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गुजरात चुनाव: उत्तरी गुजरात के 3 गांवों के किसान तीन साल से चुनाव का कर रहे हैं बहिष्कार

दहिसाना में 50% से अधिक किसानों के पास दो बीघा से कम ज़मीन है। वर्षों से आय में कमी, फ़सल की बर्बादी और सरकार की उदासीनता ने उन्हें नाराज़ कर दिया है।
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उत्तर गुजरात की ये बंजर ज़मीन युवाओं और वृद्ध छोटे किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर रही है।

उत्तरी गुजरात में सिंचाई के पानी की कमी के कारण इस क्षेत्र में खेती के पैटर्न में लगातार बदलाव होता रहा है और सरकारी सहायता के अभाव में अधिकांश किसान अब पशुपालन की तरफ़ रुख़ कर रहे हैं। बड़ी संख्या में युवा राज्य के शहरी इलाक़े में चले गए हैं। क़रीब 10,000 वोटों वाले यहां के तीन गांवों (दावोल, दहिसाना, वरेठा) के लोग अपनी समस्याओं के प्रति सरकार की उदासीनता से हताश होकर कहते हैं कि वे तीन साल से चुनावों का बहिष्कार कर रहे हैं।

मेहसाणा के शहरी क्षेत्र से लगभग 50 किलोमीटर दूर सूखा और बंजर ग्रामीण इलाक़ा है जो आमतौर पर पानी की कमी के लिए जाना जाता है। इस तरह की स्थिति उत्तर गुजरात के अन्य जिलों में है। हालांकि, पिछले पांच वर्षों में समस्याएं बढ़ी हैं और किसानों को अब बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

दावोल के 30 वर्षीय किसान जसवंत न्यूज़क्लिक को बताते हैं, “एक समय था जब हमारे गांव में तीनों मौसमों में खेती होती थी। हम अच्छी कमाई करते थे और कभी विकल्पों की तलाश करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। अब चीज़ें बदल गई हैं, अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकता है, लेकिन हम नीचे धंसते जा रहे हैं।" दावोल, दहिसाना और वरेठा के अधिकांश किसान या तो भूमिहीन हैं या उनके पास बहुत कम ज़मीन है। इनके पास ज़मीन दो बीघा या उससे कम है।

दहिसाना गांव में 52 वर्षीय किसान प्रेमजी प्रजापति के पास आधा बीघा ज़मीन है। चूंकि पानी की कमी के कारण उसके पास जो छोटी सी जगह है उसमें वह खेती नहीं कर सकते हैं, वह वहां मवेशियों के लिए सिर्फ़ चारा उगाते हैं।

प्रेमजी प्रजापति के पास सिर्फ़ आधा बीघा ज़मीन है, वह रोज़ाना मज़दूरी कर के 2500 रुपये प्रति माह कमा लेते हैं। उनके परिवार में तीन सदस्य हैं। परिवार का ख़र्च उन्हीं की आय पर निर्भर है।

प्रजापति कहते हैं, “मैं जो चारा पैदा करता हूं उसे मैं बेचता भी नहीं हूं, मैं उसे पड़ोस की गायों और भैंसों को खिलाता हूं। यह ज़्यादा नहीं है और इससे मेरी आर्थिक स्थिति पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। मेरे परिवार का गुजारा रोज़ाना की मज़दूरी से हुई आमदनी से चलता है।”

प्रजापति को मेहसाणा में या समृद्ध किसान के खेत में काम करने के लिए प्रतिदिन 250 रुपये मज़दूरी दी जाती है। हालांकि, जब उनसे पूछा गया कि वास्तव में उन्हें कितने दिनों तक काम मिलता है, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, “यह अनिश्चित है। एक महीने में मुझे अधिकतम 10 दिन ही काम मिल पाता है।”

ग्रामीणों के अनुसार, दहिसाना में 50% से अधिक किसानों के पास दो बीघे से कम ज़मीन है। जब खेती की स्थिति बेहतर होती थी तो उनकी आर्थिक स्थिति भी अच्छी होती थी। धीरे-धीरे, चूंकि किसानों को ज़मीन के नीचे से पानी निकालने के लिए 800 फीट तक गहरी खुदाई करनी पड़ती थी, इसलिए उन्हें अपनी कमाई के लिए मवेशी पालन का सहारा लेना पड़ा। इस बदलाव के साथ, उनके निवेश की लागत में वृद्धि हुई। मवेशियों का चारा महंगा हो गया और पानी की कमी के कारण किसानों को अपना काम बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा।

