भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए चालीस साल का संघर्ष—भाग 6
पीड़ितों से सलाह नहीं ली गई। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार: “दोनों पक्षों के विद्वान वकीलों ने कहा कि वे मुआवज़े की रकम क्या होनी चाहिए, यह तय करना अदालत पर छोड़ देंगे।
"इसलिए, इस आंकड़े के संबंध में न्यायालय के लिए विकल्प की सीमा श्री नरीमन द्वारा प्रस्तावित अधिकतम 426 मिलियन अमेरिकी डॉलर और विद्वान अटॉर्नी जनरल द्वारा सुझाए गए न्यूनतम 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर के बीच की थी।" [आदेश दिनांक 4.5.89.pdf,पैरा 1, पृष्ठ 542]
ऐसी चर्चा कब और कहां हुई? ऐसी चर्चा निश्चित रूप से पीड़ित समूहों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में नहीं हुई, जो मामले में हस्तक्षेप कर रहे थे, या क्या खुली अदालत में, जहां सुनवाई यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन (यूसीसी) द्वारा दी जाने वाली अंतरिम राहत की मात्रा तक ही सीमित थी।
दूसरे शब्दों में, यह समझौता गैस पीड़ितों की पीठ पीछे यूसीसी और भारत सरकार के बीच की गई गुप्त बातचीत का नतीजा था। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस समझौते को उचित ठहराने के लिए आगे निम्न टिप्पणी की थी:
"[सेटलमेंट] आदेश इस आधार पर भी बनाया गया था कि भोपाल गैस रिसाव आपदा (दावों का पंजीकरण और प्रसंस्करण) अधिनियम, 1985 एक वैध कानून था।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 3, पृष्ठ 542]
चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने सेटलमेंट को उचित ठहराने के लिए 1985 के भोपाल अधिनियम का हवाला दिया था, तथा दावा किया था कि अधिनियम की धारा 3 के तहत केंद्र सरकार को गैस पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार दिया गया है, तो फिर उसी न्यायालय ने उसी अधिनियम की धारा 4 के महत्व पर क्यों और कैसे ध्यान नहीं दिया?
इसे सर्वोच्च न्यायालय की एक अन्य संविधान पीठ पर छोड़ दिया गया, जिसने भोपाल अधिनियम की संवैधानिक वैधता पर 22 दिसंबर, 1989 [(1990) 1 एससीसी 613] के अपने फैसले में, भोपाल अधिनियम की धारा 4 के निहितार्थों पर निम्नानुसार घोषणा की थी: "हमारी राय में, संवैधानिक आवश्यकताएं, धारा की भाषा, अधिनियम का उद्देश्य और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत हमें अधिनियम की धारा 4 की इस व्याख्या की ओर ले जाते हैं कि प्रस्तावित या विचाराधीन सेटलमेंट के मामले में, प्रभावित होने वाले पीड़ितों या जिनके अधिकार प्रभावित होने वाले हैं, को उनके विचार जानने के लिए नोटिस दिया जाना चाहिए।
"धारा 4 महत्वपूर्ण है। यह केंद्र सरकार को केवल 'किसी भी मामले पर उचित ध्यान देने' का निर्देश देती है, जिसके लिए ऐसे व्यक्ति को आग्रह करने की आवश्यकता हो। इसलिए, धारा 4 द्वारा परिकल्पित स्थिति में पीड़ितों के विचारों पर उचित ध्यान देने का दायित्व केंद्र सरकार पर है और केंद्र सरकार द्वारा उस दायित्व का निर्वहन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि पीड़ितों को यह नहीं बताया जाता कि सेटलमेंट प्रस्तावित है, इरादा है या विचाराधीन है।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 117, पृष्ठ 610]
दूसरे शब्दों में, यह सेटलमेंट गैस पीड़ितों की पीठ पीछे यूसीसी और भारत सरकार के बीच की गई गुप्त वार्ता का नतीज़ा था।
आगे यह भी कहा गया कि: "इस मामले के उपरोक्त दृष्टिकोण में, हमारी राय में, नोटिस आवश्यक था। पीड़ितों को नोटिस नहीं दिया गया था।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 119, पृष्ठ 610]
