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यूपी: दो दिग्गज केंद्रीय मंत्रियों का इलाक़ा, लेकिन बूंद-बूंद पानी को तरस रहे ग्रामीण—आदिवासी

यूपी में चंदौली के नौगढ़ में जो पानी मवेशी तक नहीं पीते, उसे लाचारी में पी रहे ग्रामीण...! देखिए तस्वीरों के साथ ग्राउंड रिपोर्ट
water crisis

दहकती गरमी और हरहराती लू में घर के बाहर सिर पकड़े अपनी शादीशुदा बेटी सुमन के साथ चिंता में डूबी 40 वर्षीया लीलावती को यह समझ में नहीं आ रहा था कि खाना बने तो कैसे? दिन के 11 बजे गए थे, लेकिन चूल्हा नहीं जला था। यह दूसरा दिन था जब इनके घर खाना नहीं बन पाया था। लीलावती का बेटा आकाश और बेटी रिंकल भोर में पानी की तलाश में निकले थे, लेकिन वो लौटे नहीं थे। दामाद बादल भी पीने का पानी ढूंढने निकले थे, लेकिन बैरंग लौट आए।

दर्द भरी यह कहानी उस लीलावती की है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस से सटे चंदौली जिले के नौगढ़ प्रखंड के सुदूरवर्ती गांव केल्हड़िया में रहती हैं। कुछ साल पहले तक यह गांव बनारस का हिस्सा था। देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी इसी इलाके के रहने वाले हैं। केंद्र सरकार के भारी उद्योग मंत्री महेंद्रनाथ पांडेय चंदौली के सांसद हैं। सत्ता में दोनों दिग्गज नेताओं की मौजूदगी के बावजूद केल्हड़िया के लोग पीने के पानी के लिए त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे हैं। 23 मई 2023 के बाद इस गांव में टैंकर का पानी नहीं पहुंचा तो आदिवासियों के घरों के चूल्हे ठंड पड़ गए।

जंगल से पानी ढोकर लाती एक आदिवासी महिला

आग बरसाती दोपहरिया में केल्हड़िया गांव की औरतें और बच्चे पहाड़ में फूटे दर्रे (चुआड़) से निकलने वाले पानी के लिए जंगलों की ओर भागे। घनघोर जंगलों में जाकर चुआड़ के आगे उन्हें बाल्टी और प्लास्टिक के डब्बे के साथ लाइन लगानी पड़ी। घंटों इंतजार के बाद एक-दो बाल्टी पानी नसीब हो सका।

इस हैंडपंप में मुद्दत से नहीं आया पानी 

लीलावती कहती हैं, ''पीने के पानी का इंतजाम न होने से हलक सूखा हुआ है। चंदौली की सरकार पानी का जो टैंकर भेजती है, उसमें भी कभी मछलियां निकलती हैं तो कभी मेंढक। हम ऐसा पानी पी रहे हैं, जिसे मवेशी भी नहीं पीते हैं। मन गिनगिना उठता है। हमें लाचारी में उसी पानी को छानकर सूखे कंठ को गीला करना पड़ता है। हमारे घर की रसोई देखिए। दो रोज से टैंकर का पानी नहीं आया। पानी के इंतजार में फांकाकशी करना पड़ रहा है। खाना नहीं बना है। बच्चे भूखे हैं, खाली पेट हैं। फिर भी वो डिब्बा लेकर पानी के लिए दौड़ लगा रहे हैं। जिन जंगलों में पहाड़ से पानी का सोता निकलता है वहां भालू और तेंदुए जैसे खतरनाक जंगली जानवर भी पहुंचते हैं। हमें हर वक्त डर लगा रहता है कि वो हमला न बोल दें। इसलिए लाठी-डंडा लेकर जाना पड़ता है।''

