Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

गुजरात चुनाव : एमएसपी न मिलने से कैस्टर उत्पादक परेशान

इस चुनाव में पार्टियों के बजाय स्थानीय उम्मीदवारों की महत्वपूर्ण भूमिका होने की संभावना है। समुदाय के सदस्यों का कहना है कि वे अपने राजनीतिक जुड़ाव के बावजूद बेहतर उम्मीदवारों को वोट देंगे।
gujarat

अहमदाबाद/नई दिल्ली: गुजरात के उत्तरी जिलों में 'बाहरी' कहलाने वालों के मनोरंजन की कई वजहें हैं। यदि कोई अपने "दोस्त" के बारे में बात करता है, तो जरूरी नहीं कि वह हाड़-मांस के किसी व्यक्ति का उल्लेख कर रहा हो; यह अरंडी हो सकता है क्योंकि इसकी नकदी फसल को स्थानीय भाषा में ऐसे ही व्यक्त किया जाता है।

अरंडी का पौधा सूखे और आधे-सूखे इलाकों में उगाया जाता है। दुनिया मीन अरंडी के तेल के  प्रमुख उत्पादक देशों में भारत (16.51 लाख टन), मोजाम्बिक (0.72 लाख टन), चीन (0.17 लाख टन), थाईलैंड (0.12 लाख टन) और म्यांमार (0.12 लाख टन) शामिल हैं। अरंडी के बीज और तेल के वैश्विक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत की है। और भारत में गुजरात में अरंडी के बीज के उत्पादन में 80 प्रतिशत की विशाल हिस्सेदारी है।

कैस्टर ऑयल और इसके उत्पन्न तत्वों का इस्तेमाल कई दवाओं के अलावा, पेंट, डाई, मोटर लुब्रिकेंट और कॉस्मेटिक आइटम जैसे साबुन, फर्श चमकाने के घोल आदि बनाने के लिए किया जाता है। भारत का अधिकांश उत्पादन निर्यात किया जाता है।

उत्तरी गुजरात में भूमि के बड़े हिस्से राजमार्गों और छोटे सड़क मार्गों के किनारों पर अरंडी के बागानों से अटे पड़े हैं। यह इस क्षेत्र की नकदी फसलों में से एक है, जो तिलहन का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक है। क्षेत्र का लगभग हर किसान अरंडी का उत्पादन करता है। और शायद इसीलिए यहां के गांव विकसित हैं, कंक्रीट की सड़कें बहुत अच्छी हैं, सुंदर और बड़े घर हैं।

मगनभाई गोदाडभाई पटेल यहां के उन कई किसानों में से हैं, जो दशकों से खरीफ फसल की बुवाई कर रहे हैं - जो जुलाई-अगस्त के बीच बोई जाती है और जिसे दिसंबर और अप्रैल के बीच काटी जाती है।

इसके बड़ा मुनाफा कमाने वाली फसल होने के बावजूद, और जिसकी दुनिया भर में बड़ी मांग है, 60 वर्षीय किसान ने बताय कि वे पहले बहुत कमाते थे लेकिन उनका व्यवसाय अब आकर्षक नहीं रहा। पारदर्शिता और मजबूत शासन के अभाव में किसानों को वांछित लाभ नहीं मिल पा रहा है।

हालांकि, उस राज्य में यह कोई चुनावी मुद्दा नहीं है, जो राज्य अपनी 182 सदस्यीय विधानसभा को फिर से चुनने जा रहा है और अंतिम चरण का मतदान 5 दिसंबर होगा।  पहले दौर में 89 निर्वाचन क्षेत्रों के लिए मतदान हुआ था। अंतिम चरण में 93 सीटों पर मतदान होगा, जिसमें 833 उम्मीदवार हैं। 

“हमें व्यापारियों और निर्यातकों द्वारा लूटा जा रहा है जो उत्पादन अधिक होने पर कीमतें कम कर देते हैं। इसलिए, किसानों ने भी ऊंची मांग को क़ायम करने और बेहतर आमदनी के लिए फसल कम कर दी है। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बतया कि, मैंने 2020-21 में इसे तीन हेक्टेयर में उगाया था और काफी अच्छी उपज मिली थी। लेकिन कीमतें निचले स्तर पर पहुंच गई थी। इसलिए, मैं इसे पिछले दो वर्षों से सिर्फ एक हेक्टेयर भूमि पर उगा रहा हूं और दिलचस्प रूप से ऊंचा उत्पादन/मुनाफा कमा कर रहा हूं।" यह भी बताया कि उत्पादन पर नियंत्रण रखने के लिए लोग अन्य फसलों जैसे मूंगफली, सोयाबीन आदि की ओर चले गए हैं। 

