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फ्रेंच-भाषी अफ़्रीक़ा से 'उपनिवेशवाद' पूरी तरह ख़त्म होने के कगार पर

गिनी, माली, चाड, बुर्किना फासो, माली और अब नाइजर में लोकप्रिय साम्राज्यवाद-विरोधी विद्रोह हुआ है।
Niger's capital
नाइजर की राजधानी नियामी में तख्तापलट के समर्थन में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन का दृश्य।

पूर्व-औपनिवेशिक दुनिया के अधिकांश हिस्से ने जब अपने यहां नियंत्रणात्मक निजाम कायम कर के, विकसित दुनिया की पूंजी के हाथों से छीनकर अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया और संरक्षणवादी दीवारों की सुरक्षा में अपने उद्योगों का निर्माण करने लगे, तो नवउदारवादी आर्थिक व्यवस्था के जरिए उन्हें फिर से साम्राज्यवादी वर्चस्व के दायरे में खींच लाया गया। लेकिन, दुनिया का एक हिस्सा ऐसा भी था, जहां कभी उपनिवेशीकरण पूरी तरह समाप्त भी नहीं हुआ।

अफ्रीका के पूर्व-फ्रांसीसी उपनिवेशों की आर्थिक दासता

पश्चिमी अफ्रीका के पूर्व-फ्रांसीसी उपनिवेश, इसी श्रेणी में आते हैं। हालांकि, यहां फ्रांसीसी प्रशासकों की जगह, स्थानीय लोगों ने ले ली, फिर भी अस्थायी तौर पर भी कभी फ्रांसीसी वर्चस्व से और निहितार्थत: विकसित पूंजीवादी दुनिया के वर्चस्व से, वे निजात नहीं पा सके।

इनमें से हरेक देश में फ्रांसीसी सेनाओं की मौजूदगी बनी रही और ये देश फ्रांस के साथ एक मुद्रा यूनियन से बंधे रहे, जिसके तहत उनकी मुद्रा, सीएफए फ्रैंक (जिसकी शुरूआत 1945 में हुई थी), पुराने फ्रांसीसी फ्रैंक के साथ एक स्थिर विनिमय दर से जुड़ी रही है, जबकि यह विनियम दर वैसे भी हमेशा ही एक हद तक अधिमूल्यित बनी रही है। किसी भी मुद्रा गठबंधन में, जिस भी हिस्से की मुद्रा अधिमूल्यित रहती है, वह कम प्रतिस्पर्धी हो जाता है और निरुद्योगीकरण तथा बेरोजगारी का शिकार हो जाता है, जैसाकि जर्मन ‘पुनरेकीकरण’ के बाद, पूर्वी-जर्मनी के साथ हुआ है। फ्रांसीसी-भाषी अफ्रीका के मामले में, अधिमूल्यित विनिमय दर के साथ मुद्रा संयोजन ने, इन देशों को स्थायी रूप से उद्योगों की गैर-हाजिरी के लिए अभिषप्त कर दिया। इनमें से किसी भी देश में घरेलू तौर पर कोई औद्योगिक माल बनाया ही नहीं जा सकता था क्योंकि ऐसे किसी भी माल का फ्रांस से आयात करना हमेशा ही सस्ता होता था। और यह फ्रांस को स्थायी रूप से एक बंधुआ बाजार भी मुहैया कराता था।

दूसरी ओर, इन देशों से जिन प्राथमिक मालों का निर्यात होता था, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कुछ निश्चित डॉलर (तथा इसलिए फ्रैंक भी) कीमतों पर बेचना होता था। ऐसी स्थिति में अधिमूल्यित मुद्रा का सीधा सा अर्थ होता है, प्राथमिक मालों के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए, इन देशों को अपनी घरेलू मजदूरियों को उपयुक्त रूप से घटाने के साथ संयोजित करना होता है। इसका कुल मिलाकर नतीजा यह होता है कि स्थानीय आबादी को मजदूरी की दर के हिसाब से तो लाभ नहीं मिलता है, उन्हें रोजगार के हिसाब से नुकसान जरूर होता है और इसका पलट कर एक बार फिर मजदूरी की दरों पर भी असर पड़ता है। संक्षेप में ये देश, पिछड़ेपन तथा घोर गरीबी की स्थायी अवस्था में फंसे रहने के लिए अभिषप्त रहे हैं।

