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बहस: केंद्रीयकरण के ख़तरे

फ़ासीवाद, उसकी अन्य ख़ासियत चाहे जो भी हों, अपरिहार्य रूप से घोर केंद्रीयकरण के साथ आता है।
pm modi

जाने-माने मार्क्सवादी विद्वान, दिवंगत अमलेन्दु गुहा ने बहुत प्रभावशाली ढंग से इसकी दलील दी थी कि आधुनिक भारत में लोगों के दिमाग में एक दोहरी राष्ट्रीय चेतना का वास रहता है। इनमें से एक स्थानीय, क्षेत्रीय-भाषायी राष्ट्रीयता की चेतना है यानी एक बंगाली या तमिल या गुजराती या ओडिया होने की चेतना। और इसके साथ ही साथ, एक वृहत्तर सर्व-भारतीय चेतना का भी वास रहता है। उनका कहना था कि इस द्वैत को पहचानना होगा और स्वीकार करना होगा। इनमें से किसी एक को अनदेखा कर, दूसरी चेतना पर ही जरूरत से ज्यादा जोर दिया जाना, एक खतरनाक प्रतिक्रिया पैदा करेगा। 

खासतौर पर अति केंद्रीयकरण, जो सर्व-भारतीय चेतना पर ही जोर देता है, अपने खिलाफ स्थानीय अलगाववाद और यहां तक कि पृथकतावाद के रूप में भी ऐसी प्रतिक्रिया पैदा करेगा, जिससे राष्ट्र की एकता खतरे में पड़ सकती है।

फ़ासीवाद और अति-केंद्रीयकरण

अमलेन्दु गुहा, इंदिरा गांधी के शासन काल में हुए केंद्रीयकरण के संदर्भ में लिख रहे थे, जो जाहिर है कि हिंदुत्ववादी-नव फ़ासीवाद की सभी निशानियों से मुक्त था और जिसकी प्रतिक्रिया में उन्नीस सौ अस्सी (1980) के दशक के शुरुआती वर्षों में, असम आंदोलन सामने आया था। वही खतरा आज देश के सामने खड़ा है, जब सामने नव-फ़ासीवादी केंद्रीयकरण है, जो हैरान करने वाली तेजी से हमारी हमारी आंखों के सामने उन्मुक्त हो रहा है।

फ़ासीवाद, उसकी अन्य खासियतें चाहे जो भी हों, अपरिहार्य रूप से घोर केंद्रीयकरण के साथ आता है। वास्तव में, ‘‘महान नेता’’ (डर फ्यूहरर) का उसका पंथ, सत्ता के स्रोत की अवस्थिति को ही उलट देता है। सत्ता का वास, वास्तविक जनता के रूप में लोगों में नहीं होता है, नेताओं के जिनका प्रतिनिधित्व करने की अपेक्षा की जाती है, बल्कि उसका वास ‘‘नेता’’ में होता है, जो एक आदर्शीकृत अर्थ में, एक अधिभौतिक सत्ता के रूप में जनता का और उसके भी एक हिस्से का, मिसाल के तौर पर हिंदुओं का या किसी इथनिक बहुमत का (यानी जिन्हें ‘पराया’ बनाया जा रहा होता है उन्हें छोडक़र) प्रतिनिधित्व करने का दावा कर सकता है। केंद्रीयकरण, सत्ता की इस अवस्थिति की उल्टी अवधारणा की टिकाऊ अभिव्यक्ति होता है। हैरानी की बात नहीं है कि एनडीए सरकार ने संसाधनों तथा सत्ता के केंद्रीयकरण को अभूतपूर्व ऊंचाई तक पहुंचा दिया है।

बेशक, नव-उदारवाद अपने आप में केंद्रीयकरण लेकर आता है। कारपोरेट-वित्तीय अल्पतंत्र, जो इसके अंतर्गत वर्चस्व का व्यवहार करता है, सत्ता तथा संसाधनों का एक ऐसे राज्य के हाथों में केंद्रीयकरण देखना चाहता है, जो उसकी इच्छाओं को सिर झुकाकर कबूल करता हो। लेकिन, नव-उदारवाद के संकट के दौर में प्रवेश करने के साथ, कारपोरेट-नव-फ़ासीवादी गठजोड़ के सामने आने पर, केंद्रीयकरण की यह प्रक्रिया बहुत ही प्रबल हो जाती है।

