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यूपी चुनाव: बेदखली के नोटिस मिलने के बाद चित्रकूट के आदिवासियों ने पूछा 'हम कहां जाएंगे?

चित्रकूट जिले के मानिकपुर ब्लॉक में 22 पंचायतों में फैले कम से कम 52 गांवों के लगभग 45,000 आदिवासियों को बेदखली का नोटिस दिया गया है क्योंकि उनके गांव रानीपुर वन्यजीव अभयारण्य के भीतर स्थित हैं।
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चित्रकूट में आदिवासियों के घर

बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले के मानिकपुर ब्लॉक के राजहौआ जंगल में 42 वर्षीय राज कुमारी ससुराल वालों द्वारा छोड़ी गई एक छोटी सी जमीन पर कड़ी मेहनत कर उसे जोत रही हैं। लेकिन वे इस बात से बेखबर हैं कि लखनऊ के अधिकारी उन्हें उनके आवासों से बाहर निकालने की नीतियां बना रहे हैं। कुमारी के साथ, हजारों अन्य आदिवासी जो पीढ़ियों से अपनी जमीन पर खेती कर रहे हैं वे आज उसे खोने का ज़ोखिम उठाते नज़र रहे हैं।

इस ब्लॉक की 22 पंचायतों में फैले कम से कम 52 गांवों के लगभग 45,000 आदिवासियों को बेदखली का नोटिस दिया गया है, क्योंकि उनके गांव रानीपुर वन्यजीव अभयारण्य में पड़ते हैं (जो बिहार में कैमूर वन्यजीव अभयारण्य का एक उप-मंडल भी है) जो 1980 में अस्तित्व में आया था।

चित्रकूट जिले में आदिवासियों और अन्य वनवासी समुदायों और वन श्रमिकों के लिए वन भूमि का विशाल क्षेत्र एक आजीविका का एक स्रोत है। इनमें से अधिकांश लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर पृष्ठभूमि से आते हैं और अपने जीवन यापन के लिए वन की उपज़ और वन भूमि पर निर्भर हैं।

आदिवासियों को वन भूमि से दूर रखने के लिए वन अधिकारी कथित तौर पर कई तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। किहुनिया, नगर, रानीपुर, गोपीपुर, उंचडीह आदि गांवों से आदिवासियों को कथित रूप से डराने-धमकाने, प्रताड़ित करने और दुर्व्यवहार के मामले सामने आए हैं।

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वन अधिकारी कथित तौर पर वनवासियों को उनकी ज़मीन जोतने से रोक रहे हैं। जब वे इसका विरोध करते हैं और अपना दावा पेश करते हैं, तो उन्हें कथित तौर पर झूठे मामलों और गिरफ्तारी की धमकी देकर चुप करा दिया जाता है। उंचडीह में अधिकारियों ने आदिवासी खेतों में गड्ढा खोदा और वहां पौधे लगा दिए हैं।

गोपीपुर में ग्राम पंचायत की जमीन को कथित तौर पर खोदा गया है। दूसरी तरफ किहुनिया, ऊंचाडीह और रानीपुर जैसे गांवों में रहने वाले आदिवासियों को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है और उन्हें ज़मीन पर खेती नहीं करने दी जा रही है।

लाचारी और उत्पीड़न की कहानियां

कुमारी का, 11 अन्य लोगों के साथ मिलकर जंगल में करीब 1.2 एकड़ से अधिक ज़मीन पर कब्जा है, और उनका दावा है कि वे तीन पीढ़ियों से यहाँ रह रही है और सामुदायिक खेती करती हैं। उन्हें वन विभाग द्वारा नोटिस दिया गया है, जो कहता है कि उन्होंने विभाग की भूमि पर "अवैध रूप से अतिक्रमण" किया है और उन्हें ज़मीन को खाली करने का निर्देश दिया जा रहा है, ऐसा न करने पर उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू की जाएगी।

“हमारे घरों में आग लगा दी जाती है और अधिकारी फसलों को नष्ट कर देते हैं, ये लोग हमें परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं ताकि हम डर जाएं और जंगल छोड़ दें। वन विभाग का दावा है कि भूमि उनकी है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह हमारे पूर्वजों की संपत्ति है,” उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, कि किसी भी वैकल्पिक भूमि के आवंटित होने के बिना वे कहाँ जाएंगे।