दूसरे शब्दों में, यह एक निर्विवाद तथ्य है कि केन्द्र सरकार ने प्रस्तावित सेटलमेंट के संबंध में गैस पीड़ितों को पूर्व सूचना न देकर समझौते की प्रक्रिया को जानबूझकर उनसे छुपाया, जो कि भोपाल अधिनियम की धारा 4 के तहत एक अनिवार्य जरूरत थी।
परिणामस्वरूप, जैसा कि अब स्पष्ट है, केंद्र सरकार ने यूसीसी द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरी तरह स्वीकार कर लिया था और इस प्रकार वह गैस पीड़ितों के हितों से समझौता करने की दोषी थी।
हालांकि, इस गंभीर अपराध के लिए केंद्र सरकार को दोषी ठहराने के बजाय, सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के पूरी तरह से अनुचित कृत्य को माफ करने का फैसला किया और निम्नलिखित टिप्पणी की: "[यह] नहीं कहा जा सकता कि अन्याय हुआ है। आखिरकार 'एक महान हक़ तय अधिकार करने के लिए' कभी-कभी 'थोड़ा गलत करने' की अनुमति होती है। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में, यह उन दुर्लभ अवसरों में से एक है।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 124, पृष्ठ 613]
इन सभी वर्षों में गैस पीड़ित यह सोच कर हैरान रह गए हैं कि इस अन्यायपूर्ण सेटलमेंट में ऐसा क्या “अच्छा” था या ऐसा क्या “सही” था, जिसे प्रख्यात कानूनी विद्वान प्रो. उपेंद्र बक्शी ने “दूसरा भोपाल हादसा” बताया है। [बक्शी और ढांडा (1990), पैरा 2, पृ. (i)]
सेटलमेंट की रकम का आधार
फिर से, सेटलमेंट आदेश में सेटलमेंट की रकम कम रहने के कारणों को उचित ठहराने के प्रयास में, 04 मई, 1989 के स्पष्टीकरण आदेश में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार चुनौती दी: "हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि यदि इस न्यायालय के सामने कोई ऐसी सामग्री प्रस्तुत की जाती है, जिससे यह उचित अनुमान लगाया जा सके कि यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन ने पहले कभी भी 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर के सीधे अग्रिम भुगतान से अधिक राशि का भुगतान करने की पेशकश की थी, तो यह न्यायालय सीधे खुद से कार्रवाई शुरू करेगा, जिसमें संबंधित पक्षों को कारण बताने के लिए कहा जाएगा कि क्यों न 14 फरवरी, 1989 के आदेश को रद्द कर दिया जाए और पक्षों को उनके मूल मुद्दो पर वापस भेज दिया जाए।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 4, पृष्ठ 542]
हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने मुआवजे की उस रकम के बारे में इसी प्रकार की चुनौती देने से परहेज किया, जो इंडियन यूनियन ने वास्तव में यूसीसी से मांगी थी।
न तो 4 मई, 1989 के स्पष्टीकरण आदेश [(1989) 3 एससीसी 38] में और न ही 3 अक्टूबर, 1991 के समीक्षा आदेश [(1991) 4 एससीसी 584] में मुआवजे की कुल रकम का कोई संदर्भ मिलता है जो केंद्र सरकार ने वास्तव में यूसीसी से मांगी थी। सच्चाई यह थी कि 29 जनवरी, 1988 को इंडियन यूनियन की संशोधित शिकायत में, यह इस प्रकार कहा गया है: "यह अनुमान लगाया गया है कि यदि मामले को सभी चरणों के माध्यम से निर्णय के लिए आज़माया जाता है, तो कुल दावों (मृत्यु और व्यक्तिगत हानि/चोट के मामलों सहित) का अनुमानित मूल्य 3,900 करोड़ रुपए (यूएस $3 बिलियन) से अधिक बैठेगा।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 42, पृष्ठ 193]
केंद्र सरकार ने यूसीसी द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरी तरह स्वीकार कर लिया था और इस प्रकार वह गैस पीड़ितों के हितों से समझौता करने की दोषी थी।
