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कोप-27: आगे और नुक़सान व तबाही है

कोप-27 में ऐसा शायद ही कुछ निकला है, जिस पर खुश हुआ जा सके। उल्टे इसमें काफ़ी कुछ गंवाया गया है, जिसका मातम किया जा सकता है। ख़ासतौर पर निराकरण या मिटीगेशन के मामले में महत्वाकांक्षा का स्तर ऊपर उठाने के मामले में रत्तीभर प्रगति नहीं हुई है।
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क़रीब दो दिन के आख़िरी मिनट के पूरी तरह से निद्राहीन विस्तारों के बाद हुए समझौते को जब मिस्र से आने वाले बैठक के अध्यक्ष पढ़ कर सुना रहे थे, तालियों की बहुत हल्की सी आवाज़ ही उस पर खुशी जता रही थी। शर्म अल शेख में जो हुआ उसकी भावना को तालियों की यह हल्की सी आवाज़ ही शायद सबसे अच्छी तरह से व्यक्त करती है। आख़िर तक आते-आते प्रतिनिधिगण तथा सभी प्रेक्षक, न सिर्फ़ थक चुके थे बल्कि वे तो वास्तव में इसी पर राहत महसूस कर रहे थे कि यह शिखर बैठक आख़िरकार, किसी न किसी समझौते के साथ ख़त्म हो गयी। जैसा कि नियम ही है, संयुक्त राष्ट्र महासचिव और अन्य महत्वपूर्ण भागीदारों की ओर से कोप सम्मेलन की सफलता के दावे किए जा रहे थे, फिर भी बहुत सारी गंभीर शिकायतें तथा निराशाएं बनी हुई थीं और बहुत सारी शिकायतें थीं।

इस सम्मेलन की मुख्य उपलब्धि वास्तव में महत्वपूर्ण उपलब्धि रही, हानि तथा क्षति (लॉस एंड डैमेज-एल एंड डी) के लिए एक फंड की स्थापना पर सहमति। वास्तव में इस तरह के फंड का सवाल काफ़ी विवाद का मुद्दा रहा है और इसे लेकर विवाद की शुरूआत जलवायु परिवर्तन पर यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी)और उसके तत्वावधान में होने वाली कॉन्फ्रेंसेस ऑफ़ पार्टीज (कोप-सीओपी) की शुरूआत में ही हो गयी थी। इस तरह के एल-एंड-डी फंड की मांग जलवायु परिवर्तन के मामले में सबसे वेध्य देशों द्वारा की जाती रही है, जिन्हें पहले ही जलवायु परिवर्तन के चलते भारी नुक़सान उठाना पड़ा है। इस धन की ज़रूरत इसीलिए है ताकि इन देशों को इस आपदा के चलते हुए भारी नुक़सान से निपटने में मदद मिल सके। बहरहाल, जैसा कि हम आगे देखेंगे, यह कामयाबी भी कोई सभी तरह के अगर-मगर से मुक्त कामयाबी नहीं रही है क्योंकि इसके सिलसिले में बहुत सारी चीज़ें बाद में तय किए जाने के लिए रह गयी हैं और इतना तय है कि अब भी अज्ञात विवरणों में बहुत सारी समस्याएं छुपी रहने वाली हैं। फिर भी, छोटे-छोटे द्वीप देश तथा अनेकानेक सबसे कम विकसित देश (एलसीडी) कम से कम इसके संतोष के साथ घर लौट सकते हैं कि वे कुछ ठोस हासिल करने में कामयाब रहे हैं।

लेकिन, इस सीमित सफलता के अलावा, कोप-27 में ऐसा शायद ही कुछ निकला है, जिस पर खुश हुआ जा सके। उल्टे इसमें काफ़ी कुछ गंवाया गया है, जिसका मातम किया जा सकता है। ख़ासतौर पर निराकरण या मिटीगेशन के मामले में महत्वाकांक्षा का स्तर ऊपर उठाने के मामले में रत्तीभर प्रगति नहीं हुई है यानी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए, ग्लासगो में कोप-26 में जो वचनबद्घताएं स्वीकार की गयी थीं, उनसे बढ़कर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी की किसी भी तरह की वचन बद्घताएं नहीं आयी हैं। इसका अर्थ यह है कि विश्व ताप वृद्घि को 2 डिग्री सैल्शियस से कम करने और बेहतर हो कि 1.5 डिग्री तक ही सीमित करने के वैश्विक लक्ष्य को और नज़दीक लाने के लिए कुछ भी नहीं हुआ है। इतना ही नहीं, वास्तव में कोप-27 के अंधियारे कोनों में बहुत सारीे ऐसी तिकड़म हो रही थीं, जो वास्तव में वैश्विक लक्ष्य से उल्टी ही दिशा में ले जाने वाली हैं। और इस शिखर सम्मेलन के अनेक प्रतिनिधिगण तो, अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी संभाल रहे मिस्र की ऐसा होने देने के लिए बल्कि कुछ के अनुसार तो ऐसा होने को प्रोत्साहित तक करने के लिए, आलोचना भी कर रहे थे।

