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नज़रिया: प्रशांत किशोर; कांग्रेस और लोकतंत्र के सफ़ाए की रणनीति!

ग़ौर से देखेंगे तो किशोर भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ तोड़ने में लगे हैं। वह देश को कारपोरेट लोकतंत्र में बदलना चाहते हैं और संसदीय लोकतंत्र की जगह टेक्नोक्रेट संचालित लोकतंत्र स्थापित करना चाहते हैं जिसमें विचारधाराएं राजनीतिक विमर्श  का हिस्सा नहीं होंगी।
prashant kishor

चुनाव-रणनीतिकार  प्रशांत किशोर  कांग्रेस नेतृत्व और राहुल गांधी पर राजनीतिक हमले को लेकर फिर चर्चा में हैं। इस बार उन्होंने कांग्रेस का नेतृत्व करने के राहुल गांधी के अधिकार पर ही सवाल किया है। उनका कहना है कि किसी व्यक्ति को पार्टी के नेतृत्व का दैवी अधिकार मिला हुआ नहीं है, खासकर उस स्थिति में जब कांग्रेस ने पिछले दस साल में 90 प्रतिशत चुनाव हारे हैं। वैसे, उन्होंने जोड़ दिया है कि कांग्रेस के विचार और इसका स्थान मजबूत विपक्ष के लिए जरूरी हैं। लेकिन विपक्ष के नेतृत्व का  फैसला लोकतांत्रिक ढंग से होना चाहिए।

चुनावों में नारों-जुमलों के चालाक इस्तेमाल, सिनेमाई अंदाज और  आधुनिक  तकनीक के जरिए  मतदाताओं को रिझाने को एक संगठित धंधे में बदल देने वाले किशोर  लंबे समय से मोदी-आरएसएस के कांग्रेस-मुक्त भारत के अभियान में लगे हैं। जैसे-जैसे कांग्रेस आरएसएस से टकराने का अभियान तेज कर रही है, किशोर ने भी अपनी गतिविधि तेज कर दी है।

लेकिन क्या उनका अभियान सिर्फ कांग्रेस को निपटाने तक ही सीमित है? अगर गौर से देखेंगे तो वह भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ तोड़ने में लगे हैं। वह देश को कारपोरेट लोकतंत्र में बदलना चाहते हैं और संसदीय लोकतंत्र की जगह टेक्नोक्रेट संचालित लोकतंत्र स्थापित करना चाहते हैं जिसमें विचारधाराएं राजनीतिक विमर्श  का हिस्सा नहीं होंगी।

 किशोर ने पिछले महीनों में सिर्फ सोशल  मीडिया के जरिए राहुल-प्रियंका पर हमले नहीं किए है बल्कि कांग्रेस को जमीन पर घेरने तथा उसकी भूमिका सीमित करने के ऑपरेशनों में  हिस्सा लिया है।   यह काम वह उस समय कर रहे हैं जब मोदी सरकार की लोकप्रियता लगातार घट रही है। पिछले अक्टूबर में उन्होंने गोवा में कहा था कि राहुल इस बात को समझने को तैयार नहीं हैं कि भाजपा दशकों तक राजनीति के केंद्र में रहेगी। उन्होंने कहा कि राहुल सोच रहे हैं कि यह सिर्फ वक्त की बात है कि लोग नरेंद्र मोदी को उखाड़ फेंकेगे। लेकिन ऐसा नहीं होने जा रहा है।

इसके पहले किशोर  ने कहा था कि लखीमपुर खीरी हत्याकांड में मरे किसानों के परिवार से मिलने के राहुल और उनकी बहन प्रियंका गांधी के कदम से कांग्रेस के नेतृत्व में कांग्रेस के तुरंत और अपने आप पुनर्जीवित हो जाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि कांग्रेस की समस्याओं की जड़ें गहरी और ढांचागत हैं।

किशोर न केवल उस समय कांग्रेस पर हमला करते हैं जब उसके पक्ष में माहौल बनने लगता है बल्कि पार्टीं को तोड़ने में भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। मेघालय में कांग्रेस विधायक दल को तोड़ने में उनकी भूमिका के बारे में पार्टी छोड़ने वाले विधायको के नेता मुकुल संगमा खुद बता चुके हैं। उन्होंने बताया कि पार्टी बदलने की प्रेरणा उन्हें प्रशांत किशोर  से मिली। किशोर  गोवा, त्रिपुरा, असम और उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों पर ध्यान लगा रहे हैं। इन राज्यों में इस तरह की तोड़फोड़ आसान है। इन राज्यों की खासियत यह है कि यहां भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है। यह तो लोग देख ही चुके हैं कि उन्होंने मतदाताओं को प्रभावित करने के अपने हुनर के जरिए पश्चिम  बंगाल में कांग्रेस तथा वाम मोर्चे का सफाया करने में ममता को रणनीतिक मदद पहुंचाई।

