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अतीक-अशरफ हत्याकांड: संविधान के सुसंगत ढांचे पर सुनियोजित प्रहार?

क़ानून का राज ख़त्म होगा तो सिर्फ़ एक या दो समुदायों के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए ख़त्म होगा। दलित, आदिवासी, ग़रीब, मज़दूर, महिलाएं और लोकतंत्र तथा समानता के हिमायती भी निशाने पर होंगे।
atiq ahmed

15 अप्रैल की रात क़रीब साढ़े दस बजे जिसे इन दिनों प्रयागराज कहा जाता है, उस इलाहाबाद में ताबड़तोड़ चली गोलियों की गूंज सहज ही मंद पड़ने वाली नहीं है। इसलिए नहीं कि ये 22 सेकंड्स तक चली गोलियां लाइव वीडियो में दर्ज हो चुकी हैं और अनेक डिजिटल माध्यमों से बार-बार देखी, दिखाई, सुनी और सुनवाई जा रही है, बल्कि इसलिए कि ये गोलियां सिर्फ़ पुलिस हिरासत में मेडिकल जांच के लिए ले जाए जा रहे किसी अतीक़ या अशरफ़ के शरीर से गुज़री या पोस्टमार्टम के बाद निकली 8 या 5 गोलियां नहीं हैं, बल्कि इनकी पहुंच 'पॉइंट ब्लैंक' से आगे बहुत दूर कहीं और है।

15 अप्रैल को मोतीलाल नेहरू चिकित्सालय के बाहर जो हुआ उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। रात में बेवक्त अतीक़ और अशरफ़ को चिकित्सीय जांच के लिए लाया जाना, गाड़ी को दूर बाहर ही छोड़कर उन्हें खुले में पैदल ही ले जाना, वहां कथित मीडिया का पहले से ही तैनात मिलना, हत्या के बाद हत्यारों द्वारा कथित आत्मसमर्पण के बाद जय श्रीराम के नारे लगाना, हत्या के फ़ौरन बाद से नफरती ब्रिगेड का उन्माद भड़काने के काम में धुआंधार तरीके से जुट जाना, जैसी अब तक की आई जानकारियों से साफ़ हो जाता है कि मामला सिर्फ़ वैसा नहीं है जैसा दिखाया जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों समेत अनेक व्यक्तियों और संगठनों ने, पुलिस के मूकदर्शक बने रहने, अत्यंत मामूली आर्थिक पृष्ठभूमि वाले हत्यारे युवकों द्वारा महंगे हथियार का इस्तेमाल करने, भारत में प्रतिबंधित अत्याधुनिक पिस्तौलों के इस्तेमाल समेत अनेक दूसरे जायज़ सवाल भी उठाए हैं। आने वाले दिनों में इस हत्याकांड के कई और पहलुओं का सामने आना तय है। इस ख़बर के लिखे जाने तक इस हत्याकांड समेत यूपी में हुई कथित पुलिस मुठभेड़ मौतों की जांच के लिए, सर्वोच्च न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता में समिति बनाने के लिए एक याचिका भी दायर की जा चुकी है।

यहां सवाल यह नहीं है कि मरने वाले अपराधी थे या मारने वाले संत हैं। यहां चिंता यह है कि यह कांड सभ्य समाज की बुनियाद को ही ध्वस्त कर देने की ताज़ी, सुविचारित, सुनियोजित कोशिश है। संविधान के सुसंगत ढांचे के तिरस्कार का यह विचलन - जिसके एक प्रचलन बन जाने की अपार आशंकाएं हैं - एक ऐसी रपटीली फिसलन है जो देश और समाज दोनों को ऐसी गर्त में ले जाएगी जिसका अनुमान लगाना ही सिहरन पैदा कर देता है।

