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छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

एनईपी 2020 के विरोध में आज दिल्ली में छात्र संसद हुई जिसमें 15 राज्यों के विभिन्न 25 विश्वविद्यालयों के छात्र शामिल हुए। इस संसद को छात्र नेताओं के अलावा शिक्षकों और राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी संबोधित किया।
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देश के अलग- अलग राज्यों से दिल्ली पहुंचे सैकड़ों छात्रों ने आज तपती दोपहर में संसद से कुछ ही दूर अपनी ‘छात्र संसद’ लगाई। इस संसद में छात्रों के साथ शिक्षक और राजनीतिक दलों के सदस्य भी शमिल हुए। इस संसद के माध्यम से छात्रों ने नई शिक्षा नीति (एनईपी) को छात्र विरोधी बताते हुए इसे तत्काल वापस लेने की मांग की।

इस छात्र संसद का आयोजन वाम छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (अइसा) ने किया था। उन्होंने दावा किया कि आज 31 मई 2022 की छात्र संसद में 15 राज्यों के विभिन्न 25 विश्वविद्यालयों के छात्र एनईपी 2020 वापस लेने की मांग को लेकर दिल्ली आए। इसमें तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्र शामिल थे। इसके लिए पिछले कई सप्ताह से देशभर के कैंपसों में अभियान भी चलाया गया।

इस छात्र संसद को राजनीतिक दल के नेता, शिक्षाविद और विभिन्न विश्वविद्यालयों से आने वाले छात्रों ने संबोधित किया ।

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भाकपा-माले (लिबरेशन) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, राष्ट्रीय जनता दल से राज्यसभा सदस्य प्रो. मनोज झा, शिक्षाविद प्रोफेसर रतन लाल, प्रो. अपूर्वानन्द और जितेंद्र पृथ्वी मीणा और कई अन्य वक्ता एवं छात्र नेताओं ने भी छात्र संसद को संबोधित किया।

उत्तराखंड के गढ़वाल विश्वविद्यालय से आए छात्र अंकित ने कहा कि सरकार नई शिक्षा नीति के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा करना चाहती है जबकि हमारे जैसे पहाड़ी राज्यों में नेटवर्क की समस्या है। अगर हम छात्रों की समस्या छोड़ भी दें तो क्या हमारा संस्थान इसके लिए तैयार हैं? बिल्कुल नहीं! अभी पीछे हमारे गढ़वाल विश्वविद्यालय के सेंट्रल कैंपस में ट्रायल के तौर पर ऑनलइन एग्जाम लिए गए लेकिन कुछ ही घंटो में पूरा सिस्टम ही क्रैश हो गया।

अंकित पूर्व में गढ़वाल विश्वविद्यालय छात्रसंघ के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। उन्होंने कहा सरकार छात्रों को हर बार सपने दिखती है जबकि हक़ीक़त कुछ और होती है। इसी तरह कुछ साल पहले सरकार बड़े जोड़ शोर से सीबीसीएस (क्रेडिट बेस च्वाइस सिस्टम) लाई तब छात्रों से कहा गया उन्हें च्वाइस दी जा रही है कि वो बीएसई के साथ अगर संगीत पढ़ना चाहे तो पढ़ सकते हैं, लेकिन हालत यह है कि हमारे यहाँ अभी बीएसई में 1100 से ज़्यादा छात्र हैं लेकिन उन्हें पढ़ाने वाले मात्र 5 से 6 शिक्षक हैं और अगर और नए विद्दार्थी पढ़ने आए तो उन्हें कौन पढ़ाएगा ? सरकार मूल समस्या शिक्षकों की कमी जैसे सवाल पर ध्यान न देकर लगातार शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा दे रही है।

झारखंड से आए छात्र नेता त्रिलोकी ने कहा कि हमारे यहां 40% से अधिक शिक्षकों के पद खाली हैं। हम मांग करते है कि इन पदों को भरा जाए तो सरकार नई शिक्षा नीति के माध्यम से राज्य के गरीब वंचित 90% छात्रों को ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर शिक्षा से बाहर कर देना चाहती है। हमारे राज्य में जहाँ लोग भूख से मर जाते है वहां गरीब लोगों स्मार्ट फोन कहां से लेंगे ?