दहिसाना के एक अन्य किसान कृष्णा कहते हैं, “हम या तो मौसमी सब्ज़ियां और मूंगफली जैसी अन्य फ़सलें उगा सकते थे या मवेशियों का चारा उगा सकते थे। चूंकि अन्य फ़सलों की उपज अनिश्चित होती थीं और लागत अधिक होती थीं। इसलिए हमें पशुओं के चारे को उगाने का सहारा लेना पड़ा जहां नुक़सान तुलनात्मक रूप से कम था और इसका इस्तेमाल प्रतिकूल परिस्थितियों में भी किया जा सकता था।” कृष्णा की आर्थिक स्थिति उनके गांव के अन्य किसानों की तुलना में थोड़ी बेहतर है। उनके पास तीन बीघा ज़मीन है और उनके पास कुछ पशु भी है।

दहिसाना के अधिकांश ग्रामीणों के पास 2 बीघे से कम ज़मीन है।

न्यूज़क्लिक ने किसानों की मौजूदा स्थिति को समझने के लिए इन तीन गांवों का दौरा किया। हमने जिन किसानों से भी मुलाक़ात की उनकी स्थिति बद से बदतर थी। हमें ज़्यादा ऐसे किसान मिले जिनके पास कम ज़मीन थी और जो केवल पशु के लिए चारा उगाते थे। देश में इंटरनेट बूम के युग और शहरी अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि के साथ, उत्तर गुजरात के इस क्षेत्र में किसानों की स्थिति और भी ख़राब हो गई है।

52 वर्षीय वालजी चौधरी अपने हालात के बारे में बात करते हुए रो पड़ते हैं। उनकी तीन बीघा ज़मीन का कुछ हिस्सा ही इस्तेमाल में था। वे कहते हैं, “मैं इस नरक को बहुत पहले छोड़ चुका होता अगर यह मेरी पैतृक भूमि नहीं होती. मैं क़र्ज़ में इतना डूबा हुआ हूं कि मैं सब कुछ चुकाने से पहले किसी और जगह जाने का जोखिम नहीं उठा सकता।” वालजी के पास दो भैंस और एक गाय है। उनका चार लोगों का परिवार है। परिवार का ख़र्च इन मवेशियों से होने वाले दूध को बेचकर चलता है।

वालजी अपने पशुओं को पानी पिलाते हुए।

वालजी ने कहा, "सरकारी नीतियां और सब्सिडी हमारी स्थिति को तभी बेहतर बना सकती हैं, जब वे हम पर लागू हों।" केंद्र के पास देशभर के छोटे और सीमांत किसानों के लिए ड्रिप और सिंचाई खेती के लिए 55% की सब्सिडी योजना है। हालांकि, वालजी अपने घर में पीने के लिए इस्तेमाल होने वाले पानी को अपनी छोटे से ज़़मीन के टुकड़े पर उपयोग करने के लिए मजबूर हैं। इसलिए उनके जैसे सैकड़ों लोगों को इस योजना से हटा दिया गया है।

क़रीब पांच साल पहले यहां के किसानों की स्थिति और भी ख़राब हो गई थी। अधिकांश अब या तो पूरी तरह से पशुपालन की तरफ़ रुख़ कर चुके हैं या दिहाड़ी मज़दूरी कर रहे हैं। उनकी ज़मीन पर चारे और मूंगफली के अलावा कोई और फ़सल उगाने की उम्मीद धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है। किसानों ने गांधीनगर में हर उस मंत्री का दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया, जिनके पास वे पहुंच सकते थे। एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्य के सिंचाई मंत्री और अन्य सरकारी प्रतिनिधियों से भी मुलाक़ात की। लेकिन सब बेकार रहा।

तीन साल पहले किसानों ने मुलाक़ात और बातचीत का कोई नतीजा निकलते  नहीं देखा और उनकी आय में लगातार गिरावट होती रही तो ऐसे में उन्होंने चुनावों का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया।

वरेठा गांव के एक व्यक्ति ने कहा, "अगर तथाकथित प्रतिनिधि हमें इस संकट से बाहर निकालने के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं, तो हम उन्हें वोट क्यों देना चाहिए?" साल 2019 में एक दिन तीनों गांवों के लोग पास के 'वाराही माता मंदिर' में इकट्ठा हुए, जो तीनों गांवों के बीच एक मंदिर है। वहां भविष्य में होने वाले चुनावों का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया गया।

दहिसाना में 'वाराही मंदिर' जहां दावोल, दहिसाना और वरेठा के ग्रामीणों ने इकट्ठा होकर फ़ैसला किया जब तक उनकी दुर्दशा पर ध्यान नहीं दिया जाता है तब तक वोट नहीं दिया जाएगा।

उन्होंने कहा, "उस दिन के बाद से हम किसी भी पार्टी के नेताओं की परवाह नहीं करते हैं। वे सभी चोर हैं।" न्यूज़क्लिक ने पाया कि इन तीनों गांवों में अब तक कोई 'सरपंच' नहीं है। ग्रामीणों ने कहा कि जब सरपंच के चुनाव का समय आया तो किसी ने नामांकन नहीं भरा।

