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गैस त्रासदी के 40 वर्ष : अब कोई याद नहीं करता 'भोपाल’ को! 

आज भी भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने का सैंकड़ों टन ज़हरीला मलबा उसके परिसर में दबा या खुला पड़ा हुआ है। 
bhopal

भोपाल गैस त्रासदी को पूरे 40 बरस हो चुके हैं। दो और तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस (मिक यानी मिथाइल आइसो साइनाइट) ने अपने-अपने घरों में सोए हजारों लोगों को एक झटके में हमेशा-हमेशा के लिए सुला दिया था। जिन लोगों को मौत अपने आगोश में नहीं समेट पाई थी वे उस जहरीली गैस के असर से मर-मर कर जिंदा रहने को मजबूर हो गए थे। ऐसे लोगों में कई लोग तो उचित इलाज के अभाव में मर गए और और जो किसी तरह जिंदा बच गए उन्हें तमाम संघर्षों के बावजूद न तो आज तक उचित मुआवजा मिल पाया है और न ही उस त्रासदी के बाद पैदा हुए खतरों से पार पाने के उपाय किए जा सके हैं। 

अब भी भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने का सैंकड़ों टन जहरीला मलबा उसके परिसर में दबा या खुला पड़ा हुआ है। इस मलबे में कीटनाशक रसायनों के अलावा पारा, सीसा, क्रोमियम जैसे भारी तत्व हैं, जो सूरज की रोशनी में वाष्पित होकर हवा को और जमीन में दबे रासायनिक तत्व भू-जल को जहरीला बनाकर लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव डाल रहे हैं। यही नहीं, इसकी वजह से उस इलाके की जमीन में भी प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है और आसपास के इलाके भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। मगर न तो राज्य सरकार को इसकी फिक्र है और न केंद्र सरकार को। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बेहद खर्चीला और बहुप्रचारित देशव्यापी स्वच्छता अभियान चला रखा है, उसमें भी इस औद्योगिक जहरीले कचरे और प्रदूषण से मुक्ति का महत्वपूर्ण पहलू शामिल नहीं है। अलबत्ता मोदी जब कभी किसी चुनावी दौरे पर मध्य प्रदेश आते हैं तो वे अपनी रैलियों में कांग्रेस पर गरजते-बरसते हुए जरूर भोपाल गैस त्रासदी को याद कर लेते हैं। वे यूनियन कार्बाइड की भारत स्थिति इकाई के तत्कालीन मुखिया वॉरेन एंडरसर के भारत से भाग निकलने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए वे यह भूल जाते हैं कि गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड की उत्तराधिकारी कंपनी डाउ केमिकल्स के वकील उनकी ही पार्टी के नेता और उनकी सरकार में वित्त मंत्री रह चुके अरुण जेटली रहे थे। 

उल्लेखनीय है कि जिस समय गैस पीड़ितों के मुआवजे का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था उसी दौरान यूनियन कार्बाइड के भोपाल प्लांट यूनियन कार्बाइड ऑफ इंडिया लिमिटेड को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी डाउ केमिकल्स ने खरीद लिया था। सुप्रीम कोर्ट में वकील की हैसियत से अरुण जेटली ने डाउ केमिकल्स का पक्ष रखते हुए कहा था कि यूनियन कार्बाइड कंपनी से डाउ केमिकल्स का कोई लेना देना नहीं है। जेटली ने डाउ की वकालत करते हुए 13 दिसंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि डाउ केमिकल्स को भोपाल गैस त्रासदी के लिए किसी तरह से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

मध्य प्रदेश में भी इस त्रासदी के बाद कई सरकारें आईं और गईं- कांग्रेस की भी और भाजपा की भी- लेकिन इस जहरीले और विनाशकारी कचरे के समुचित निपटान का मसला उनके एजेंडा में जगह नहीं बना पाया। उनके एजेंडे में रहीं नर्मदा परिक्रमा, बुजुर्गों के तीर्थ दर्शन यात्रा जैसी पाखंडभरी योजनाएं या फिर विकास के नाम पर्यावरण को तहस-नहस करने वाली खर्चीली परियोजनाएं, जिनमें भ्रष्टाचार की असीम संभावनाएं रहती हैं।

भोपाल गैस त्रासदी की भयावहता और उसके दूरगामी परिणामों की तुलना करीब आठ दशक पहले दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए उन परमाणु हमलों से की जा सकती है जो अमेरिका ने किए थे। उन हमलों में दोनों शहर पूरी तरह तबाह हो गए थे और डेढ़ लाख से अधिक लोग मारे गए थे। इस सिलसिले में भोपाल गैस त्रासदी के करीब डेढ़ वर्ष बाद अप्रैल 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ के यूक्रेन में चेरनोबिल परमाणु ऊर्जा सयंत्र में हुए भीषण विस्फोट को भी याद किया जा सकता है, जिसमें भारी जान-माल का नुकसान हुआ था। करीब 3.50 लाख लोग विस्थापन के शिकार हुए थे तथा रूस, यूक्रेन और बेलारूस के करीब 55 लाख लोग विकिरण की चपेट में आए थे। हिरोशिमा और नागासाकी को 79 वर्ष, भोपाल गैस त्रासदी को 40 वर्ष और चेरनोबिल को 38 वर्ष बीत गए हैं, लेकिन दुनिया का शासक वर्ग अभी भी सबक सीखने को तैयार नहीं है। वह पूरी दुनिया को ही हिरोशिमा-नागासाकी, भोपाल और चेरनोबिल में तब्दील कर देने की मुहिम में जुटा है। दुनिया के तमाम विकसित देश इस मुहिम के अगुवा बने हुए हैं और हमारा देश उनका पिछलग्गू। 