इनमें से कई पर पहले ही केस चल चुके हैं। चार बच्चों के पिता 48 वर्षीय सुगन पर भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 26 के तहत "अवैध रूप से सरकारी भूमि पर कब्जा करने, उसे समतल करने और खेती और आवासीय उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने" के मामले का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें रेंजर के कार्यालय में उपस्थित होकर अपना पक्ष रखने को कहा गया है।

वन विभाग के अधिकारी ही अकेले नहीं हैं जो कथित तौर पर उनके अस्तित्व को खतरे में डालते हैं। उन्हें उस क्षेत्र के जमींदारों से भी निपटना पड़ता है, जो उन्हें दशकों पहले आवंटित भूमि पर कोई कृषि गतिविधि नहीं करने देते हैं।

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ऊंचाडीह गांव के पोखरहाई के पास एक एकड़ जमीन है, जो इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान उनके ससुराल वालों को आवंटित की गई थी।

“हम दोहरी मार झेल रहे हैं। जब हम गेहूं की फसल बोने के लिए अपने खेत में गए, तो स्थानीय जमींदारों के बाहुबलियों ने आकर हमें कृषि का काम करने से रोक दिया। वन रक्षक भी पुलिस के साथ आते हैं और हमें अपनी ज़मीन पर फसल उगाने नहीं देते हैं। शारीरिक हमले के डर से, हमने फसल नहीं उगाई” ये बात तीन युवा लड़कों की माँ ने कही, जो दिल्ली में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करती थी, लेकिन पिछले साल कोविड-19 के चलते लॉकडाउन के कारण नौकरी चली गई और उन्हे यहाँ आना पड़ा।

उन्होंने कहा कि वे साल 2006 से अपने भूमि अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। आगे कहा- “पुलिस आती है और हमें धमकी देती है कि यदि भूमि को पुनः हासिल करने प्रयास करोगे तो मुक़दमा दायर कर दिया जाएगा। उसने कहा कि, हम गरीब लोग हैं; हम उनसे कैसे लड़ सकते हैं?”

राज्य के भीतरी इलाकों में बसे ये गांव बेहद पिछड़े हुए हैं। अधिकांश पुरुष और महिलाएं बेरोज़गार हैं। उनका कहना है कि मनरेगा (ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) के तहत भी उन्हें कोई काम नहीं मिलता है।

 “हम दिहाड़ी मज़दूर हैं, लेकिन हमारे पास काम नहीं है। हमें कृषि क्षेत्रों में कुछ काम मिलता है, लेकिन यह नियमित नहीं है। हमें प्रतिदिन 200-250 रुपये की दिहाड़ी मिलती है, जो कि जरूरतों को पूरा नहीं कर पाती हैं। जब भी हम अपने खेत में कुछ उगा लेते हैं तो जीवन थोड़ा आसान हो जाता है। यह काफ़ी हद तक भोजन के मुद्दे को हल कर देता है। अन्यथा, हमें सरकार (सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत) द्वारा दिए जा रहे मुफ्त राशन पर निर्भर रहना पड़ता है''

उन्होंने आगे कहा- राशन पर्याप्त नहीं होता है क्योंकि एक व्यक्ति को केवल पांच किलोग्राम चावल और गेहूं, साथ में एक नमक का पैकेट और एक किलोग्राम रिफाइंड तेल मिलता है। “ई-पीओएस मशीनों (बायोमेट्रिक प्रमाणित सार्वजनिक वितरण प्रणालियों में प्रयुक्त) के फ़िंगरप्रिंट स्कैनर अक्सर हमारे फ़िंगरप्रिंट नहीं पहचान पाते हैं क्योंकि कई लोगों के अंगूठे के निशान मजदूरी की वजह से खराब हो जाते हैं। तकनीकी खराबी के कारण भी राशन लेने के लिए हमें दो-तीन दिनों तक कतारों में खड़ा रहना पड़ता है।''