आर्थिक संसाधनों का केंद्रीयकरण और जीएसटी

हम यहां इसके ब्यौरों में नहीं जाएंगे। बहरहाल, संसाधनों के केंद्रीयकरण की एक स्वत:स्पष्ट मिसाल पुराने बिक्री कर की जगह पर, गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) का लाया जाना है। पुराने बिक्री कर की संकल्पना हमारे संविधान में राज्य सरकारों के राजस्व के मुख्य स्रोत के रूप में की गयी थी और इससे राज्यों के राजस्व का करीब 80 फीसद हिस्सा आता था। यह प्रतिस्थापन एक ऐसे तर्क के आधार पर किया गया था, जो पूरी तरह से ही झूठा था, हालांकि नव-उदारवाद उसके पक्ष में था। यह तर्क यह था कि एक वैल्यू एडेड टैक्स, जो कि जीएसटी है, कराधान के प्रपाती प्रभावों से बचाने के अलावा इस अर्थ में लाभकर है कि अगर हरेक माल के लिए समान दर से कर लगाया जाता है (भले ही दरें कई-कई क्यों न हों यानी अलग-अलग मालों के लिए दरें अलग-अलग क्यों न हों), तो इससे राष्ट्रीय बाजार का एकीकरण हो जाएगा। इस समान दर को लागू करने के लिए यह जरूरी था कि यह दर, राज्य सरकारों से भिन्न किसी निकाय द्वारा तय की जाए। इसलिए, राज्य सरकारों को कराधान की अपनी शक्तियों का इस निकाय के सामने समर्पण कर देना चाहिए। यह निकाय होना था जीएसटी परिषद को, जिसमें राज्य सरकारों के अलावा केंद्र सरकार का भी प्रतिनिधित्व होना था।

बिक्री कर की जगह जीएसटी लाए जाने की इस दलील का फर्जीपना तब खुद ब खुद साफ हो जाता है, जब हम इस सचाई को याद करते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े पूंजीवादी देश, अमरीका में तो अलग-अलग राज्यों में करों की अलग-अलग दरें चल रही हैं (जो कि संघवाद के सिद्धांत के अनुरूप है ) और कोई भी यह नहीं कह सकता है कि अमरीका में एकीकृत बाजार नहीं है या वहां पर अलग-अलग राज्यों में मालों की कीमतें अलग-अलग होने ने, उसे आर्थिक शक्ति हासिल करने से रोका है।

जीएसटी का अर्थ था, राज्य सरकारों के संवैधानिक अधिकारों का समर्पण किया जाना। लेकिन, राज्य सरकारों को ऐसा करने के लिए इस वादे के सहारे तैयार किया गया था कि इसके लागू होने के आधार वर्ष से लगाकर पांच वर्ष तक, अगर 14 फीसद सालाना की वृद्धि दर में कोई कमी-बेशी रह जाती है, तो केंद्र सरकार इसके लिए उनकी क्षतिपूर्ति करेगी। सचाई यह है कि जीएसटी-पूर्व स्थिति की तुलना अगर जीएसटी-पश्चात स्थिति से की जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जीएसटी द्वारा प्रतिस्थापित करों से राजस्व की वृद्धि दर, राज्य जीएसटी (एसजीएसटी) और केंद्र द्वारा दी जाने वाली क्षतिपूर्ति के योग से ज्यादा बैठती है।

इतना ही नहीं, सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के फीसद के रूप में, एसजीएसटी तथा केंद्रीय क्षतिपूर्ति का योग, जीएसटी-पूर्व दौर में अधिकांश राज्यों के मामले में, प्रतिस्थापित कर जीएसडीपी का जो फीसद बनाते थे, उससे घटकर रहा था।

संक्षेप में यह कि केंद्रीय क्षतिपूर्ति को जोड़कर भी, जीएसटी की व्यवस्था से राज्यों को राजस्व हानि होती रही है। और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपने संवैधानिक अधिकार गंवा दिए हैं और उन्हें अब केंद्र के सामने किसी याचक की तरह जाना पड़ता है। यह संघवाद पर वाकई एक घातक प्रहार है।

राज्यपालों के पद का दुरुपयोग

संसाधनों के केंद्रीयकरण साथ ही साथ, इसके समानांतर सत्ता का केंद्रीयकरण करने के दूसरे कदम भी चल रहे हैं और इसमें एक जिस हथियार का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह है केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल का पद। इन दिनों राज्यपाल आम तौर पर या तो हिंदुत्व के वफादारों की कतारों में से आते हैं या फिर ऐसे आज्ञाकारी नौकरशाहों की कतारों में से, जिन पर केंद्र सरकार की मर्जी से ही चलने के लिए भरोसा किया जा सकता है। इस पर शुरू में ज्यादा आपत्तियां नहीं आयीं क्योंकि राज्यपाल के पद को वैसे भी आम तौर पर सेवानिवृत्त राजनीतिज्ञों या नौकरशाहों के लिए पनाह समझा जाता था। इससे किसी का कुछ खास आता-जाता भी नहीं था क्योंकि राज्यपाल सिर्फ नुमाइशी पद मात्र माना जाता था। लेकिन, अब राज्यपालों ने अपना जोर दिखाना शुरू कर दिया है और निर्वाचित राज्य सरकारों के काम-काज में बाधा डालनी शुरू कर दी है।

