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बात बोलेगी : बीआरएस-कांग्रेस के बीच टक्कर के दरम्यान भाजपा का दांव

जहां तक भाजपा का सवाल है तो तेलंगाना में भी बाकी चार राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम) की तरह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही लड़ा गया।
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पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के घमासान में इकलौता राज्य तेलंगाना बचा है, जिसमें तमाम चुनावी आंकलनों में जबर्दस्त उतार-चढ़ाव दर्ज किया गया। यहां लड़ाई मुख्यतः भारत राष्ट्र समिति (BRS) जो पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) थी और कांग्रेस के बीच रहेगी। भाजपा का दांव केसीआर के खिलाफ गुस्से को बांटना है और 2024 के आम चुनावों के लिए पुख्ता जमीन तैयार करना है। एआईएमआईएम (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) अपनी 7-8 विधानसभा सीटों पर मजबूत पकड़ बनाए हुए है। कांग्रेस ने अपने प्रचार में इस लिंक को स्थापित करने की कोशिश की है कि केसीआर (BRS) का मोदी-अमित शाह (BJP) से अघोषित साझेदारी है, जिसमें AIMIM भी शामिल है। लिहाजा कांग्रेस का प्रचार इस बात पर केंद्रित है कि सिर्फ वही तेलंगाना को वह सब दे सकती है, जिसे पाने के लिए इस राज्य का गठन हुआ था। इस आधार पर वह कितना वोट हासिल कर पाती है यह तो 3 दिसंबर 2023 को ही सामने आएगा, फिलहाल तेलंगाना में कांग्रेस को कर्नाटक जीतने का भी फायदा मिल रहा है।

गौरतलब है कि पिछले 10 सालों से यानी तेलंगाना राज्य बनने के बाद से यहां तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) की, जो अब भारत राष्ट्र समिति (BRS) के रूप में जानी जाती है कि सरकार रही औऱ मुख्यमंत्री रहे केसीआर यानी कलवकुनतला चंद्रशेखर राव। हालांकि कांग्रेस के शासनकाल में आंध्र प्रदेश का विभाजन का फैसला हुआ और तेलंगाना ने मूर्त रूप लिया 2 जून 2014 को, लेकिन इसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस को नहीं मिला। फरवरी 2014 में कांग्रेस सरकार ने तेलंगाना बनने के लिए बिल पारित किया था। कांग्रेस ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश दोनों ही राज्यों की राजनीति में पटखनी खाई। तेलंगाना में 2014 के बाद पहली बार कांग्रेस मुख्य राजनीतिक लड़ाई में वापसी की जोरदार कोशिश करती दिखाई दे रही है। इसका बड़ा चेहरा रेवंत रेड्डी हैं जो चंद्रबाबू नायडू की पार्टी तेलगू देसम पार्टी (टीडीपी) को छोड़कर कांग्रेस में आए हैं। साथ ही कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में जो भारत जोड़ो यात्रा निकली, उसके तेलंगाना चैप्टर ने भी राज्य में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाया। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से भी पार्टी का भरोसा औऱ पार्टी पर लोगों का भरोसा बढ़ा। पिछली विधानसभा में 119 सीटों में 88 टीआरएस के पास थी और 19 कांग्रेस के पास, देखना दिलचस्प होगा कि इस इक्वेशन में कितना फेर-बदल होता है।

उधर केसीआर, अपनी जमीनी पकड़ और कल्याणकारी योजनाओं के लिए जाने जाते हैं। वह मंझे हुए खिलाड़ी हैं। उनकी कई योजनाएं जैसे शादी मुबारक, कल्याण लक्ष्मी, दलित बंधु, रयतु बंधु (किसान योजना), डबल बेड रूम योजना, सिंगल वुमन पेंशन आदि ने सरकार के पक्ष में बहुत पुख्ता जमीन तैयार की है। लाभार्थियों के आधार पर केसीआर को भरोसा है कि वह सत्ता में वापस आएंगे। साथ ही तेलंगाना बनाने के लिए चले लंबे जनांदोलन की भावना पर अभी तक सवारी केसीआर और उनकी पार्टी ने की है। नीचे तक उनके कार्यकर्ताओं का नेटवर्क है। तेलंगाना की अपनी पार्टी-अपनी क्षेत्रीय पार्टी होने का भी फायदा उसे निश्चित तौर पर मिलेगा। हालांकि केसीआर का अंधविश्वास-जनता से न मिलना और भ्रष्ट्राचार एक बड़े संकट के रूप में सामने है।

जहां तक भाजपा का सवाल है तो तेलंगाना में भी बाकी चार राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम) की तरह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही लड़ा गया। पिछली विधानसभा में भाजपा का सिर्फ एक विधायक जीता था—गोशामहल से टी राजा सिंह। ऐसे में जिस बड़े पैमाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रचार के लिए तेलंगाना में घेरा जमाया, वह बड़े सवाल उठाता है। साथ ही यहां दलित वोटों को बांटने के लिए जिस तरह से मादिगा नेता मंदा कृष्णा मादिगा को गले लगा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दृश्य पैदा किया, वह उनका दूरगामी तीर है। बाकी देश की तरह यहां भी दलित समाज मुख्यतः दो बड़ी उपजातियों में विभाजित है—माला और मादिगा। बुनियादी तौर पर चमार और वाल्मीकि जैसा है यह विभाजन। इसमें मंदा कृष्णा मादिगा लंबे समय से मादिगा समाज के लिए अलग से आरक्षण की बात कह रहे हैं। मोदीजी का मंच पर मंदा कृष्णा के आंसुओं का साथ देना, पीठ थपथपाना और यह कहना कि हम साथ हैं—दलित समाज के भीतर एक बड़ी खाई पैदा करने वाला दांव हो सकता है।

वैसे तेलंगाना में भाजपा के पास सबसे बड़ा कार्ड सांप्रदायिकता का ही है। मुस्लिम बहुल इलाकों में टी राजा सिंह जैसे भाजपाई नेताओं का भड़काऊ भाषण इस पार्टी की यूएसपी (यूनिक सेलिंग प्वाइंट) है। इसी क्रम में देश के गृह मंत्री अमित शाह ने जो तेलंगाना के मतदाताओं से वादा किए उन्हें देखा जा सकता है। गृह मंत्री ने कहा, अगर हमारी सरकार बनी तो हम सबको अयोध्या के राम मंदिर का फ्री दर्शन कराएंगे। दूसरा कि हम तेलंगाना को पिछड़ी जाति का मुख्यमंत्री देंगे। इन दोनों वादों का चुनावी असर विधानसभा में होगा या 2024 के लोकसभा चुनावों में, यह एक बड़ी पहेली है।  

तेलंगाना जमीन रही है वाम व दलित आंदोलनों की भी। तेलंगाना आंदोलन के कल्चरल अम्बेसडर के तौर पर रहे हैं क्रांतिकारी गायक-संस्कृतिकर्मी गदर। उनकी बेटी वेन्निला गदर कांग्रेस की सीट से सिकंदराबाद कैंटोनमेंट विधानसभा चुनाव लड़ रही हैं। उनका चुनाव खासा चर्चा में रहा और पूरे इलाके में गदर के क्रांतिकारी गीतों की धूम रही।

बहुजन समाज पार्टी का भी आधार तेलंगाना में रहा है। जिसे इस बार नये जोश से भरा पूर्व आईपीएस अधिकारी आऱ.एस. प्रवीण कुमार ने, जो सिरपुर कागजनगर विधानसभा क्षेत्र से बसपा प्रत्याशी के रूप में हैं। पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रवीण कुमार के कैरियर की एक तरह से तीसरी पारी है। आईपीएस प्रवीण कुमार तेलंगाना सोशल वेलफेयर रेसिडेंशियल एजुकेशनल इंस्टीट्यूशनल सोसायटीज़ के प्रमुख रहे और दलित-आदिवासी बच्चों की शिक्षा में उल्लेखनीय काम किया। उनका कार्यक्षेत्र सिरपुर ही रहा। प्रवीण कुमार का मानना है कि बीआरएस और भाजपा एक ही प्रकार के दुश्मन है। बसपा ने वारंगल से पहली ट्रांसजेंडर उम्मीदवार पुष्पिता लाया को उम्मीदवार बनाया है। इस तरह से किन्नर समाज को उम्मीदवार बनाकर तेलंगाना-आंध्र प्रदेश-तमिलनाडू सहित बाकी राज्यों में बड़ी पैठ बनाने का काम बसपा ने किया।