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तमिलनाडु से आई छात्र नेता मंगई ने कहा हमारे यहाँ कई संस्थनों में फीस बढ़ोतरी के खिलाफ लड़ाई चल रही है। हालाँकि तमिलनाडु सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वो इस नई शिक्षा नीति को लागू नहीं करेगी लेकिन हम देश के बाकी छात्रों के साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए यहां आए हैं।

बिहार के पटना विश्वविद्यालय से आए विकास ने कहा बिहार में नई शिक्षा नीति के नाम पर लगातार फीस बढ़ोतरी की जा रही है और हज़ारों प्राथमिक स्कूलों को बंद कर दिया गया है।

विकास आइसा के बिहार इकाई के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने कहा कि कई विश्वविद्यालय में तो वीसी तक स्थायी नहीं है। हमारे यहाँ पहले से तीन साल में होने वाल स्नातक 5 साल में होता है और अब इस शिक्षा नीति के लागू होने के बाद एक साल और बढ़ जाएगा यानी अब इसमें छह साल लगेगें।

बिहार के पालीगंज से माले विधायक और आइसा के राष्ट्रीय महासचिव संदीप सौरभ ने भी छात्र संसद को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि यह नीति अभी आई है लेकिन छात्र आंदोलन पहले से ही अपने गीतों से इस ख़तरे को बताता रहा है। उन्होंने छात्र आंदोलन के मशहूर गीत जोगीरा के के बारे कहा जिसमें कहा गया कि नई शिक्षा नीति से नया बना कानून मंत्री जी का बेटा पढ़ने जाए देहरादून की बाक़ी लोग चरावे भैंस !

संदीप ने आगे कहा कि भले ये शिक्षा नीति 2020 में आई लेकिन हमने देखा है 2014 जबसे ये सरकार आई है तब से ही शिक्षा पर हमले शुरू कर दिए और जब ये हमले गौरकानूनी लगने लगे तो सरकार ने उन हमलों को ही एकसाथ लेकर एक कानून नई शिक्षा नीति बनाकर हमारे सामने ला दिया।

सांसद मनोज झा ने भी छात्र संसद में अपनी बात रखते हुए कहा कि ये नीति सरकार द्वारा बिना किसी चर्चा और विमर्श के लाई गई और ऐसा लगता है कि वह ऐसे मुद्दे पर कोई संवाद नहीं चाहती है। जो भारत में शिक्षा के भाग्य का निर्धारण करेगा। उन्होंने कहा, "मुझे कहना होगा कि जिस नीति का आप विरोध कर रहे हैं वह कभी संसद में पेश ही नहीं की गई। जब मैंने संसद के शून्यकाल में इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की, तो मुझे बताया गया कि यह एक नीतिगत निर्णय है और इस पर संसद में बहस नहीं हो सकती है। इसलिए, मैंने जाँच की कि क्या पिछले वर्षों में अन्य शिक्षा नीतियों के समय भी ऐसा ही था। आपके आश्चर्य के लिए, यह पहली मिसाल थी कि इस (शिक्षा नीति ) पर बहस नहीं हो रही थी। 1966 में जब कोठारी आयोग ने अपनी सिफारिश रखी, तो उस पर विधिवत बहस हुई और उसे पारित कर दिया गया। इसी तरह जब राजीव गांधी के शासन में संशोधित शिक्षा नीति आई तो इस पर भी चर्चा हुई।

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सांसद मनोज झा आगे कहते हैं कि मैं अक्सर कहता हूं कि राजा अक्सर छाती की बात करता है। अगर उन्होंने तर्क को थोड़ा दिल दिया होता, तो परिणाम कुछ और होते। मैं मध्यम वर्ग को भी आगाह कर दूं कि उनके बच्चे भी हाशिये पर चले जाएंगे। यह वर्ग अक्सर बिना किसी समझ के उत्सव मनाता है। कृपया आप मूर्खों के स्वर्ग में रहना बंद करें यदि आपको लगता है कि यह नीति आपके बच्चों को सशक्त बनाएगी। यह नहीं होगा। सब कुछ छोड़ दो, अगर आप यहां संविधान की प्रस्तावना के समक्ष भी एनईपी रखेंगे, तो आप पाएंगे कि यह संविधान संगत नहीं है। एक नीति दस्तावेज जो प्रतीकात्मक रूप से सामाजिक न्याय की बात न करता हो , आप उससे क्या उम्मीद कर सकते हैं! इस नीति ने ऋण और अनुदान के बीच के अंतर को समाप्त कर दिया है।

उन्होंने कहा- लेकिन क्या चारों ओर सब कुछ इतना दुखद है। मुझे लगता है कि देखने के लिए हमें अपने चारों ओर देखना चाहिए। जब संसद के माध्यम से कृषि कानूनों के माध्यम इस देश का गला घोंट दिया गया, मैं बहुत परेशान था। हमारे तर्क और प्रमाण कूड़ेदान में फेंक दिए गए। अगर राजा को लगता है कि यह लोगों के पक्ष में है, तो इसे लागू किया जाना चाहिए। लेकिन हमारी सड़के जाग गईं। किसानों ने उन्हें झुका दिया। एक व्यक्ति जिसने कहा कि मैं अपने फैसले से कभी पीछे नहीं हटता, उसे कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा। मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि इस लड़ाई को छोटे शहरों में ले जाएं। हमें यह कहने में सक्षम होना चाहिए कि यह दस्तावेज़ हमारी गुलामी का दस्तावेज़ है। यह आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज है। इससे हानिकारक कुछ नहीं हो सकता!"

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