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ख़बरों के आगे-पीछे: फिर आई गांधी जी के पोते की याद

हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह भी कुछ ज़रूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
Gandhi
महात्मा गांधी

फिर आई गांधी जी के पोते की याद 

विपक्षी दलों को यूं तो कभी भी महात्मा गांधी के परिवार की याद नहीं आती हैलेकिन जैसे ही राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति का चुनाव आता है तो सबको गांधी जी के परिजन याद आने लगते हैं। पांच साल पहले भी उप राष्ट्रपति चुनाव के समय गांधी परिवार की याद आई थी और महात्मा गांधी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी को चुनाव लड़ाया था। भाजपा के उम्मीदवार वेंकैया नायडू के मुकाबले गोपाल कृष्ण गांधी विपक्ष के साझा उम्मीदवार थे। उनको वेकैया नायडू को मिले 516 वोटों मुकाबले आधे से भी कम 244 वोट मिले थे। उस चुनाव के बाद अगले पांच साल गोपाल गांधी ने क्या किया इस बारे में संभवत: किसी विपक्षी पार्टी को कुछ भी पता नहीं होगा। इस बीच किसी राजनीतिक दल को यह सुध नहीं आई कि उनको कोई पद दिया जाए। ममता बनर्जी बंगाल की मुख्यमंत्री हैं और गोवा से लेकर असम तक के नेताओं को राज्यसभा में भेजती रहीं लेकिन उनको कभी लगा नहीं कि गोपाल गांधी को राज्यसभा में भेजे। कांग्रेस ने एक बार उनको राज्यपाल बनायाउसके बाद कभी सुध नही ली। गोपाल गांधी के भाई राजमोहन गांधी लंबे समय तक सक्रिय राजनीति में रहे। लेकिन जनता दल में रहते हुए सिर्फ दो साल के लिए राज्यसभा सदस्य रहे। वे चुनाव लड़ते और हारते रहे। वे 2014 में पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से आम आदमी पार्टी की तरफ से चुनाव लड़े और हार गए। उसके बाद से आम आदमी पार्टी ने 10 लोगों को राज्यसभा में भेजा हैजिनमें ज्यादातर धनपति और तिकड़मी हैं। लेकिन उसको एक बार भी ख्याल नहीं आया कि राजमोहन गांधी को राज्यसभा में भेजें। 

फिर भी महाराष्ट्र में सरकार नहीं गिरने वाली

महाराष्ट्र के राज्यसभा चुनाव में भाजपा के तीसरे उम्मीदवार की जीत के आधार पर कोई बड़ा निष्कर्ष निकालने की जरूरत नहीं हैक्योंकि राज्य की उद्धव ठाकरे सरकार को कोई खतरा नहीं है। सरकार के पास अब भी बहुमत के लिए जरूरी आँकड़े से काफी ज्यादा विधायकों का समर्थन है। भाजपा राज्य सभा चुनाव में अपने तीसरे उम्मीदवार के लिए भले ही क्रॉस वोटिग कराने में सफल रही लेकिन जिन विधायकों ने क्रॉस वोटिग की है वे भी सरकार गिराने में भाजपा का साथ नहीं देंगे। उनको पता है कि उनके पाला बदलने से सरकार नहीं गिरेगी और अगर अस्थिरता होती हैजिससे मध्यावधि चुनाव की नौबत आती है तो उनके लिए दिक्कत होगी। गौरतलब है कि राज्यसभा चुनाव में भाजपा के तीनों उम्मीदवारों को कुल मिला कर पहली वरीयता के 123 वोट मिलेजबकि उसके पास अपने सहयोगियों के साथ 113 की संख्या है। इसका मतलब है कि उसने 10 विधायक जोड़े। इसमें से एक महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायक को छोड़ कर बाकी विधायकों का साथ राज्यसभा चुनाव तक ही है। दूसरी ओर हार जाने के बावजूद महाविकास अघाड़ी सरकार के चार उम्मीदवारों को पहली वरीयता के 160 वोट मिलेजबकि बहुमत का आंकड़ा 145 का है। इसका मतलब है कि सरकार के पास बहुमत से 15 विधायक ज्यादा है। अगर छोटी पार्टियों को छोड़ दें तब भी महाविकास अघाड़ी की तीनों बड़ी पार्टियों- शिव सेनाएनसीपी और कांग्रेस के अपने विधायकों की संख्या 153 है। यह आंकड़ा भी बहुमत से ज्यादा का है।