इसके विपरीत, सर्वोच्च न्यायालय का यह दावा कि इंडियन यूनियन ने न्यूनतम 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर की मांग की थी, किसी भी सार्वजनिक रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं है, सिवाय इसके कि इसका उल्लेख पहली बार 4 मई, 1989 [(1989) 3 एससीसी 38] और उसके बाद के स्पष्टीकरण आदेश में किया गया था। संयोग से, भोपाल अधिनियम की संवैधानिक वैधता पर निर्णय [(1990) 1 एससीसी 613] में निम्नलिखित टिप्पणी की गई:
“30 नवंबर, 1986 को जिला न्यायालय, भोपाल ने यूसीसी द्वारा 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर की भारमुक्त संपत्ति बनाए रखने के लिखित वचन के आधार पर यूसीसी द्वारा संपत्ति बेचने के खिलाफ निषेधाज्ञा हटा ली।” [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 10, पृष्ठ 553)
निश्चित रूप से, यदि यूसीसी को 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य की अप्रतिबंधित संपत्ति बनाए रखने के लिए बाध्य किया गया था, तो यह यूसीसी से क्षतिपूर्ति के लिए केंद्र सरकार के दावे की मात्रा पर आधारित रहा होगा, न कि किसी अन्य कारण से ऐसा होगा।
केंद्र सरकार ने 29 जनवरी, 1988 को भोपाल जिला न्यायालय के सामने दायर संशोधित शिकायत में इस सार्वजनिक स्टेंड को दोहराया था। [बक्सी एवं ढांडा (1990), पैरा 42, पृ. 193]
इसलिए, केंद्र सरकार द्वारा अंतिम सेटलमेंट रकम के रूप में उस रकम का मात्र छठा हिस्सा ही गुप्त रूप से दावा करने का क्या संभावित औचित्य प्रस्तुत किया जा सकता है?
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने 4 मई, 1989 के स्पष्टीकरण आदेश में या 3 अक्टूबर, 1991 के अपने पुनरीक्षण निर्णय में केंद्र सरकार के मुआवजे के रूप में 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर की मूल दावा राशि का कोई संदर्भ नहीं दिया। साथ ही, न्यायालय ने 15 फरवरी, 1989 के अपने आदेश में निम्नलिखित निर्देश देने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई:
“जिला न्यायालय, भोपाल में दिनांक 30 नवंबर, 1986 के आदेश के अनुसरण में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन द्वारा दिया गया वचन निरस्त माना जाएगा…” [बक्सी एवं ढांडा (1990), पैरा 4(ए), पृ. 528]
इन सभी वर्षों में, गैस पीड़ित यह सोचते रहे हैं कि इस अन्यायपूर्ण सेटलमेंट में क्या “महान” था या क्या “सही” था।
यूसीसी को भारत के सर्वोच्च न्यायालय से इससे अधिक बेहतरीन आदेश की उम्मीद नहीं हो सकती थी!
आपदा के प्रभाव का आकार और गहराई
यह अजीब बात है कि 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सेटलमेंट रकम का निर्धारण किस आधार पर किया गया, इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया, क्योंकि 14-15 फरवरी, 1989 [(1989) 1 एससीसी 674 और 676] के समझौता आदेशों में भोपाल आपदा के जीवित प्राणियों और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की भयावहता और गंभीरता के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया था।
इस कमी और सेटलमेंट की अन्य संदिग्ध शर्तों के खिलाफ होने वाली व्यापक आलोचनाओं के मद्देनज़र, सर्वोच्च न्यायालय 4 मई, 1989 को उक्त व्याख्यात्मक आदेश जारी करने पर बाध्य हुआ था [(1989) 3 एससीसी 38]।
अपने स्पष्टीकरण आदेश में, आपदा के प्रभाव की भयावहता और गंभीरता के बारे में सुप्रीम कोर्ट की बिना सोचे-समझे की गई टिप्पणियाँ वाकई हैरान करने वाली हैं। किसी भी स्रोत से कोई जानकारी लिए बिना, कोर्ट ने निम्नलिखित दूरगामी निष्कर्ष निकाले:
"अधिनियम के तहत बड़ी संख्या में दावे किए गए हैं। हालात की प्रकृति को देखते हुए, इस संदेह से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनमें से काफी संख्या में दावे बिना किसी उचित आधार के हैं या उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 2, पृष्ठ 543]
सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा कि “उनमें से बहुत से [दावे] या तो बिना किसी उचित आधार के हैं या फिर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए हैं?” क्या किसी ने दावों की सत्यता की जांच की और तदनुसार अदालत को सूचित किया? ऐसा लगता तो नहीं कि ऐसा हुआ है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, सेटलमेंट से ठीक पहले, मुआवज़े के लिए दायर किए गए कुल दावों की संख्या 5,50,000 को पार कर गई थी। [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 3, पृष्ठ 444]
हालाँकि, जहाँ तक वास्तव में जाँचे गए या प्रोसेस किए गए दावों की कुल संख्या की जानकारी का सवाल है, 8 दिसंबर 1987 तक उपलब्ध संख्या सिर्फ 60,000 थी। [बक्सी और डांडा (1990), पैरा 5, पृष्ठ 260]
प्रोसेस किए गए या जांचे गए कुल दावों की संख्या के बारे में आगे की जानकारी का खुलासा करने में इंडियन यूनियन की विफलता के कारण, यूसीसी ने 12 सितंबर, 1988 के अपने हलफनामे में सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि 29 जुलाई, 1988 के अपने रि-जोइंडर में उसने निम्नलिखित बातें बताई थीं:
निश्चित रूप से, यदि यूसीसी को 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य की अप्रतिबंधित संपत्ति बनाए रखने के लिए बाध्य किया गया था, तो यह यूसीसी से क्षतिपूर्ति के लिए केंद्र सरकार के दावे की मात्रा पर आधारित रहा होगा, न कि किसी अन्य कारण से ऐसा होगा।
“किसी भी समय उच्च न्यायालय के समक्ष कोई विस्तृत संसाधित दावा या तैयार रजिस्टर दाखिल नहीं किया गया।” [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 1, पृष्ठ 502]
यदि इंडियन यूनियन ने प्रोसेसेड़/संसाधित या जांचे गए दावों की कुल संख्या के बारे में उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय को कोई जानकारी पेश नहीं की है, तो सर्वोच्च न्यायालय गैस पीड़ितों द्वारा दायर 5,50,000 से अधिक दावों में से अधिकांश की सत्यता पर संदेह करने का अधिकार कैसे हासिल कर सकता है?
सर्वोच्च न्यायालय ने, केंद्र सरकार को न केवल दावे की जांच करने में विफल पाने, बल्कि चार वर्षों तक दावे पर निर्णय करने के लिए, दावा अदालतें गठित न करने के लिए भी क्यों नहीं आड़े हाथों लिया?
निर्विवादित आंकड़े?
दायर किए गए कुल दावों की संख्या पर अनुचित संदेह जताने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने "प्रथम दृष्टया निर्विवाद आंकड़े" के रूप में वर्णित आंकड़े की पहचान की:
"इसलिए, मृत्यु के मामलों और पर्याप्त रूप से मुआवज़ा योग्य व्यक्तिगत नुकसान/चोटों के कुछ प्रथम दृष्टया निर्विवाद आंकड़ों पर आगे बढ़ना अनुचित नहीं समझा गया। अस्पतालों में इलाज किए गए व्यक्तियों की संख्या का विवरण उस संबंध में एक महत्वपूर्ण संकेतक था।
"इस अदालत के पास वादी द्वारा खुद पेश किए गए आंकड़ों की हक़ीक़त पर संदेह करने की कोई वजह नहीं थी, जिसमें गंभीर रूप से घायल हुए व्यक्तियों की संख्या के बारे में बताया गया था।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 2, पृष्ठ 543]
सर्वोच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा कि जिन अस्पतालों और क्लीनिकों में गैस पीड़ितों का इलाज किया गया था, वे सभी गैस पीड़ितों का उचित और पूरा मेडिकल रिकॉर्ड रख रहे थे?