क्या इस पानी को आप पी सकते हैं? लेकिन इसी को पीने को मजबूर हैं ग्रामीण

मुसीबत का दूसरा नाम केल्हड़िया

उत्तर प्रदेश के चंदौली ज़िले के नौगढ़ ब्लॉक मुख्यालय से क़रीब 44 किमी दूर जंगलों से घिरा दुर्गम गांव है केल्हड़िया। चारों तरफ जंगल, पहाड़ और पत्थर होने की वजह से यहां गरमियों में पानी के लिए सबसे अधिक परेशानी रहती है। केल्हड़िया के पास पहाड़ के एक दर्रे से पानी निकला करता था, लेकिन इस साल वह सोता भी सूख गया है। इस गांव के लोग इसी चुआड़ का पानी लोग पीते थे और उसी से नहाते थे। पानी का यह सोता गांव की उत्तर दिशा में है। गरमी हो, सर्दी हो अथवा बारिश, यहां सिर्फ़ चुआड़ ही सहारा है। इंसानों का भी और जंगली जानवरों का भी। हर साल गर्मियों में यह चुआड़ सूख जाता है। तब टैंकर से पानी की सप्लाई होती है। मई-जून की दोपहरिया जब आग बरसाती है तब केल्हड़िया गांव के कुछ लोग औरतों-बच्चों और मवेशियों को लेकर लोग मूसाखाड़ बांध की तलहटी में पलायन कर जाते हैं। वहीं छप्पर डालकर रहते हैं और जब बारिश शुरू होती है तो गांव लौट आते हैं। यह कहानी सिर्फ़ एक बरस की नहीं, हर साल दोहराई जाती है।

केल्हड़िया गांव के पूर्वी छोर पर एक पीपल का पेड़ है, जिसके नीचे करीब एक हजार लीटर की क्षमता वाली सफेद रंग की टंकी रखी है। उस टंकी में एक बूंद पानी नहीं है। पास में एक बोरवेल है। ग्रामीणों ने उसके मुंह पर पत्थर रख दिया है। कुछ कदम के फासले पर एक और बोरवेल दिखता है, जिसके अंदर मोटर पंप भी डाला गया है, लेकिन वो भी सूखा है। इसी के नजदीक इंडिया मार्का एक हैंडपंप भी है। वह भी सूखा पड़ा है।

पीपल के पेड़ के नीचे बैठे मिले संतोष कोल। हमें देख वो भावुक हो जाते हैं और बताते हैं कि उन्हें करीब डेढ़-दो किमी दूर जाकर पानी लाना पड़ता है। वह ‘न्यूजक्लिक’ से कहते हैं, ''पानी के बगैर मर रहे हैं। दो दिन से टैंकर नहीं आया है। दो-दो जगह बोरिंग फेल हो चुकी है। कुछ बरस पहले हैंडपंप लगाने के लिए पत्थर काटने वाली मशीन से बोरिंग कराई गई, लेकिन वो फेल हो गई। पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची है। हमारे चार बच्चे हैं और वो भोजन के लिए बिलबिला रहे हैं। टैंकर का पानी नहीं आया तो हम करीब एक किमी दूर जंगल के बीच एक नाले में डिब्बा लेकर पहुंचे। सुबह सात से नौ बजे तक इंतजार करने के बाद हमें सिर्फ सात लीटर पानी नसीब हो सका। फिलहाल हमारी पहली प्राथमिकता खुद के लिए और अपने मवेशियों के लिए जीवन को बचाने के लिए पानी इकट्ठा करना है।''

66 वर्षीया कुंती देवी और उनके पति शिवमूरत की चिंता कुछ ज्यादा ही है। कुंती कहती हैं, ''हम तो नहाना ही भूल गए हैं। जब पीने के लिए पानी नसीब नहीं हो रहा है तो नहाने के लिए कहां से लाएं? एक-एक बूंद पानी के लिए परेशान हैं। हमारी कई पुश्तें यहां गल चुकी हैं। अपनी जमीन छोड़कर हम कहां जाएं?  6 जून 2023 को हमारी बेटी ममता की शादी है। समझ में नहीं आ रहा है कि शादी कैसे होगी? केल्हड़िया गांव के प्रधान लाल साहब 35 किमी दूर रहते हैं। कई रोज से हम फोन कर रहे हैं, लेकिन वो उठा नहीं रहे हैं। बेटी की शादी के लिए पानी नहीं देंगे तो हम ब्लाक पर धरना देंगे। थाने में रपट लिखाएंगे।'' 

कुंती देवीः बेटी की शादी की चिंता

कुंती यहीं नहीं रुकती। वह कहती हैं, ''पानी के संकट के चलते गांव में कई लड़कों की शादियां रुक गईं हैं। रिश्तेदार आते हैं तो वो कहते हैं कि वहां पानी नहीं है। केल्हड़िया गांव में बेटियों की शादी नहीं करेंगे। जिन बच्चों की शादियां हो जानी चाहिए थी, वो पानी के संकट के चलते कुंवारे हैं।''

