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झारखंड : प्रशासन ने पर्यावरण मुहिम की आड़ में ग़रीबों को घरों से निकाला

रांची में चलाई जा रही अतिक्रमण विरोधी मुहिम से सैकड़ों लोग सड़क पर आ गए हैं, लेकिन अनियोजित शहरी विस्तार अब भी जारी है।
झारखंड : प्रशासन ने पर्यावरण मुहिम की आड़ में ग़रीबों को घरों से निकाला
Image Courtesy: Hindustan Times

22 जुलाई की सुबह रांची के कांके और अरगोरा प्रखंड के निवासी उनके इलाके में पुलिस वाहनों की गश्ती देखकर हैरान रह गए। चीजें तब और स्पष्ट हो गईं जब उन्होंने पुलिस की गाड़ियों के साथ बुलडोजर और जेसीबी मशीनों को आते देखा। झारखंड हाईकोर्ट के आदेश पर नगर निगम यहां मिशन गली और राजा बागान इलाके में अतिक्रमण हटाने आया था। यह इलाका कांके बांध के पास पड़ता है। 

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में बांध के 15 मीटर के दायरे में सभी तरह के निर्माण को ‘झारखंड सार्वजनिक भूमि अतिक्रमण अधिनियम, 2000’ के तहत हटाने का आदेश दिया है। प्रशासन वहां कम से कम 34 ऐसे मकान गिराने का इरादा कर चुका था। इसके लिए रहवासियों को सिर्फ़ दो दिन का ही नोटिस ही दिया गया था।

अतिक्रमण हटाने के जो वीडियो सामने आए हैं, उनसे पता चला है कि स्थानीय निवासियों ने हिंसा का सहारा लिए बिना इस मुहिम का विरोध किया। जब एक महिला पुष्पा देवी बेहोश हुईं, तो उसके पहले 15 घरों को तोड़ा जा चुका था। इसके बाद माहौल गरम हो गया। पुष्पा के पति ऑटो रिक्शा चलाते हैं, उन्होंने अपनी जमा-पूंजी का एक-एक पैसा लगाकर घर बनाया था। 

एक वीडियो में स्थानीय निवासी बबीता देवी दो और तीन मंजिला घरों की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, "केवल गरीब़ों के घर तोड़े जा रहे हैं।" यह घर बबीता देवी के घर से अगले ही भूखंड पर बने हुए हैं। बताया जा रहा है कि कई निवासियों के पास रजिस्ट्री और मोर्टेगेज के दस्तावेज़ों के साथ-साथ बिजली कनेक्शन भी हैं। इलाके में हालात संवेदनशील बने हुए हैं।

अरोगोरा इलाके में हीनू नदी के पास 9 घरों को भी तोड़ दिया गया है। इस मुहिम से पूरे इलाके के लोग चिंतित हैं, क्योंकि नगर निगम और प्रशासन की टीम कभी भी उनके घरों के ऊपर कार्रवाई कर सकती है। 

23 जुलाई को प्रशासन ने अरगोरा प्रखंड में हीनू नदी के किनारे तीन स्थानों- पात्राटोली, किलबर्न कॉलोनी और शुक्ला कॉलोनी को भी चिन्हित किया था। पात्राटोली इलाके के कई घर धुरवा बांध के डूब इलाके में हैं। इसके निवासियों में मूलत: आदिवासी हैं और उन्होंने कार्रवाई का विरोध करने का फ़ैसला किया। भारी बारिश के बीच यह आदिवासी तख्तियां लेकर खड़े हुए थे और पिछले वृत्त अधिकारी की रिपोर्ट को गलत बता रहे थे।

प्रदर्शन कर रही एक महिला कहती हैं, "हमने अपनी पूरी ज़मीन बाँध और रिंग रोड बनाने के लिए दे दी। अब हमारे पास जो बचा है, अगर उसे भी यह लोग तोड़ देंगे, तो हम कहां जाएंगे? हम कहां अपना घर बनाएंगे?" इन लोगों को बमुश्किल ही 12 घंटे का नोटिस दिया गया, मानसून और महामारी के बीच भी इनके पुनर्वास का कोई प्रावधान नहीं किया गया। उनके घरों को नष्ट कर दिया गया। 

किलबर्न और शुक्ला कॉलोनी में प्रशासन की कार्रवाई सफल नहीं हो पाई, क्योंकि संकरी गलियों से बुलडोजर नहीं निकल पाए। हैरान करने वाली बात है कि प्रशासन ने यहां के लोगों से अपने घरों को खुद तोड़ने को कहा है, ऐसा ना होने की स्थिति में प्रशासन द्वारा ही घर तोड़ने की कार्रवाई की धमकी दी है। 