पिछले कुछ अर्से में, जिसमें पिछले साल के प्रकरण भी शामिल हैं, जलवायु परिवर्तन के चलते बहुत बड़े पैमाने पर तथा साफ़-साफ़ दिखती हुई तबाहियां हुई हैं, जैसे बाढ़, सूखा, जंगलों की आग तथा आर्कटिक का तेज़ी से पिघलना, इसे देखते हुए ऐसा लगता है कि आने वाले वर्षों में और ज़्यादा एल-एंड-डी फंडों की ज़रूरत होगी और यह ज़रूरत सिर्फ़ पहले हो चुकी तबाहियों की क्षतिपूर्ति के लिए ही नहीं होगी बल्कि उन तबाहियों के चलते भी होगी, जो ग्रीन हाउस उत्सर्जनों में वांछित कटौती कर पाने में अब भी बनी हुई विफलता के चलते होने जा रही हैं।

हानि व क्षति

जलवायु परिवर्तन से हुई हानि व क्षति या एल-एंड-डी के लिए विशेष फंड स्थापित करना इसके आकलन के आधार पर ज़रूरी समझा गया कि अत्यधिक बारिश, अत्यधिक गर्मी जैसी प्राकृतिक घटनाओं और सूखे व सागर का स्तर ऊपर उठने जैसी धीरे-धीरे अपना असर दिखाने वाली प्रक्रियाओं से होने वाला जलवायु संबंधी नुक़सान, कई बार अपरिवर्तनीय हो सकता है या इस तरह के नुक़सान का मुक़ाबला करने के लिए, अनुकूलन या जीवट-निर्माण के क़दमों से क्षमताओं में होने वाले इज़ाफ़े के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा हो सकता है। द्वीपीय देशों तथा सबसे कम विकसित देशों के बढ़ते दबाव के सामने, कोप-19 ने वार्सा इंटरनेशनल मैकेनिज्म फॉर लॉस-एंड-डैमेज की स्थापना की थी। उसके बाद से ही कोप के हरेक सम्मेलन में ख़ासतौर पर जलवायु परिवर्तन के लिए वेध्य देशों की ओर से इसकी कोशिशें की जाती रही थीं कि कोप के अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत क़दमों में, एल-एंड-डी फंडों को संस्थागत रूप से स्थापित किया जाए। लेकिन, विकसित देशों और ख़ासतौर पर अमरीका तथा यूरोपीय यूनियन द्वारा इन कोशिशों का इस आधार पर प्रतिरोध किया जाता रहा था कि इस तरह के एल-एंड-डी फंड, किसी न किसी तरह से अतीत के नुक़सान के लिए मुआवज़े या किसी प्रकार के क्षतिपूरक के तौर पर देखे जाएंगे और यह अमरीका तथा यूरोप को मुक़द्दमों के ख़तरे में डालेगा और उन्हें बेहिसाब क़ानूनी जवाबदेही तथा क्षतिपूर्तियों के दावों का शिकार बना सकता है। यह इसके बावजूद था कि ज़्यादातर लोगों को यही मानना था कि वार्सा मैकेनिज्म ने अपनी तरफ़ से इस तरह के निहितार्थ से बचने की हर संभव कोशिश की थी।

आख़िरकार, शर्म अल शेख में इस ख़तरे का हमेशा के लिए अंत कर दिया गया। इसके लिए एल-एंड-डी फंड से संबंधित निर्णय को दर्ज करने वाले दस्तावेज़ में, उपयुक्त शब्दावली का प्रयोग कर, इन आशंकाओं का निराकरण कर दिया गया है।