सर्वोच्च न्यायालय केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को कैसे सच मान सकता है, जबकि सच्चाई यह है कि सरकार ने हजारों गैस पीड़ितों के समुचित और पूरे मेडिकल रिकॉर्ड को बनाए रखने के लिए कोई प्रयास नहीं किए, जिन्होंने आपदा के बाद कई महीनों या कई वर्षों तक न केवल भोपाल बल्कि आसपास के इलाकों में विभिन्न स्थायी अस्पतालों और क्लीनिकों में चिकित्सा इलाज़ कराया था?
इसके अलावा, भोपाल में आपदा के तुरंत बाद स्वैच्छिक संगठनों द्वारा कई अस्थायी चिकित्सा शिविर लगाए गए थे। क्या सरकार ने उन सभी चिकित्सा रिकॉर्ड को इकट्ठा करने का कोई प्रयास किया?
केंद्र सरकार द्वारा अंतिम सेटलमेंट रकम के रूप में उस रकम का मात्र छठा हिस्सा ही गुप्त रूप से दावा करने के पीछे क्या संभावित औचित्य प्रस्तुत किया जा सकता है?
गैस पीड़ितों के समुचित और पूर्ण मेडिकल रिकॉर्ड रखने की अनिच्छा केंद्र और राज्य सरकारों की सबसे बड़ी गलती रही है। इसलिए, मुआवजे की रकम निर्धारित करने के लिए मृतकों और घायलों के आंशिक और काल्पनिक आंकड़ों पर निर्भर रहने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला न केवल अविवेकपूर्ण था, बल्कि उसकी ओर से निर्णय की एक बड़ी गलती भी थी।
घोर कम आंकलन
इस प्रकार के गलत आकलन के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा - जैसा कि 4 मई, 1989 के अपने व्याख्यात्मक आदेश में उल्लेख किया गया है - कि आपदा के प्रभाव के कारण केवल लगभग 3,000 पीड़ितों की मृत्यु हुई थी; अत्यधिक गंभीर रूप से घायल हुए पीड़ितों की संख्या केवल 2,000 थी; केवल लगभग 30,000 पीड़ितों को गंभीर चोटें आई थीं; अन्य 20,000 पीड़ितों को मध्यम áकर की चोटें आई थीं; तथा अन्य 50,000 पीड़ितों को मामूली चोटें आई थीं।
सर्वोच्च न्यायालय ने खुद यह मान लिया था कि पशुधन की हानि के लिए 50,000 दावे दायर किए गए थे और संपत्ति की हानि के लिए 50,000 दावे दायर किए गए थे – ये ऐसी धारणाएँ थीं जिनका कोई आधार नहीं था। [बक्सी और ढांडा (1990), पृ. 544-545]
इसके उलट, जैसा कि मध्य प्रदेश सरकार के भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग (बीजीटीआरआरडी) की वार्षिक रिपोर्ट (2021-22) से स्पष्ट है, 1989 तक (यानी, सेटलमेंट के समय तक) कुल 618,659 दावे दायर किए गए थे, जिनमें से व्यक्तिगत चोट के कारण दावों की संख्या 597,908 थी; मृत्यु के कारण निकटतम संबंधियों द्वारा दावे 15,310 थे; पशुधन की हानि के कारण दावे 612 थे; संपत्ति की हानि के कारण दावे 4,745 थे; और सरकारी एजेंसियों द्वारा दावे 84 थे। [देखें वार्षिक प्रशासनिक प्रतिवेदन 2021-2022 (भाग 1).pdf, पृष्ठ 35]
यदि 1989 तक मृत्यु के संबंध में 15,310 दावे दायर किए गए थे, तो सर्वोच्च न्यायालय उन 15,310 दावों की सत्यता की प्रारंभिक जांच किए बिना ही इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच गया कि उनमें से केवल 3,000 लोग ही वास्तव में आपदा के कारण मरे थे?
यूनियन कार्बाइड (यूसीसी) को भारत के सर्वोच्च न्यायालय से इससे अधिक अनुकूल और बेहतरीन निर्णय की आशा नहीं थी!