ईडी की कार्रवाई से कांग्रेस में जान आई

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से प्रवर्तन निदेशालय यानी की पूछताछ 23 जून को होनी है। अगर उनकी सेहत ठीक रही तो पूछताछ होगी नहीं तो आगे की कोई तारीख मिलेगी। इस बीच तीन दिन लगातार राहुल गांधी से पूछताछ हुई है और कांग्रेस के दोनों मुख्यमंत्रियों सहित तमाम दिग्गज नेता तीनों दिन दिल्ली की सड़कों पर प्रदर्शन करते रहे। देश के सभी राज्यों में ईडी कार्यालय के बाहर भी कांग्रेस का प्रदर्शन चल रहा है। इसलिए सवाल है कि क्या ईडी की कार्रवाई कांग्रेस के लिए मौका हैकांग्रेस के कई नेता और यहां तक कि कांग्रेस विरोधी रहे बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता भी इसे एक मौका मान रहे हैं। इसकी तुलना बिहार में लालू प्रसाद पर हुई कार्रवाई से की जा रही है। 1997 में लालू प्रसाद के पीछे इसी तरह सीबीआई पड़ी थी। लालू भी पूरे तामझाम के साथ पूछताछ के लिए पहुंचे थे और एक समय तो ऐसी स्थिति आई थी उनकी गिरफ्तारी से पहले सीबीआई अधिकारी ने सेना बुलाने की पहल कर दी थी। उस पूरे ड्रामें के बाद आठ साल और लालू प्रसाद की पार्टी ने बिहार में राज किया। हालांकि राहुल अभी गिरफ्तार नहीं हुए हैं लेकिन तुलना कर रहे लोग गिरफ्तारी की संभावना से इनकार नहीं कर रहे हैं। प्रशांत भूषण जैसे वकील ईडी की कार्रवाई की तुलना 1977 में हुई इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी से कर रहे हैं। गौरतलब है कि जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी की जिद पकड़ी। तब प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण कानून मंत्री थे। उन्होंने और मधु लिमये जैसे नेताओं ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने से मना किया था। लेकिन चरण सिह की जिद के चलते इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी हुई और फिर वहीं से कांग्रेस की वापसी का रास्ता बना। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के सलाहकार रहे सुधींद्र कुलकर्णी का भी मानना है कि राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के विरोध में कांग्रेस की यह निर्णायक लड़ाई है। सोज्यादातर जानकारों का मानना है कि नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ हो रही ईडी की कार्रवाई किसी न किसी तरह से कांग्रेस को और समूचे विपक्ष के लिए फायदेमंद साबित होगी। 

चुनावी राजनीति का केजरीवाल मॉडल

दिल्ली में राजेंद्र नगर विधानसभा सीट पर उपचुनाव हो रहा है। आम आदमी पार्टी के राघव चड्ढा के इस्तीफा देने से यह सीट खाली हुई है। इस सीट पर पार्टी ने दुर्गेश पाठक को और भाजपा ने राजेश भाटिया को चुनाव में उतारा है। आम आदमी पार्टी इस सीट पर उपचुनाव पूरी तरह से अरविंद केजरीवाल के नाम पर लड़ रही है। उम्मीदवार का कोई मतलब नहीं है। पार्टी के बड़े-बड़े होर्डिंग्स पूरे राजेंद्र नगर इलाके में लगे हैंजिन पर उम्मीदवार की फोटो तो है पर नाम नहीं लिखा गया है। यानी उम्मीदवार के नाम के बिना आम आदमी पार्टी चुनाव लड़ रही है। उम्मीदवार को वोट देने की अपील करने वाले पार्टी कार्यकर्ता या नेता का नाम तो होर्डिंग्स पर लिखा हुआ है लेकिन उम्मीदवार का नाम नहीं है। हाथ जोड़े एक चेहरा और अपील है कि 'एक बार फिर केजरीवाल को वोट दें। सवाल है कि यह कैसी राजनीति है। ऐसा लग रहा है कि आम आदमी पार्टी ने सारे विधायकों और नेताओं को निराकार बना दिया है और सिर्फ एक नाम केजरीवाल का हैजिसके इर्द-गिर्द पूरी राजनीति चलती है। यह चुनावी राजनीति का केजरीवाल मॉडल हैजो मोदी मॉडल से भी आगे है। भाजपा भी नरेंद्र मोदी के नाम पर ही राजनीति करती है और वहां भी ज्यादातर चेहरे निराकार हैं। फिर भी इस तरह से नहीं होता है कि पार्टी उम्मीदवार का नाम ही नहीं बताए।

कहां की लड़ाई कहां लड़ रही है कांग्रेस

कांग्रेस को जो लड़ाई अदालत में लड़नी चाहिए वह सड़क पर लड़ रही है और जो लड़ाई सड़क पर लड़नी चाहिए वह ट्विटर पर लड़ रही है। राहुल गांधी को प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने नेशनल हेराल्ड मामले में हुई कथित गड़बड़ी के बारे में पूछताछ के लिए बुलाया तो पूरी कांग्रेस सड़क पर उतर गई। ध्यान रहे यह मामला काफी पुराना है और कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट तक जा चुकी है इस मामले को खारिज कराने के लिए। लेकिन अदालत से भी राहत नहीं मिली। इसलिए जब कांग्रेस के सारे बड़े-छोटे नेता सड़क पर उतरे तो उसका यह मैसेज गया कि कांग्रेस के नेता सिर्फ एक परिवार के प्रति समर्पित हैं। दूसरे भाजपा को भी यह कहने का मौका मिला कि भ्रष्टाचार के मामले में नेहरू-गांधी परिवार का बचाव करने के लिए कांग्रेस आंदोलन कर रही है। सचमुच कांग्रेस को यह लड़ाई अदालत मे लड़नी है। अगर कांग्रेस राहुल गांधी की ईडी के सामने पेशी के विरोध में सड़क पर उतरने की बजाय उत्तर प्रदेश में लोगों के घरों पर चल रहे बुलडोजर के विरोध में सड़क पर उतरती या महंगाईगरीबी और बेरोजगारी के मुद्दे पर इस तरह सड़क पर उतर कर संघर्ष करती तो उससे आम लोग ज्यादा कनेक्ट होते। लेकिन इस तरह की सारी लड़ाई कांग्रेस पार्टी ट्विटर पर लड़ रही है।

राष्ट्रपति चुनाव के लिए बेफिक्र है भाजपा

भाजपा ने राष्ट्रपति चुनाव से पहले सहयोगी और विपक्षी पार्टियों से बातचीत करने के लिए पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को अधिकृत किया है। यह एक किस्म की औपचारिकता है। सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए होने वाले चुनाव से पहले सत्तारूढ़ दल की यह जिम्मेदारी होती है कि वह सभी पार्टियों से बात करे और आम सहमति बनाने की कोशिश करे। हालांकि आजाद भारत के इतिहास में एक मौका छोड़ कर राष्ट्रपति के चुनाव में कभी आम सहमति नहीं बनी। हर बार चुनाव हुआ है। इस बार भी चुनाव तय है क्योंकि कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने भी अपनी तैयारी शुरू कर दी है। इसलिए यह तय है कि विपक्ष के साथ कोई सहमति नहीं बननी है। जहां तक सहयोगी पार्टियों का सवाल है तो उनके साथ भी सहमति बनाने की औपचारिकता भर निभानी है। भाजपा की किसी सहयोगी पार्टी की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह उसकी ओर से तय किए गए उम्मीदवार पर सवाल उठाए। वैसे भी भाजपा की ज्यादातर सहयोगी पार्टियां साथ छोड़ कर जा चुकी हैं। जो थोड़ी बहुत पार्टियां बची हैं उनके पास भी बहुत ज्यादा वोट नहीं हैं। राष्ट्रपति चुनने वाले इलेक्टोरल कॉलेज में भाजपा के अपने 42 फीसदी वोट हैं और उसकी सहयोगी पार्टियों के पास कुल छह फीसदी वोट हैं। ये छह फीसदी वोट पक्के हैं। भाजपा के 42 और सहयोगियों के छह फीसदी वोट जोड़ने के बाद भी दो फीसदी यानी करीब 20 हजार वोट की कमी रहती है। इसके लिए भाजपा के पास बीजू जनता दल और वाईएसआर रेड्डी का समर्थन है। भाजपा को अपना उम्मीदवार जिताने के लिए जितने अतिरिक्त वोट की जरूरत है उससे लगभग दोगुने के बराबर यानी 40 हजार के करीब वो अकेले जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस के पास है। इसलिए भाजपा को अपना उम्मीदवार जिताने के लिए वोट की चिंता करने की जरूरत नहीं है। भाजपा का प्रयास होगा कि उसके उम्मीदवार को ज्यादा से ज्यादा वोट मिले।

बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनने की होड़

बिहार विधानसभा में जब से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सबसे बड़ी पार्टी बनी है तब से राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में बेचैनी है। गौरतलब है कि 2020 के विधानसभा चुनाव मे राजद सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी। लेकिन पिछले दिनों मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी को तोड़ कर भाजपा ने तीन विधायक अपनी पार्टी में मिला लिएजिससे उसके विधायकों की संख्या 77 हो गई और वह सबसे बड़ी पार्टी बन गई। दूसरी ओर विधानसभा चुनाव में 75 सीटें जीतने वाला राजद एक उपचुनाव जीत कर 76 सीट पर है। इस प्रकार भाजपा एक सीट के अंतर से आगे है। अब राजद का नेतृत्व किसी तरह से बिहार विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी बनने की जद्दोजहद में लगा है। इस सिलसिले में वह सरकार का समर्थन कर रही जीतन राम मांझी के हिंदुस्तानी आवामी मोर्चा और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम के विधायकों के संपर्क में है। मांझी की पार्टी के चार और ओवैसी की पार्टी के पांच विधायक हैं। अगर मांझी की पार्टी टूटती है तो उससे सरकार पर असर होगा। उसका बहुमत कम हो जाएगा। लेकिन उसके लिए बताया जा रहा है कि जनता दल (यू) और भाजपा के नेता कांग्रेस विधायकों के संपर्क में हैं। 

तीन-एक से भाजपा की जीत

राज्यसभा चुनाव में भाजपा ने चार राज्यों में दांव लगाया थाजिसमें वह तीन-एक से जीती। यह बहुत बड़ी बात है। भाजपा ने कर्नाटक और महाराष्ट्र में अतिरिक्त उम्मीदवार उतारे थे और राजस्थान व हरियाणा मे दो निर्दलीय उम्मीदवारों को समर्थन दिया था। इन चार में से एक कर्नाटक छोड़ कर बाकी तीन जगहों पर कांटे की लड़ाई थी। कर्नाटक में भी भाजपा के पास संख्या नहीं थी लेकिन यह तय था कि अगर कांग्रेस और जनता दल सेक्यूलर (जेडीएस) दोनों मिल कर नहीं लड़ते हैं तो कम वोट पाकर भी भाजपा का उम्मीदवार जीत जाएगा। अगर कांग्रेस और जेडीएस मिल जाते तो भाजपा के लिए कोई मौका नहीं था। इसके उलट बाकी तीन राज्यों में बेहद नजदीकी मुकाबला था। इन तीन में से भाजपा दो राज्यों में कामयाबी मिली। राजस्थान में कांग्रेस को मिली कामयाबी का श्रेय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को जाता है। उन्होंने न सिर्फ सरकार का समर्थन कर रहे निर्दलीय और छोटी पार्टियों को साथ में रखाबल्कि भाजपा के एक विधायक से भी क्रॉस वोटिग करा ली। राजस्थान की तरह महाराट्र में भी शिव सेना के नेतृत्व वाली सरकार के पास जरूरी संख्या थी लेकिन वह सरकार का समर्थन कर रहे सारे विधायकों को एकजूट नहीं रख पाई। हरियाणा में भी कांग्रेस के पास चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त संख्या थी पर कांग्रेस के एक विधायक ने भाजपा को वोट दिया और एक ने अपना वोट जान-बूझकर अवैध करा लिया। कर्नाटक में कांग्रेस ने जान- बूझकर एक सीट भाजपा को जीतने दी क्योंकि उसे जेडीएस को सबक सिखाना था लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा ने अपने प्रबंधन से चुनाव जीता।

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