साम्राज्यवादी बोलबाले को बचाने के खेल

लेकिन, यह किस्सा इतने पर ही खत्म नहीं हो जाता है। इन देशों के विदेशी मुद्रा संचित कोष का बड़ा हिस्सा (कम से कम 50 फीसद) फ्रांस में ही रखा जाता था, जैसाकि औपनिवेशिक भारत में हुआ करता था। इससे फ्रांस को उपलब्ध विदेशी मुद्रा संसाधनों में इतना ही इजाफा हो जाता था। और फ्रांसीसी मुद्रा के साथ एक तयशुदा विनिमय दर को बरकरार रखने के लिए, इन देशों के लिए यह जरूरी सामझा जाता था कि उनकी मुद्रा नीति, फ्रांस की मुद्रा नीति से संगति में बनी रही और इसके लिए उस पर फ्रांस के मौद्रिक प्राधिकारों का नियंत्रण जरूरी माना जाता था। इसके जरिए, आर्थिक विकास शुरू करने का जो आखिरी औजार इन देशों के हाथ में हो सकता था, वह भी उनसे छिन जाता था।

इन अजीबो-गरीब हालात को राजनीतिक रूप से अनेक उपायों से बनाए रखा जा रहा था, जिनमें जनतंत्र के नाटक की आड़ में धांधलीपूर्ण चुनावों से लेकर, तख्ता पलट तथा नेताओं की हत्याएं कराने तक शामिल थे। इनमें सबसे ध्यान खींचने वाला प्रकरण थामस संकरा का था। वह बुर्किनी सैन्य अधिकारी थे जो एक मार्क्सवादी क्रांतिकारी थे। साथ ही वे पूरी तरह अफ्रीकी थे। वह 1983 में बुर्किनो फासो में सत्ता में आए थे और चाहते थे कि फ्रांसीसी सेनाएं उनके देश से चली जाएं। अफ्रीका में एक अमर प्रतीक बन गए संकरा की उनके अपने संगियों में से एक साथी ने हत्या कर दी थी, जिसके संबंध में माना जाता है कि वह साम्राज्यवाद के इशारे पर काम कर रहा था और जो संकरा के बाद देश का राष्ट्रपति बन गया। अब इकोवास (इकॉनमिक कम्यूनिस्ट ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स) नाम का संगठन कायम किया गया, जिसमें पश्चिमी अफ्रीका के पश्चिमपरस्त नेताओं का बोलबाला था। तब इस संगठन ने यथास्थिति बनाए रखने का और इस तरह साम्राज्यवाद के हितों को आगे बढ़ाने का जिम्मा संभाल लिया।

साम्राज्यवाद-विरोधी जन-उभार और जनतंत्र की झूठी दुहाई

बहरहाल, पिछले कुछ समय से फ्रेंच-भाषी अफ्रीका के अनेक देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी जन-उभार देखने में आ रहा है। पिछले दो-तीन वर्षों में गिनी, माली, छाद तथा बुर्किनो फासो में नयी साम्राज्यवाद-विरोधी सरकारें सत्ता में आयी हैं, जो फ्रांसीसी सेनाओं को अपने-अपने देश से बाहर कराना चाहती हैं। और माली में सरकार फ्रांसीसी सेनाओं को देश से बाहर कराने में कामयाब भी हो गयी है।

नाइजर इस ग्रुप में जुडऩे वाला आखिरी देश है। इन देशों के इस ग्रुप की ये सरकारें तख्तापलट के जरिए सत्ता में आयी हैं। और नाइजर के मामले में तो यह तख्तापलट, एक निर्वाचित सरकार के खिलाफ हुआ है। इस तथ्य से साम्राज्यवादी देशों को इसका मौका मिल गया है कि इन सभी नयी-नयी सत्ता में आयी सरकारों को ‘जनतंत्रविरोधी’ करार दे दें, हालांकि इन साम्राज्यवादी देशों ने एक बार भी ऐसे तख्तापलट के खिलाफ ऐसा रुख नहीं अपनाया था, जिनमें दक्षिणपंथी, साम्रज्यवादपरस्त सरकारें कायम की गयी थीं।

इस साम्राजी दोमुंहेपन की विडंबना हाल ही में बहुत ही साफ तौर पर देखने को मिली। नाइजर की नयी सरकार, उसकी सेना के एक अभिजात हिस्से, प्रेसीडेंशियल गार्ड द्वारा राष्ट्रपति बजोम की चुनी हुई सरकार के तख्तापलट के जरिए सत्ता में आयी है। राष्ट्रपति बजोम की सरकार इतनी ज्यादा पश्चिमपरस्त तथा अमरीकापरस्त थी कि उसने तो अपने देश में तैनात फ्रांसीसी सैनिकों की संख्या बढ़ाने का ही अनुरोध किया था। अमेरिका की उप-विदेश सचिव (उप-विदेश मंत्री) विक्टोरिया नूलेंड, तख्तापलट के नेताओं में से एक, जिसने अमेरिका में सैन्य प्रशिक्षण हासिल किया था, मिलने के लिए गयी थीं, ताकि नाइजर की नयी सरकार को इसके लिए ‘मनाया’ जा सके कि वह जनतंत्र का सम्मान करे और बजोम को सत्ता में बहाल कर दे! लेकिन, वही विक्टोरिया नूलेंड सीधे-सीधे 2014 में यूक्रेन में हुए तख्तापलट को कराने के लिए जिम्मेदार थीं, जिसके जरिए उस देश के निर्वाचित राष्ट्रपति, विक्टर येनुकोविच को अपदस्थ किया गया था। इसी प्रकरण से उन्मुक्त हुआ घटनाक्रम यूक्रेन में इस समय चल रहे दु:खद युद्घ तक लेकर आया है। दूसरे शब्दों में साम्राज्यवाद की असली चिंता जनतंत्र की तो है ही नहीं। उसकी असली चिंता है, साम्रज्यवादी वर्चस्व को बनाए रखने की है।

साम्राज्यवाद के एजेंट बनाम साम्राज्यवाद-विरोधी हलचल

फ्रेंच-भाषी अफ्रीकी देशों में निर्वाचित सरकारों की हिमायत की दलील, पहली नजर में विवाद से परे लग सकती है। लेकिन, सच्चाई यह है कि अनेक साम्राज्यवादपरस्त पश्चिम अफ्रीकी राजनीतिज्ञों ने, फ्रांसीसी सरकार तथा फ्रांसीसी कारोबारी स्वार्थों के साथ मिलीभगत के जरिए, बहुत भारी निजी दौलत जमा कर ली है। इसके नतीजे में फ्रांसीसी कारोबारी स्वार्थों को इन देशों के मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का मौका मिल जाता है। मिसाल के तौर पर नाइजर में यूरेनियम के विशाल भंडार हैं, जिनकी फ्रांस को बिजली पैदा करने के लिए जरूरत है। ये दक्षिण अफ्रीकी नेता, अपनी बेईमानी से बटोरी गयी इस विराट संपदा के बल पर और चुनाव में धांधली की अतिरिक्त मदद से, चुनाव जीतने में भी कामयाब हो जाते हैं। संक्षेप में यह कि इस मामले में ‘चुनी हुई’ सरकारें, कोई जनता का समर्थन-प्राप्त सरकारें नहीं हैं। ये तो भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की सरकारें हैं, जो खुद को सत्ता में बनाए रखने के लिए, चुनावों में हेर-फेर करते हैं।

दूसरी ओर, इनमें से अनेक देशों में सेना के कुछ खास हिस्से ही क्रांतिकारी तथा देशभक्तिपूर्ण विचारों का असली ठिकाना हैं। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि नाइजर में हुए तख्तापलट का स्थानीय जनता ने व्यापक पैमाने पर स्वागत किया है। और पश्चिम जनमत सर्वेक्षण के अनुसार भी, वहां की जनता का प्रचंड बहुमत फ्रांसीसियों को देश से बाहर निकलवाना चाहता है।