एक और उम्मीदवार जिसने सोशल मीडिया पर दलित और दलित महिला दावेदारी को बुलंद किया, वह रही श्रीश्या, जो दक्षिण तेलंगाना के नागरकरनूर जिले की कोलापुर विधानसभा से चुनाव लड़ रही हैं। उन्हें बर्रेलक्का यानी भैंस बहन के नाम से जबर्दस्त शोहरत मिली और वह तेलंगाना राज्य में बेरोजगारों का सबसे बड़ा पोस्टर चेहरा बन गईं। महज 26 साल की दलित छात्रा सोशल मीडिया पर खलबली मचाई, जब उन्होंने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो डाला कि किस तरह से बेरोजगारी से तंग आकर उन्होंने भैंसों को पालने का फैसला किया। बड़ी संख्या में नौजवान, छात्र, सिविल सोसायटी के लोग उनके प्रचार में जुटे।

बदलाव की आहट तेलंगाना में है। अब यह बदलाव, वोटों में कितना तब्दील हो पाता है, यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि उसका एक अपना मैकेनिज्म है। फिलहाल यह तय है कि इन चुनावों के बाद तेलंगाना की राजनीति में चेंज तो होगा ही। इसकी तस्दीक-गवाही ये आवाजें कर रही हैं---

सिकंदराबाद विधानसभा के भाग्यलक्ष्मी (दिहाड़ी मजदूर) कहती हैं, 'हम ही केसीआर को लाए, तेलंगाना के लिए हम ही ख़ून दिए ना, अब बदलना जरूरी। नहीं तो हम वोटर का importance ख़त्म। 10 साल में नौकरी क्यों नहीं दिये, रसोई गैस पहले क्यूं नहीं कम में दिये, सब चुनाव के लिए ही क्यों, सब लोगों को मोदीजी का बीमारी लग गया—झूठ बोलने का। अभी मदारी जैसा ख़ेल है—मैं इतना देता, अरे मैं तो इतना देता। खुलेआम वोटर को खींचने के लिए रिश्वत।'

MBA की छात्रा रम्मया (मेरपेट) कहती हैं, 'मुझे गुस्सा चढ़ता है, पार्टियां नीतियों की बात करने के बजाय, इतना रुपये देने, ये फायदा पहुंचाने का वादा करते हैं। मैं पढ़ाई कर रही हूं, मैं अच्छी नौकरी पाना चाहती हूं, ताकि सम्मान से जी सकूं। संविधान और बाबा साहेब का रास्ता गरिमा का रास्ता है—मुझे बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और उसके नेता प्रवीण कुमार से आशा बंधती है।'

न्यू हैदराबाद के लड़कीका पुल के दुकानदार जावेद कहते हैं, 'हमारे इलाके में MIM का भी नाम है, वही जीतेगा, लेकिन मुझे राहुल गांधी पसंद है। वह तीखा बोलता है, सच बोलता है—हमारी उम्र वालों की तरफ। उसका सितारा बुलंद होगा। मुझे इस बात में दम लगता है कि केसीआर और मोदी मिले हुए हैं—इसलिए बदलना ज़रूरी है।'

रेडहिल्स में इंजीनियर सय्यैद जियाउद्दीन कहते हैं, 'इस बार hung assembly होगी। कई इलाकों में कांग्रेस की तगड़ी लहर है, लोग बदलाव चाहते हैं, लेकिन केसीआर जमीन पर पक्का पैर जमाये हुए हैं—वोट डलवाना जानते हैं। ऐसा सीन पलटेगा—ये तो बीआरएस ने नहीं सोचा होगा। एक-डेढ़ महीने पहले तक तेलंगाना में लड़ाई बीआरएस और भाजपा के बीच बताई जा रही थी, फिर कांग्रेस ने बढ़ना शुरू किया। यह तेलंगाना ही नहीं देश के लिए अच्छा है।'

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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