2016-2017 में, उन्होंने कहा, इस क्षेत्र में उच्च उपज के कारण कीमत 2,800 रुपये प्रति 100 किलोग्राम तक गिर गई थी, जिससे लोगों ने अगले सीजन (2017-18) में बुवाई कम कर दी थी। उन्होंने कहा कि इस बेहतर रणनीति के परिणामस्वरूप उन्हे कीमत 3,500 रुपये प्रति क्विंटल मिली।

उनके और अन्य किसानों के अनुसार, 2018-19, 2019-20 और 2020-21 में, कीमतों में और सुधार हुआ और यह 6,000 रुपये प्रति 100 किलोग्राम तक पहुंच गई थी। इस साल 2 दिसंबर को, उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र के विभिन्न जिलों में इस बीज़ की विभिन्न किस्मों की कीमत 6,668 रुपये से 7,350 रुपये प्रति क्विंटल के बीच थी।

“यह हम (किसान) नहीं बल्कि व्यापारी और निर्यातक हैं जो अच्छा मुनाफा कमाते हैं। जबकि हम अधिकतम 10-20 प्रतिशत या 30 प्रतिशत का लाभ मिलता हैं, उनकी कमाई 80-90 प्रतिशत है क्योंकि उनके पास गोदाम हैं और वे कीमत बढ़ने का इंतजार कर सकते हैं। फसल कटने के तुरंत बाद किसानों को पैसे की जरूरत होती है, ”सुरेशभाई पटेल, जिनके पास पालनपुर में अपनी दो हेक्टेयर भूमि पर अरंडी की फसल है, ने कहा कि सरकार को केवल उपज से माल और सेवा कर वसूलने की चिंता है और कथित तौर पर उन्हें व्यापारियों और निर्यातकों की "दया" पर छोड़ दिया गया है। 

किसानों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में लागत में लगभग 50-60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो मुख्य रूप से उर्वरकों, कीटनाशकों और पानी के कारण हुई है। उन्होंने कहा कि आमतौर पर खेती की लागत लगभग 45,000 रुपये प्रति एकड़ होती है। लगभग 8-14 क्विंटल प्रति बीघा (0.61 एकड़ या 0.16 हेक्टेयर) की वर्तमान उपज के अनुसार, वे लगभग 3,400 रुपये प्रति क्विंटल की औसत कीमत पर 27,200 रुपये और 47,000 रुपये प्रति बीघा के बीच कमा पाते हैं।

पालनपुर के एक किसान नेता भीखाभाई पटेल ने बताया कि अरंडी का मूल्य निर्धारण और व्यापार कैसे किया जाता है, उन्होंने कहा कि अरंडी उत्पादक कृषि उत्पाद बाजार समितियों (एपीएमसी) के बाजारों में अपनी उपज बेचते हैं, लेकिन कीमतों की पेशकश वहां के व्यापारी गुणवत्ता के आधार पर करते हैं। 

“एमएसपी के अभाव में, व्यापारियों का एकाधिकार बना हुआ है। वे अपने हितों को ध्यान में रखते हुए कीमतों की पेशकश करते हैं। उन्हें उत्पादन की बढ़ती लागत और हमारे रिटर्न की कोई परवाह नहीं है। जब उत्पादन अधिक होता है तो हम सौदेबाजी नहीं कर पाते हैं; लेकिन जब उपज कम होती है, तो हम कीमतें तय करते हैं," उन्होंने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए  मांग दोहराई कि सरकार को हर साल कीमत तय करनी चाहिए ताकि किसानों का "शोषण" रोका जा सके। 

उन्होंने आगे कहा कि भारत संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन को अरंडी का तेल निर्यात करता है जहां इसे प्रोसेस किया जाता है और कई उत्पादों बनाए जाते हैं। इसके बाद उत्पादों को घरेलू बाजार में बेचने के लिए भारत वापस आयात किया जाता है।

“अगर देश में ऐसे उद्योग होते, कि उत्पादन स्थानीय बाजार में खप जाता। यह किसानों और देश की अर्थव्यवस्था दोनों के हित में होता।” 

खाद्य तेलों की बड़ी कीमतों से अरंडी तेल की कीमतों में मजबूती रहने की उम्मीद है। पिछले साल अप्रैल से मार्च के बीच अरंडी तेल का निर्यात 6.86 लाख टन था, जो चालू वर्ष में  घटकर 6.65 लाख टन रह गया है।

सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (SEAI) के अनुसार, देश में 2022-23 सीज़न के लिए अरंडी की बुवाई 0.74 मिलियन हेक्टेयर से 1,00,000 हेक्टेयर से अधिक बढ़कर 0.88 मिलियन हेक्टेयर से अधिक हो गई है। 

एसईएआई के अध्यक्ष अतुल चतुर्वेदी ने कहा, "किसानों ने दो प्रमुख अरंडी उत्पादक राज्यों-गुजरात और राजस्थान में मूंगफली के बजाय अरंडी की फसल को चुना है, क्योंकि अरंडी के बीज की कीमतें अधिक हैं।" 

उन्होंने कहा कि अरंडी के बीज की कीमतें घरेलू बाजार में 1,500 रुपये प्रति 20 किलोग्राम (या 7,500 रुपये प्रति क्विंटल) से अधिक हो गई हैं, जो सितंबर 2021 में लगभग 1,200 रुपये प्रति 20 किलोग्राम (6,000 रुपये प्रति 100 किलोग्राम) थी।

उनके अनुसार, इस साल की शुरुआत में इस वृद्धि के पीछे का कारण रूस-यूक्रेन युद्ध था, जिसके कारण गैर-खाद्य अरंडी के तेल सहित सभी खाद्य तेलों की कीमतों में बढ़ोतरी हुई थी। उन्होंने कहा, "हालांकि अन्य सभी खाद्य तेलों की कीमतों में गिरावट आई है, फिर भी 2021-22 सीजन में कम आपूर्ति के कारण अरंडी तेल की कीमतें स्थिर बनी हुई हैं।"

2021-22 के दौरान तिलहन का रकबा 6.960 लाख हेक्टेयर (17.199 लाख एकड़) था, जबकि देश भर में 2020-21 के दौरान 7.336 लाख हेक्टेयर (18.128 लाख एकड़) था। राज्यों में गुजरात 5.389 लाख हेक्टेयर (13.316 लाख एकड़) अरंडी के उत्पादन में आगे है, इसके बाद राजस्थान 1.200 लाख हेक्टेयर (2.965 लाख एकड़), आंध्र प्रदेश 0.177 लाख हेक्टेयर (0.437 लाख एकड़) और तेलंगाना में 0.022 लाख हेक्टेयर (0.54 लाख एकड़) है। 

यह कोई चुनावी मुद्दा नहीं

लेकिन इसके बावजूद, यह उत्तर गुजरात में चुनावी मुद्दा नहीं है, जहां 5 दिसंबर को राज्य विधानसभा चुनाव के दूसरे और अंतिम चरण में मतदान होगा, क्योंकि यहां वोट "विशुद्ध रूप से जाति के आधार पर" डाले जाते हैं।

संदीपभाई गिरीशभाई पटेल ने कहा कि, “इस क्षेत्र में चुनाव सभी जाति आधार पर होते हैं। बाकी मुद्दे पीछे चले जाते हैं।” 

पाटीदार (कडवा और लेउवा पटेल), ठाकोर और ओबीसी चौधरी उत्तर गुजरात में संख्या के हिसाब से महत्वपूर्ण हैं, जो आबादी छह जिलों गांधीनगर, अरावली, साबरकांठा, मेहसाणा, पाटन और बनासकांठा में 32 सीटों पर फैली हुई हैं।

पिछले दो चुनावों में कांग्रेस ने इस क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया है। जबकि दोनों चुनावों में इसे 17 सीटें मिलीं, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने क्रमशः 2012 और 2017 के चुनावों में 15 और 14 सीटों पर जीत हासिल की थी।

क्षेत्र के अपने कुल विधायकों में से विपक्षी दल ने उनमें से 11 को एक बार फिर मैदान में उतारा है। दूसरी ओर, सत्ता पक्ष ने अपने 14 मौजूदा विधायकों में से केवल छह को नामांकित किया है।

भगवा पार्टी को विद्रोह और भारी सत्ता-विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। भ्रष्टाचार के आरोप में पूर्व गृहमंत्री और दुर्गासागर डेयरी (सहकारी डेयरी) के अध्यक्ष विपुल चौधरी की गिरफ्तारी के बाद प्रभावी ओबीसी चौधरी समुदाय के बीच गुस्से की लहर दिखाई दे रही है।

यहां पार्टियों के बजाय स्थानीय उम्मीदवारों की महत्वपूर्ण भूमिका होने की संभावना है। समुदाय के सदस्य अपने राजनीतिक जुड़ाव के बावजूद बेहतर उम्मीदवारों के लिए मतदान करेंगे।