रांची की उपायुक्त छवि रंजन ने 22 जुलाई को कहा था कि प्रशासन सभी जलीय स्थानों का सर्वे कर रहा है, ताकि हटाए जाने वाले घरों की पहचान की जा सके। अब तक प्रशासन हीनू, कांके बांध और बड़ा तालाब (स्वामी विवेकानंद सरोवर) इलाके में 200 घरों की पहचान कर चुका है। गेतलसुल्द बांध इलाके में भी 25 घरों की पहचान की गई है। जब तक सर्वे ख़त्म होगा, तब तक 500 घरों को नष्ट किया जा चुका होगा। इन घरों में बड़ी संख्या वंचित तबके से आने वाले लोगों के घरों की है। जैसे गेतलसुल्द बांध में सभी घर आदिवासियों या दलितों के हैं।

अतिक्रमण की यह कार्रवाई वकील खुशबू कातरुका द्वारा दायर की गई याचिका के बाद शुरू की गई है। टेलीफोन पर किए गए इंटरव्यू में उन्होंने कहा, "कोर्ट ने प्रशासन को इलाके में व्यावसायिक इमारतों को हटाने का आदेश दिया है। लेकिन RMC ने गरीब़ लोगों के घरों पर कार्रवाई की, जिन्हें भू माफिया और प्रशासन ने धोखा दिया है। कार्रवाई भी पुनर्वास के प्रावधान के बिना की गई है।"

26 जुलाई को यह कार्रवाई गेतलसुल्द बांध पहुंची, जहां 25 "गैरकानूनी ढांचों" को तोड़ा गया। इसके बाद घरों को तोड़ने की यह मुहिम कांके बांध इलाके में पहुंची। घरों को तोड़ने वाली यह मुहिम लगातार जुनूनी होती जा रही है। 

घरों में सोच-समझकर किया जाता है निवेश

घरों को तोड़ने के दौरान यह भुला दिया गया कि प्रशासन और अनुमति देने वाले प्रशासन ने डूब क्षेत्र में घर बनाने दिए। इसकी दो ही वज़ह हो सकती हैं: या तो घर बनाने के लिए अनुमतियां नहीं ली गईं या फिर ढीले-ढाले प्रशासन ने स्थानीय लोगों को बिजली और पानी के कनेक्शन लेने दिए। बल्कि झारखंड हाईकोर्ट ने रांची के एकतरफा शहरी विकास की आलोचना की है। घरों के मालिकों के पास जो दस्तावेज़ हैं, उनसे प्रशासन के ढीले-ढाले रवैये की तस्दीक होती है। 

इस स्थिति में भी अमीर अपने लिए रास्ता बनाने में कामयाब हो रहे हैं। प्रसिद्ध एमराल्ड होटल पर प्रशासन की नज़र गई थी, लेकिन इस होटल या दूसरे किसी भी बड़े ढांचे के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई। होटल, प्रशासनिक कार्रवाई के खिलाफ़ कानूनी लड़ाई लड़ रहा है। 5 अगस्त को नगर निगम कमिश्नर मुकेश कुमार की कोर्ट ने होटल की याचिका रद्द कर दी थी। लेकिन अब भी यह साफ़ नहीं है कि होटल पर कार्रवाई की जाएगी या नहीं। अगर होटल विध्वंस से बच जाता है, तो वंचितों के साथ भेदभाव के सवाल खड़े होंगे।

कोर्ट केस

झारखंड हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश रवि रंजन की अगुवाई वाली दो न्यायाधीशों की पीठ ने रांची और इसके आसपास अवैध निर्माण पर पांच जनहित याचिकाओं और एक अवमानना के केस पर स्वत: संज्ञान लिया। कतारुका की याचिका स्वामी विवेकानंद सरोवर (बड़ा तालाब) की खराब होती हालत पर थी। मध्य रांची में स्थित यह शहर का सबसे पुराना तालाब है। पूरे तालाब में हाइसिंथ के पौधे तैरते नज़र आ रहे हैं, जिनसे ऑक्सीजन की उपलब्धता कम होती है और जलीय जीवन को नुकसान पहुंचाता है, जिसमें प्रवास करने वाले पक्षी भी शामिल हैं।

RMC और दूसरे प्रशासनिक विभागों के पास कतारुका द्वारा की गई अपीलों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई, जिसके बाद उन्होंने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने इसके बाद जलीय स्थानों पर लगाई गई सारी याचिकाओं को एक साथ जोड़ा और अब भी मामले में सुनवाई चल रही है। 18 मार्च को न्यायालय ने रांची नगर निगम आयुक्त मुकेश कुमार को मौजूदा नक्शे की तुलना 1928-29 के नक्शे से करने का आदेश दिया। 25 मार्च को पीठ ने दो जलीय स्थानों को केस स्टडीज़ के तौर पर पेश किया। 

कोर्ट ने कहा कि नदी के आसपास हुए अतिक्रमण पर अब बहुमंजिला इमारतें या प्लॉट को चिन्हित करने वाली दीवार की घेराबंदी हो चुकी है। यह योजना में प्रशासन की कमी दिखाता है।