चुनावी प्रक्रिया से जुड़ा भ्रष्टाचार, सबसे स्पष्ट रूप से समकालीन नाइजीरिया के मामले में देखा जा सकता है, जहां के निर्वाचित राष्ट्रपति बोला टिनूबू ने, ऐसा माना जाता है कि नशीले पदार्थों के अवैध व्यापार में लगे एक ग्रुप की ओर से धन शोधन या मनी लाउंडरिंग के जरिए, भारी संपदा जमा कर ली थी। नशीले पदार्थों के अवैध कारोबारियों के इस ग्रुप से टिनूबू की दोस्ती तब हुई थी, जब वह खुद अमेरिका में था। (एमआरऑनलाइन, 12 अगस्त)। नाइजीरिया लौटने के बाद, उसने खुद को इस देेश के सबसे धनी राजनीतिज्ञों के बीच पाया और आरोपों के अनुसार वोट खरीदने के जरिए वह देश के राष्ट्रपति के रूप में चुने जाने में भी कामयाब हो गया।

वह हमेशा, नाइजीरिया स्थित अमेरिकी दूतावास के घनिष्ठ संपर्क में रहता है और नाइजर में तख्तापलट के बाद, इकतरफा तरीके से पाबंदियां थोपने की कार्रवाई में उसने, नाइजीरिया से इस देश के लिए बिजली की आपूर्ति ही काट दी। इसके ऊपर से, इकोवास का वर्तमान अध्यक्ष होने के नाते उसने, इस संगठन को नाइजर के मौजूदा साम्राज्यवाद-विरोधी निजाम के खिलाफ खड़ा करने की भी कोशिश की है। इस संगठन के अध्यक्ष की हैसियत से उसने एलान किया है कि अगर नाइजर में पूर्व-राष्ट्रपति को फिर से राष्ट्रपति पद पर बहाल नहीं किया जाता है, वह नाइजर में सैन्य हस्तक्षेप कर, उसे राष्ट्रपति पद पर बहाल कराएगा।

नाइजर प्रकरण के साम्राज्यवाद-विरोधी निहितार्थ

लेकिन, उसके दुर्भाग्य से और फ्रैंच-भाषी अफ्रीका में साम्राज्यवाद-विरोधी ताकतों के सौभाग्य से, उसके अपने देश की सीनेट ने नाइजर में किसी भी सैन्य हस्तक्षेप की इजाजत नहीं दी है। उधर गिनी, बर्किना फासो तथा माली ने पहले ही एलान कर दिया है कि अगर नाइजर के खिलाफ कोई सैन्य हस्तक्षेप होता है, तो वे भी नाइजर की नयी सरकार के पक्ष में सैन्य हस्तक्षेप करेंगे।

लेकिन, इस सब के बावजूद इकोवास ने सैन्य हस्तक्षेप के अपने मंसूबों को छोड़ा नहीं है और इसकी खबरें आ रही हैं कि नाइजर की सीमाओं पर सेनाएं जमा की जा रही हैं। इस तरह, फ्रैंच-भाषी अफ्रीका इस समय युद्घ के कगार पर है। लेकिन, अगर वहां युद्घ होता है तो वह एक बदले का युद्घ होगा, जो साम्राज्यवाद द्वारा ऐसे देशों के खिलाफ चलाया जा रहा होगा, जो अपने यहां शुरूआत में ही रुकी रह गयी, उपनिवेशीकरण को समाप्त करने की प्रक्रिया को आगे ले जाना चाहते हैं।

यह उल्लेखनीय है कि खुद साम्राज्यवादी देशों ने भी कुछ समय तक खुद ही नाइजर में सैन्य हस्तक्षेप करने पर सोच-विचार किया था। लेकिन, बाद में उन्होंने इस विचार को छोड़ दिया और इकोवास (इकॉनमिक कम्यूनिस्ट ऑफ वैस्ट अफ्रीकन स्टेट्स) को अपने एवजीदार के तौर पर वहां सैन्य हस्तक्षेप के अपने मंसूबों को आगे बढ़ाने देने का रास्ता अपनाया है।

उल्लेखनीय है कि फ्रेंच-भाषी अफ्रीका के नयी निजाम, साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने संघर्ष में मदद के लिए रूस की ओर देख रहे हैं और अक्सर इसकी याद दिलाते हैं कि तीसरी दुनिया के साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में, सोवियत संघ ने कैसी भूमिका अदा की थी। पर सोवियत संघ तो अब रहा नहीं और रूस, उसका विचारधारात्मक उत्तराधिकारी होने से बहुत दूर है। फिर भी, उसकी एक साख बनी हुई क्योंकि एक भिन्न युद्घ क्षेत्र में सही, वह भी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी हिफाजत कर रहा है।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Francophone Africa on Verge of Decolonising Completely

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