इसी तरह, अगर 597,908 दावे व्यक्तिगत चोट के कारण दायर किए गए थे, तो सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा कि उनमें से केवल 102,000 को ही किसी तरह की चोट लगी थी, जबकि 597,908 दावों में से केवल 60,000 पर ही कार्रवाई की गई या उनकी जांच की गई? तब तक किसी भी दावे पर फैसला नहीं सुनाया गया था - यह प्रक्रिया अगस्त 1992 में ही शुरू हुई थी।
सर्वोच्च न्यायालय 4 मई, 1989 के स्पष्टीकरण आदेश में यह कैसे घोषित कर सकता है कि लगभग 500,000 दावे फर्जी हैं, जबकि उन दावों की सत्यता की प्रारंभिक जांच भी नहीं की गई थी? [बक्सी एवं ढांडा (1990), पैरा 2, पृष्ठ 543]
क्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केवल मृतकों और घायलों के काल्पनिक अनुमानों के आधार पर सेटलमेंट करने का आदेश देना स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण नहीं था?
साथ ही, किस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने पशुधन की हानि और संपत्ति की हानि के 50-50 हजार मामलों में मुआवजा आवंटित किया, जबकि पशुधन की हानि के केवल 612 दावे और संपत्ति की हानि के 4,745 दावे ही दायर किए गए थे?
इसलिए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने मृतकों और घायलों के आंकड़े निर्धारित करने के लिए केवल अनुमान पर ही भरोसा किया था, अन्य किसी आधार पर नहीं ऐसा नहीं किया गया।
महज अनुमानों को “प्रथम दृष्टया निर्विवाद आंकड़े” के रूप में पेश करना सर्वोच्च न्यायालय की ओर से पूरी तरह से अनुचित था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय ने 4 मई, 1989 के अपने स्पष्टीकरण आदेश में निम्नलिखित स्वीकार करते हुए अपने निष्कर्षों के बारे में खुद निम्न संदेह व्यक्त किया था:
"यह सेटलमेंट ऐसी सामग्री और परिस्थितियों के आधार पर दर्ज किया गया है, जिसने अदालत को यह विश्वास दिलाया कि यह एक न्यायोचित सेटलमेंट था। इसका यह मतलब नहीं है कि यह अदालत किसी भी महत्वपूर्ण सामग्री और बाध्यकारी परिस्थितियों को बंद कर देगी जो उस पर समीक्षा की शक्तियों का प्रयोग करने का कर्तव्य थोप सकती हैं। अन्य सभी मानवीय संस्थाओं की तरह, यह अदालत भी मानवीय है और इसमें गलतियाँ हो सकती हैं।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 2, पृष्ठ 548]
अदालत ने आगे कहा कि: "यदि, सेटलमेंट की पहले की प्रक्रियाओं को अपील में मुख्य प्रतिद्वंद्वियों तक सीमित किए जाने के कारण, कुछ विपरीत या पूरक जानकारी या सामग्री का लाभ, जो कि सेटलमेंट के लिए बुनियादी मान्यताओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है, अदालत को देने से इनकार कर दिया गया है और इसके परिणामस्वरूप, प्रभावित व्यक्तियों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों का उल्लंघन करते हुए, न्याय की गंभीर विफलता हुई है, तो यह अदालत ऐसे किसी भी अन्याय को पलटने का प्रयास करेगी।
इसलिए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने मृतकों और घायलों के आंकड़े तय करने के लिए केवल अनुमान पर ही भरोसा किया था, बल्कि अन्य किसी आधार पर नहीं।
"लेकिन हम फिर से दोहराते हैं कि यह कानून द्वारा मान्यता प्राप्त प्रक्रियाओं के अनुसार होना चाहिए। जो लोग इस न्यायालय पर भरोसा करते हैं, उनके निराश होने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए।" [बक्सी और ढांडा (1990), पैरा 2, पृष्ठ 548-549]
गैस त्रासदी के पीड़ितों ने सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा तो जताया; पीड़ितों ने कानून द्वारा मान्यता प्राप्त सभी प्रक्रियाओं का पालन भी किया है; फिर भी, दुर्भाग्य से, आपदा के 40 साल बाद भी गैस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय नहीं मिला है।
सौजन्य: द लीफ़लेट
भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए 40 साल का संघर्ष —भाग 1
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