पेयजल संकट के चलते नहीं जला चूल्हा, बेटी के सुमन के साथ उदास बैठीं लीलावती 

जंग लड़ने जैसा पेयजल संकट

पेयजल की मुश्किल से जूझने वाली कुंती नौगढ़ की इकलौती महिला नहीं हैं। केल्हड़िया की विधवा फुलवंती की कहानी इनके मिलती-जुलती है। इनके दो बेटे हैं-संतोष और छोटेलाल। दोनों मज़दूरी करने चले जाते हैं तो पानी भरने का काम वही करती हैं। इनका ज़्यादा समय पानी जुटाने में ही निकल जाता है। वह चुआड़ से पीने का पानी निकालने और फिर घर तक लाने में थक जाती हैं। केल्हड़िया की 56 वर्षीया चंद्रावती देवी और उनका परिवार खेती व पशुपालन पर निर्भर है। इनकी दिनचर्या भी फुलवंती देवी जैसी ही है। वह कहती हैं, '' पानी का संकट ज़्यादा रहता है तो दो-दो, चार-चार दिन के लिए इकट्ठा कर लेते हैं। गरमी के दिनों में सरकारी टैंकर से आने वाले पानी के लिए टकटकी लगाए रखना पड़ता है। हमारे गांव में सबसे बड़ी समस्या पानी की है। जब मैदानी इलाकों में चारे का संकट पैदा हो जाता है तो केल्हड़िया के लोग अपने मवेशी लेकर जंगलों में चले जाते हैं। अबकी सारा इलाका सूखे की मार झेल रहा है। केल्हड़िया गांव में अक्सर टैंकर का पानी नहीं आता। तब इस गांव के लोग सुबह तीन बजे उठते हैं और जान जोखिम में डालकर बाल्टी और डिब्बा लेकर जंगलों में कूच कर जाते हैं। चुआड़ से लोटे से पानी भरते हैं। दूषित पानी पीने से उल्टी-दस्त, टाइफाइड, पेट दर्द की समस्याएं आम हैं। हमारे यहां पानी होगा तो हर चीज़ सही होगी।''

चंद्रावती के पास बैठीं 57 वर्षीया नौरंगी देवी का कहती हैं, ''केल्हड़िया में हैंडपंप लगाने के लिए मशीन से चार-पांच बार साढ़े पांच सौ फीट तक बोरिंग कराई गई, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। लगता है कि पानी हमारे नसीब में है ही नहीं। एक हज़ार फीट बोरिंग हो तो शायद पानी निकल आए। अगर सरकार गहरी बोरिंग करा दे तो हमारी मुश्किलें दूर हो सकती हैं। यहां एक कुआं है, मगर वो भी सूख चुका है। हमारे पास तो पेट भरने के लिए पैसा नहीं है। होता तो पत्थर काटने वाली मशीन लाकर बोरिंग करा देते। कम से कम रोज़-रोज़ पानी ढ़ोने से मुक्ति तो मिल जाती।''

पहाड़ बनी औरतों की जिंदगी

केल्हड़िया के पश्चिम में सिंचाई के लिए एक चेकडैम बना है, लेकिन वह भी सूखा है। गर्मियों में उसमें पानी नहीं बचता है। गांव के उत्तरी छोर पर एक कुआं है। लघु सिंचाई विभाग ने जिस कुएं को खेतों को सींचने के लिए बनाया था उसका इस्तेमाल गांव के लोग कपड़ा धोने के लिए कर रहे हैं। मटमैले पानी में कीड़े और मेंढक हैं, लेकिन इस गंदे पानी के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। औरतें इसी कुएं के पानी से बर्तन भी धो रही हैं। खोवा बनाने में जुटी रेनू कहती हैं, ''पेयजल संकट के चलते हमारी जिंदगी पहाड़ बन गई है। लोग गंदा पानी पीने को मजबूर हैं। केल्हड़िया में न तो ढंग की सड़क है और न ही कोई स्वास्थ्य सुविधा। बीमार होने पर लोग 44 किलोमीटर दूर इलाज कराने नौगढ़ जाते हैं। चुनाव के समय नेता वोट मांगने आते हैं और वादे करते हैं कि समस्या का समाधान करेंगे, लेकिन स्थायी समाधान अब तक नहीं हुआ। नेता विधायक सब वोट लेकर चले जाते हैं। प्रधान भी कुछ समाधान नहीं करते।''

