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कार्बन कैप्चर प्लांट को लेकर ऑइल इंडस्ट्री का गहरा रहस्य

ग्रीनहाउस उत्सर्जन के ख़िलाफ़ लड़ाई की एक धारणा पेश करने के लिए, तेल और गैस उद्योग हाइड्रोजन की रीब्रांडिंग कर रहा है। याद रखें, वैज्ञानिक प्रमाणों के बावजूद इसने ग्लोबल वार्मिंग से इनकार किया था।
carbon capture plant
प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार :  National Carbon Capture Center

खनिज ईंधन उद्योग, खासतौर पर तेल तथा प्राकृतिक गैस लॉबी के पास हमेशा नये-नये कार्ड्स रहते हैं। पहले, खनिज तेल उद्योग ने कार्बन क्रेडिट्स का विचार पेश किया था। विचार यह था कि धनी देश तो कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस जलाते रहेंगे, ताकि अपनी मौजूदा जीवन शैलियों को बनाए रख सकें, लेकिन वे इसकी भरपाई ग़रीब देशों में पौधे लगाने के ज़रिए करेंगे। कार्बन फिक्सिंग के लिए जैविक सिंक निर्मित करना तो एक वहनीय समाधान है, लेकिन कॉर्बन क्रेडिट्स का खेल, जो कि ऐसे कार्बन सिंक विकसित करने का एक बाज़ार-आधारित ‘समाधान’ है, काम करता ही नहीं है। ताज़ा अध्ययन उसी बात की पुष्टि करते हैं, जो हमेशा से सब को पता थी कि इस तरह के बाज़ार-आधारित समाधान, एक कार्बन धोखाधड़ी के सिवा और कुछ नहीं हैं।

कार्बन को लेकर एक और धोखाधड़ी है, जिसे खनिज ईंधन उद्योग द्वारा और खासतौर पर तेल तथा प्राकृतिक गैस उद्योग द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है। हम जानते ही हैं कि हाइड्रोजन को जब जलाया जाता है, इससे ऊर्जा पैदा होती है, पानी बनता है और ग्रीनहाउस गैसों का कोई उत्सर्जन नहीं होता है। इस तरह, हाइड्रोजन भविष्य का स्वच्छ ईंधन हो सकती है। तब हाइड्रोजन को हरा, नीला, भूरा और ग्रे हाइड्रोजन का नाम क्यों दिया जा रहा है? तेल उद्योग का गंदा राज़ यह है कि वह प्राकृतिक गैस का जब तक संभव हो तब तक इस्तेमाल करता रहना चाहता है और उसका उपयोग हाइड्रोजन बनाने के लिए करना चाहता है, जिस हाइड्रोजन को प्रकृति-अनुकूल का ठप्पा लगाकर चलाया जा सकता है। इस सब में इस बात को छोड़ ही दिया जाता है कि प्राकृतिक गैस से ईंधन के तौर पर जब हाइड्रोजन का उत्पादन किया जाएगा, उसमें भी तो बड़ी मात्रा में कार्बन का उत्सर्जन हो रहा होगा। यहीं हाइड्रोजन के अलग-अलग रंग सामने आते हैं - हरा, नीला और ग्रे हाइड्रोजन।

हाइड्रोजन के ये अलग-अलग रंग क्या हैं?

ग्रीन हाइड्रोजन, पानी की इलेक्ट्रोलाइसिंग से पैदा होती और इस इलेक्ट्रोलाइसिंग के लिए अगर नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग किया जाता है, तो यह हाइड्रोजन उत्पादन ग्रीन हाउस गैसों से मुक्त होता है। बेशक, पानी के इलेक्ट्रोलाइसिंग के ज़रिए ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन व्यावहारिक है, खासतौर पर तब जबकि ग्रिड में फालतू बिजली उपलब्ध हो। लेकिन, हाइड्रोजन के उत्पादन के किसी भी अन्य रूप में--चाहे उसका उत्पादन प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल कर के किया जाए या तेल का या कोयले का इस्तेमाल कर के--हाइड्रोजन बनती है और कार्बन डाई ऑक्साइड बनती है। इसे नीली या ब्लू हाइड्रोजन कहते हैं, बशर्ते इस हाइड्रोजन का उत्पादन किसी कार्बन कैप्चर प्लांट के साथ जोड़कर किया जा रहा हो, जो इस प्रक्रिया में पैदा होने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख लेता है।

