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बिहार: सिर्फ़ नल-जल योजना से नहीं टलेगा कैंसर का ख़तरा

बिहार सरकार को 'प्रीवेंशन इज बेटर देन क्योर’ के फ़ॉर्मूला को याद रखना होगा, तभी जा कर इस विकराल समस्या पर समय रहते अंकुश लगाया जा सकेगा।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

24 मार्च 2023 को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री भारती प्रवीण पवार ने लोकसभा में बताया कि आईसीएमआर राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के अनुसार, 2022 में असम में कैंसर के मामलों की संख्या लगभग 39787 और बिहार में 109274 थी। पवार ने बताया कि आर्सेनिक से दूषित पानी पीने तथा 5 साल तक लगातार इसके संपर्क में रहने के कारण त्वचा कैंसर हो सकता है। वहीं कुछ समय पहले बिहार की राजधानी पटना के मनेर प्रखंड में आर्सेनिक मुक्त पानी को लेकर स्थानीय ग्रामीणों ने एक प्रदर्शन किया था।

यहां के लोगों का मानना है कि आर्सेनिक युक्त पानी के सेवन के कारण लगातार इस इलाके के करीब 75 गांवों के तकरीबन हर परिवार के लोग बीमार हो रहे हैं। इन लोगों ने अपने इलाके में आर्सेनिक ट्रीटमेंट प्लांट की मांग के लिए प्रदर्शन भी किया था लेकिन अभी तक उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यहां के मुखिया शैलेश कुमार ने मीडिया को बताया था कि उनके माता-पिता समेत इस इलाके के करीब 100 लोगों की मौत आर्सेनिकयुक्त पानी के इस्तेमाल के कारण कैंसर से हो चुकी है।

कैंसर रिसर्च सेंटर की स्टडी

मार्च के ही महीने में नेचर मैगजीन में बिहार स्थित महावीर कैंसर रिसर्च सेंटर का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ। इस अध्ययन के मुताबिक़, बिहार के 20 जिलों यानी तकरीबन आधा बिहार के जलस्रोतों में आर्सेनिक मिला हुआ है। स्टडी कहती  है कि इस वजह से बिहार के इन जिलों में गॉल ब्लाडर कैंसर बड़ी संख्या में हो रहा है। महावीर कैंसर संस्थान एंड रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक डॉ. अरुण कुमार का कहना है कि यह रिसर्च पेपर 14 मार्च को लंदन के नेचर जर्नल-साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुआ है। डॉक्टर अरूण कुमार का कहना है कि रिसर्च में पाया गया कि आर्सेनिक इंसान के शरीर में आरबीसी कोशिकाओं के साथ मिल जाता है, और फिर सिस्टीन, टॉरिन और चेनोडॉक्सिकोलिक एसिड जैसे अन्य कंपाउंड्स के साथ मिलकर गॉल ब्लाडर तक पहुंच जाता है। पहले यह पथरी बनाता है और बाद में यह कैंसर में तब्दील हो जाता है। यह रिसर्च गॉल ब्लाडर से पीड़ित 152 पेशेंट पर किया गया था और इन सभी में भारी मात्रा में आर्सेनिक पाया गया था। बिहार के पटना, बक्सर, भोजपुर, वैशाली, सारण, समस्तीपुर, गोपालगंज, पश्चिमी चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, मधुबनी, सुपौल, अररिया, किशनगंज, सहरसा, मधेपुरा, कटिहार, मुंगेर और भागलपुर आर्सेनिक से सर्वाधिक पीड़ित जिले हैं।

कितना गंभीर आर्सेनिक?

महावीर कैंसर संस्थान के वैज्ञानिक (रिसर्च) और बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन प्रोफेसर (डॉ.) अशोक घोष आर्सेनिकयुक्त पानी पर साल 2004 से ही काम कर रहे हैं। उनके रिसर्च के मुताबिक़, साल 2004 से अब तक लगभग 46,000 हैंडपंपों का परीक्षण किया गया है और उनमें से 30 प्रतिशत में स्वीकार्य सीमा से अधिक आर्सेनिक था। डॉ. घोष मानते हैं कि अगर हमने जल स्रोतों का जिम्मेदारी से उपयोग किया होता, सतही जल का उपयोग जारी रखा होता और पूरी तरह से भूजल का दोहन नहीं किया होता, तो शायद चीजें इतनी खराब नहीं होती। डॉ. घोष जब 2016 में महावीर कैंसर सेंटर से जुड़े तब से उन्होंने कैंसर रोगियों को देखना शुरू किया और फिर आगे के रिसर्च से यह साबित होता चला गया कि इनमें से ज्यादातर कैंसर पानी में आर्सेनिक के मिले होने के कारण से हैं। डॉ. घोष एक थंब रूल के तौर पर जानकारी देते हैं कि जहां भी हमें लौह तत्व की अधिकता का पता चलता है, हम जानते हैं कि उस क्षेत्र में आर्सेनिक होने की संभावना अधिक होती है। उनके मुताबिक़, आर्सेनिक सिंचाई के माध्यम से फ़ूड चेन में प्रवेश कर चुका है। आलू, चावल और गेहूं की फसलें, जिनका सबसे अधिक उपभोग किया जाता है, उनमें आर्सेनिक की मात्रा काफी है।

आर्सेनिक का स्त्रोत

डॉ. अशोक घोष बताते है कि इसका स्रोत हिमालय है। वहां बहुत सारे खनिज हैं, उनमें से आर्सेनोपाइराइट है, जो लोहे और आर्सेनिक से बना है जो पानी में घुलनशील नहीं है। इसे पहाड़ों से पानी द्वारा नीचे ले जाया जाता है। जब नदी अपना रास्ता बदलती है तो आर्सेनोपाइराइट पीछे छूट जाता है और लोग इसके संपर्क में आ जाते हैं। आर्सेनोपाइराइट जाहिर तौर पर किसी को नुकसान पहुंचाए बिना सुप्त अवस्था में रहता है, लेकिन इसका प्रभाव पड़ता है। और जब से हमने भूजल दोहन का अत्यधिक इस्तेमाल शुरू किया है तब से इसका असर बढ़ता चला गया। महावीर कैंसर रिसर्च सेंटर की नई स्टडी के मुताबिक़ गॉल ब्लाडर कैंसर बिहार में गंगा के मैदानी इलाकों में बहुत अधिक पाया गया है। जिसका प्रमुख कारण यहां की आबादी में आर्सेनिक प्रदूषण का बहुत अधिक होना बताया गया है। इस स्टडी में 152 गॉल ब्लाडर पेशेंट में आर्सेनिक की भारी मात्रा 340.6 माइक्रोग्राम प्रति किलोग्राम मिला है।

समाधान क्या?

जाहिर हैं, इस समस्या का समाधान भी राजनीतिक तौर पर ही निकलना है, लेकिन ऐसी कोई ठोस पहल होती नहीं दिख रही हैं। अलबत्ता, जहां ट्रीटमेंट वगैरह की कोई व्यवस्था नहीं है सरकार हर घर नल-जल योजना जरूर तेजी से चला रही है जिसके जरिए भूजल ही पहुंचाया जा रहा है। हां, कुछ ख़ास इलाकों, विशेष कर भोजपुर जैसे इलाकों समेत कुछ और जगहों पर भी आर्सेनिक ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की पहल जरूर की गयी थी। लेकिन, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, ज्यादातर ऐसे प्लांट कार्यशील नहीं रह पाते है और एक बार फिर लोगों को आर्सेनिकयुक्त पानी का सेवन करने को मजबूर होना पड़ता है। कुछ समय पहले स्वास्थ्य मंत्री तेजस्वी यादव ने जरूर कहा था कि उन्हें इस गंभीर समस्या की जानकारी है और वे इलाज के लिए टाटा कैंसर अस्पताल से बातचीत कर रहे हैं। मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज में टाटा कैंसर संस्थान की एक इकाई भी खुल चुकी है। लेकिन सवाल वही है कि इलाज से बेहतर क्या रोकथाम नहीं? महावीर कैंसर सेंटर के वैज्ञानिक और प्रमुख रिसर्चर अरुण कुमार का मानना है कि नीतियों और दिशानिर्देशों को विकसित करके ही गॉल ब्लाडर कैंसर रोग के बढ़ते मामलों को नियंत्रित किया जा सकता है और तभी प्रभावित आबादी के लिए आर्सेनिक के खतरों को कम किया जा सकेगा। इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च की माने तो 2025 तक भारत में कैंसर के मामलों में पांच गुना वृद्धि होगी। इसमें तंबाकू के कारण 2.8 गुना वृद्धि होगी जबकि उम्र बढ़ने के कारण 2.2 गुना वृद्धि होगी। जाहिर है, ऐसे में बिहार सरकार को ‘प्रीवेंशन इज बेटर देन क्योर’ के फार्मूला को याद रखना होगा, तभी जाकर इस विकराल समस्या पर समय रहते अंकुश लगाया जा सकेगा।

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