इस एल-एंड-डी फंड की स्थापना, जो कि जलवायु परिवर्तन से ही निपटने के लिए, अनुकूलन तथा निराकरण (एडॉप्टेशन एंड मिटीगेशन) के क़दमों के लिए विकासशील देशों की मदद के लिए गठित जलवायु फंडों से भिन्न होगा, निस्संदेह एक महत्वपूर्ण नयी प्रगति को दिखाता है। फिर भी इस तरह के सारे महत्वपूर्ण प्रश्नों के जवाब अभी हवा में ही हैं कि इस मामले में ठीक-ठीक किस चीज़ की सहमति बनी है, वेध्य देशों को कितनी मदद मिलने का अनुमान है, कि यह सहायता कब तक मिलेगी, कि इस तरह का फंड किन देशों द्वारा मुहैया कराया जाएगा और इस तरह के फंड के संचालन के लिए किस तरह का तंत्र गठित किया जाएगा, आदि। हां! इतना ज़रूर तय हुआ है कि 2023 के मार्च तक एक ‘संक्रमण कमेटी’ का गठन कर लिया जाएगा, जो इस मामले में और विस्तृत प्रस्ताव तैयार करेगी, जिन्हें 2023 के नवंबर-दिसंबर में होने वाले अगले कोप सम्मेलन में अंतिम रूप दिए जाने की उम्मीद है। इसके अलावा एल-एंड-डी दस्तावेज़ में यह भी साफ़ कर दिया गया है कि प्रस्तावित फंड पूरी तरह से सरकारी फंडिंग या सार्वजनिक फंडिंग का मामला नहीं होगा बल्कि जैसा कि जलवायु संबंधी फंडिंग के प्रस्तावों के मामले में किया गया है, इसके लिए संसाधन जुटाने में भांति-भांति की एजेंसियों को शामिल किया जाएगा। इस तरह, इस निर्णय में यह तो पहले ही साफ़ कर दिया गया है कि इसके लिए फंडिंग की या निहितार्थत: इस मामले में हुए नुक़सान की ज़िम्मेदारी, सरकारें अपने ऊपर नहीं ले रही हैं।

बहरहाल, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील देशों के लिए कुल कितनी फंडिंग की ज़रूरत होगी, जिसमें अनुमानत: एल-एंड-डी फंड और मिटीगेशन व एडाप्टेशन के क़दमों के लिए विकसित देशों द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता, दोनों शामिल होंगे, इसका अनुमान कोप-27 के ‘‘कवर’’ दस्तावेज़ या मुख्य समरी में दिया गया है, जिसे ‘शर्म अल शेख क्रियान्वयन योजना’ का नाम दिया गया है। इस अनुमान के अनुसार, यह आंकड़ा 2030 तक 58-59 खरब डॉलर तक ख़र्च का होगा। बहरहाल, उसी दस्तावेज़ में इस पर भी ‘गंभीर चिंता जतायी’ गयी है कि विकसित देशों ने 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर की सहायता का जो वचन दिया था, उसे अब तक पूरा नहीं किया गया है।

इस तरह, एल-एंड-डी फंड के गठन पर सहमति होना निश्चित रूप से एक उपलब्धि तो है, लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह है कि जलवायु संबंधी सारी की सारी वित्तीय मदद, उसे चाहे जो भी नाम दिया जाए, विकसित देशों के उसी खजाने से आने वाला है, जो अब तक तो तक़ाज़े के मुक़ाबले बहुत पीछे ही बना रहा है।

इस मामले में भारत के लिए विशेष महत्व का तथ्य यह है कि अनेक अनौपचारिक टिप्पणियों में और कुछ यूरोपीय देशों के औपचारिक वक्तव्यों में भी, इसकी मांग उठायी जा रही थी कि प्रमुख उत्सर्जनकर्ताओं को, ख़ासतौर पर ‘बड़े देशों’ को भी, जिसका इशारा साफ़ तौर पर चीन व भारत की ओर था, हालांकि यह इशारा रूस व ब्राजील की ओर भी था, एल-एंड-डी फंडिंग में ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए। बेशक, कोप-27 में इस मुद्दे पर टकराव तो टल गया है, लेकिन 2023 में होने जा रहे कोप-28 में इसका एक बड़ा मुद्दा बन जाना क़रीब-क़रीब तय समझना चाहिए।

शमन कार्य योजना

हालांकि मीडिया की टिप्पणियों में और ज़ाहिर है कि अपने दो दिन के विस्तार समेत, ख़ुद इस कोप सम्मेलन में एल-एंड-डी के मामले में हुई प्रगति पर ही इतना ज़्यादा ध्यान दिया गया है, फिर भी इन पंक्तियों के लेखक का मानना है कि शर्म अल शेख में शमन या मिटीगेशन के मामले में तगड़ा घाटा भी हुआ है। न सिर्फ़ कोप-27 ने उत्सर्जनों में कमी के मामले में अपनी महत्वाकांक्षा को बढ़ाने से इंकार कर दिया है, अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं से उसने अपने क़दम पीछे भी हटाए हैं। यह दुनिया ने अब तक जैसी जलवायु संबंधी तबाही देखी है, उससे भयानक तबाहियों के आने का ही इशारा है क्योंकि विभिन्न वैज्ञानिक रिपोर्टें, विश्व ताप वृद्घि को 2 डिग्री से नीचे रखने के वैश्विक लक्ष्य के संदर्भ में, वर्तमान तथा कल्पनीय उत्सर्जन स्तरों तथा वातावरणीय कार्बन बजटों के वर्तमान स्तर को नाकाफ़ी बताती हैं। अब व्यापक रूप से यह माना जा रहा है कि ताप में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी होती है तब भी, जलवायु संबंधी तबाहियां अब तक जो 2 डिग्री से कम के लक्ष्य के लिए माना जा रहा था, उससे भी भयानक होंगी।

शर्म अल शेख में हुए सम्मेलन की एक नयी चीज़ हुई, उच्च स्तरीय मंत्रिस्तर की राउंडटेबल बैठक। संभवत: अब सभी कोप सम्मेलनों में नियमत: ऐसी बैठक हुआ करेगी, ताकि जलवायु परिवर्तन पर क़ाबू पाने के लिए गंभीर क़दमों को गति दी जा सके। इस बार की राउंडटेबल बैठक की शुरूआत, एक नयी रिपोर्ट के पेश किए जाने के साथ हुई। यह रिपोर्ट 2022 के अक्टूबर के आख़िर में, यूएन क्लाईमेट चेंज द्वारा जारी की गयी थी, जो ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों के वर्तमान रुझानों को और उनके मुक़ाबले विश्व ताप वृद्घि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रखने के तक़ाज़ों को रेखांकित करती है। रिपोर्ट यह रेखांकित करती है कि ग्लासगो में अपनायी गयी बढ़ी हुई वचन बद्घताओं को देखते हुए, वृद्घि के रुझान में मामूली सुधार दिखाई दे रहा है और 2030 तक कुल उत्सर्जनों में, 2010 की तुलना में 10.6 फ़ीसद की बढ़ोतरी होने तथा उसके बाद बढ़ोतरी रुक जाने का अनुमान है, जबकि पिछले साल तक यह अनुमान 13.7 फ़ीसद बढ़ोतरी का और बढ़ोतरी का सिलसिला 2030 के बाद तक जारी रहने का अनुमान था। बहरहाल, इस रिपोर्ट में अच्छी ख़बर के नाम पर बस इतना ही है!

लेकिन, उक्त रुझानों के ठीक उलट, आइपीसीसी की ताज़ातरीन व छठी आकलन रिपोर्ट इसका तक़ाज़ा करती है कि वैश्विक उत्सर्जनों की वृद्घि को 2025 तक ही रोका जाए और 2010 की तुलना में 2030 तक उत्सर्जनों में 43 फ़ीसद की कटौती कर दी जाए। ज़ाहिर है कि हम उक्त लक्ष्य से बहुत-बहुत पीछे हैं। इसके बावजूद, कोप-27 में उत्सर्जन कटौती की महत्वाकांक्षा में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने की न कोई जल्दी दिखाई दी और न इन लक्ष्यों को हासिल करने के तरीक़ों की खोज के लिए गंभीर सोच-विचार की जल्दी दिखाई दी।

