूनी मामलों की विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर फैजान मुस्तफा अपने वीडियो में बताते हैं कि पूरा अफगानी समाज बहुत लंबे समय से शरिया कानून के जरिए संचालित होते आ रहा है। तालिबान इस्लाम का सबसे कट्टर विचार मानने वाला समूह है, जिस विचार को भारत के इस्लाम ने तो पूरी तरह से खारिज कर रखा है। साल 2004 में जब अमेरिका की मदद से अफगानिस्तान का संविधान बना तो वह बहुत ही कमजोर संविधान बना। ढेर सारी विविधताओं वाले अफगानिस्तान जैसे देश में संसदीय व्यवस्था आनी चाहिए थी। इससे प्रांत मजबूत होते हैं और अफगानिस्तान एक देश के तौर पर मजबूत होता। लेकिन अमेरिका की मदद से एक ऐसी व्यवस्था जो राष्ट्रपति शासन वाली थी और जिसमें राष्ट्रपति अशरफ गनी की ताकत सबसे अधिक थी। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अफगानिस्तान के प्रांतों पर ऐसे लोगों को बैठाया जिन पर जनता का भरोसा नहीं था। जिन्हें प्रशासन का अनुभव नहीं था। इसलिए ऐसी शासन व्यवस्था का तो भरभरा कर गिरना तो तय था। वही हुआ। तालिबान के बारे में भी यह कयास लगाए जा रहे हैं कि वह चुनाव करके अपने नेताओं के चयन करने वाली व्यवस्था को नहीं अपनाएगा। इसके बहुत भयंकर परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।

पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन कहते है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को बड़े बुरे हाल में छोड़ा है। साल 1990 में जब सोवियत रूस ने अफगानिस्तान को छोड़ा था तब की स्थिति मौजूदा वक्त से बेहतर थी। तालिबान की अगुवाई में हाल फिलहाल तो कुछ भी ऐसा नहीं दिख रहा कि भरोसा पनपे।

अंत में कहा जाए तो बात यह है कि अफगानिस्तान का अतीत बहुत भयावह रहा है और तालिबान की अगुवाई में भविष्य को लेकर भी आशंकाएं हैं। लेकिन क्रूर यथार्थ यही है कि तालिबान अफगानिस्तान का अगुआ बन चुका है।

कई विश्लेषकों की राय है कि तालिबान विरोधी तत्व आपस में मिलकर तालिबान से लड़ने की योजना बना रहे हैं। आगे गृह युद्ध की संभावना दिख रही है। तो कई विश्लेषक कह रहे हैं अमेरिका रूस और चीन अफगानिस्तान में केवल अपने हित ना देखें बल्कि उसको संभालने का भी काम करें। देखते हैं आगे क्या होता है...

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest