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दिल्ली: संविधान दिवस पर बराबरी और सम्मान के लिए LGBTQ+ समुदाय का प्राइड मार्च

इस परेड में कई बार 'एलजीबीटीक्यू, इट्स ओके, हम होंगे कामयाब' और 'सभी के लिए समानता, विचित्र और गौरवान्वित' के स्लोगन भी सुनाई दिए।
LGBTQ

दिल्ली की सड़कें रविवार, 26 नवंबर यानी संविधान दिवस के दिन रंग-बिरंगे गुब्बारों और फ्लैग से सजी दिखाई दीं। हज़ारों की संख्या में एलजीबीटीक्यू+ कम्युनिटी के लोगों ने अपने हक़ और बराबरी की मांग को लेकर बाराखंभा मेट्रो स्टेशन से जंतर-मंतर की ओर नाचते, गाते और नारे लगाते परेड की। ये परेड आमतौर पर जून के महीने में आयोजित होती है, जिसे प्राइड मंथ भी कहा जाता है। लेकिन इस बार ये प्राइड मार्च ऐसे समय में हुई, जब हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा भारत में समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया गया।

इस मार्च में शामिल कई लोगों ने संविधान दिवस पर अपने लिए सम्मान से जीने और देश के हर नागरिक को मिले समानता के अधिकार की भी गुहार लगाई। इनका कहना था कि ये उनके लिए सेलिब्रेशन और कंसर्न का दिन है। इस परेड में कई बार 'एलजीबीटीक्यू, इट्स ओके, हम होंगे कामयाब' और 'सभी के लिए समानता, विचित्र और गौरवान्वित' के स्लोगन भी सुनाई दिए। इस परेड की महत्ता इसी से समझी जा सकती है, कि इसमें शामिल होने के लिए दिल्ली से बाहर दूर-दराज के लोग भी आए थे।

भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ मार्च

इस परेड के कई प्रतिभागियों ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा कि सेम-सेक्स वाले कपल को अक्सर कई भारतीय समुदायों में उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, फिर चाहे वे किसी भी धर्म हिंदू, मुस्लिम या ईसाई के हों। इस मामले में सभी धार्मिक गुरू भी एक जैसा उपदेश ही देते हैं। लेकिन एलजीबीटीक्यू+ समुदाय सिर्फ संविधान में विश्वास रखता है और इसलिए संविधान दिवस पर हम हमारे अधिकारों की मांग के लिए सड़कों पर उतरे हैं। इस समुदाय से मुताबिक एलजीबीटी कम्युनिटी 2008 से लगातार इस परेड का आयोजन करते आ रहा है, और सिर्फ कोरोना काल में ही इस पर ब्रेक लगा था।

इस परेड में सैंकड़ों लोग मस्ती करते हुए गा और नाच रहे थे। उनका कहना था कि ये उनके लिए सेलिब्रेशन है, अपने आपको सेलिब्रेट करने का दिन, अपने आप पर, जो वो हैं उसके लिए गर्व करने का दिन। यहां कई लोगों का ये भी कहना था कि यदि कोई लड़का किसी लड़की के साथ घूमता है तो समाज उसे फिर भी एक बार को स्वीकार कर लेता है लेकिन यदि दो गे, लेस्बियन या क्वीयर एक साथ दिख जाएं, तो लोग फूस-फूसाते हुए पहले उनका मज़ाक बनाते हैं, फिर अपशब्द कहते हैं और अंत में गलत होने का टैग भी थमा देते हैं। यहां कई लोगों ने अपनी टी-शर्ट पर लव इज लव भी लिखवा रखा था।

उत्साह, आशा और अदालत के फैसले के खिलाफ थोड़ी नराज़गी

इस कम्युनिटी के लोगों ने अपने मार्च के दौरान कई तरह के प्रोग्राम किए। इस परेड में बड़े-बड़े पोस्टर्स पर एलजीबीटी कम्युनिटी के सपोर्ट और जेंडर के नाम पर होने वाले भेदभाव के विरोध में और 'लव इज नो लेविल’, 'समलौंगिता एक च्वाइस है ये जन्मजात नहीं है।' जैसे स्लोगन लिखे हुए थे। इन लोगों में राजधानी की सड़कों पर गजब का उत्साह, आशा और इस समुदाय के प्रति अदालत के फैसले के खिलाफ थोड़ी निराशा भी देखने को मिली। लेकिन इन्हें उम्मीद है कि आज नहीं तो कल इनके लिए भी देश-दुनिया का नज़रिया बदलेगा और ये वक्त जल्द ही आएगा।

ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान बेंच ने 17 अक्टूबर को अपने एक फैसले में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार किया था। अदालत ने कहा था कि इस पर कानून बनाना संसद का काम है। हालांकि अब इस फैसले की समीक्षा को लेकर भी एक याचिका अदालत में दाखिल की गई है, जिस पर सर्वोच्च अदालत 28 नवंबर यानी कल मंगलवार को निर्णय करेगी।

इस प्राइड मार्च में हिस्सा ले रहे कई अन्य राज्यों से आए प्रतिभागियों का ये कहना था कि समाज में उन्हें जिस तरह बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, ये उनके लिए जरूरी है कि वो इस मार्च का हिस्सा बनें क्योंकि इन्हें न तो समाज से और न ही अपने परिवारों से ही कोई समर्थन मिलता है। इन लोगों ने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी पोस्टर्स के जरिए अपने लिए प्यार, अधिकार और स्वीकृति की मांग की। इनका कहना था कि भले ही कोई हमारे अस्तित्व को न स्वीकार करें लेकिन हम दुनिया को दिखाना चाहते हैं कि हम लोग यहां हैं।

जीवन को जीने का संघर्ष

इस पूरे कार्यक्रम के दौरान कई क्वीयर लोगों ने अपनी आपबीती सुनाते हुए बताया कि उन्हें कैसे भेदभावपूर्ण हमलों का सामना करना पड़ता है, उनके लिए जीवन को जीने का संघर्ष कितना मुश्किल है। और यही कारण है कि ये लोग बार-बार अदालत का दरवाज़ा अपने अधिकारों के लिए खटखटा रहे हैं क्योंकि इनका मानना है कि यहीं से उनकी राह थोड़ी आसान हो सकती है। क्योंकि इनके मुताबिक कानूनी अधिकार जब तक इनके लिए समावेशी नियम नहीं बनाते तब तक वे निरर्थक रहेंगे। और जब तक देश में लिंग, जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र और भाषा की बाधाओं से परे व्यक्तिगत अभिव्यक्ति, प्रेम को उसके सभी सहमतिपूर्ण रूपों में स्वीकार करने की संस्कृति नहीं बन जाती तब तक इनकी लड़ाई जारी रहेगी।

गौरतलब है कि हमारे समाज में एलजाबीटीक्यू+ समुदाय को अक्सर लोग बिना समझे ही अपनी जजमेंट पास कर देते हैं। जबकि इस समुदाय के नाम का ही गहरा और अलग-अलग मतलब है। L, G, B, T, Q + में L का मतलब 'लेस्बियन' से है, यानी वो औरत जो औरतों को चाहती हैं। G – 'गे' कहे जाते हैं जो मर्द होकर भी मर्दों को चाहते हैं। B का अर्थ यहां 'बाइसेक्शुअल' से है जो व्यक्ति किसी मर्द और औरत दोनों को चाहते हैं। T ट्रांसजेंडर' की पहचान रखते हैं, जो शरीर के गुप्तांगों की बनावट के मुताबिक़ पैदा होने के व़क्त उनका जो जेंडर तय किया गया, जब वो बड़े होकर ख़ुद को समझे तो उससे उलट महसूस करने लगे। Q का मतलब क्वीर या 'क्वेश्चनिंग' से है, जो व्यक्ति अभी अपनी लैंगिक पहचान और शारीरिक चाहत तय नहीं कर पाए हैं।

इसके अलावा इसके '+' (प्लस) में इंग्लिश का (I) आई यानी 'इंटर-सेक्स', जिनके पैदाइश के व़क्त जिस व्यक्ति के गुप्तांगों से ये साफ़ नहीं होता कि वो लड़का है या लड़की और A  यानी 'ऐलाइज़', वे लोग जो ख़ुद समलैंगिक नहीं हैं लेकिन उस समुदाय का समर्थन करते हैं। या A से 'असेक्शुअल' लोग, जो किसी भी अन्य व्यक्ति से शारीरिक तौर पर आकर्षित नहीं है। और P यानी 'पैनसेक्शुअल' हैं, जो किसी से भी शारीरिक तौर पर आकर्षित हो सकते हैं, लेकिन उनकी अपनी लैंगिक और सेक्शुअल पहचान भी तय नहीं होती है। ये सभी लोग अपने ह़क़ की लड़ाई लंबे समय से लड़ते आए हैं और इस मार्ट के माध्यम से अपनी एकजुटता दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।

स्वीकार्यता बढ़ी, लेकिन अभी भी जागरूकता की कमी

भारत में समलैंगिकता की स्वीकार्यता को लेकर प्यू सर्वे का मानना है कि साल 2013 और 2019 के बीच ये 22 प्रतिशत से बढ़कर 37% हो गई है। इसमें जागरूकता का बहुत बड़ा योगदान है। चेन्नई, दिल्ली और कोलकाता के अलावा भारत के अन्य कई शहरों में प्राइड परेड मनाई जाती है। मुंबई, चंडीगढ़ और बेंगलुरु में भी प्राइड परेड निकाली जाती है। मुंबई में तो एलजीबीटीक्यू+ समुदाय द्वारा पैनल डिस्कशन, मूवी स्क्रीनिंग, सांस्कृतिक प्रदर्शन और जागरूकता अभियान जैसी कई गतिविधियां भी होती हैं।

याद रहे कि प्राइड मंथ या मार्च उन लोगों की श्रद्धांजलि के रूप में भी मनाया जाता है जो 1969 के स्टोनवॉल दंगों में प्रभावित हुए थे। 28 जून, 1969 को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में पुलिस ने एक समलैंगिक क्लब 'स्टोनवेल इन' पर छापा मारा था, जिसके बाद दंगे भड़के थे। 1970 में, दंगों की पहली बरसी पर कई प्रदर्शनकारियों ने स्टोनवेल के पास वाले रस्ते पर जुलूस निकाला था, और इसे सबसे पहला प्राइड मार्च माना जाता है। अब ये मार्च न्यूयॉर्क सिटी से निकलकर दुनिया भर में आयोजित किया जाता है। 28 जून को प्राइड दिवस मनाया जाता है। ये LGBTQ समुदाय के लिए न्याय और समान अवसर प्राप्त करने का काम भी करता है।

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