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हिंदू-मुस्लिम नफ़रत के बीच क्या कभी रोज़मर्रा की परेशानियां मुद्दा बनेंगी?

एक तरफ सांप्रदायिकता का ज़हर है और दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था की बदतरी है। इन दोनों के बीच में भारत की आम जनता की रोज़मर्रा की परेशानियां गुम हो जाती हैं। रोज़मर्रा की परेशनियां कभी भी आम जनता के बीच ठोस बहस का हिस्सा नहीं बनती। क्या ऐसे दौर में मुनाफ़ा-ख़ोरी के इर्द गिर्द बनती भारतीय अर्थव्यवस्था की सच्चाई सबके सामने आएगी? 

एक तरफ सांप्रदायिकता का ज़हर है और दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था की बदतरी है। इन दोनों के बीच में भारत की आम जनता की रोज़मर्रा की परेशानियां गुम हो जाती हैं। रोज़मर्रा की परेशनियां कभी भी आम जनता के बीच ठोस बहस का हिस्सा नहीं बनती। क्या ऐसे दौर में मुनाफ़ा-ख़ोरी के इर्द गिर्द बनती भारतीय अर्थव्यवस्था की सच्चाई सबके सामने आएगी? 

क्या यह बात बताई जायेगी कि बेरोज़गारी, महंगाई, न्यूनतम मज़दूरी से कम मज़दूरी से जुड़ी आज जनता की रोज़मर्रा की सभी परेशनियों के लिए भारत में मुनाफ़ाख़ोरी और आर्थिक असामनता की जड़ें जिम्मेदार हैं?
 

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