इस बात पर गौर करना जरूरी है कि स्टालिन को छोड़ कर उनसे चुनावी मदद लेने वाले सभी नेता कांग्रेस के विरोध में ही रहे हैं। पंजाब में वह कैप्टन अमरिंदर सिंह के सलाहकार थे। कैप्टन अंत में भाजपा की गोद मे जा गिरे। पश्चिम बंगाल के बाद  देश भर में यह उम्मीद बनी थी कि ममता बनर्जी मोदी के विरोध की मजबूत आवाज बनेंगी। लेकिन वह कांग्रेस के विरोध की मजबूत आवाज बन कर उभर रही हैं। उन्होंने अपने राज्य में भाजपा से हो रहे पलायन पर जल्द से रोक लगाई है और राज्य से बाहर कांग्रेस को तोड़ने में लग गई हैं।

उन्होंने 2015 में नीतीश  कुमार की मदद की थी और नीतीश कुमार महागठबंधन की सरकार तोड़ कर फिर से भाजपा के साथ आ गए। एक समय देश  को आरएसएस से मुक्त कराने की बात करने वाले नीतीश  मोदी को पक्के समर्थक बने बैठे हैं। ममता ने मोदी के विरोध में मत हासिल किया और चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस का विरोध कर 2024 में मोदी की वापसी का रास्ता तैयार कर रही हैं।

पश्चिम  बंगाल के चुनाव-नतीजे आने के बाद से ही किशोर और ममता यह कहानी बनाने लगे हैं कि मोदी का मजबूत विकल्प बनना चाहिए और यह काम कांग्रेस नहीं कर सकती है। मोदी की इससे अच्छी मदद क्या हो सकती है कि राष्ट्रीय स्तर पर एकमात्र विकल्प को ही नकार दिया जाए।

किशोर प्रधानमंत्री मोदी की तरह किसी भी तरीके से सत्ता हथियाने में यकीन करते हैं। यह  मेघालय में कांग्रेस विधायक दल को तोड़ने के उनके कारनामे में दिखाई देता है। भाजपा ने कर्नाटक, गोवा और मध्य प्रदेश की सत्ता पर इसी तरह कब्जा किया है।

प्रशांत किशोर  और नरेंद्र मोदी की भाषा में कितना साम्य है यह नरेंद्र मोदी के संविधान दिवस के कार्यंक्रम में दिए गए भाषण और किशोर के ताजा ट्वीट को देख कर पता चलता है। मोदी ने भी पार्टियों में पारिवारिक नेतृत्व का सवाल उठाया है। दिलचस्प यह है कि किशोर  को ममता, स्टालिन और जगनमोहन रेड्डी के बारे में नेतृत्व के ‘‘दैवी अधिकार’’ को लेकर कोई एतराज नहीं है, लेकिन राहुल के नेतृत्व को वह अलोकतांत्रिक मानते हैं।

कई लोगों को लग रहा है कि किशोर  तृणूमल को देश के स्तर पर खड़ा कर ममता बनर्जी को मोदी का विकल्प बनाना चाहते हैं। सच्चाई इसके विपरीत है। वह तृणमूल के विस्तार के नाम पर कांग्रेस को तोड़ने के काम में लगे हैं।

लेकिन क्या  प्रशांत किशोर   का एकमात्र उद्देश्य ममता को नेता बनाने के बहाने 2024 में मोदी की वापसी की जमीन तैयार करना है? यह उनके कामकाज का सतही आकलन होगा। मोदी-शाह की तरह किशोर का असली उद्देश्य  भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप बदलना है। इसका अंदाजा उनके कामकाज को गहराई से समझने पर ही हो सकता है। वह खुद बताते हैं कि मोदी का साथ उन्होंने इसलिए छोड़ा कि नौकरशाही को व्यापक रूप से बदलने की उनकी बात नहीं मानी गई। उनका दावा है कि प्रधानमंत्री बनने के पहले मोदी ने उनसे वायदा किया था कि नौकरशाही के सारे महत्वपूर्ण पदों को लैटरल एंट्री से भरा जाएगा। यानी सिविल सेवा परीक्षा पास कर आए लोगों की हैसियत कम कर दी जाएगी।

बकौल किशोर, उन्होंने  इंतजार किया, लेकिन इस पर अमल नहीं होता देख कर वह मोदी से अलग हो गए। वह  अमेरिकी प्रशासन  का उदाहरण देते हैं जहां हर नया राष्ट्रपति अफसरों की अपनी फौज लेकर आता है। इसका मतलब साफ है कि जिस स्वतंत्र नौकरशाही की कल्पना भारतीय संविधान में की गई है, वह उसे खत्म करना चाहते हैं। वह इसके बदले प्रधानमंत्री के प्रति पूरी तरह समर्पित नौकरशाही  चाहते हैं। स्वतंत्र नौकरशाही को समाप्त करना उनका लिए इतना महत्व का एजेंडा है कि इस पर टाल-मटोल होने पर वह मोदी से ही अलग हो गए! उनका मानना है कि नीतीश  कुमार ने इसे लागू करने की कोशिश की है।

किशोर  का मानना है कि सारी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सरकारी नौकरशाही  के हाथ से लेकर लैटरल एंट्री से आए लोगों को दी जानी चाहिए। उनकी कल्पना के अनुसार इस व्यवस्था से दुनिया भर के विशेषज्ञ देश  की तरक्की में योगदान कर सकते हैं।

प्रशांत किशोर  के निशाने पर सिर्फ नौकरशाही नहीं है, पूरी संसदीय प्रणाली है।  चुनाव-संचालन के उनके मॉडल में मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री यानी नेतृत्वकर्ता का चेहरा पहले से लोगों के सामने रहना चाहिए। वह इसे अत्यंत अहम मानते हैं। यह भारतीय संसदीय प्रणाली के विपरीत है जिसमें संवैधानिक प्रावधान है कि निर्वाचित विधायक या सांसद अपना नेता चुनें।

किशोर के मॉडल में नेता पहले से तय रहता है। यह अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली की तरह है। लोगों को बताना जरूरी है कि भाजपा इस व्यक्ति-केंद्रित मॉडल के पक्ष में शुरू से रही हैं। कांग्रेस जैसी पार्टियां व्यवहार में भले ही यह करती हों, सैद्धांतिक रूप से इसे स्वीकार नहीं करती हैं। लेकिन यह आरएसएस के अपने सांगठनिक ढांचे से मेल खाता है जहां पदाधिकारियों का चुनाव नहीं होता है।

किशोर ने राजनीतिक दल के भीतर निर्णय-प्रक्रिया को भी पूरी तरह बदल डाला है। इस प्रकिया का विकास आजादी के आंदोलन  के दौरान कांग्रेस ने विकसित किया था। इस प्रकिया को आलाकमान संस्कृति ने जरूर नुकसान पहुचाया था। लेकिन किशोर  के डाटा आधारित माडल में संगठन की भागीदारी लगभग शून्य  हो चुकी है। चुनाव-प्रचार की कमान भी पार्टी के स्थानीय नेताओं के बदले भाड़े के विशेषज्ञों के हाथ में जा चुकी है। वे ही बूथ स्तर की रणनीति तय करते हैं।

प्रशांत किशोर   विचारधारा आधारित राजनीति के खिलाफ हैं। उनका मानना है कि पार्टी और मतदाता दोनों को विचारधारा के बंधन से मुक्त होना चाहिए। लेकिन गहराई से देखने  पर पता चलता है कि वह समाज बदलने वाली उस विचारधारा के खिलाफ हैं जिसके आधार बराबरी और लोकतंत्र हैं। यही महज संयोग नहीं है कि सांप्रदायिक और निरंकुश  राजनीति करने वाले नरेंद्र मोदी के साथ काम करने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। आखिरकार 2012 में ही जुड़ गए  प्रशांत किशोर  ने मोदी के कुछ वैसे भाषणों को भी तैयार किया होगा जो हिंदुत्व की विचारधारा से प्रभावित होंगे।

विंडबना यह है कि हिंदुत्व के सबसे परिचित चेहरे को सत्ता में पहुंचाने में मदद करने वाले  प्रशांत किशोर  आज मोदी का विकल्प तैयार करने का झांसा लोगों को दे रहे हैं। असलियत यह है कि वह देश में कारपोरेट के लिए काम करने वाली शासन-व्यवस्था बनाने की कोशिश में हैं जिसमें विचारधाराओं की कोई भूमिका नहीं हो।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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