सिया दुलारी, उचदिल पंचायत के मुरकाटा गांव की रहने वाली हैं। पांच बच्चों (दो बेटे और तीन बेटियों) की मां के परिवार में सात सदस्य हैं और उनका पेट भरना पड़ता है। उनके बेटे राजस्थान में एक ईंट भट्ठे में काम करते हैं। वह एक भूमिहीन आदिवासी हैं। उन्होंने बताया- “हम अपने परिवार की पांचवीं पीढ़ी हैं, जो यहां रह रही हैं। लेकिन हमारे पास एक इंच भी ज़मीन नहीं है। जब हम खेती के लिए पंचायत की ज़मीन की जुताई करने जाते हैं, तो वन रक्षक पुलिस के साथ आते हैं और हमें जबरदस्ती रोकते हैं।''

दुलारी ने अपनी आपबीती सुनाते हुए कहा कि, अगर हम बहस करते हैं, तो हमें धमकी दी जाती है कि हमारे पुरुष सदस्यों को सलाखों के पीछे डाल दिया जाएगा।

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बिना किसी आमदनी के पूरे परिवार को दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती है। वह अपने पति के साथ खेतों में काम करती हैं और उसके दो छोटे बच्चे जयपुर में एक ईंट भट्ठे में काम करते हैं। सिया को वन विभाग की जमीन पर "अवैध रूप से अतिक्रमण" करने का नोटिस भी दिया गया है।

सिया ने कहा “हमने अपने खेतों में फसल उगाने के लिए जिला मजिस्ट्रेट से लेकर आयुक्त तक सभी वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की। हालांकि उन्होंने हमारे मुद्दों पर हर संभव मदद और समाधान का आश्वासन दिया, लेकिन अब तक कुछ भी नहीं हुआ है।”

उसके साथ उसी गाँव की एक अन्य महिला ने भी बताया कि चुनाव आते हैं और चले जाते हैं लेकिन आदिवासी समुदाय के अस्तित्व का संकट बना रहता है। उन्होंने कहा, 'जिस सरकार को हमने भी पिछले चुनाव में वोट गया दिया था, वही हमें हमारी जमीन से बेदखल करने पर तुली हुई है। अब हम कहाँ जाएँगे? हमें रहने और खेती करने के लिए कोई वैकल्पिक स्थान आवंटित नहीं किया गया है,” इस महिला ने यह भी कहा कि यही कारण है कि हम चुनाव में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं।

अमरपुर गांव के निवासी 35 वर्षीय नरेश ने कहा कि उनके पास कोई काम नहीं है। “हमें जो राशन मिलता है वह ज़िंदा रहने के लिए पर्याप्त नहीं है। हम सभी को (उत्तर प्रदेश आवास विकास योजना के तहत) कोई पक्का घर नहीं दिया गया है। हम जंगल से इकट्ठा की गई लकड़ियों को बेचकर और दिहाड़ी पर काम करके कुछ पैसे कमाते हैं। मान लीजिए सरकार वास्तव में हमारी बेहतरी के लिए कुछ करने को लेकर गंभीर है। उस मामले में, उसे हमें जमीन पर कब्जा देना होगा और एक व्यक्ति को एक सम्मानजनक जीवन बिताने के लिए आवश्यक बुनियादी सुविधाएं प्रदान करनी होंगी।”

ऊंचाडीह के शिव प्रसाद 30 अन्य लोगों के साथ छह एकड़ जमीन पर सामुदायिक खेती करते हैं। उनकी गेहूं की आखिरी फसल को कथित तौर पर वन अधिकारियों ने नष्ट कर दिया था, और उनकी ज़मीन खोद दी थी। जब उन्होंने सरसों उगाई तो उसे भी आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। उन्होंने अपने खेत के पास जो झोपड़ियां बनाई थीं, उन्हें भी आग के हवाले कर दिया गया था।

सामुदायिक खेती जनजातीय क्षेत्रों में खेती की एक प्रणाली है जहां लोगों का एक समूह संयुक्त रूप से समान निवेश और शारीरिक श्रम के साथ अपने कब्जे की जमीन के कुछ टुकड़े पर फसल उगाता है। उपज भी उनके बीच समान रूप से वितरित की जाती है।

