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वैवाहिक बलात्कार में छूट संविधान का बेशर्म उल्लंघन

भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा वैवाहिक बलात्कार सहित अलग-अलग रूपों में सामने आती रहती है, मगर आश्चर्य है कि इन्हें तब तक एक दंडनीय अपराध नहीं माना जाता है, जब तक कि पत्नी नाबालिग़ न हो।
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कीर्तना उन्नी लिखती हैं कि आईपीसी की धारा 375 के तहत यौन सम्बन्ध बनाने को लेकर अपनी पत्नियों को मजबूर करने वाले पुरुषों को दी जाने वाली छूट दरअस्ल वैवाहिक बलात्कार है और महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन है।

भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा वैवाहिक बलात्कार सहित अलग-अलग रूपों में सामने आती रहती है, मगर आश्चर्य है कि इन्हें तबतक एक दंडनीय अपराध नहीं माना जाता है, जब तक कि पत्नी नाबालिग़ न हो।

यह विडंबना ही है कि घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ महिला संरक्षण अधिनियम, 2005,जिसका उद्देश्य " उन महिलाओं को संविधान के तहत सुनिश्चित अधिकारों के लिए अधिक प्रभावी सुरक्षा प्रदान करना है, जो परिवार के भीतर होने वाली किसी भी तरह की हिंसा की शिकार हैं", इसकी 'घरेलू हिंसा' की परिभाषा में वैवाहिक बलात्कार शामिल नहीं है। ।

धारा 375 और सहमति का मुद्दा

भारत में बिना सहमति के यौन सम्बन्ध बनाने के वैवाहिक बलात्कार होने के बावजूद, विवाह को पार्टनर के बीच संभोग को लेकर सीधी सहमति के रूप में देखा जाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस), 2015-16 से पता चलता है कि 15-49 वर्ष के बीच की 31% विवाहित महिलाओं को अपने पतियों की ओर से शारीरिक, यौन या भावनात्मक शोषण का सामना करना पड़ा, जबकि 5.4 में से एक पति ने कभी न कभी यौन सम्बन्ध बनाने के लिए पत्नियों को मजबूर ज़रूर किया था।

भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 की धारा 375 में कहा गया है कि बलात्कार में पुरुषों द्वारा 15 वर्ष या उससे ज़्यादा उम्र की पत्नियों के साथ किये गये संभोग को छोड़कर किसी महिला के साथ सभी तरह से ग़ैर-सहमति से बनाये जाने वाले यौन सम्बन्ध शामिल हैं।

इसके बाद, धारा 375, जो वैवाहिक बलात्कार की होने वाली घटनाओं में पति को 'छूट' देती थी, उसे आपराधिक क़ानून संशोधन अधिनियम, 2013 द्वारा संभोग को लेकर सहमति की आयु को बढ़ाकर 18 कर दिया गया था। हालांकि, वैवाहिक बलात्कार को अपवाद बनाने वाली धारा 375 का दूसरा अपवाद कि अगर पत्नी की उम्र 15 वर्ष या उससे ज़्यादा है, उसमें संशोधन नहीं किया गया था। इस अधिनियम का नतीजा यह हुआ कि एक विसंगति पैदा हो गयी, जहां किसी पति द्वारा 15 से 18 साल की आयु के बीच की किसी नाबालिग़ पत्नी के साथ जबरन यौन संबंध बनाने को अनुमति दे दी गयी।

बाद में, इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया कि 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ पति की ओर से यौन सम्बन्ध बनाना भी बलात्कार की श्रेणी में ही आयेगा।

दूसरे अपवाद की व्याख्या करते हुए एक ऐतिहासिक फैसले में शीर्ष अदालत ने इस विशेष खंड के शब्दों में संशोधन कर दिया, जिसकी व्याख्या अब इस तरह की जाती है: “किसी पुरुष की ओर से अपनी ही उस पत्नी के साथ यौन सम्बन्ध बनाना या यौन क्रिया करना, जिसकी आयु 18 वर्ष से कम न हो, बलात्कार नहीं है।”

हालांकि,सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा था कि उसने "वयस्क महिलाओं के साथ होने वाले वैवाहिक बलात्कार के बड़े मुद्दे की व्याख्या नहीं की है", कोर्ट ने 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ यौन सम्बन्ध बनाने को आपराधिक गतिविधि नहीं ठहरा जाने को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगायी, भले ही इसमें शोषक उसके ख़ुद का पति ही क्यों न हो।

इसलिए, पुरुषों की तरफ़ से 18 साल या उससे ज़्यादा उम्र की अपनी पत्नियों को यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करने के संकट पर लगाम नहीं लग पाया। इस समस्या के समाधान के लिए न तो न्यायपालिका और न ही विधायिका किसी तरह का हस्तक्षेप कर पा रही है,लिहाज़ा विवाहित महिलाओं ने अपना व्यक्तित्व और अपने शरीर पर अपनी स्वायत्तता का अधिकार खो दिया है।

घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ने वाली कनाडा की एक सामाजिक कार्यकर्ता अनीता मेनन ने द लीफ़लेट को बताया, "शादी में सहमति को अहमियत नहीं दी जाती है,यह बात रिश्ते में लैंगिक समानता की कमी को दिखाती है। शादी का इस्तेमाल साथी के शरीर की आज़ादी और उस पर उसके अधिकारों के उल्लंघन के किये जाने के लाइसेंस के तौर पर किया जाता है, जो कि दुरुपयोग किये जाने का एक स्पष्ट रूप है।

मेनन कहती हैं, "वैवाहिक बलात्कार को साबित करना इसलिए मुश्किल होता है, क्योंकि समाज के हिसाब से किसी रिश्ते में सहमति तो होती ही है। हम व्यक्ति की सीमाओं और उसके अधिकारों को समझ पाने में नाकाम रहते हैं।"

 सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक बलात्कार पर याचिका को किया खारिज

2019 में शीर्ष अदालत ने दूसरी बार उस जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया, जिसमें केंद्र को वैवाहिक बलात्कार के मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने और इसे तलाक़ का आधार बनाने के लिए क़ानून बनाने का निर्देश देने की मांग की गयी थी।

उस याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता वकील अनुजा कपूर को इस सम्बन्ध में दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए कहा था। आख़िरकार, अनुजा कपूर ने उस याचिका को ही वापस ले लिया, जिसमें कहा गया था कि "वैवाहिक बलात्कार भी हत्या, ग़ैर-इरादतन हत्या या बलात्कार से कम बड़ा अपराध नहीं है ... यह एक महिला को पीड़ा या पीड़ा पहुंचने के निरंतर लगते डर के साये में रहने वाली किसी ज़िंदा लाश में बदल देता है।"

इसके ख़िलाफ़ तर्क देते हुए कि चूंकि वैवाहिक बलात्कार अपराध नहीं माना जाता है, उस याचिका में भी कहा गया है कि पत्नी की तरफ़ से अपने पति के ख़िलाफ़ किसी भी पुलिस स्टेशन में कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की जाती है। "बल्कि, पीड़िता और पति के बीच विवाह की शुचिता को बनाये रखने के लिए पुलिस अधिकारियों की ओर से समझौता कराया जाता रहा है।"

सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में वैवाहिक बलात्कार को एक दंडनीय अपराध बनाने की मांग करने वाली दिल्ली की एक महिला की याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि वह "सार्वनिजक नहीं,बल्कि निजी उद्देश्य से शादी को इस मामले में घसीट रही हैं।"  

श्रीकुमार बनाम पियरली करुण मामले में केरल हाई कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था कि आईपीसी की धारा 376A के तहत अपराध (अलग होने के दौरान अपनी पत्नी के साथ किसी पुरुष द्वारा किया जाने वाला संभोग) "तभी अपराध माना जायेगा, जब वह पुरुष अपनी उस पत्नी के साथ उसकी सहमति के बिना संभोग करता है, जो अलग रहने के हुक़्मनामे के तहत या किसी रिवाज़ या किसी पंरपरा के तहत उससे अलग रहती है।"

 वैवाहिक बलात्कार और घरेलू हिंसा

वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं बनाये जाने से विवाहित महिलायें हिंसा चक्र में फंसी रहती हैं और उन्हें अपमानित होते हुए घरों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे कि उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित होते हैं।

ख़ासकर घरेलू हिंसा और यहां तक कि दहेज को लेकर बने क़ानूनों की तुलना में वैवाहिक बलात्कार को मिली यह कानूनी छूट न सिर्फ़ प्रतिगामी है, बल्कि शर्मनाक भी है।

मिसाल के तौर पर, यौन प्रकृति का ऐसा कोई भी आचरण, जो महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाता हो, आहत करता हो,अपमानित करता हो, या अन्यथा उल्लंघन करता हो, उसे घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत यौन शोषण माना जाता है। चूंकि जबरन संभोग, या वैवाहिक बलात्कार को इस अधिनियम के तहत यौन शोषण नहीं माना जाता है, इसलिए यह क़ानून अप्रत्यक्ष रूप से उस व्यक्ति को इसकी छूट देता है, जो अपनी पत्नी के साथ 'बलात्कार' करता है। 

यहां तक कि दहेज विरोधी क़ानून, आईपीसी की धारा 498 A के तहत भी "किसी महिला के पति या पति के उस रिश्तेदार" के लिए अधिकतम तीन साल की जेल की सज़ा का प्रावधान है, जो उसके साथ क्रूरता से पेश आता है।

निमेशभाई भरतभाई देसाई बनाम गुजरात राज्य मामले में गुजरात हाई कोर्ट ने वैवाहिक बलात्कार की निंदा करते हुए इस बात की जांच पड़ताल की कि क्या कोई पत्नी आईपीसी की धारा 377 के तहत अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध बनाये जाने को लेकर अपने पति के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही शुरू कर सकती है और कोर्ट ने माना कि यह एक ऐसा स्पष्ट मामला था, जहां अभियुक्त ने अपनी पत्नी की ग़ैरत को ख़तरे में डाल दिया था।

अदालत ने यह स्वीकार करते हुए कि "वैवाहिक बलात्कार का वजूद भारत में है" इसे एक ऐसा "शर्मनाक अपराध" क़रार दिया, जिसने विवाह की संस्था में भरोसे और विश्वास को दाग़दार कर दिया है। अदालत ने कहा, "महिलाओं की एक बड़ी आबादी को इस आचरण को अपराध नहीं ठहराये जाने का खामियाज़ा भुगतना पड़ा है और इस तरह के आचरण को अपराध नहीं ठहराये जाने के करण उन्हें अपने जीवन को लेकर ज़बरदस्त डर के साये में रहना पड़ता है।"

बेंगलुरु स्थित क्राइस्ट यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान की छात्रा लिंडा मैथ्यू ने द लीफ़लेट को बताया, "वैवाहिक बलात्कार की पीड़िता अक्सर ज़ख़्म मिलने के बाद पैदा होने वाले तनाव विकार, अन्य तरह की एंग्ज़ाइटी जैसे उन दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक परेशानियों के बारे में बताती हैं, जो उनके बच्चों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रही होती हैं।"

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNPF) और इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर रिसर्च ऑन वीमेन की ओर से संयुक्त रूप से आयोजित 'मैसक्यूलिटी, इंटिमेट पार्टनर वायलेंस एंड सन प्रेफरेंस इन इंडिया'(भारत में मर्दानगी, अंतरंग साथी की हिंसा और बेटे को लेकर वरीयता) नामक शीर्षक से किया गया एक अध्ययन यह बताता है कि इस सर्वेक्षण में शामिल 75% पुरुषों ने अपने पार्टनर से सेक्स के लिए सहमत होने की उम्मीद की थी।

इस अध्ययन से यह भी पता चलता  है कि 60 प्रतिशत पुरुषों ने स्वीकार किया कि वे अपने पार्टनर पर हावी होने और उन्हें नियंत्रित करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करते हैं। सर्वेक्षण में शामिल आधे से ज़्यादा महिलाओं,यानी 52% महिलाओं के साथ किसी न किसी तरह की हिंसा का इस्तेमाल किया गया था, जिसमें 38% शारीरिक हिंसा थी और 35% महिलाओं को भावनात्मक शोषण का सामना करना पड़ा था।

यूएनएफ़पीए का कहना है, "यह अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है और दिखाता है कि ग़ैर-बराबरी वाले लिंग मानदंडों और मर्दानगी से जुड़ी समस्याओं का हल किया जाना अंतरंग पार्टनर के साथ होने वाली हिंसा और बेटे की वरीयता के मूल कारणों से निपटने के केंद्र में है।"

 मदद को लेकर पीड़िताओं की विमुखता 

एनएफ़एचएस ने अपने इस अध्ययन में यह भी दिखाया है कि वैवाहिक बलात्कार के शिकार विवाहित महिलाओं में से बहुत कम महिलाओं ने पुलिस से मदद मांगी। इसके अलावा, ज़्यादातर पीड़ितों को तो पुलिस ने भगा दिया। पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश करने वाली एक पीड़िता को पुलिस ने अपने पति की ज़रूरतों के अनुसार ख़ुद को 'ढालने' के लिए कहा गया।

केरल के पलक्कड़ की एक शिक्षिका बीना नायर ने द लीफ़लेट को बताया, "भारतीय महिलाओं को अपने पतियों को एक ऐसे उच्चासन पर बिठाये रखने के लिहाज़ से तैयार किया जाता है, जो उन्हें (वैवाहिक बलात्कार के बारे में) किसी को भी बताने से रोक लेता है।"

ज्यादातर पीड़िता अपने पतियों द्वारा की गयी यौन हिंसा के बारे में पुलिस या अदालतों को बताने के बजाय परिवार के किसी अन्य सदस्य को बताने तक ही ख़ुद को सीमित रखती हैं।

 वैवाहिक बलात्कार महिलाओं के अधिकारों का हनन

अपनी पत्नियों के ख़िलाफ़ मर्दों द्वारा की गयी यौन हिंसा और धारा 375 के तहत दी गयी इसकी छूट संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। जहां अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है, वहीं अनुच्छेद 14 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किये जाने वाले किसी भी तरह के भेदभाव के बिना क़ानून के सामने समानता को सुनिश्चित करता है।

सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि " जैसा कि अनुच्छेद 21 के तहत समझा जाता है कि किसी महिला का प्रजनन विकल्प बनने का अधिकार भी 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' का ही एक पहलू है।"

एक महिला की निजता, गरिमा और उसकी शारीरिक नैतिकता के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए,इस बात पर ज़ोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि " किसी महिला का यौन गतिविधि में भाग लेने से इनकार करने के अधिकार या गर्भनिरोधक विधियों के उपयोग को लेकर वैकल्पिक रूप से आग्रह करने जैसे प्रजनन विकल्पों के प्रयोग पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।”

एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि निजता का मतलब अकेले रहने के अधिकार से भी जुड़ा हुआ है। अदालत ने जस्टिस के.एस.पुट्टास्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ मामले में कहा था, "गोपनीयता व्यक्तिगत स्वायत्तता की रक्षा करती है और व्यक्ति की अपने जीवन के अहम पहलुओं को नियंत्रित करने की क्षमता को मान्यता देती है।"

इस बात पर नज़र डालते हुए कि गोपनीयता व्यक्ति की शुचिता की अंतिम अभिव्यक्ति है, अदालत ने आगे कहा था, “विकल्प के चुनाव करने की क्षमता मनुष्य के व्यक्तित्व के मूल में है। इसकी अहिंसक प्रकृति गोपनीयता की वैध अपेक्षा के साथ-साथ अपने बारे में अंतरंग निर्णय लेने की क्षमता में प्रकट होती है।”

दोनों ही अनुच्छेदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक को सम्मान के साथ जीने और बिना किसी भेदभाव के क़ानून के सामने समान व्यवहार किये जाने का अधिकार है। इसलिए, वैवाहिक बलात्कार और धारा 375, संविधान और महिलाओं के अधिकारों का घोर उल्लंघन है।

घरेलू हिंसा और बाल यौन शोषण के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वाले दिल्ली स्थित एनजीओ साक्षी के कार्यकारी निदेशक द लीफ़लेट से बताते हैं, "वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक आचरण नहीं ठहराया जाना इस बात की एक और मिसाल है कि क़ानून आज भी किस तरह  से महिलाओं के अधिकारों से इनकार करता है।" घरेलू हिंसा की पीड़िता बताती हैं, "महिलाओं को उनके क़ानूनी रूप से हक़दार पार्टनर की यौन संतुष्टि के लिए ख़ामोश सहमति देने वाली महज़ चीज़ होने तक सीमित कर दिया गया है।

 (कीर्तना उन्नी पुणे स्थित सिम्बायोसिस सेंटर फ़ॉर मीडिया एंड कम्युनिकेशन की छात्रा हैं और द लीफ़लेट में इंटर्न हैं।)

साभार: द लीफ़लेट

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