एक महत्वपूर्ण क्षेत्र जिसमें यह हो रहा है, राज्य विश्वविद्यालयों का क्षेत्र है। इन विश्वविद्यालयों के मामले में राज्यपालों ने, इन विश्वविद्यालयों के चांसलर की रस्मी हैसियत का फायदा उठाकर, वाइस चांसलरों को नियुक्त करने का काम अपने हाथ में ही ले लिया है और इस प्रक्रिया में इस मामले में राज्य सरकारों की भूमिका को धता ही बता रहे हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दिशा-निर्देश

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने, जो पूरी तरह से केंद्र सरकार द्वारा ही नियुक्त किया जाने वाला निकाय है और जिसमें उसके वफादार ही भरे हुए हैं, हाल ही में कुछ दिशानिर्देश जारी किए हैं, जिनके देश में उच्च शिक्षा के भविष्य के लिए बहुत दूरगामी निहितार्थ हैं। बहरहाल, हम यहां इन दिशानिर्देशों के सिर्फ एक तत्व पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे और यह तत्व है राज्य विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलरों के चयन में, राज्य सरकारों की भूमिका को खत्म करना।

अब तक, वाइस चांसलरों के पद पर नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश करने वाली तीन सदस्यीय सर्च कमेटी में, दो सदस्य संबंधित विश्वविद्यालय की एक्जिक्यूटिव काउंसिल द्वारा नियुक्त किए जाते थे और एक सदस्य चांसलर का सुझाया हुआ होता था, जो आम तौर पर राज्य सरकार से परामर्श कर यह नाम सुझाता था। 

लेकिन, अब यूजीसी के दिशा-निर्देशों के मसौदे में कहा गया है कि उक्त कमेटी के तीन सदस्यों में, एक यूजीसी द्वारा नामित होगा, एक चांसलर द्वारा नामित होगा और एक ईसी द्वारा नामित होगा। गवर्नर अब इस मामले में राज्य सरकार की राय पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझ रहे हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि राज्य सरकार का, अपने फंड से संचालित राज्य विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलरों की नियुक्ति में कोई दखल ही नहीं होगा।

दूसरी ओर केंद्र सरकार ही, यूजीसी तथा वाइस चांसलर, दोनों द्वारा नामित सदस्यों के माध्यम से, इसका फैसला कर रही होगी कि राज्य विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर पद पर कौन आएगा। यह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में, बेहिसाब केंद्रीयकरण है।

यह पूरी तरह से संविधान के प्रावधानों तथा उसकी भावना के खिलाफ है कि राज्यपाल, राज्य सरकारों से पूरी तरह से स्वतंत्र ही हो जाएं और केंद्र सरकार के इशारे पर काम करते हुए, राजनीतिक व्यवस्था के क्षेत्र में सत्ता के केंद्रीयकरण को जबर्दस्त तरीके से आगे बढ़ा दें। 

इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि निर्वाचित राज्य सरकारों की अवज्ञा कर के, राज्यपाल जनता के जनादेश का निरादर कर रहे हैं और इसके नतीजे सत्यानाशी होंगे। 

अगर एक गैर-निर्वाचित राज्यपाल को, एक निर्वाचित सरकार से स्वतंत्र रूप से और यहां तक कि उसकी इच्छा के खिलाफ भी काम करने दिया जाता है, तो जाहिर है कि यह जनतंत्र का सिकोड़ा जाना होगा। 

और अगर जनतंत्र का इस तरह का सिकोड़ा जाना चलता रहता है, तो यह अपरिहार्य रूप से ऐसी प्रतिक्रिया पैदा करेगा, जिससे देश की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है।

हमारे संविधान में केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच संसाधनों तथा शक्तियों का जो सावधानीपूर्ण विभाजन किया गया है, राज्य सरकारों के संसाधनों को सहारा देने के लिए जो एक स्वतंत्र वित्त आयोग का प्रावधान किया गया है, आधुनिक भारत के लोगों की जो दोहरी राष्ट्रीय चेतना है, उसके दोनों पहलुओं के पूरी तरह से संगति में थे और दोनों पहलुओं में संतुलन कायम करने के लिए रखे गए थे। केंद्रीयकरण, राज्य सरकारों को दबाता है और इस तरह, भले ही निहितार्थत: ही हो, क्षेत्रीय-भाषायी राष्ट्रीयता की चेतना का अवमूल्यन करता है। संविधान के उल्लंघन के ये खास उदाहरण सिर्फ अलोकतांत्रिक ही नहीं हैं बल्कि उनके साथ बहुत ही गंभीर दुष्परिणाम भी जुड़े हुए हैं, जिनकी तरफ से अपनी अदूरदर्शिता में केंद्र सरकार ने अपनी आंखें ही बंद कर रखी लगती हैं। 

(प्रभात पटनायक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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