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...यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़/ न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई

भारतीय उपमहाद्वीप के शानदार शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का आज जन्मदिन है। 110वीं सालगिरह। इस मौके पर फिर पढ़ते हैं उनकी एक बेहतरीन नज़्म “निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन…” जो आज और भी मौज़ूं है।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले

नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

 

है अहल-ए-दिल के लिये अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद

कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद

 

बहोत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिये

जो चंद अहल-ए-जुनूँ तेरे नाम लेवा हैं

बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी

किसे वकील करें, किस से मुंसिफ़ी चाहें

 

मगर गुज़रनेवालों के दिन गुज़रते हैं

तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं

 

बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है

कि तेरी मांग सितारों से भर गई होगी

चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है

कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी

 

ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं

गिरफ़्त-ए-साया-ए-दिवार-ओ-दर में जीते हैं

 

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़

न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई

यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल

न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

 

इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते

तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते

 

ग़र आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे

ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं

ग़र आज औज पे है ताल-ए-रक़ीब तो क्या

ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं

 

जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं

इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-निहार रखते हैं

 

-         फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(कविता कोश से साभार)

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