उत्तर प्रदेश पुलिस का दावा है कि 6 वर्ष के योगी राज में उसने मार्च 2023 तक 10,713 मुठभेड़ों में 5,967 अपराधियों को पकड़ा है, इसमें 1,708 घायल हुए हैं और 183 को "मार गिराया" है। अतीक़ के बेटे की मुठभेड़ में हुई मौत और उसके बाद ख़ुद अतीक़ और उसके भाई अशरफ़ की हत्या भी इसी तरह का आंकड़ा है? नहीं! यह इस एनकाउंटर राज से आगे का चरण है - यह पुलिस हिरासत में हत्या हो जाना है। यह मुठभेड़, हत्याओं की आउटसोर्सिंग नहीं है - यह सत्ता पार्टी की राजनीति से नियंत्रित पुलिस और पिस्तौलों के अलावा उसकी विचारधारा से भी लैस गुंडों और अपराधियों का फ्यूज़न है। यह नई कार्यनीति है। एक ऐसी कार्यनीति जिसे अब तक भीड़ हत्याएं कहा जाता रहा है, उन्हें बाकायदा संस्थानिक काम का दर्जा देती है। इसके साथ-साथ यह फासीवादियों का शास्त्रीय - कॉपीबुक - अनुकरण है। यह पूरे समाज को भय और आतंक में डुबो देने की कार्यनीति है। इस हत्याकांड के बाद चली मुहिम से यह बात साफ़ हो जाती है। अब तक इस कार्यनीति को दूसरी तरह आज़माया जाता था। निशाने पर लिए गए समुदायों पर खुलेआम हिंसा और अपराध करने वालों को सज़ा से बचाना, उन्हें गौरांवित करना, उन्हें नायक बनाना, हिंदू-ह्रदय सम्राट बताना आदि तमाम तरतीबें निकाली जाती थीं। ग्राहम स्टेंस और उनके मासूम बच्चों के हत्यारे दारा सिंह से लेकर, शम्भूदयाल रैगरों से होते हुए बिलकिस बानो प्रकरण के बलात्कारी नरसंहारी जैसे इसके उदाहरण अब अनगिनत हो गए हैं।

यह नई कार्यनीति अब आंखों की दिखावटी लाज शर्म को छोड़ सीधे-सीधे सामने आकर निबटाने का रूप धर रही है। वैसे यह कुछ नया भी नहीं है। अहमदाबाद के अब्दुल लतीफ़ नाम के एक छोटे गैंगस्टर के द्वारा बड़े कारोबारी के साथ इसे 90 के दशक में तब आज़माया जा चुका है, जब उसने अपनी राजनीतिक शक्ति इतनी बढ़ा ली कि नगर निगम के 12 वार्ड्स तक जीत लिए। शाहरुख खान की साल 2017 की फिल्म रईस इसी के जीवन पर आधारित थी। मगर प्रयागराज में जो हुआ और उसके बाद उसे जिस तरह बतलाया गया वह फिल्मी पटकथा नहीं है। यह वैसा है जैसे बिलकिस बानो केस में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा: "आज बिलकिस है, कल कोई भी हो सकता है।" जिस जज ने यह टिप्पणी की उन्होंने ,"हम और आप भी हो सकते हैं" भी कहा है - यह अतिशयोक्ति नहीं है। "लोया कर दिए जाने" का मुहावरा जस्टिस लोया को लेकर ही बना है।

अतीक़ मामले को लेकर जिस तरह से गा-बजाकर माहौल बनाया गया उससे भी यह रणनीति उजागर हो जाती है। उसे मुक़दमे की सुनवाई की तारीखों पर लाने के लिए गुजरात से झांसी तक का सड़क मार्ग चुनकर एक तरह से यात्रा निकालना, रास्ते भर उसके पीछे मीडिया के वाहनों का चलना, चौबीसों घंटे और सातों दिन चलने वाले चैनलों द्वारा "अब वाहन पलटेगा या तब वाहन पलटेगा" "अब एनकाउंटर होगा या तब होगा" का शोर मचाकर जिस तरह का माहौल पैदा किया गया, वह इस तरह के कांड को स्वीकार्य बनाने की तैयारी का हिस्सा था। गोदी मीडिया ने अपनी इस कारगुज़ारी से ख़ुद का मान कहां पहुंचाया इसे जाने दें, लेकिन अतीक़ कवरेज के नाम पर जो 'पेशाब की घटना' तक कवर की गई उसने पत्रकारिता की गंभीरता को कितना नुक़सान पहुंचाया इस पर विचार करने की ज़रूरत है। योगी के "मिट्टी में मिला देने" के ऐलान के लिए वातावरण बनाया गया।

क्या यह अपराध और अपराधी से घृणा और नफ़रत का नतीजा है? इस भ्रम को तो इसका सेलेक्टिव रवैया ही दूर कर देता है। इस कांड के पहले से ही सोशल मीडिया पर ऐसे भाजपा नेताओं की परिचयावली मय जन्म कुंडली वायरल हो रही थी, जिनके कारनामों के रिकॉर्ड अतीक़ के मुक़दमों और अपराधों से कम नहीं है। इनमें भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह जैसे नेता भी शामिल हैं जिनके जघन्य दुराचरण के ख़िलाफ़ अभी हाल ही में भारत की महिला कुश्ती टीम की वो युवतियां धरने पर बैठी थीं जिन्होंने न जाने कितने विश्व मुकाबले जीते हैं। उनकी गिरफ़्तारी तो बहुत दूर की बात है, उन्हें उनके पद से भी नहीं हटाया गया। यह फासीवादी मुहिम धर्म-सापेक्ष नहीं होती, यह बर्बरता सिर्फ़ बाहर नहीं रहती बल्कि यह घर में क्या कहर बरपाती है इसे भाजपा के मंत्री रहे, गुजरात के बड़े नेता हरेन पांड्या की विधवा पत्नी के शपथपत्रों में पढ़ा जा सकता है।