सब बढिय़ा लगता है? लेकिन, खनिज ईंधन उद्योग हमें यह नहीं बताएगा कि कार्बन कैप्चर संयंत्रों को भी बड़ी मात्रा में ऊर्जा की ज़रूरत होती है। और अगर यह ऊर्जा खुद खनिज ईंधन से पैदा हो रही हो, तब तो इन ब्लू हाइड्रोजन बनाने वाले संयंत्रों का शुद्घ ग्रीन हाउस उत्पादन, ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी का ही काम करता है। तेल उद्योग के लिए, कार्बन डाई ऑक्साइड को हाइड्रोजन से अलग करने की ज़रूरत, ग्रीन हाउस गैसों को कम करने के लिए नहीं होती है बल्कि उन्हें फिर से तेल क्षेत्रों में इन्जैक्ट करने के लिए होती है, जिससे ज़मीन के भीतर से और ज़्यादा तेल तथा प्राकृतिक गैस को बाहर धकेला जा सके। हर साल जो 3 करोड़ 90 लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड इन संयंत्रों के ज़रिए सोखी जाती है, उनमें से करीब तीन-चौथाई का इस्तेमाल तेल तथा गैस की बढ़ी हुई रिकवरी के लिए किया जाता है और सिर्फ चौथाई को ही भूमिगत रूप से जमा कर के रखा जाता है।

अब ज़रा उस समस्या के पैमाने को समझें जिसका सामना हमें करना पड़ रहा है। हर साल 37 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्पादन हो रहा है। कार्बन कैप्चर के रास्ते का सहारा लें तो शुद्घ जीरो कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए हमें, कार्बन कैप्चर की क्षमताओं को करीब दस लाख गुना बढ़ाने की ज़रूरत होगी। इस क्षमता के एक छोटे अंश तक पहुंचने से पहले तो मानव सभ्यता का ही विनाश हो चुका होगा।

तो कार्बन कैप्चर को ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों को घटाने के लिए समाधान के तौर पर क्यों पेश किया जा रहा है? कार्बन कैप्चर एक पचास साल पुरानी टेक्नोलॉजी है। टैक्रो-फिक्स द्वारा 80 के दशक में इसे बिजलीघरों से कार्बन के उत्सर्जन की समस्या के लिए और वैश्विक तापवृद्घि के भी समाधान के तौर पर पेश किया गया था। एक प्रौद्योगिकी के लिहाज़ से इसमें कोई गड़बड़ी भी नहीं है। यह प्रौद्योगिकी कारगर है और हां हम कोयले तथा प्राकृतिक गैस से चलने वाले ताप बिजली घरों से निकलने वाले गैसीय धुंए से, कार्बन डाई ऑक्साइड को अलग कर सकते हैं। तब समस्या क्या है? समस्या यह है कि उसे अलग करने की इस प्रक्रिया के लिए भी बड़ी मात्रा में ऊर्जा की ज़रूरत पड़ती है।

लेकिन, अगर हम कार्बन डाई ऑक्साइड को इस गैसीय धुंए से अलग करने के लिए ज़रूरी ऊर्जा को और इस कार्बन डाई ऑक्साइड को लंबे समय के लिए जमा कर के रखने के भूमिगत भंडारों में पम्प करने के लिए ज़रूरी ऊर्जा को भी जोड़ लें, तो हिसाब-किताब गड़बड़ा जाता है। यह तो आर्थिक रूप से सिर्फ तभी वहनीय है, जब सरकारें ही इसकी करीब-करीब सारी लागत का वहन करने को तैयार हों। या फिर इस कार्बन डाई ऑक्साइड का ही कोई इस्तेमाल खोज लिया जाए, मिसाल के तौर पर तेल क्षेत्रों में तेल या गैस प्राप्ति को बढ़ाने में। लेकिन, उस सूरत में तो इससे और ज़्यादा खनिज ईंधन ही निकाला जा रहा होगा, जबकि मूल कोशिश तो उसमें कटौती करने की है।

खनिज ईंधन से बिजली के उत्पादन के साथ, कार्बन कैप्चर की व्यवस्था जोड़ना, आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है। कम से कम उस पैमाने पर या परिमाण पर व्यावहारिक तो बिल्कुल नहीं है, जिस पैमाने की समस्या आज हमारे सामने है। इसीलिए, 1980 के दशक के बाद ही ऊर्जा क्षेत्र की एक वहनीय टेक्नोलॉजी के रूप में इसको किनारे कर दिया गया। अब तो यह एक ज़ौम्बी प्रौद्योगिकी के रूप में ही रह गया है, जो निर्जीव होने के बाद भी जलवायु परिवर्तन पर इंटर-गवर्नमेंटल पैनल (आइपीसीसी) की विभिन्न रिपोर्टों में ज़िंदा बना हुआ है और ऐसी सरकारों की कार्ययोजनाओं में ज़िंदा है, जो जब तक हो सके खनिज ईंधनों के उपयोग को चलाती रहना चाहती हैं।