स्थानीय जाति समीकरण को ध्यान में रखते हुए, भाजपा और कांग्रेस दोनों ने पाटीदार और कोली समुदायों के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। बनासकांठा और डीसा विधानसभा क्षेत्रों में विद्रोह भी इस क्षेत्र में भाजपा की संभावनाओं को प्रभावित कर सकता है।

राजनीतिक पर्यवेक्षक अच्युत याग्निक ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, "जाति कारक अभी भी गुजरात की राजनीति के मूल में है और उसी के अनुसार टिकट भी वितरित किए जाते हैं।" चुनाव थोड़ा मुश्किल है क्योंकि मतदाता ज्यादातर चुप हैं। 

उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने उन जातियों को लुभाने की पूरी कोशिश की है, जो भाजपा से 'नाराज' हैं और इस क्षेत्र में अपना वोट शेयर बढ़ा सकती हैं।

एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक हरि देसाई को लगता है कि इस क्षेत्र में चल रहे चुनावों में भी कांग्रेस का "ऊपरी हाथ" है। उन्होंने कहा कि, "भाजपा के लिए पाटीदारों के अपने वफादार वोट बैंक को भी बनाए रखना एक चुनौती है।"

चुनावों पर नजर रखने वालों का मानना है कि नई आम आदमी पार्टी (आप) से इस क्षेत्र में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली पार्टी का दक्षिण गुजरात के सूरत और सौराष्ट्र क्षेत्र की कुछ सीटों पर ही प्रभाव है। लिहाजा इस क्षेत्र में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर नजर आ रही है.

उन्होंने कहा कि पटेल समुदाय ने परंपरागत रूप से भाजपा को वोट दिया है। इसने पार्टी को तब भी नहीं छोड़ा जब पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल, एक मजबूत नेता, ने पार्टी के खिलाफ विद्रोह किया था और अपनी स्वयं की पार्टी - गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाई थी। 

भाजपा का यह विश्वासपात्र मतदाता समूह इस चुनाव में पूरी तरह से बरकरार नहीं दिख रहा है क्योंकि इसके युवा आसमान छूती कीमतों और बढ़ती बेरोजगारी को नियंत्रित करने में सरकार की कथित निष्क्रियता के खिलाफ मुखर हैं। हालाँकि, बुजुर्ग पटेल, जो अभी भी कांग्रेस के क्षत्रिय हरिजन आदिवासी मुस्लिम (KHAM) संयोजन को याद करते हैं, जिसने पाटीदारों को व्यवस्था से बाहर रखा, वे काफी हद तक भाजपा से जुड़े हुए हैं।

हार्दिक पटेल की रैलियों में भीड़ से पता चलता है कि यह ज्यादातर युवा हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पुराने पटेल, जिनके पास अभी भी कांग्रेस के क्षत्रिय हरिजन आदिवासी मुस्लिम (KHAM) संयोजन की यादें हैं, जिसने पाटीदारों को सत्ता से बाहर रखा, भाजपा से चिपके रह सकते हैं, युवा कांग्रेस को चुन सकते हैं।

जिस तरह से बीजेपी ने कांग्रेस छोड़ कर आए अल्पेश ठकोर को साथ लिया है, उससे मतदाता भी नाखुश हैं - जिन्हें सत्तारूढ़ पार्टी ने गांधीनगर दक्षिण सीट से मैदान में उतारा है। भाजपा उम्मीदवार के रूप में, वह 2019 में पाटन जिले के राधनपुर से उपचुनाव हार गए थे। उन्होंने 2017 में कांग्रेस के टिकट पर सीट जीती थी। ठकोर समुदाय को कांग्रेस का वफादार माना जाता है। 

इस क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अनुसूचित जाति (एससी) के लिए तीन-तीन सीटें आरक्षित हैं। जबकि एससी-आरक्षित तीन सीटों में से दो भाजपा के पास हैं, कांग्रेस के पास सभी तीन एसटी सीटें हैं। तीसरी एससी-आरक्षित सीट (वडगाम) का प्रतिनिधित्व जिग्नेश मेवाणी कर रहे हैं, जिन्होंने पिछले चुनाव में कांग्रेस के समर्थन से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में इसे जीता था। इस चुनाव में, वे अब पुरानी पार्टी कांग्रेस के उम्मीदवार हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Gujarat Elections: Castor Growers Face ‘Loot’ in Absence of MSP; But Caste, Not Fair Pricing, a Poll Issue

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest