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भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए चालीस साल का संघर्ष—भाग 7

भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के न्याय की खोज में बीते चालीस वर्षों के बारे में बारह-भाग की श्रृंखला का सातवां भाग।
bhopal

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 22 दिसंबर 1989 को भोपाल अधिनियम की वैधता को बरकरार रखने के बाद [(1990) 1 एससीसी 613], सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने सिविल अपील संख्या 3187-3188/1988 में 14 और 15 फरवरी, 1989 के दो सेटलमेंट आदेशों की समीक्षा की, जो भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन (बीजीपीएमयूएस) द्वारा दायर समीक्षा याचिका संख्या 229/1989, भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति (बीजीपीएसएसएस) द्वारा दायर रिट याचिका संख्या 293/1989, और कुछ अन्य लोगों द्वारा दायर की गई थी।

3 अक्टूबर, 1991 को दिए गए फैसले में [(1991) 4 एससीसी 584], न्यायमूर्ति वेंकटचलैया, जो फैसले के लेखक हैं, ने 14 और 15 फरवरी, 1989 [(1989) 1 एससीसी 674 और 676] के असमर्थनीय सेटलमेंट आदेशों का बचाव करने का दृढ़ प्रयास किया है।

ऊपर दिए गए व्याख्यात्मक आदेश में कहा गया था कि यह समझौता इस धारणा पर आधारित था कि कुल मानव मृत्यु संख्या 3,000 थी।

इस प्रक्रिया में, 4 मई, 1989 के व्याख्यात्मक आदेश [(1989) 3 एससीसी 38] और 3 अक्टूबर, 1991 के समीक्षा के बाद के निर्णय के बीच अंतर्निहित विरोधाभास स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

उपर दिए गए व्याख्यात्मक आदेश में कहा गया था कि सेटलमेंट इस धारणा पर आधारित था कि कुल मानव मृत्यु दर 3,000 थी; अत्यधिक गंभीर रूप से घायल पीड़ितों की संख्या 2,000 थी; गंभीर रूप से घायल 30,000 थे; मध्यम रूप से घायल 20,000 थे; और हल्के रूप से घायल 50,000 थे। इन आंकड़ों को मिलाकर कुल 105,000 गैस पीड़ित थे, जो सेटलमेंट का आधार बने। [पृष्ठ 544-545]

हालाँकि, समीक्षा निर्णय [(1991) 4 एससीसी 653 (पैरा 127)] में, सर्वोच्च न्यायालय को निम्नलिखित बात स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा:

"ऐसा लगता है कि 31 अक्टूबर 1990 तक 639,793 दावे दायर किए गए थे... 31 अक्टूबर 1990 तक उनके मेडिकल फ़ोल्डरों में दर्ज आंकड़ों के आधार पर प्रभावित व्यक्तियों के चिकित्सा मूल्यांकन और वर्गीकरण के परिणाम निम्नानुसार हैं:

तैयार किये गये मेडिकल फोल्डरों की संख्या......... 361,966

मूल्यांकित फ़ोल्डरों की संख्या ……………………………….. 358,712

श्रेणीबद्ध फ़ोल्डरों की संख्या …………………………………... 358,712

कोई चोट नहीं …………………………………………………. 155,203

अस्थायी चोटें …………………………………………… 173,382

स्थायी चोटें …………………………………………… 18,922

अस्थायी चोट के कारण अस्थायी विकलांगता …. 7,172

स्थायी चोट के कारण अस्थायी विकलांगता …. 1,313

स्थायी आंशिक विकलांगता ………………………………… 2,680

स्थायी कुल विकलांगता ………………………………… 40

मृत्यु …………………………………………………………… 3,828

[कुल मृत और घायल = 2,07,337]”

[दिनांक 3 अक्टूबर, 1991 का समीक्षा निर्णय, पैरा 41]

आश्चर्य की बात यह है कि समीक्षा निर्णय इन निष्कर्षों के प्रभावों के बारे में पूरी तरह से मौन रहा है, यद्यपि मृतकों और घायलों की कुल संख्या उन अनुमानों से कहीं अधिक थी जिन्हें सेटलमेंट का आधार बनाया गया था।