यह बहुत तेज़ी के साथ आगे बढ़ रही है। यह समूची जनता को हत्यारा भले न बना पाई हो मगर उसे हत्याओं और हिंसा में ख़ुशी ढूंढने की बीमारी का शिकार ज़रूर बना रही है। वैसे तो भाजपा-आरएसएस और उनका कुनबा धीमी गति के साथ यह काम लगातार जारी रखता रहा है मगर इस बार रामनवमी से यह कुछ ज़्यादा तेज़ी के साथ किया जा रहा है। 15 अप्रैल का कांड जिन्होंने किया वे अभी-अभी किशोरावस्था से बाहर आए बेरोज़गारी के शिकार वे युवा हैं जिन्हें इंसान बनने के मौके नहीं मिले - जो अपराधी बनकर रह गए। जिन लोगों ने उन्हें ऐसा बनाया अब वे ही उनका इस्तेमाल अपनी बंदूक के कारतूस की तरह कर रहे हें। मगर अब यह व्याप्ति अब बेहद आगे जा चुकी है।

मध्यप्रदेश के एक स्कूल में 10-11 वर्ष के बच्चे अपनी ही क्लास में पढ़ने वाले एक मुस्लिम छात्र को अलग ले जाकर उसके साथ जिस तरह का हिंसक बर्ताव करते हैं, नोएडा के स्कूल में तीसरी-चौथी क्लास में पढ़ने वाली एक मासूम बच्ची अपने ही जैसी एक मासूम बच्ची के साथ उसके धर्म के बारे में जानने के बाद उसके साथ जो स्तब्धकारी व्यवहार करती है वह अत्यंत चिंताजनक है। दिल्ली मेट्रो में मुस्लिम समुदाय के परिवार को देख जय श्रीराम के नारे लगाते लंपट सिर्फ़ गुमराह युवा नहीं है, वे नफरती ज़हर में ढाले जा चुके ऐसे तीर बनते जा रहे हैं जिनका निशाना कोई भी हो सकता है। खंडवा के गांव में घटी घटना बता चुकी है कि 'कोई भी' का मतलब 'कोई भी’ है, यहां तक कि भाई-बहन भी हो सकते हैं। खंडवा में बाहर से आए भाई के साथ अपने घर में बैठकर बात कर रही बहन को उसके भाई के साथ खींच कर पीटा गया, एक पेड़ से बांध दिया गया। महिला के पति द्वारा फोन पर यह बताने के बाद भी कि वे भाई-बहन हैं, उन्हें तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक कि पुलिस नहीं आ गई।

प्रयागराज में चली पिस्तौल किसके हाथ में थी सिर्फ़ इतना जानने से ख़तरे का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसके असली सूत्रधार कौन हैं, उनका मकसद क्या है, इसे समझने के लिए इस हत्याकांड के बाद उत्तर प्रदेश के मंत्रियों, आईटी सेल और भाजपा नेताओं के "योगी जी ने जो कहा सो किया" वाली बात को देखना होगा। इनमें दिखावे का भी पश्चाताप या कुछ ग़लत हुआ का भाव नहीं है। यूपी की क़ानून-व्यवस्था को देश की सबसे बेहतर बताने की बात ख़ुद मुख्यमंत्री योगी कर रहे हैं।

क़ानून का राज ख़त्म होगा तो सिर्फ़ एक या दो समुदायों के लिए नहीं सभी के लिए ख़त्म होगा। दलित, आदिवासी, ग़रीब, मज़दूर, महिलाएं और लोकतंत्र तथा समानता के हिमायती भी निशाने पर होंगे। यह सचमुच में अंधेरे के आमद की विस्फोटक घोषणा है। इसलिए ख़ुद भले जुगनू ही बनकर रौशनी करनी पड़े, इस अंधेरे के ख़िलाफ़ उजाला करना होगा। कौन करेगा इसका इंतज़ार छोड़कर, "जुगनुओं का साथ लेकर रात रौशन कीजिए...रास्ता सूरज का देखा तो सुबह हो जाएगी।" को अपनाना होगा।

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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