मुद्दा: जर्मन चुनाव, प्रवासन बहस और भारतीय

जर्मनी में आगामी चुनाव (23 फरवरी) को लेकर खासी चर्चा है, जिसमें देश के मतदाता अपनी 21वीं Bundestag (संसद) का चुनाव करेंगे। विभिन्न विचारधाराओं वाले राजनीतिक दलों के एजेंडे में प्रवासन एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। प्रवासन का विषय इस चुनाव के नतीजे को बदलने वाला साबित हो सकता है।
जर्मनी का प्रवासन के मुद्दे के साथ उलझा हुआ रिश्ता कोई नई बात नहीं है। कई मौकों पर, विभिन्न जर्मन सरकारों ने तुर्की के साथ साझा इतिहास रखने वाले लोगों को वापस उनके मूल देश जाने के लिए कहा है, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का राष्ट्र निर्माण का दौर खत्म हो चुका है। साल 2000 में, जब तत्कालीन सोशल डेमोक्रेट्स (एसपीडी) सरकार ने भारत से आईटी पेशेवरों को अस्थायी तौर पर जर्मनी में काम करने के लिए ग्रीन कार्ड स्कीम पेश की, तो "इंडर बनाम किंडर" (हमारे बच्चे बनाम भारतीय) जैसे नारे लोकप्रिय हुए। हाल के दिनों में, नव-नाज़ियों (Alternativ für Deutschland or AfD) की बढ़ती लोकप्रियता के साथ यह मुद्दा चरम पर पहुंच गया है।
मीडिया, आम बहस और राजनीतिक बयानबाजी में जिसे "प्रवासन संकट" कहा जाता है, वह देश के सामाजिक-राजनीतिक मिजाज से जुड़ा है, जो साफ तौर पर शरणार्थियों को नहीं चाहता।
"रूस-यूक्रेन" और "इज़राइल-फिलिस्तीन" के व्यापक राजनीतिक संदर्भ में, जर्मनी का प्रवासियों के प्रति उलझा हुआ रवैया स्पष्ट है। इस्लामोफोबिया का एक बड़ा बादल मंडरा रहा है, और प्रवासी-विरोधी भावनाएं मुख्य रूप से युद्ध से भाग रहे इस्लामिक क्षेत्रों के बिना दस्तावेज वाले विस्थापित लोगों को जर्मन भूमि में प्रवेश करने से रोकने से जुड़ी हैं।
दिलचस्प बात यह है कि जर्मनी में प्रवासी-विरोधी भावनाओं का उभार उसी समय हुआ है, जब वर्तमान जर्मन सरकार "कुशल प्रवासन" के पक्ष में नीतियां बना रही है। धीमी जन्म दर और बढ़ती बुजुर्ग आबादी के कारण, जर्मनी को अत्यधिक योग्य पेशेवरों की सख्त जरूरत है, जो देश में रहें और काम करें, उच्च आय अर्जित करें और करों का भुगतान करें, ताकि सरकार कल्याणकारी राज्य का वादा निभा सके और वृद्धावस्था पेंशन सुनिश्चित कर सके।
नतीजतन, जबकि जर्मन राज्य बड़े पैमाने पर प्रवासी-विरोधी रवैया दिखाता है, यूरोप के बाहर से कुशल प्रवासियों को जर्मनी में रहने और काम करने के लिए लाने के लिए उनकी सक्रिय नीति-निर्माण और विधायी नवाचार (legislative innovation) उल्लेखनीय है। इसका मतलब है कि जर्मनी नियंत्रित प्रवासन चाहता है, जिसमें प्रवासियों के लिए कोई एक सामान्य नीति (umbrella policy) नहीं है, बल्कि केवल उन लोगों को अनुमति देने की इच्छा है, जो अन्य देशों (third countries) से आते हैं और देश की अर्थव्यवस्था को सीधे और तत्काल लाभ पहुंचाते हैं।
कुशल प्रवासियों के लिए यह स्पष्ट प्राथमिकता पिछले पांच वर्षों में 1.5 लाख भारतीयों को जर्मनी लाई है, और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। जर्मनी में भारतीय प्रवासी व्हाइट-कॉलर प्रवासन का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं और मुख्य रूप से तथाकथित अत्यधिक कुशल प्रवासी और जर्मन विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा कार्यक्रमों में नामांकित छात्र हैं।
इंस्टीट्यूट फ्यूर ड्यूशेन विसेनशाफ्ट (आईडब्ल्यू-रिपोर्ट 1/2022) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, 2010 और 2020 के बीच, जर्मनी में भारतीयों की कुल संख्या (जिनमें से 57.6% व्हाइट-कॉलर प्रवासी हैं) 42,000 से बढ़कर 1,59,000 हो गई है। बीएएमएफ (जर्मनी में प्रवासन और शरणार्थियों के लिए संघीय कार्यालय) के अनुसार, वर्तमान में जर्मनी में लगभग 246,125 भारतीय रह रहे हैं। साथ ही, जर्मन विश्वविद्यालयों में शामिल होने वाले भारतीय छात्रों का प्रतिशत 2021 में 25,149 से बढ़कर 2024 में 42,753 हो गया है (Source: DeStatis 2024)।
संदर्भ के लिए, जर्मनी में कुशल प्रवासियों की अधिकतम संख्या और जर्मन विश्वविद्यालयों में नामांकित विदेशी छात्रों की अधिकतम संख्या भारत से है। 2025 में, भारतीय जर्मनी में सातवीं सबसे बड़ी प्रवासी आबादी है (Statista.de)।
जर्मनी प्रवासन बहस के एक मोड़ पर खड़ा है, जहां एक ओर प्रवासी-विरोधी भावनाएं बढ़ रही हैं, तो दूसरी ओर अधिक कुशल प्रवासियों को आमंत्रित करने की इच्छा भी है। इसलिए जर्मनी ने भारत के साथ कई द्विपक्षीय संबंध शुरू किए हैं, जिनमें स्किल्ड माइग्रेशन एक्ट, प्रोग्राम ट्रिपल विन जैसे नए प्रवासन मार्ग शुरू करना शामिल है, जबकि ईयू ब्लू कार्ड और जर्मनी की अपनी चांसेनकार्टे भारत से कुशल प्रवासन का समर्थन करने वाले लोकप्रिय और प्रवासी-समर्थक कानूनी ढांचे बने हुए हैं।
ऐसी प्रवासी-समर्थक नीतियों और कानूनी संरचनाओं के बावजूद, देश में बढ़ती प्रवासी-विरोधी भावनाओं और एएफडी की बढ़ती लोकप्रियता को नजरअंदाज करना मुश्किल है। नवीनतम मीडिया रिपोर्ट्स और राय सर्वेक्षणों के अनुसार, एएफडी क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स (सीडीयू) के बाद दूसरे नंबर पर होने की संभावना है, और पहले से ही संकेत हैं कि ये दोनों पार्टियां गठबंधन कर सकती हैं।
ऐसे विकास जर्मनी में भारतीय प्रवासियों के लिए कई परिणाम ला सकते हैं और कई सवाल खड़े कर सकते हैं। क्या एएफडी के इस चुनाव के बाद मुख्य विपक्ष बनने पर भारतीय कुशल प्रवासी के रूप में उतने ही ज़रूरी रहेंगे? क्या वे अभी भी भारतीयों को पीओसी (पीपल ऑफ कलर) के रूप में आर्थिक और सामाजिक पूंजी तक पहुंच के साथ जर्मनी में रहने और काम करने देना चाहेंगे? ऐसे हालात में मजबूत नाज़ी अतीत और बढ़ते नव-नाज़ी वर्तमान वाले एक प्रवासी देश में भारतीय कितना सुरक्षित महसूस करेंगे?
भारतीय प्रवासियों का भविष्य और देश में भारतीय प्रवासी समुदाय का गठन और विस्तार इस बात पर निर्भर करता है कि जर्मनी प्रवासन के मुद्दे को कैसे संबोधित करता है, क्योंकि सरकार का रवैया लोगों की सामान्य समझ को गहराई से प्रभावित करता है। जर्मनी में नस्लवाद के बढ़ते स्तर के संदर्भ में, क्या जर्मनी के आम लोग भारतीयों को खतरा मानेंगे?
इसके अलावा, वर्तमान में जर्मन सरकार का प्राथमिक फोकस कुशल प्रवासियों के आगमन पर है। क्या अगली सरकार इन कुशल प्रवासियों के बसाने के बारे में सोचेगी या वे चक्रीय प्रवासन से संतुष्ट रहेंगे, जो उनकी तत्काल श्रम कमी का जवाब देता है? ऐसे हालात में, क्या जर्मनी भारतीयों के लिए वैश्विक प्रवासन नेटवर्क का एक गलियारा बना रहेगा या भारतीय आखिरकार जर्मनी को एक गंतव्य के रूप में चुनेंगे?
यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि एक बार प्रवासन मार्ग खुल जाने पर, वे लोग भी चले जाते हैं जो सबसे वांछित प्रवासी नहीं हैं। जर्मनी में अब तक भारतीय प्रवासी ज्यादातर हिंदू प्रवासी या कम से कम गैर-मुस्लिम प्रवासी हैं। जब भारत से अधिक गैर-हिंदू प्रवासी जर्मनी जाएंगे तो क्या होगा? मेजबान देश में इस्लामोफोबिया की व्यापक बहस में इसे कैसे देखा जाएगा? जर्मन सरकार का उन भारतीय प्रवासियों के प्रति क्या रवैया होगा जो (संभावित) कुशल प्रवासन के हिस्से के रूप में प्रवास नहीं कर रहे हैं?
(अमृता दत्ता "स्टोरीज ऑफ द इंडियन इमिग्रेंट कम्युनिटीज इन जर्मनी: व्हाई मूव?" की लेखिका हैं। आप जर्मनी में बीलेफेल्ड यूनिवर्सिटी Bielefeld University में कार्यरत हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
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