यूरोपीय यूनियन तथा यूके के प्रतिनिधि, आलोक शर्मा, जो ग्लासगो के कोप सम्मेलन में अध्यक्ष की कुर्सी पर रहे थे, इसकी ज़ोर-शोर से शिकायत करते नज़र आए कि कोप-27 शमन की महत्वाकांक्षाओं को ऊपर उठाने में विफल रहा। लेकिन, ख़ुद उनके अपने देश तथा क्षेत्र का रिकॉर्ड यही दिखा रहा था कि उन्होंने ख़ुद अपनी ओर से महत्वाकांक्षा के अभाव की ओर से आंखें मूंदे हुई थीं और बस दूसरों पर दोषारोपण करना चाहते थे। कोप-27 के आख़िर में यूरोपीय यूनियन ने अपना उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य, 1990 की तुलना में 55 फ़ीसद कमी से ज़रा सा ही बढ़ाकर 57 फ़ीसद करने की पेशकश की थी और ऐसा करते हुए उन्होंने बड़ी आसानी से इसे भुला ही दिया था कि आइपीसीसी ने तो अपनी चौथी असेसमेंट रिपोर्ट में ही विकसित देशों से अपने उत्सर्जनों के स्तर में 1990 के मुक़ाबले में 80-90 फ़ीसद की कमी का तक़ाज़ा किया था और यूरोपीय यूनियन ने तब तो इसे अपनी आकांक्षा बनाना स्वीकार भी कर लिया था, लेकिन उसके बाद से लगातार इस मामले में अपनी महत्वाकांक्षा को घटाता ही गया है!

अनेक प्रेक्षकों की यह राय थी कि यूक्रेन में जारी युद्घ तथा उससे उत्पन्न ऊर्जा संकट और दुनिया के अनेक हिस्सों में तथा ख़ासतौर पर यूरोप में मंडराते मंदी के ख़तरे के चलते, इस साल तो उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों को वैसे भी गति मिलनी मुश्किल थी। रूस से प्राकृतिक गैस की आपूर्तियों में कमी के चलते पहले ही यूके, फ्रांस, जर्मनी, फिनलेंड, नार्वे आदि, कई यूरोपीय देशों में कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को फिर से चालू भी किया जा चुका है और इसके चलते इंडोनेशिया आदि से कोयले के आयातों में बढ़ोतरी भी हो गयी है। इसके साथ ही बड़े यूरोपीय ऊर्जा उपभोक्ता तेज़ी से अपनी ही प्राकृतिक गैस आपूर्तियों तथा भंडारण सुविधाओं को बढ़ा रहे हैं। मिसाल के तौर पर जर्मनी ने पिछले ही हफ़्ते एक विशाल तैरता हुआ एलएनजी (द्रवीकृत प्राकृतिक गैस) टर्मिनल चालू किया है, जिसे सिर्फ़ 6 महीने में पूरा कर लिया गया है। पुन: हाल ही में कतर ने अगले 27 साल में चीन को एलएनजी की आपूर्ति करने के सबसे लंबे समझौते पर दस्तख़त किए हैं। इस सब के बावजूद, यूरोपीय यूनियन तथा ऐसी अन्य ताक़तें भारत में तथा चीन में, कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को निशाने पर लिए रही हैं, जबकि इन देशों ने तो ग्लासगो में कोयले के उपयोग को चरणबद्ध तरीक़े से ख़त्म करने (फेज आउट) के लक्ष्य का विरोध किया था और उसकी जगह पर चरणबद्ध तरीक़े से घटाने (फेज डाउन) की शब्दावली को पसंद किया था।

इस नये यथार्थ की औपचारिक तथा सनकभरी मंज़ूरी को दिखाते हुए और उत्सर्जनों की कटौती के लिए ज़रूरी अर्जेंसी के ठीक विपरीत, कोप-27 में स्वीकृत मिटीगेशन वर्क प्लान में, नवीकरणीय ऊर्जा की जगह पर, कई बार ‘कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों’ की बात कही गयी है। अनेक प्रतिनिधियों का मानना था कि यह नयी शब्दावली, तेल व गैस-धनी देशों तथा उनके धनी उपभोक्ताओं ने जोड़-तोड़ कर के रखवाया है। यह साफ़ तौर पर उस प्राकृतिक गैस की एक नयी दीर्घावधि स्वीकृति के लिए ही एक कूट शब्द है, जबकि पहले उसे जीवाष्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण के रास्ते में, एक अवांछित किंतु आवश्यक संक्रमणकालीन उपाय के रूप में ही देखा जाता था।

फिलहाल तो कोप-27 का इसी के लिए स्वागत किया जा रहा है कि इसने आख़िरकार लास-एंड-डैमेज फंड को औपचारिक रूप दे दिया है, जो अंतत: शायद जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के मामले में वेध्य देशों के लिए उतना लाभदायक साबित नहीं होगा, जितने की उम्मीद की जाती है। लेकिन, शायद कोप-27 को ज़्यादा इसी के लिए याद किया जाएगा कि इसने वैश्विक उत्सर्जन नियंत्रण व्यवस्था के ताबूत में बड़ी सी कील ठोक दी है।

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