देश में विकास के नाम पर जगह-जगह विनाशकारी परियोजनाएं जारी हैं- कहीं परमाणु बिजली घर के रूप में, कहीं औद्योगीकरण के नाम पर, कहीं बड़े बांधों के रूप में और कहीं स्मार्ट सिटी के नाम पर। इस तरह की परियोजनाओं को साकार रूप देने के लिए देश की तमाम जीवनदायिनी नदियों को बर्बाद किया जा रहा है। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा आदि नदियां तो सर्वग्रासी औद्योगीकरण का शिकार होकर कहीं गंदे और जहरीले नाले में तब्दील हो गई हैं, तो कहीं अंधाधुंध खनन के चलते सूख कर मैदान में तब्दील हो चुकी हैं। पहाड़ों को काट-काट कर उन्हें खोखला किया जा रहा है और पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर वहां कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं।

औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते जंगलों का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। विकास के नाम पर सरकारों द्वारा और सरकार के संरक्षण में जारी इन आपराधिक कारगुजारियों से पर्यावरण बुरी तरह तबाह हो रहा है, जिसकी वजह से देश को आए दिन किसी न किसी प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ता है- कभी प्रलयंकारी बाढ़, कभी भूस्खलन और कभी भूकंप के रूप में। 

तथाकथित विकास की गतिविधियों के चलते बड़े पैमाने पर हो रहा लोगों का विस्थापन सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है। यह असंतोष कहीं-कहीं हिंसक प्रतिकार के रूप में भी सामने आ रहा है। 'किसी भी कीमत पर विकास’ की जिद के चलते ही देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगर तो लगभग नरक में तब्दील होते जा रहे हैं। लेकिन न तो सरकारें सबक लेने को तैयार है और न ही समाज। सरकारों ने तो विकास और विदेशी निवेश के नाम पर देश के बड़े उद्योग घरानों और विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए समूचे देश को आखेटस्थली बना दिया है। अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी ऐसी ही एक कंपनी थी, जिसके कारखाने से निकली जहरीली गैस आज भी भोपाल की सांसों में घुली हुई है।

तात्कालिक तौर पर लगभग दो हजार और उसके बाद से लेकर अब तक कई हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार विश्व की यह सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी आज करीब चार दशक बाद भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खड़ी हुई है। इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाले सतर्कताविहीन या कि गैरजिम्मेदाराना विकास का यह रास्ता कितना मारक हो सकता है, इसकी मिसाल भोपाल में 40 बरस पहले भी देखने को मिली थी और अब भी देखी जा रही है। 

गैस रिसाव से वातावरण और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा, उसे दूर करना भी संभव नही हो सका। नतीजतन, भोपाल के काफी बड़े इलाके के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं। जिस समय देश औद्योगिक विकास के जरिए समृद्ध होने के सपने देख रहा है, तब उन लोगों की पीड़ा भी अवश्य याद रखी जानी चाहिए। सिर्फ उनसे हमदर्दी जताने के लिए नहीं, बल्कि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचने के लिए भी यह जरुरी है। 

इस त्रासदी के चार दशक बीत जाने के बावजूद प्रशासन अभी तक त्रासदी में मारे गए लोगों से जुड़े आंकड़ें उपलब्ध नहीं करा सका है। गैर सरकारी संगठन जहां इस गैस कांड से अब तक 25 हजार से ज्यादा लोगों के मारे जाने का दावा करते हैं, वहीं राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इस हादसे में 5295 लोग मारे गए और साढ़े पांच लाख लोग जहरीली गैस के असर से विभिन्न बीमारियों के शिकार हुए। मगर हकीकत में यह संख्या कहीं ज्यादा है, क्योंकि 1997 के बाद सरकार ने गैस पीड़ितों के बारे में पता लगाना बंद कर दिया। यूनियन कार्बाइड कारखाने के परिसर में रखे गए 350 मीट्रिक टन जहरीले रासायनिक कचरे की वजह से भी हर साल बढ़ते रोगियों के आंकड़ें नहीं जुटाए जा रहे हैं। 

जहां तक यूनियन कार्बाइड कारखाने के परिसर में रखे 350 मीट्रिक टन जहरीले रासायनिक कचरे का सवाल है, उसका निपटान सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अन्यान्य कारणों से नहीं हो सका है और निकट भविष्य में भी होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। 

गैस त्रासदी के 40 साल बाद भी कारखाने के गोदाम में रखे या जमीन में दबे जहरीले कचरे में तमाम कीटनाशक रसायन और लेड, मर्करी और आर्सेनिक मौजूद हैं, जिनका असर अभी कम नहीं हुआ है। यह खुलासा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कारखाने के गोदाम में रखे जहरीले कचरे की जांच रिपोर्ट में किया है। इस कचरे की वजह से भोपाल और उसके आसपास का पर्यावरण और विशेषकर भूजल दूषित हो रहा है। जब औद्योगिक कचरे के निपटान में अब तक ऐसी अक्षम्य लापरवाही बरती जा रही है, तो वैसे मामलों मे सरकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है, जो चर्चा का विषय नहीं बन पाते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं। विचार व्यक्तिगत है।) 

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