यह अमरीका के राजनीतिक परिदृश्य का भी हिस्सा है, जहां तेल तथा गैस उद्योग इसके लिए ज़ोर लगा रहे हैं कि खनिज ईंधनों के इस्तेमाल को बनाए रखा जाए और वे कार्बन कैप्चर प्रौद्योगिकियों का मुफ्त सरकारी फंड हथियाने के साधन के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती हैं। उनका खेल यही है कि कार्बन कैप्चर का वादा करो, कार्बन कैप्चर की व्यवस्थाओं के खर्चे के लिए सरकारी पैसा वसूल करो और इस तरह पकड़ी गयी कार्बन डाई ऑक्साइड का इस्तेमाल, अपने तेल कुंओं से तेल की रिकवरी बढ़ाने के लिए करो और खनिज ईंधन जलाते रहो। और इसकी परवाह ही मत करो कि कार्बन कैप्चर टेक्नोलॉजी आर्थिक रूप से वहनीय है या नहीं।

कार्बन कैप्चर का इतिहास जाना-माना है। तब क्या वजह है कि समय-समय पर इसे वैश्विक ताप वृद्घि की समस्या के समाधान के रूप में पेश किया जाता है? मैं आम तौर पर षड्यंत्र के सिद्धांतों का बहुत शौकीन नहीं हूं। लेकिन, इस मामले में हमारे पास यह मानने के सिवा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है कि खनिज तेल उद्योग ने, खासतौर पर अमरीका के इस उद्योग ने यह तय कर लिया है कि आज के मुनाफे, भविष्य में मानवता के सामने आने वाले जोखिमों से बचाव से, कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं। खनिज ईंधन का उपयोग जारी रखने के समाधान के रूप में, कार्बन कैप्चर पर इस समय दिया जा रहा ज़ोर, इसी की रणनीति है कि प्राकृतिक गैस, तेल तथा कोयले को आगे भी जलाते रहा जाए। यह सब जस का तस चलता रखने का खेल है और वैश्विक तापवृद्घि के लिए ज़िम्मेदार उत्सर्जनों को बस ग्रीनवॉश की कसरत है। यह तेल उद्योग की महज री-ब्रांडिंग की कवायद है, जो इस उम्मीद में की जा रही है कि इससे और भी ज़्यादा फ़िज़ूलख़र्च भरे उपभोग के कुछ और साल हासिल किए जा सकेंगे। फिर, हम सभी के लिए चाहे जो भी ख़तरा हो।

किसी को ऐसा कहना बहुत ज़्यादा निंदनीय लग सकता है। लेकिन, हमारे पास इसके साक्ष्य हैं कि तेल तथा प्राकृतिक गैस उद्योग इससे पहले भी ठीक यही धोखा दुनिया के साथ कर चुके हैं। एक्सन मोबिल ने दशकों तक जलवायु परिवर्तनों की बात को नकारा और इन परिवर्तनों को नकारने वालों को पैसा देना जारी रखा था, जबकि खुद उनके अपने शोध ने 1970 के दशक के आखिर में ही वैश्विक ताप वृद्घि की सचाई की पुष्टि कर दी थी।

अमेरिकन एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइंस के प्रकाशन, साइंस ने जी सुप्रान तथा दो अन्य लेखकों के एक आलेख पर जो टिप्पणी की थी, उसे मैं यहां उद्यृत करूंगा: ‘दशकों तक खनिज ईंधन उद्योग के कुछ सदस्यों ने जन साधारण को यह समझाने की कोशिश की थी कि खनिज ईंधन के इस्तेमाल और पर्यावरण की ताप वृद्घि के बीच कार्य-कारण संबंध साबित नहीं होता है क्योंकि ताप वृद्घि का अनुमान प्रस्तुत करने के लिए जिन मॉडलों का इस्तेमाल किया जाता है, बहुत ज़्यादा अनिश्चित हैं। सुप्रान आदि यह दिखाते हैं कि इस खनिज ईंधन कंपनियों में से एक, एक्सन मोबिल के पास अपने आंतरिक मॉडल मौजूद थे जो ताप वृद्घि के ऐसे यात्रा पथों का अनुमान प्रस्तुत करते थे, जो स्वतंत्र अकादमिकों तथा सरकारी मॉडलों के पूर्वानुमानों से मेल खाते थे। इस तरह पर्यावरणीय मॉडलों के संबंध में वह जो जानते थे, उसके खिलाफ जाता था जो जनता को वे समझा रहे थे।’

वही खेल तेल इजारेदारियां आज भी खेल रही हैं। इस नये खेल का नाम है, कार्बन कैप्चर, जबकि उन्हें बखूबी पता है कि जैविक रूप से कार्बन के सोखने के अलावा और किसी भी तरह से कार्बन कैप्चर करना, प्रौद्योगिकीय-आर्थिक रूप से वहनीय नहीं है। हो सकता है कि घोटाले का नाम बदल गया हो लेकिन घोटालेबाज़ अब भी वही हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Oil Industry’s Dirty Secret About Carbon Capture Plants

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