कोर्ट ने चेतावनी देते हुए कहा कि धुरवा बांध इलाके में निर्माण के चलते आसपास बांध का पानी आसपास की पहाड़ियों में प्रवेश कर जाएगा, जिससे पानी की कमी होगी। 15 जुलाई (ताजा सुनवाई) को मुख्य सचिव, शहरी विकास, विनय चौबे ने अतिक्रमण हटाने के बारे में जानकारी दी और कार्रवाई की रिपोर्ट बनाकर देने की बात कही। 

जब हाईकोर्ट ने प्रशासन को ढीले-ढाले रवैये के लिए लताड़ लगाई, तो अब प्रशासन ने ज़्यादा जलन की भावना से अतिक्रमण विरोधी मुहिम चालू कर दी। शायद प्रशासन कोर्ट की नाराज़गी झेलना नहीं चाहता। 

रांची में निर्दयी विकास

रांची लगातार फैलता शहर है। पिछली शताब्दी में इसके निर्माण क्षेत्र में काफ़ी ज़्यादा बढ़ोत्तरी आई है। 

रांची के तीन प्रमुख बांध धुरवा (निर्माण-1962), कांके (1954) और गेतलसुल्द (1971), पांच लाख लोगों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था कर सकते हैं। 2011 की जनगणना से पता चलता है कि रांची की आबादी 10 लाख से भी ज़्यादा हो चुकी है। यहां तक कि इन बांधो के निर्माण में भी बड़े पैमाने पर विस्थापन और पर्यावरणीय नुकसान हुआ था। 

इन बांधों के निर्माण के बाद कभी इनकी गाद नहीं निकाली गई और प्रशासन ने घरों को तोड़ने की मुहिम चालू कर दी। रांची में भूमिगत जलस्तर तेजी से गिर रहा है। तालाब और छोटे जलीय स्थानों की संख्या 1970 के दशक में 100 हुआ करती थी, जो अब कम होकर 42 पर आ गई है।

हाल में भूमिगत जल निदेशालय का सर्वे कहता है कि ज़्यादा दोहन की वज़ह से 2009 से 2014 के बीच रांची का जलस्तर 8.94 मीटर नीचे चला गया है। बिना योजना के बढ़ता शहर मुख्य अपराधी है। बल्कि इन बांधों और झीलों का डूब क्षेत्र तेजी से घट रहा है। धुरवा बांध के आसपास करीब़ 23 फ़ीसदी जगह पर अतिक्रमण हो गया है या अच्छा प्रबंधन ना होने के चलते यह जगह कवक-शैवाल से भर गई है।

वंचितों के मानवाधिकार

पर्यावरणीय चिंताओं के नाम पर चलाई जाने वाली अतिक्रमण विरोधी मुहिमें अमानवीय होती हैं। प्रशासन और यहां तक कोर्ट ने भी आदिवासी आबादी की बुनियादी जरूरतों को नज़रंदाज किया है। यह बेहद विडंबनापूर्ण है क्योंकि झारखंड का निर्माण आदिवासियों के हितों के संरक्षण के लिए हुआ था। इसके बावजूद झारखंड के कुलीन, जिनमें ज़्यादातर गैर आदिवासी हैं, वे शहरी विकास से उपजने वाली समस्याओं का प्रणालीगत समाधान खोजने में नाकामयाब रहे हैं। इसके बजाए वंचित तबके को विकास प्रक्रिया और तथाकथित अतिक्रमण मुहिमों का भार ढोना पड़ता है। 

राज्य ने झारखंड में आदिवासियों की ज़मीन पर 84 बांध बनाए हैं। इसके बावजूद झारखंड में 49 फ़ीसदी आदिवासी गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। इस इलाके में स्वतंत्रता के बाद से अब तक 80 लाख से ज़्यादा लोग विस्थापित हो चुके हैं।

एक ऐसा राज्य, जो खनन कार्यक्रमों के भार से दबा हुआ है, उसमें ऑनलाइन भूमि बैंक में अनियमित्ताएं और नक्शा पारित करने की प्रक्रिया में हेरफेर को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। महामारी और मानसून से उपजी स्थितियों के वक़्त में "अतिक्रमण विरोधी" मुहिम चलाना सबसे बुरा है। कोर्ट को विध्वंस के बारे में ज़्यादा तार्किक होना था और भूमि से बेदखल किए गए परिवारों के लिए मुआवज़े का प्रबंध करना था। शहर विस्तार भारत में कोई नई चीज नहीं है। यह स्वाभाविक तौर पर होगा ही और देखा-परखा विषय है। पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर लोगों को घरों से नहीं निकाला जा सकता। हम इंसानों में समता और न्याय को अनदेखा कर "पर्यावरण की रक्षा का नारा नहीं लगा सकते"।

लेखक झारखंड में रहने वाले स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

In Jharkhand, Admin Turns Ecology Drive on Head, Evicts Poor from Homes

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