निष्कर्षों की अनदेखी

आश्चर्य की बात यह है कि समीक्षा निर्णय इन निष्कर्षों के प्रभावों के बारे में पूरी तरह से मौन रहा है, यद्यपि मृतकों और घायलों की कुल संख्या उन अनुमानों से कहीं अधिक थी जिन्हें सेटलमेंट का आधार बनाया गया था।

यह ध्यान देने वाली बात है कि तथाकथित चिकित्सा वर्गीकरण अभ्यास 1987-90 की अवधि के दौरान आयोजित किया गया था, यानी भोपाल आपदा के तीन से छह साल बाद प्रत्येक दावेदार की चोट की डिग्री का आकलन करने के लिए किया गया था। इस संभावना पर कभी विचार नहीं किया गया कि वर्गीकरण अभ्यास से पहले विषाक्त की चोट के कई स्पष्ट लक्षण काफी कम हो गए होंगे।

यह प्रक्रिया, जो कि काफी हद तक दिखावा थी, अक्टूबर 1990 तक कुल 639,793 दावेदारों में से लगभग 361,966 दावेदारों को कवर कर लिया गया। कार्यकर्ताओं के एक समूह ने अक्टूबर 1989 में भोपाल में एक चिकित्सा सर्वेक्षण करने के बाद चिकित्सा वर्गीकरण प्रक्रिया की विस्तृत आलोचना तैयार की।

रिपोर्ट का निष्कर्ष, जिसका शीर्षक अगेन्स्ट आल ओड्स था और जिसे डॉ सी सत्यमला [रिट याचिका (सिविल) संख्या 293/1989 में याचिकाकर्ता], डॉ निशित वोहरा [रिट याचिका (सिविल) संख्या 11708/1985 में याचिकाकर्ता], और के सतीश ने तैयार किया था, वह इस प्रकार था: "दावेदारों की अपर्याप्त जांच (चिकित्सकीय रूप से और जांच के माध्यम से) और चोटों का मूल्यांकन करके और गैस पीड़ितों के खिलाफ पक्षपाती दोषपूर्ण उपकरणों के उपयोग से उन्हें वर्गीकृत करके, दावा निदेशालय, भोपाल ने 90 प्रतिशत से अधिक पीड़ितों की चोटों को 'कोई चोट नहीं' या 'अस्थायी चोट' के रूप में परिभाषित' किया है।"

आपदा के प्रभाव की भयावहता और गंभीरता को बेहद कम आंकने के सभी प्रयासों के बावजूद, दावा निदेशालय इस तथ्य को नहीं छिपा सका कि तथाकथित चिकित्सा वर्गीकरण अभ्यास के अनुसार भी, मृतकों और घायलों की कुल संख्या, सेटलमेंट के आधार पर अनुमानित आंकड़ों से दोगुनी थी।

यह प्रक्रिया, जो कि काफी हद तक दिखावा थी, अक्टूबर 1990 तक कुल 639,793 दावेदारों में से लगभग 361,966 दावेदारों को कवर कर लिया था।

हालांकि, एक दिलचस्प पहलू यह था कि, जबकि 4 मई 1989 के व्याख्यात्मक आदेश में कहा गया था कि अत्यधिक चोट, गंभीर चोट और मध्यम चोट (स्पष्ट रूप से अस्पताल के रिकॉर्ड के आधार पर) का सामना करने वालों के "प्रथम दृष्टया निर्विवाद आंकड़े" कम से कम 52,000 (2000 + 30,000 + 20,000) थे  [उपेंद्र बक्सी और अमिता डांडा (1990), पृ. 544-545], चिकित्सा वर्गीकरण अभ्यास के अनुसार उन श्रेणियों में कुल संख्या घटकर सिर्फ 30,127 रह गई थी।

"प्रथम दृष्टया निर्विवाद आंकड़े" (जो अस्पताल के रिकॉर्ड पर आधारित हैं) 52,000 से घटकर 30,127 कैसे हो सकते हैं, जब तक कि उन आंकड़ों में हेरफेर न किया गया हो? 22,000 गंभीर या मध्यम रूप से घायल गैस पीड़ितों के अस्पताल रिकॉर्ड अचानक कैसे गायब हो सकते हैं, जब तक कि चोटों की गंभीरता को जानबूझकर कम करने का ठोस प्रयास न किया गया हो?

