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कोविड-19 ने मज़दूरों की सुरक्षा के मामले में भारतीय क़ानूनों की कमी को किया उजागर

श्रमिक ट्रेनों में यात्रा के लिए आधार कार्ड के विवरण की मांग से लेकर गंदगी से भरे क्वारंटाइन सेंटरों तक और उस पर पुलिस द्वारा बेरहमी से पिटाई; मज़दूरों की घर वापसी की मजबूरी उनसे सम्मान से जीने का हक़ छीन रही है।
migrant worker

मार्च महीने से फंसे रहने के बाद - पैदल, अपनी साइकिल के माध्यम से या फिर ट्रकों में छिप कर घर वापस जाने की यात्रा की कोशिशों के बाद – अंततः प्रवासी मज़दूरों को घर वापस जाने के लिए एक सम्मानजनक विकल्प मिल गया है। 1 मई, यानी अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर, भारतीय रेल ने मज़दूरों को उनके गृह राज्य भेजने के लिए खास "श्रमिक स्पेशल" ट्रेनें शुरू की हैं।

भारतीय रेल ने दिनांक 1 मई को अपने "सभी जोनल रेलवे" को निर्देश दिया कि वे विशेष रेलगाड़ियां यानि "स्लीपर मेल एक्सप्रेस ट्रेनों के लिए किराया 30 रुपये और सुपरफास्ट शुल्क 20 रुपये के अतिरिक्त शुल्क के साथ ट्रेनें चलाएं।" कई राज्य सरकारों ने वादा किया है कि मज़दूरों को अपनी इन यात्राओं के लिए कोई किराया नहीं देना होगा,  लेकिन जैसे-जैसे राजनीति और भ्रम अपने पैर जामाता जा रहा हैं वैसे-वैसे 13 करोड़ 60 लाख (जनगणना 2011 के मुताबिक) अंतर-राज्य और राज्य के भीतरी प्रवासी  मज़दूरों के लिए दुविधा पैदा होती जा रही है।

कोविड-19 महामारी ने उन दयनीय हालात को नंगा कर सबके सामने खड़ा कर दिया है जिनमें हमारे प्रवासी मज़दूर रहते हैं, काम करते हैं, क्योंकि उन्हे सभी राम भरोसे छोड़ देते है। अंतरराज्यीय प्रवासी कामगार (रोजगार के नियमन और काम के हालात) अधिनियम, 1979 भारत के लाखों प्रवासी मज़दूरों/कामगारों के हक़ के लिए बना है। अधिनियम के अनुसार, प्रवासी मज़दूर अपनी मज़दूरी के अलावा विस्थापन भत्ता और यात्रा भत्ते के हकदार हैं। अधिनियम में बुनियादी सुविधाएं जैसे उपयुक्त रहने की जगह, पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं, बदलती जलवायु परिस्थितियों और काम की उपयुक्त परिस्थितियों के अनुरूप सुरक्षात्मक सुविधाएं तय की गई हैं, खासकर यह बात ध्यान में रखते हुए कि वे दूसरे राज्यों से काम के लिए आते हैं।

कई राज्य सरकारों- जिनमें हरियाणा, बिहार, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और अन्य ने अंतर-राज्यीय यात्रा के संबंध में प्रवासी मज़दूरों के पंजीकरण के लिए ऑनलाइन पोर्टलों के खोलने की घोषणा की है। लेकिन, इन पंजीकरण के लिए अधिकृत केंद्रों पर अराजकता की खबरें आ रही हैं। एक ओर जहां लॉकडाउन के चलते ऑनलाइन पंजीकरण अपने आप में एक बड़ी समस्या है, वहीं इससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि इन मज़दूरों से पंजीकरण के लिए आधार विवरण मांगा जा रहा है। पंजीकरण कराने के लिए आधार विवरण देना अनिवार्य है। अगर आप ओडिशा का उदाहरण लें – तो सात प्रतिशत आबादी ऐसी है जो राज्य में ‘आधार’ के तहत पंजीकृत नहीं है।

इसके अलावा, कई ऐसे प्रवासी मज़दूर हैं जो एक शहर से दूसरे शहर अक्सर काम की तलाश में यात्रा करते हैं, वे कभी भी अपने महत्वपूर्ण दस्तावेज अपने साथ नहीं रखते हैं। इसलिए ऐसे बिना आधार कार्ड वाले मज़दूरों के लिए, सरकारों ने उन्हें घर वापस लाने में मदद करने के लिए कोई योजना पेश नहीं की है।

मज़दूरों की घर वापसी की यात्रा पहले से काफी दर्दनाक हो गई है। ऐसी ही स्थिति एक 33 वर्षीय प्रवासी मज़दूर निर्मल साहू की है जिस पर गौर करने ली जरूरत है, जो अपने चार सहयोगियों के साथ 11 अप्रैल को आंध्र प्रदेश से ओडिशा के लिए रवाना हुआ था। उन्हौने 540 किलोमीटर की इस कठिन यात्रा की शुरुआत की, लेकिन पोलियो से त्रस्त निर्मल के लिए इसे पूरा कर पाना सबसे मुश्किल काम था। पिछले 12 वर्षों से एक ही कारखाने में काम करने के बाद और छह अन्य सहयोगियों के साथ 140 वर्ग फुट के कमरे को कमरा साझा करने के बावजूद, उनके मालिक ने उन्हें केवल आधा वेतन ही दिया।