सिर्फ़ सरपंच चुनाव में ही नहीं, बल्कि जब तहसील के लिए चुनाव होता था तो तीनों गांवों के किसी भी नेता ने नामांकन दाख़िल नहीं किया। गांव के लोगों ने एक स्वर में कहा, “हम आगामी विधानसभा में भी मतदान नहीं करेंगे। पहले समाधान दो फिर वोट लो। यही हमलोगों का एकमात्र उद्देश्य है।

शहर की तरफ़ रुख़ कर रहे नए किसान

उच्च मुद्रास्फीति दर और उनके गांव में भूमि और खेती की स्थिति की कमी के युग में गांव के लड़के अब सूरत, अहमदाबाद और गांधीनगर जैसे शहरी क्षेत्रों में जाने के लिए मजबूर हैं। जसवंत ने कहा, "साल दर साल हमारे मुद्दों की अनदेखी के चलते यहां शहर की तरफ़ रुख़ करने को मजबूर हैं।"

30 वर्षीय जसवंत के साथी शहर जा चुके हैं लेकिन वे अभी भी गांव में रहते हैं और सरकारी नौकरी की कोशिश में लगे हैं। वे कहते हं, “सरकारी नौकरी मिलते ही मैं गांव छोड़ दूंगा। 20% घरों में, कम से कम एक व्यक्ति अब किसी शहर में चला गया है।” उन्होंने मास्टर्स पूरा कर लिया है और टीचर्स एंट्रेंस टेस्ट की परीक्षा भी पास कर ली है। वह हाल ही में 'विद्या सहायकों' के ख़ाली पदों को भरने के लिए हुए सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलनों का हिस्सा थे। वह अच्छे पढ़े लिखे हैं और 2017 से लंबित रिक्तियों को भरने पर उन्हें नौकरी मिलने का भरोसा है। हालांकि, वह वर्तमान में अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर खेती करते हैं।

दहिसाना के नरेश सूरत में और साहिल अहमदाबाद में काम करते हैं। 18 साल की उम्र होते ही उन्होंने अपना गांव छोड़ दिया। उनका कहना है कि उन्होंने खेती में कोई भविष्य नहीं देखा। वे अपने माता-पिता से अपने दादा-दादी के बारे में जो कहानियां सुना करते थे, वे उनकी आंखों के सामने जो था उससे बिल्कुल अलग तस्वीर पेश करती थीं। मवेशियों का चारा और मूंगफली, जो वर्तमान में उनके गांवों में उगाई जाने वाली एकमात्र फ़सल है, इससे उन्हें अपने परिवार का भरण-पोषण करने में मदद नहीं मिलेगी। नरेश ने कहा, "सरकार से कोई मदद नहीं मिलने के कारण अगर हम लंबे समय तक यहां रहते हैं तो हमारे अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा।"

काफ़ी संख्या में दिहाड़ी मज़दूरों और छोटे किसानों को गांव में उनका अपना घर तक नहीं है। 50 वर्षीय शंकर हाशिए पर मौजूद किसानों की दुर्दशा बताते हैं। अपने लूना मोपेड से आ रहे शंकर ने जब कुछ ग्रामीणों को न्यूज़क्लिक से बात करते देखा तो वे रुक गए।

पांच भाइयों में दो बीघा ज़मीन का बंटवारा होना है। शंकर का हिस्सा एक बीघे से भी कम है। वे कहते हैं, “मेरी सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वहां अपने लिए घर बनाऊं या गाय-भैंस पालूं। मैंने गाय-भैंस पालन का फ़ैसला बहुत बाद में किया। लेकिन इससे मैं जो पैसा कमाता हूं उसका बड़ा हिस्सा हाउस रेंट में चला जाता है। इसलिए, मासिक ख़र्चों को पूरा करने के लिए मैं जूते-चप्पल बेचने के लिए गांव-गांव घूमता हूं।” उन्होंने कहा कि प्रकृति माता हम पर बहुत मेहरबान नहीं रही है। उन्होंने कहा कि ज़्यादा बारिश नहीं होती है। सरकारी सहायता ही एकमात्र समाधान है।

नाराज़ व बेहद मायूस ग्रामीण आगामी विधानसभा चुनाव में भी मतदान नहीं करने को लेकर अड़े हुए हैं। जबकि मेहसाणा ज़िले में अनुसूचित जाति (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का विद्रोह जारी है। उनकी दुर्दशा का हर एक चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी (भाजपा) के घोषणापत्र में ज़िक्र नहीं हुआ है। दूसरी ओर, गांव के युवा अपने गांवों में खेती न के बराबर देख रहे हैं और वे आर्थिक विकास की उम्मीद में भीड़ के साथ मिलकर बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

लेखक दिल्ली में स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। वे विधानसभा चुनावों पर रिपोर्ट करने के लिए अभी गुजरात के दौरे पर हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Gujarat Elections: Farmers of 3 North Gujarat Villages Have Been Boycotting Polls for 3 Years

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