जिस तरह से "प्रथम दृष्टया निर्विवाद आंकड़ों" में हेरफेर किया गया है, वह स्पष्ट संकेत है कि आपदा के प्रभाव की गंभीरता को कम करके दिखाने के लिए एक सुनियोजित चाल चली गई थी।

जबकि प्रभाव की गंभीरता को चुपके से कम करके आंका गया है, लेकिन तबाही के प्रभाव की भयावहता, जो बहुत बड़ी थी, को छिपाया नहीं जा सका। यहां तक कि चिकित्सा वर्गीकरण अभ्यास को भी यह स्वीकार करना पड़ा कि “अस्थायी चोटों”/“मामूली चोटों” से पीड़ित के रूप में वर्गीकृत किए गए पीड़ितों की संख्या 173,382 थी, यानी सेटलमेंट के समय अनुमानित संख्या से साढ़े तीन गुना अधिक, जो कि केवल 50,000 पीड़ित थे।

इंडियन यूनियन पर दायित्व

इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि समीक्षा आदेश के लेखक न्यायमूर्ति वेंकटचलैया ने चिकित्सा वर्गीकरण प्रक्रिया की औपचारिक रूप से सराहना तो की, लेकिन इसके निष्कर्षों के संबंध में जानबूझकर चुप्पी साधे रखी।

इसके बजाय, यह महसूस करते हुए कि आपदा के प्रभाव की भयावहता और गंभीरता वास्तव में समझौते के कल्पित आधार से कहीं अधिक थी, उन्होंने निम्नलिखित निर्देश सुनाने का फैसला किया: "[हालांकि] यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि - शायद असंभावित - घटना में, जब सेटलेंत्न की रकम सभी वर्तमान दावेदारों के संबंध में निर्धारित मुआवजे को पूरा करने के लिए अपर्याप्त पाई जाती है, तो वे व्यक्ति जिनके दावे की रकम समाप्त होने के बाद निर्धारित हो सकते हैं, उन्हें खुद के हाल पर नहीं छोड़ दिया जाएगा...

"यदि ऐसा होता है, तो पीड़ितों के हितों की रक्षा करने का उचित तरीका यह माना जाना चाहिए कि इंडियन यूनियन, एक कल्याणकारी राज्य के रूप में और जिन परिस्थितियों में सेटलमेंट किया गया था, उसमें कमी को पूरा करने में कमी नहीं पाई जानी चाहिए, यदि कोई हो। हम तदनुसार मानते हैं और घोषणा करते हैं।" [(1991) 4 एससीसी 584, पैरा 198]

"प्रथम दृष्टया निर्विवाद आंकड़े" (जो स्पष्ट रूप से अस्पताल के रिकॉर्ड पर आधारित हैं) 52,000 से घटकर 30,127 कैसे हो सकते हैं, जब तक कि उन आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ न की गई हो?

इस प्रकार, सभी गैस पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा देने के लिए सेटलमेंट की रकम में कमी को पूरा करने का पूरा दायित्व इंडियन यूनियन के कंधों पर डाल दिया गया, जबकि दोषी कंपनी - यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन - को सभी दायित्वों से आज़ाद कर दिया गया।

इस प्रक्रिया में, न्यायालय ने ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा को एक नया अर्थ प्रदान किया, अर्थात, एक ऐसा राज्य जो बहुराष्ट्रीय निगमों की देनदारियों का बोझ उठाने के लिए नियत है!