साहू और उनके सहकर्मियों के लिए किसी भी किस्म का स्वास्थ्य लाभ या सामाजिक लाभ का प्रावधान नहीं है। जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई, फैक्ट्री प्रबंधक ने मज़दूरों को तुरंत काम छोड़ने को कह दिया। कारखाना प्रबंधन ने उनके कमरों में दी जा रही बिजली और पानी की आपूर्ति को काट दिया। उनके पास उस स्थान को छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।

उनकी घर वापसी की यात्रा के दौरान, उन्हें और उनके दोस्तों को पुलिस ने आंध्र प्रदेश और ओडिशा के एक सीमावर्ती जिले श्रीकाकुलम में रोक दिया था। निर्मल का कहना है कि पुलिस ने उनके और उनके दोस्तों के साथ अपराधियों जैसा बर्ताव किया – यानि जानवरों की तरह उनके साथ व्यवहार किया गया। न पानी और न ही भोजन दिया गया। उसने कहा कि अगर वह  विदेश से आए हुए होते तो क्या उसके और उनके सहयोगियों के साथ ऐसा बुरा व्यवहार किया जाता?

रात के करीब 9:30 बजे थे; उन्हें बताया गया कि उन्हें कोविड-19 की जांच के लिए ले जाया जाएगा। और अगर जांच नेगेटिव आई तो तभी आगे जाने की अनुमति दी जाएगी। उन्होंने राष्ट्रीय राजमार्ग-16 की सड़क के किनारे रात बिताई।

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि घर वापस लौटने की कोशिश कर रहे प्रवासी मज़दूरों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाना चाहिए, और उन्हें पर्याप्त भोजन, पानी, बिस्तर आदि की आपूर्ति के साथ-साथ सुरक्षा बल द्वारा नहीं बल्कि वलिंटियर द्वारा चलाए जा रहे आश्रयों में मनोसामाजिक काउंसलिंग भी दी जानी चाहिए, लेकिन सच्चाई इस आदर्श से बहुत दूर है।

अगले दिन, निर्मल और उनके दोस्तों को एक इंजीनियरिंग कॉलेज में ले जाया गया, जिसे आंध्र प्रदेश सरकार ने कोविड-19 क्वारंटाईन में तब्दील किया हुआ है। यह लगभग 500 लोगों की भीड़ से खचाखच भरा हुआ था। जब वह और उसके दोस्त सेंटर पहुँचे, तब तक नाश्ता परोसा जा चुका था और खत्म हो चुका था। उन्होंने उसी वक़्त पुलिस द्वारा एक व्यक्ति को खाना मांगने पर पिटाई खाते देखा। उनसे जमीन पर सोने को कहा गया न कोई खाट, या चटाई उपलब्ध थी। उन्हौने ओडिया चैनल की कनक न्यूज़ को बताया, कि "यह जगह गंदी है और रहने के लायक नहीं है।"

घर जाने की बेताबी में, निर्मल और उनके दोस्तों ने ओडिशा राज्य कोविड-19 कंट्रोल रूम को फोन किया। वहाँ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर, उन्होंने अपने गृह जिले के जिला कलेक्टर को फोन किया। वहाँ से उन्हें स्थानीय पुलिस स्टेशन को फोन करने के लिए कहा गया। फिर उन्होंने स्टेशन फोन किया तो जवाब मिला कि “आपने वह जगह क्यों छोड़ी? हम आपकी कोई मदद नहीं कर सकते हैं। निर्मल अभी भी श्रीकाकुलम के क्वारंटाईन सेंटर में बंद पड़ा है।

भारत के प्रवासी मज़दूरों को उनके अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त ढंग से संगठित नहीं किया गया है। अंतरराज्यीय प्रवासी कामगार (रोजगार नियमन और कम के हालत) अधिनियम, 1979 भी संकट की स्थिति में मालकि की भूमिका के बारे में कोई बात नहीं करता है, जैसे कि वर्तमान स्थिति के बारे में। और अब भी कोई इसके बारे में बात नहीं कर रहा है।

नेशनल सैंपल सर्वे 2008 में प्रवासी कामगारों की संख्या 24 प्रतिशत थी। अब जबकि मज़दूरों की दुर्दशा- उनके रहने और काम करने की स्थिति, वेतन संरचना और उनके सामाजिक लाभों के बारे में बात की जा रही है, कम से कम उन लोगों द्वारा जो उनकी कद्र करते हैं, इसलिए अब समय आ गया है कि सरकार प्रवासी मज़दूरों के लिए एक पुख्ता योजना तैयार करे। फंसे हुए प्रवासी मज़दूरों के लिए आपातकालीन राहत सहायता प्रदान देने के अलावा यह पता लगाया जाए कि उन्हें घर वापस कैसे लाया जाए, सरकार द्वारा इस तरह के मुद्दों पर काम करने के लिए यह सही समय है। सरकार को इस मामले में एक दीर्घकालिक कार्य योजना तैयार करनी चाहिए जिससे भारत में प्रवासी मज़दूरों/कामगारों के लिए बेहतर और सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित हो सके।

प्रवास रंजन मिश्रा ऑक्सफ़ैम इंडिया, भुवनेश्वर क्षेत्रीय कार्यालय में प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर हैं और मनोरंजन मिश्रा, कनक न्यूज़, भुवनेश्वर के संपादक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Covid-19 Exposes Gaps in Indian Laws to Protect Workers

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