केल्हड़िया गांव के बुजुर्ग आदिवासी घुरहू कोल

87 वर्षीय घुरहू कोल केल्हड़िया के सबसे उम्रदराज व्यक्ति हैं। वह ''न्यूज़क्लिक'' से कहते हैं, ''पेयजल संकट के साथ दूसरी दूसरी समस्याएं भी पहाड़ सरीखी हैं। सरकारी अनाज लाने के लिए लोगों को 20 किमी दूर जाना पड़ता है। यहां स्कूल ही नहीं, सरकारी आवास का भी अता-पता नहीं है। हमारे गांव को ओडीएफ (खुले में शौच मुक्त) घोषित किया गया है, लेकिन किसी शौचालय पर दरवाजा नहीं है। वन विभाग हमारे पीछे पड़ा है। जिस स्थान पर हमारे मकान और हमारी झोपड़ियां हैं उसे वह अपना बता रहा है। हमारे गांव में पत्थर की एक सड़क बनी तो वन विभाग ने उसे बनवाने वाले अफसर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दी। हमारी सात पीढ़ियों में खेदू, रघुबर, गुदरी, सरजू, घुरहू, अशोक और इंदरेश ने केल्हड़िया में अपना जीवन गुजार दिया। फिर भी वन विभाग के नुमाइंदे हमारी जमीनों को अपनी बताकर हमें परेशान कर रहे हैं। यह स्थिति तब है जब हमारे नाम खतौनी है और हम मालगुजारी भी देते हैं। हमारे दुखों का कोई अंत नहीं। हमारा सबसे बड़ा दुख पीने के पानी का है, जिसे सरकार दशकों से दूर करने की कोशिश नहीं कर रही है। आखिर हम कहा जाएं? ''

केल्हड़िया के भोला, राममूरत, शिवमूरत, छोटेलाल, अशोक बहुत दुखी हैं। वह कहते हैं, ''कभी-कभी तो पशुओं के पेशाब और गोबर से सना पानी भी छानकर पीना पड़ता है। केल्हड़िया गांव में एक दशक पहले ही बिजली पहुंच गई थी। पिछले साल रिलायंस कंपनी ने यहां अपना टावर भी तान दिया। यहां कोल समुदाय की कुल आबादी करीब 75 है। बगैर प्लास्टर वाले एक ईंट घर को छोड़ बाकी सभी मकान कच्चे और झोपड़िया हैं। आसपास के सभी चुआड़ सूख गए हैं। नाले का गंदा पानी पीना हमारी मजबूरी है।'' 

केल्हड़िया गांव के प्रधान लाल साहब खरवार भी बेबाकी के साथ पेयजल संकट को स्वीकार करते हैं और वो कहते हैं, ''पीने के पानी के लिए हम अफसरों के चौखट पर दौड़ते-दौड़ते थक गए हैं। कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। गांव वालों को हम क्या जवाब दें और मुसीबतों से घिरे लोगों को कैसे अपना मुंह दिखाएं?''

पेयजल संकट से जूझ रहा पंडी गांव 

पंडी गांव के भी यही हालत  

केल्हड़िया गांव से करीब सात किमी पहले एक गांव है पंडी। इस गांव की आबादी करीब दो सौ है। इस गांव में चार हैंडपंप है, लेकिन चालू हालत में कोई नहीं है। किसान रामकृत खरवार कहते हैं, '' पंडी में एक किमी दूर चुआड़ के पानी के कुएं से ही जिंदगी चल रही है। औरतें, बच्चे-बूढ़े सभी वहीं से पानी ढोते हैं। हैंडपंप खराब हो गए हैं। पीने का पानी मयस्सर नहीं तो नहाएं कैसे? सूखे की वजह से अबकी जंगलों में महुआ और पियार नहीं है। बहुत से लोग गांव से पलायन कर गए हैं। पीने का पानी जब कहीं नहीं मिलता तो आमचुआ चुआड़ से लाना पड़ता है। पानी ढोने का काम आमतौर पर औरतें और बच्चे करते हैं। बच्चों को सुबह सरकारी स्कूल और दोपहर अथवा इसके बाद गांव के बाहर चुआड़ तक पानी लेने के लिए जाना पड़ता है। एक बार पानी लेने जाने में एक घंटे से अधिक समय लगता है। दिन भर में तीन घंटे से अधिक समय पानी में ही खर्च हो जाता है, जिससे उनकी पढ़ाई प्रभावित होती है।''

पलायन है मजबूरी

खरवार जनजाति बहुल पंडी गांव से पलायन कर करमठचुआं पहुंचे मुसहर समुदाय के कुछ लोग जंगलों में भटक रहे हैं। करमठचुआं का इकलौता हैंडपंप बिगड़ गया और मजूरी नहीं मिली तो लालू, शंकर, विफई, रामलाल, तारा, पन्ना, राम प्यारे, भोला समेत 25 घरों के क़रीब सवा सौ लोग नोनवट गांव से क़रीब दो किमी दक्षिण स्थित जंगल में जीवनयापन करने पर मजबूर हो गए। कन्हैया कहते हैं, ''वन विभाग के कारिंदों ने हमें कई बार जंगल से खदेड़ा, पर हम कहां जाते। हम सभी के सामने जान देने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है। जब से होश संभाला है, तब से जंगलों में भाग रहे हैं। जहां जाते हैं, वन विभाग के कारिंदे डंडा लेकर पहुंच जाते हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि कहां जाएं? हम सभी तो पीने के पानी तक के लिए बेहाल हैं। योगी सरकार गुजारिश है कि वह हमारे लिए पानी का स्थायी प्रबंध करें। ''

नौगढ़ प्रखंड में करीब 38 लोगों की आबादी वाले सपहर गांव से गनपत (40), रामसूरत (75) और छोटेलाल का परिवार पेयजल संकट के चलते बिहार के हरसोती गांव में पलायन कर गया। नौगढ़ बांध के किनारे बसे औरवाटांड गांव में बांध के पानी में आर्सेनिक की मात्रा ज़्यादा है, जिसे पीने का मतलब मौत को गले लगाना। इस गांव में शानदार झरना है, जहां लुत्फ़ उठाने बड़ी तादाद में सैलानी आते हैं, लेकिन यहां पीने के पानी का संकट ऐसा है कि लोग अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहते। पेशे से मज़दूर रामदीन कहते हैं, ''हमारे सामने पानी का संकट सबसे बड़ा है। हमारे डैम का  पानी चंदौली के धानापुर और बिहार जा रहा है और 65 घरों की आबादी प्यास से बेहाल है। इस वजह से कई लोगों की शादियां रुक गईं। आसपास के लोग सरेआम कहते हैं कि वो औरवाटांड में शादी नहीं करेंगे। पानी तो बहुत है, लेकिन प्यास बुझाने लायक नहीं है। देवरी कला ग्राम पंचायत में खोजेंगे तो पाएंगे कि तमाम युवक कुंवारे हैं, जिनकी शादी सिर्फ़ पानी के संकट की वजह से नहीं हो रही।''

औरवाटांड के पूरब तरफ़ सेमर साधो ग्राम सभा के सेमर, होरिला, धोबही, पथरौर, जमसोत से लगायत शाहपुर तक पेयजल की समस्या है। देवरी के दक्षिण में मंगरई ग्राम सभा के गहिला, सुखदेवपुर, हथिनी, मगरही की स्थिति भी ऐसी ही है। उत्तर में पहाड़ और जंगल है। 40 से 45 किमी तक कहीं हैंडपंप अथवा कुआं नहीं है। पश्चिम में लौआरी ग्राम सभा का गांव है जमसोती, गोड़टुटवा, लेड़हा, लौआरी, लौआरी कला। इन गांवों में औरतों और बच्चों को पीने के पानी के लिए जद्दोजहद करते कभी भी देखा जा सकता है।

सूख चुका है नौगढ़ इलाके का विशाल चंद्रप्रभा बांध  

सूख गए बांध-बंधियां

नौगढ़ में सिर्फ इंसान ही नहीं, मवेशियों के लिए भी पानी जुटाना आसान नहीं है। चंद्रप्रभा डैम पूरी तरह सूख गया है। नौगढ़ और मूसाखाड़ बांधों में पानी बहुत कम है। चंदौली के सभी चेकडैम और बंधियों में धूल उड़ रही है। कुएं तक सूख गए हैं। इस वजह से काशी वन्य जीव अभ्यारण्य में विचरण करने वाले भालू, तेंदुआ, लंगूर, नीलगाय, हिरन, बारहसिंघा, शाही, चीतल, खरगोश और बंदर आदि वन्य जीवों का जीवन भी संकट में है। कुछ दिन पहले पानी न मिलने की वजह से एक बारहसिंघे की मौत हो गई थी।

नौगढ़ चंदौली ज़िले का वह इलाक़ा है जिसे पूर्वांचल का दूसरा कालाहांडी कहा जाता था। इसी क्षेत्र के कुबराडीह और शाहपुर जमसोत में दो दशक पहले भूख से कई मौतें हुई थीं। यह इलाक़ा तब ज़्यादा चर्चा में आया जब नीरजा गुलेरी के टीवी सीरियल चंद्रकांता ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरी। पहाड़ और जंगलों से घिरे इस गांव में पहले भारत सरकार नहीं, डकैतों की समानांतर सरकारें चला करती थीं। डकैत ख़त्म हुए तो नक्सलियों की आमद-रफ़्त बढ़ती चली गई। इस इलाक़े में कभी कुख्यात डकैत मोहन बिंद, घमड़ी खरवार, रामबचन, धर्मदेव, मिश्री आदि की सरकार चला करती थी तो कभी यह इलाक़ा कामेश्वर बैठा सरीखे नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था। फ़िलहाल सरकार के लिए दोनों समस्याएं काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई हैं, लेकिन लोगों के लिए पेयजल की समस्या और भी ज्यादा गहरा गई है।

क्या कर रही है सरकार?

नौगढ़ प्रखंड में पेयजल संकट से प्रभावित 51 ग्राम सभाओं में से एक है देवरी कला। इसी से जुड़ा है केल्हड़िया गांव। क्षेत्रफल के हिसाब से देवरी कला यूपी की दूसरी सबसे बड़ी ग्राम पंचायत है, जहां सर्वाधिक आबादी खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जन-जातियों की है। केल्हड़िया के अलावा पंडी, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड गांव देवरी ग्राम सभा के हिस्से हैं। इस इलाक़े में पानी की समस्या को लेकर योजनाएं तो कई बार बनी, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। गरमी के दिनों में सूखे जैसे हालात के चलते नौगढ़ इलाक़े की सभी ग्राम सभाओं में ज़्यादातर हैंडपंप शो-पीस बन गए हैं। इस इलाक़े में क़रीब 65 बंधियां ऐसी हैं, जिनमें अजुरी भर पानी नहीं है। जिन गांवों के पास से कर्मनाशा और चंद्रप्रभा नदियां गुजरती हैं, वो भी किसी काम की नहीं रह गई हैं। गहराई अधिक होने के कारण नदी में उतरना और फिर पानी लेकर ऊपर आना आसान काम नहीं है।

योगी सरकार ने जून 2020 में 'हर घर जल' योजना की शुरुआत की और वादा किया कि जून 2022 तक नौगढ़ के हर घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचा दिया जाएगा। बाद में इसकी डेड लाइन बढ़ाकर 2024 कर दी गई। 'हर घर जल' योजना के तहत पेयजल का इंतजाम करने के लिए नौगढ़ के लिए 250 करोड़ की योजना को मंजूरी दी गई है। इस योजना के तहत भैसोढ़ा बांध के पानी को शोधित करने के बाद करीब छह सौ किलोमीटर पाइप लाइन से सभी घरों में पहुंचाया जाना है।

जलनिगम (ग्रामीण) के अधिशासी अभियंता हेमंत सिंह के मुताबिक, ''नौगढ़ ग्राम समूह पुनर्गठन पेयजल योजना का खाका तैयार कर लिया है। साल 2024 तक सभी गांवों को वनवासियों को शुद्ध पानी मिलने लगेगा। भैसौड़ा बांध के शुद्ध पानी को स्टोर करने के लिए क्षेत्र में नौ स्थान चिह्नित किए गए हैं। वहां पानी की टंकियां बनाई जाएंगी, जिनकी क्षमता 100 किलो लीटर से लगायत 750 किलो लीटर पानी इकट्ठा करने की होगी। गांवों में पानी पहुंचाने के लिए 600 किलो मीटर पाइप लाइन बिछाई जाएगी। नौगढ़ प्रखंड के 93 गांवों के 12 हजार 301 घरों तक पानी पहुंचाने का लक्ष्य है। इन गांवों में रहने वाले करीब 75 हजार लोगों के लिए पानी की व्यवस्था की जाएगी। जिन गांवों में पाइप लाइन के जरिए पानी नहीं पहुंचाया जा सकेगा,  वहां डीप बोरिंग वाले हैंडपंप लगाए जाएंगे। हर घर तक पानी पहुंचाने का काम साल 2024 के आखिर तक पूरे कर लिए जाएंगे।''

बीडीओ सुदामा यादव

नौगढ़ के खंड विकास अधिकारी सुदामा सिंह यादव कहते हैं, ''पेयजल संकट से जूझ रहे इलाकों में 37 टैंकरों से जलापूर्ति की जा रही है। कुछ और टैंकरों को किराये पर लेने पर विचार किया जा रहा है, लेकिन यह पेयजल संकट का स्थायी समाधान नहीं है। पानी की किल्लत तब दूर होगी, जब हर घर तक पानी पहुंचेगा। पहाड़ में बोरिंग सफल नहीं है। सरकारी धन बर्बाद हो रहा है। पाइप के जरिए संगटग्रस्त इलाकों में पानी पहुंचाना आसान है। अगले साल तक केल्हड़िया, पंडी समेत सभी गांवों में पीने का साफ पानी पहुंचने लगेगा।''

चंदौली ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के अध्यक्ष आनंद सिंह सरकारी नुमाइंदों के दावों पर यकीन नहीं करते। नौगढ़ इलाके के दुर्गम पहाड़ी इलाकों का दौरा करने के बाद वह काफी चिंतित नजर आते हैं। इनके प्रयास से ही दो दिन बाद केल्हड़िया में टैंकर से पानी पहुंचा और वहां चूल्हे जल सके। वह ‘न्यूज़क्लिक’ से कहते हैं, ''जंगलों और पहाड़ों से घिरे दुर्गम इलाक़े नौगढ़ में करोड़ों रुपये ख़र्च किए गए, जिनमें से सबसे अधिक पैसा पानी के संकट को दूर करने में खपाया गया। पैसा तो पानी की तरह बहाया, लेकिन लोगों की प्यास नहीं बुझ पाई। कितने शर्म की बात है कि नौगढ़ के सुदूरवर्ती गांव केल्हड़िया में पानी के संकट के चलते चूल्हे ठंडे पड़ने लगे हैं। हमें लगता है कि सत्तारूढ़ दल के जनप्रतिनिधि और विकास विभाग के अधिकारी पेयजल समस्या से लड़ने के लिए सिर्फ कागजों पर योजनाएं बनाते हैं। इनकी योजनाएं हकीकत के धरातल पर कभी उतरी ही नहीं। नतीजा, लोग हर वक्त पीने के लिए बिलबिलाते रहते हैं। 'हर घर जल' योजना अभी सपना है। पाइप लाइन बिछाने की कौन कहे, इसकी इस योजना का कायदे से श्रीगणेश तक नहीं हो सका है। दूसरी ओर, आदिवासी बहुल इलाक़ों में पीने का पानी जुटाना ग्रामीणों के लिए रोज़ का संघर्ष है। सिर्फ केल्हड़िया ही नहीं, नौगढ़ का हर ग्रामीण बाशिंदा यह सवाल करता नजर आ रहा है कि आख़िर कब दूर होगा पेयजल संकट और कब ख़त्म होगी पीने के पानी के लिए उनकी जंग?''

नौगढ़ इलाके के हालात इन तस्वीरों में साफ़ बयां होते हैं—

इसी टंकी में भरा जाता है टैंकर का पानी जो सूखी पड़ी है

इसी टैंकर से केल्हड़िया गांव में होती है पानी की सप्लाई 

केल्हड़िया गांव की पगडंडी 

केल्हड़िया गांव में सूखा पंप

केल्हड़िया गांव में पेयजल के लिए परेशान एक आदिवासी महिला 

केल्हड़िया में एक घर ऐसा भी 

नौगढ़ में छप्पर में झांक रही दुश्वारियां

सभी फोटोग्राफः विजय विनीत

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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