लगातार चिकित्सा निगरानी की जरूरत

अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि: "हमारे सामने पेश केई गए चिकित्सा रिसर्च के साहित्य के आधार पर, यह तर्कसंगत रूप से कहा जा सकता है कि एमआईसी की ऐसी सांद्रता के संपर्क में आने से विषाक्तता के कार्न बीमारी के लक्षण देर से पैदा हो सकते हैं।

"संक्रमित आबादी में कोई तत्काल लक्षणात्मक चिकित्सा की स्थिति प्रदिखाई नहीं दे सकती है। लेकिन विषाक्तता के कारण बीमारी की लंबी विलंबता अवधि चिकित्सा निगरानी लागत को एक स्वीकार्य दावा बनाती है, भले ही उस समुदाय में बीमारी की आशंका वाली जटिलताओं का विकास न हो।" [(1991) 4 एससीसी 584, पैरा 128]

हालांकि, सेटलमेंट रकम तय करते समय चिकित्सा निगरानी की लागत को ध्यान में नहीं रखा गया था। इसलिए, समीक्षा निर्णय में, आगे यह निर्देश दिया गया कि: "यह बेहतर होगा कि चिकित्सा निगरानी और विशेषज्ञ आ धारित इलाज़ के लिए एमआईसी से संबंधित बीमारी के उपचार के लिए सर्वोत्तम उपकरणों के साथ कम से कम 500 बिस्तरों की क्षमता वाले एक पूर्ण अस्पताल की स्थापना के रूप में विशेषज्ञ चिकित्सा सुविधा प्रदान की जाए...

"हम मानते हैं कि पीड़ितों को मुफ्त इलाज़ और सेवाएं मुहैया कराने के लिए अस्पताल और उसे चलाने के लिए खर्च पर पूंजीगत व्यय, मानवीय विचारों और भोपाल न्यायालय के सामने दिए गए प्रस्ताव को यूसीसी और यूसीआईएल द्वारा मानना चाहिए और उसका खर्च उठाना चाहिए।" [(1991) 4 एससीसी 584, पैरा 203]

इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि समीक्षा आदेश के लेखक न्यायमूर्ति वेंकटचलैया ने चिकित्सा वर्गीकरण प्रक्रिया की औपचारिक रूप से सराहना तो की, लेकिन इसके निष्कर्षों के संबंध में जानबूझकर चुप्पी साधे रखी।

चिकित्सा निगरानी और विशेषज्ञ चिकित्सा देखभाल की जरूरत को मान्यता देना सर्वोच्च न्यायालय के बहुत महत्वपूर्ण निर्देश थे, ये निर्देश बीजीपीएमयूएस, बीजीपीएसएसएस और अन्य द्वारा दायर समीक्षा और रिट याचिकाओं के जवाब में दिए गए थे।

इस सब के परिणामस्वरूप, यूसीसी को इसके लिए अतिरिक्त 50 करोड़ का योगदान करने का निर्देश दिया गया [(1991) 4 एससीसी 584, पैरा 204], जो कि एक मामूली राशि थी जो सभी आवश्यक सुपर-स्पेशलिटी सुविधाओं के साथ 500 बिस्तरों वाले अस्पताल के निर्माण के लिए बिलकुल नाकाफी थी।

हालांकि, यूसीसी ने कभी भी एक भी अतिरिक्त पैसा नहीं दिया और सुप्रीम कोर्ट ने यूसीसी को उक्त राशि का भुगतान करने को बाध्य करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की। अंततः, अस्पताल के लिए धन एक संदिग्ध प्रक्रिया के जरिए हासिल हुई-यूसीआईएल में यूसीसी के शेयरों की बिक्री से, जिन्हें यूसीसी को चल रहे आपराधिक मामले में फरार घोषित किए जाने के बाद जब्त कर लिया गया था।

बीमा कवर

समीक्षा आदेश में एक और निर्देश चिकित्सा बीमा कवरेज की आवश्यकता के बारे में था। उस निर्णय के अनुसार:

“205. यह भोपाल की जनता के उन सदस्यों से संबंधित है, जिन्हें जोखिम में डाल दिया गया था और जो वर्तमान में लक्षणहीन हैं और जिन्होंने मुआवजे के लिए कोई दावा दायर नहीं किया है, लेकिन वे जो भविष्य में लक्षणग्रस्त हो सकते हैं।

एमआईसी विषाक्तता के संपर्क में आने वाली माताओं के उन अजन्मे बच्चों की देखभाल कैसे की जानी चाहिए, जहां बच्चों में जन्मजात दोष पाए जाते हैं या दोष विकसित हो सकते हैं?

206. सवाल यह है कि ऐसे मामलों में मुआवजा कौन देगा?

“207. हमारा विचार है कि संभावित भावी पीड़ितों के इस प्रभावित वर्ग को मुआवजा देने के लिए भारतीय साधारण बीमा निगम या भारतीय जीवन बीमा निगम से उचित चिकित्सा समूह बीमा कवर हासिल करके ऐसी कंटिन्जेंसी/आकस्मिकताओं का ध्यान रखा जाना चाहिए था…

"इस समूह बीमा योजना के अंतर्गत कवर किए जाने वाले व्यक्तियों की संख्या लगभग एक लाख [100,000] व्यक्तियों से कम नहीं होनी चाहिए... यह बीमा कवर वस्तुतः सेटलमेंट को एक ओपन-एंडेड समाधान बनाने का काम करेगा, उनके लिए जो मौजूदा और बाद में पैदा होने वाले भावी पीड़ितों के आकस्मिक वर्ग का संबंध है। संभावित दावेदार दो श्रेणियों में आते हैं: वे जो जोखिम के समय अस्तित्व में थे [जो शुरू में लक्षणहीन थे और जिन्होंने दावा दायर नहीं किया था]; और वे जो अभी तक अजन्मे थे और जिनके जन्मजात दोष एमआईसी विषाक्तता के कारण विरासत में मिले या जन्मजात रूप से हासिल हुए हैं।" [(1991) 4 एससीसी 584]

सेटलमेंट की रकम तय करते समय चिकित्सा निगरानी लागत को ध्यान में नहीं रखा गया।

हालाँकि, जबकि सेटलमेंट रकम का कोई भी हिस्सा बीमा प्रीमियम के भुगतान के लिए तय नहीं किया गया था, तो सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित निर्देश किए कि: "बीमा के लिए प्रीमियम का भुगतान इनिदान यूनियन द्वारा सेटलमेंट रकम से किया जाएगा।" [(1991) 4 एससीसी 584, पैरा 209]

एक खोखला प्रस्ताव

इस प्रकार, यह साफ़ हो गया कि बीमा कवर की जरूरी सेटलमेंट की शर्तों के तहत परिकल्पित आकस्मिकता नहीं थी, बल्कि सेटलमेंट रकम को बढ़ाने के लिए कोई कदम उठाए बिना इसे मनमाने ढंग से इसमें शामिल कर लिया गया।

हालांकि बीमा कवर देने का निर्देश वास्तव में एक समझदारी भरा प्रस्ताव था, लेकिन 100,000 संभावित पीड़ितों को कवर करने के लिए आवश्यक बीमा प्रीमियम के अनुपात में सेटलमेंट रकम को बढ़ाने में विफलता ने अदालत के निर्देश को पूरी तरह से खोखला बना दिया।

याद रहे कुल सेटलमेंट की रकम केवल 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर थी, जो तत्कालीन विनिमय दर (1 अमेरिकी डॉलर = 15.20 रुपये) के हिसाब से केवल 715 करोड़ रुपये के बराबर थी।

हालांकि, अगर 100,000 संभावित पीड़ितों (जिनकी औसत आयु 30 वर्ष है) को 15 वर्ष की पॉलिसी अवधि और 10 वर्ष की प्रीमियम अवधि के साथ प्रत्येक को केवल 125,000 रुपए की तय रकम के लिए चिकित्सा बीमा द्वारा कवर किया जाता है, तो दस वर्षों के लिए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष लगभग 15,000 रुपए का कुल प्रीमियम 1,500 करोड़ रुपए से कम नहीं होगा! [उदाहरण के लिए: एलआईसी की भीमाँ ज्योति योजना देखें]

यदि सेटलमेंट की शर्तों के अनुसार 105,000 गैस पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए 715 करोड़ रुपये बमुश्किल पर्याप्त थे, तो क्या न्यायालय की ओर से यह सुझाव देना पूरी तरह से बेतुका नहीं था कि 715 करोड़ रुपये की सेटलमेंट रकम में से 1,500 करोड़ रुपये का प्रीमियम चुकाया जाना चाहिए?

इसलिए, यह बहुत साफ़ है कि न्यायालय ने बीमा कवर की जरूरत को स्पष्ट रूप से पहचाना, लेकिन उसने सेटलमेंट रकम को बढ़ाने से परहेज किया। न्यायालय यूसीसी पर अपेक्षित प्रीमियम के भुगतान का दायित्व डालकर सेटलमेंट की रकम को बढ़ा सकता था।

क्या न्यायालय के पास इस निष्कर्ष पर पहुंचने का कोई आधार था कि निपटान निधि 100,000 संभावित पीड़ितों के लिए बीमा कवर के प्रीमियम का भुगतान करने के लिए पर्याप्त थी? ऐसा कोई आधार ही नहीं था!

चूंकि न्यायालय ने समझौते के समय गैस से पीड़ित माता-पिता से पैदा हुए भावी पीड़ितों की भावी पीढ़ियों के दावों को ध्यान में नहीं रखा था।

न्यायालय को इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि सेटलमेंट की रकम से प्रीमियम का भुगतान किया जा सकता है या नहीं। यदि न्यायालय ने वास्तव में आवश्यक गणना करने का प्रयास किया होता, तो उसे तुरंत पता चल जाता कि ऐसी कोई संभावना नहीं है। दूसरे शब्दों में, न्यायालय का यह आधार कि सेटलमेंट की रकम से प्रीमियम का भुगतान किया जा सकता है, एक कल्पना से पैदा हुआ विचार मात्र था।

चूंकि न्यायालय, समझौते के समय, गैस पीड़ित माता-पिता से पैदा हुए भावी पीड़ितों की भावी पीढ़ियों के दावों को ध्यान में रखने में विफल रहा था, इसलिए समीक्षा और रिट याचिकाओं का निपटारा करते समय, उसे मुआवजे के लिए उनके दावों की वैधता को ध्यान में रखना पड़ा और किसी तरह न्याय प्रदान करने का तरीका निकालना पड़ा।

वास्तव में, सेटलमेंट की रकम से प्रीमियम का भुगतान करने का निर्देश केवल एक इशारा था, जो न्याय करने का आभास देता था; वास्तव में, ऐसा कोई तरीका नहीं था कि उनके बीमा कवर के लिए प्रीमियम का भुगतान बहुत ही कम सेटलमेंट में दी गई रकम से किया जा सकता था।

इस प्रकार, न्यायालय ने जो कुछ भी किया वह भविष्य में पैदा होने वाले गैस पीड़ितों को सुनिश्चित मुआवजे की झूठी उम्मीद देना था। यह बात रिकॉर्ड में दर्ज की जानी चाहिए कि न्यायालय ने भोपाल गैस पीड़ितों के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया क्योंकि उसने चिकित्सा बीमा कवर के लिए आवश्यक प्रीमियम का भुगतान करने के लिए यूसीसी को सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराया।

आवश्यक कार्य

महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रस्तावित चिकित्सा बीमा कवर का दायरा केवल उन लोगों तक सीमित था, जो आपदा के दिन गैस प्रभावित वार्डों में मौजूद थे, लेकिन उन्होंने अभी तक दावा दायर नहीं किया था (क्योंकि उनमें लक्षण नहीं थे) और वे लोग जो जन्म से ही विकृतियों के साथ पैदा हुए थे वे गैस से प्रभावित माता-पिता से पैदा हुए थे।

[बेशक, बीमा कवर उन सभी दावेदारों को भी दिया जाना चाहिए था, जिन्हें अहानिकर घोषित किया गया था या जिन्हें केवल मामूली चोटें थीं, लेकिन जिनकी छिपी हुई चोटें विलंबित प्रभावों के कारण बाद में गंभीर चोटों के रूप में प्रकट हो सकती थीं।]

वैसे भी, संभावित पीड़ितों की पहचान करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी। जब तक गैस से प्रभावित पूरी आबादी को मेडिकल निगरानी में नहीं रखा जाता, तब तक बीमा कवर के लिए पात्र 100,000 संभावित पीड़ितों की पहचान करना एक असंभव काम था।

वास्तव में, सेटलमेंट की रकम से प्रीमियम देने का निर्देश केवल एक इशारा था, जो न्याय करने जैसा लगता था।

वास्तव में, 1985 की शुरुआत में, सुप्रीम कोर्ट ने रिट याचिका (सिविल) संख्या 11708/1985 (निशित वोहरा एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य) में 4 नवंबर 1985 के आदेश में निम्नलिखित निर्देश दिए थे:

"यह जरूरी है कि कुछ स्वतंत्र मशीनरी स्थापित की जानी चाहिए ... [जिसके लिए] उचित महामारी विज्ञान सर्वेक्षण और गैस प्रभावित पीड़ितों का घर-घर सर्वेक्षण किया जाना चाहिए, दोनों सर्वेक्षण गैस प्रभावित पीड़ितों और उनके परिवारों को देय मुआवज़ा निर्धारित करने के उद्देश्य से भी आवश्यक होंगे। गैस प्रभावित पीड़ितों को उचित चिकित्सा सुविधाएँ सुनिश्चित करने के उद्देश्य से यह आवश्यक होगा।"

सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे खास निर्देशों के बावजूद, आज तक न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकार ने यह सुनिश्चित करने पर ध्यान दिया है कि इस तरह के महामारी विज्ञान और घर-घर सर्वेक्षण किए जाएं।

[जैसा कि इस श्रृंखला की भाग-2 में पहले ही बताया जा चुका है, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS) और सोश्ल वर्क के नौ अन्य विद्यालयों द्वारा स्वैच्छिक रूप से किए गए घर-घर सर्वेक्षण को राज्य सरकार ने फरवरी 1985 के मध्य में अचानक निरस्त कर दिया था और 25,000 से अधिक घरों के सभी प्रोफार्मा को जब्त कर लिया था।]

इस तरह के घर-घर सर्वेक्षण और उचित चिकित्सा निगरानी के अभाव में, 100,000 संभावित पीड़ितों को बीमा कवरेज सुनिश्चित करने का काम महज एक सपना ही बना रहता, भले ही इसके लिए प्रीमियम की धनराशि किसी अन्य स्रोत से जुटाई गई होती।

वैसे, बीमा कवर का प्रस्ताव करना एक बात है, लेकिन क्या सेटलमेंट की रकम सभी गैस पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए काफी थी, यह एक अलग मामला है, जिसकी इस लेख के अगले भाग में विस्तार से जांच की जाएगी।

आपराधिक मुकदमों को दोबारा से जीवित करने के बारे में

समीक्षा आदेश का एक बहुत ही उल्लेखनीय पहलू, निश्चित रूप से, सेटलमेंट के सौदे के उस हिस्से को वापस करने का निर्णय था – जिसमें बीजीपीएमयूएस, बीजीपीएसएसएस और अन्य के कहने पर आपराधिक मामलों को रद्द करना शामी था जिसके तहत निम्नलिखित निर्देश पारित किया गया कि: "[हम] मानते हैं कि 14 और 15 फरवरी, 1989 के आदेशों द्वारा लाई गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने और समाप्त करने की आवश्यकता है, और इसकी समीक्षा की गई है और इसे अलग रखा जाता है।" [(1991) 4 एससीसी 584, पैरा 93]

सभी आरोपियों के खिलाफ आपराधिक मामलों को पुनर्जीवित करने के अलावा, समीक्षा निर्णय समझौते की किसी भी अन्य शर्तों को परेशान न करने के लिए बहुत सावधान रहा है। इसके बजाय, समझौते की शर्तों में निहित दोषों को सुधारने का दायित्व केंद्र सरकार पर डाल दिया गया और यूसीसी को किसी भी अन्य "बोझ" से बचा लिया गया।

सौजन्य: द लीफ़लेट

भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए 40 साल का संघर्ष —भाग 1

भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए 40 साल का संघर्ष—भाग 2

भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए चालीस साल का संघर्ष—भाग 3

भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए 40 साल का संघर्ष—भाग 4

भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए 40 साल का संघर्ष—भाग 5

भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए चालीस साल का संघर्ष—भाग 6

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