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यह महत्वपूर्ण है क्योंकि जब वे वन अधिकार अधिनियम, 2006 में निहित अपने अधिकारों के अनुरूप वन भूमि पर समुदाय के दावे दायर करते हैं तो उन्हे उत्पीड़न की धमकी दी जाती है, यह वह कानून है जो पारंपरिक वनवासियों को गाँव की सीमाओं के भीतर वन भूमि और संसाधनों का इस्तेमाल करने उसका प्रबंधन करने का अधिकार देता है, जिसे औपनिवेशिक काल से वन विभाग द्वारा नियंत्रित किया जाता रहा है।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 का उल्लंघन?

उक्त कानून ग्राम सभा को वनभूमि के प्रबंधन और उसकी सुरक्षा के लिए वैधानिक निकाय बनाता है। यह प्रावधान करता है कि इन वनों में तब तक कोई गतिविधि नहीं की जानी चाहिए जब तक कि उन पर व्यक्तिगत और सामुदायिक दावों का निपटारा नहीं हो जाता है।

कार्यकर्ताओं का मानना है कि आदिवासियों को जबरन बेदखल करना अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रावधानों का उल्लंघन है। उनका आगे तर्क यह है कि यह फरवरी 2019 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ भी है जिसमें वाइल्ड लाइफ फ़र्स्ट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (35782/2019) मामले में सभी वनवासियों को उनकी भूमि से बेदखल करने पर रोक लगा दी थी।

“एफआरए स्पष्ट रूप से कहता है कि कानून के तहत दावों का फैसला करने में ग्राम सभा सर्वोच्च निकाय है। चित्रकूट जिले की 22 पंचायतों के आदिवासियों पर जंगल छोड़ने का दबाव बनाया जा रहा है क्योंकि 2001 में रानीपुर वन्यजीव अभयारण्य को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था। हालांकि, वे पीढ़ियों से जंगल में रहते हैं। लेकिन वे अब जंगल से झाड़ी आम, झाड़ी काली मिर्च, मशरूम और जंगली फल नहीं ले सकते हैं। आदिवासियों और दलितों के अधिकारों के लिए काम करने वाली बांदा की संस्था विद्या धाम समिति के संयोजक राजा भैया ने पूछा कि वे कैसे बचेंगे?”

उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदायों को जबरन बेदखल करना मानवाधिकारों के उल्लंघन का बेज़ा रूप है, उन्होंने कहा कि आदिवासी कुशलतापूर्वक पर्यावरण की रक्षा करते हैं। “वन्यजीवों और जंगलों की रक्षा और संरक्षण में आदिवासियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए, ओडिशा के गंजम जिले में इन लोगों द्वारा काले हिरणों के संरक्षण का मामला ही लें। उनकी संख्या 1990 में 573 से बढ़कर 2018 में 4,044 हो गई है। इसलिए, उन्हें उनकी जमीन पर कानूनी अधिकार दिया जाना चाहिए।"

उन्होने कहा कि, 1927 के भारतीय वन अधिकार अधिनियम जैसे औपनिवेशिक कानूनों द्वारा इन आदिवासियों के खिलाफ किए गए पर्यावरण और सामाजिक अन्याय से इंसाफ दिलाने के लिए, एफआरए और पेसा का अधिनियमन और आदिवासियों के अधिकारों और जिम्मेदारियों को पहचानना जरूरी  है।

आधिकारिक दावा

हालांकि, तर्कों के विपरीत, वन विभाग के अधिकारियों का दावा है कि अभयारण्य का जंगल पर कानूनी अधिकार है। वे इसकी रक्षा करने और सभी अवैध अतिक्रमणों को हटाने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं। वन विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की सख्त शर्त पर न्यूज़क्लिक को बताया “जंगल में आदिवासी समुदायों की मौजूदगी से वन्यजीवों और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान हो रहा है। वे बाजार में लकड़ियां बेचने के लिए अक्सर पेड़ काटते हैं। समस्या 1994 में पैदा हुई जब यूपी की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने वनवासियों को जंगल में जमीन पर कानूनी अधिकार देने की घोषणा करते हुए एक प्रशासनिक आदेश जारी किया था। वे सभी जो भूमि पर अतिक्रमण कर रहे हैं, वे पीढ़ियों से वहां नहीं रह रहे हैं। ये बस्तियाँ नई हैं, ”

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आदिवासियों को नोटिस दिए जाने के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि यह कानून के अनुसार किया जा रहा है और उन्होने जबरन बेदखली के सभी आरोपों को खारिज कर दिया।

वनवासियों के सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि उनका समुचित पुनर्वास करना राजस्व विभाग की जिम्मेदारी है।

आदर्श आचार संहिता का हवाला देते हुए विभाग का कोई भी वरिष्ठ अधिकारी बात करने को  तैयार नहीं हुआ, जो वर्तमान में राज्य में लागू है, जहां 10 फरवरी से विधानसभा चुनाव शुरू होने हैं।

वनवासियों की बेदखली कानूनी रूप से 2006 के वन अधिकार अधिनियम का खंडन करता है, जो वन्यजीव संरक्षण और आर्थिक विकास के नाम पर पैतृक भूमि से विस्थापित लोगों के लिए भूमि सुरक्षा का वादा करता है। कानून संरक्षण में वन लोगों की भूमिका को मान्यता देता है और कानूनी रूप से सामुदायिक वन अधिकारों, प्रथागत भूमि अधिकारों और वनों की रक्षा और प्रबंधन के लिए देशज समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित करता है।

हालाँकि, देश के सर्वोच्च न्यायिक निकाय ने फैसला दिया कि जिनका दावा वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के तहत खारिज हो गया है उन एक मिलियन से अधिक वन-निवासी लोगों को बेदखल कर दिया जाए, जिस फैसलें की मानव और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ताओं ने कड़ी निंदा की है।

कई अधिकार समूहों द्वारा सामूहिक समर्थन के बाद, सुप्रीम कोर्ट को अपने पहले के फैसले पर रोक लगाने पफर मजबूर होना पड़ा। हालांकि, भारत में यह पहला मामला नहीं है जहां आदिवासी समुदायों को संरक्षण के नाम पर अपना घर छोड़ने के लिए कहा गया है।

कान्हा टाइगर रिजर्व में बाघों की रक्षा के लिए 2014 में स्वदेशी बैगा और गोंड समुदायों के कम से कम 450 परिवारों को बेदखल किया गया था।

इसी तरह, अप्रैल 2017 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कर्नाटक में थटकोला और सरगोडु वन रिजर्व से 148 से अधिक घरों को ध्वस्त कर दिया गया था, और 156 परिवारों को बेदखल कर दिया गया था। इसके अलावा, असम में, मिशिंग, राभा और बोडो आदिवासी समुदायों के 1,000 से अधिक लोगों उसी वर्ष ऑरेंज नेशनल पार्क से जबरदस्ती बेदखल कर दिया गया था।

शोध बताते हैं कि इस तरह की कई बेदखली में राज्य के अधिकारियों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानकों द्वारा स्थापित उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया। इन बेदखली के परिणामस्वरूप कई घोर मानवाधिकार उल्लंघन हुए।

दुनिया भर के कई देशों की सरकारें अक्सर आदिवासी समुदायों को सफारी को बढ़ावा देने, संरक्षित क्षेत्रों को बनाने और पर्यटन को आकर्षित करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। इस प्रक्रिया में आदिवासी समुदाय को संरक्षण के लिए क्रूर कीमत चुकाना पड़ती हैं।

दुनिया भर में संरक्षित क्षेत्रों का अनुमानित 50 प्रतिशत हिस्सा पारंपरिक रूप से आदिवासियों के कब्जे में है और जिसे वे इस्तेमाल करते हैं। विक्टोरिया टौली-कॉर्पज़, देशज लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत, ने 2019 में एक बयान में कहा था, "एक सदी से अधिक समय से, संरक्षण के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक विनाश हुआ है और आदिवासी लोगों को उनकी पैतृक भूमि से बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है।"

अंग्रेजी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:- UP Polls: 'Where Will We Go?' Ask Tribals in Chitrakoot on Being Served Eviction Notices

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