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क्या आज भारत में 'कथित राष्ट्रवादी इतिहास लेखन' फ़ासीवाद का औज़ार बन गया है?

आज का संघी राजनीति से प्रेरित कथित राष्ट्रवादी लेखन पहले के इतिहास लेखन से इसलिए भी ज़्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि यह भारतीय प्राचीन इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर भारत को फ़ासीवादी राष्ट्र में बदलने का एक उपकरण हो गया है।
 Indus Valley Civilisation

पिछले एक वर्ष से सोशल मीडिया पर सिन्धु घाटी सभ्यता की एक तथाकथित सील (मिट्टी की मोहर) ; जिस पर एक गाय का चित्र बना हुआ है तथा स्वस्तिक का निशान है, उसके साथ एक पोस्ट घूम रही है, जिसे सैकड़ों लोग शेयर भी कर रहे हैं। जिस पोस्ट में लिखे शब्दों का सारांश यह है कि सिन्धु घाटी सभ्यता मूलतः हिन्दू सभ्यता है तथा उसकी लिपि ; जिसे अब तक न पढ़ने का दावा किया जा रहा है,वह मूलतः ब्राह्मी लिपि का ही एक प्रकार है। 'वामी इतिहासकार' जानबूझकर इस तथ्य छिपा रहे हैं, कि यह हिन्दू धर्म की महान विरासत है। पोस्ट के अंत में 'जय श्रीराम, जय सनातन धर्म' लिखा हुआ है। कोई इन तथाकथित इतिहासकारों से पूछे, कि भारत सहित दुनिया के प्राचीन जिन इतिहासकारों ने इस प्राचीन सभ्यता का अध्ययन और विश्लेषण किया, क्या सारे ही इतिहासकार हिन्दुओं के ख़िलाफ़ किसी षड्यंत्र में लगे हुए हैं?

वास्तव में जो गाय और स्वस्तिक के निशान वाली सील ; जो फोटो में दिखाई जा रही है, वह किसी हड़प्पा उत्खनन स्थल से नहीं मिली है, यह पूर्णतः फोटोशाॅप का कमाल है। सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज सबसे पहले सन् 1921-22 में भारत के सिन्ध प्रान्त (वर्तमान में) पाकिस्तान में की गई थी। सिन्धु घाटी सभ्यता 3,300 ईसा पूर्व से 1700 ईसा पूर्व तक विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी। प्रतिष्ठित शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है। बाद में इस सभ्यता का विस्तार अफ़ग़ानिस्तान से लेकर गुजरात होते हुए उत्तर प्रदेश में मेरठ से लेकर हरियाणा और राजस्थान तक मिला। गुजरात में लोथल,धौलावीरा से लेकर हरियाणा के राखीगढ़ी और राजस्थान के कालीबंगा जैसे जगहों से इस सभ्यता के बड़े नगर होने के सबूत मिले हैं। अभी भी कई इलाकों में उत्खनन हो रहे हैं। हड़प्पा सभ्यता एक विकसित नगर सभ्यता थी। यहाँ के नगरों की संरचना काफी हद तक आज की विकसित नगरीय संरचना जैसी दिखाई देती थी, विदेशों से भी इसके व्यापार करने के प्रमाण मिलते हैं, परन्तु हड़प्पा में मिली मिट्टी की सीलों पर लिखी भाषा को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है, इसलिए इस सभ्यता के आम जनजीवन और धर्म आदि के बारे में अभी बहुत सी जानकारी नहीं मिल पाई है। दुनिया में जितनी प्राचीन सभ्यताएँ मिलीं, चाहे वह सिन्धु घाटी की सभ्यता हो, मेसोपोटामिया की हो, मिस्र या यूनान की सभ्यता हो, इनमें एक प्राचीन क़बीलाई धर्म के बारे में पता लगता है, जिसका हिन्दू धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है।

सिन्धु घाटी सभ्यता को एक हिन्दू सभ्यता सिद्ध करने के इन तथाकथित 'संघी राष्ट्रवादी इतिहासकारों' के कुछ दूरगामी लक्ष्य दिखलाई पड़ते हैं। पहला तो यह है कि यह सिद्ध करना कि हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म है तथा हिन्दुओं की दुनिया में सबसे विकसित सभ्यता थी, इसी के अंतर्गत गुप्तकाल को भी भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग की तरह पेश किया जाता है, जिसमें बौद्धधर्म का क्रूरता से विनाश किया गया, लाखों बौद्धों की हत्या की गई, उनके विहारों और मठों को नष्ट कर दिया गया तथा सबसे भयानक थी हिन्दुओं की जातिप्रथा ; जिसमें बहुसंख्यक शूद्र जातियों के भयानक शोषण पर मुट्ठी भर उच्चजातियों के अभिजात्य कथित गौरवशाली साहित्य,कला और संस्कृति को रच रहे थे।

अगर हम इसकी तुलना यूनान और ग्रीक के अभिजात्यों से करें, तो इसमें एक महत्वपूर्ण अंतर दिखाई देता है। यह सही है कि यूनान में दर्शन,राजनीति,विज्ञान,साहित्य,गणित और विभिन्न कलाओं का विकास, ग़ुलामों का व्यापार तथा उनके द्वारा किए गए श्रम से जो अतिरिक्त मूल्य पैदा हुआ था, उसी के बल पर यह विकास हो रहा था, परन्तु यूनान और रोम का ग़ुलाम ग़ुलामी से मुक्त होकर स्वतंत्र नागरिक जीवन जी सकता था और अभिजात्य भी बन सकता था, लेकिन भारत का शूद्र भले ही रोम और यूनान के ग़ुलामों की तरह ग़ुलाम न रहे हों, परन्तु भारत के शूद्र अपनी जातिगत ग़ुलामी से मृत्यु के साथ ही मुक्त हो सकते थे। हमारे कथित राष्ट्रवादी इतिहासकार इन अंतर्विरोधों को छिपाने की हर संभव कोशिश करते हैं।

दूसरा सिन्धु घाटी सभ्यता का महत्वपूर्ण पहलू इस सभ्यता के विनाश के बारे में है। इसके बारे में इतिहासकारों की अनेक राय है, जिसमें जलवायु परिवर्तन और नदियों का सूख जाना भी माना जाता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है बाहरी आक्रमण ; जिसके बारे में कहा जाता है कि मध्य एशिया से लेकर यूरोप तक फैली एक जाति थी, जो मूलतः एक चरवाहा और लड़ाकू जाति (आर्य) थी, जिन्होंने अपनी घुड़सवार सेना के बल पर इस सभ्यता पर हमला किया और नष्ट कर दिया और यहाँ पर बस गए। यहाँ की कुछ मूल जातियों से इनका मिश्रण हुआ, जिससे यहाँ पर संस्कृतीकरण की प्रक्रिया हुई और कुछ दक्षिण भारत में जाकर बस गईं, जिन्हें आज द्रविड़ जाति कहते हैं। आर्यों के बारे में कहा जाता है, कि उनकी दो शाखाएँ थीं, जिसमें से एक ईरान की ओर गई, जो कालान्तर में पारसी कहलाए, जिनका पवित्र ग्रंथ अवेस्ता था तथा दूसरी शाखा जो भारत आई जिनका पवित्र ग्रंथ ऋग्वेद था। दोनों प्राकृतिक शक्तियों जैसे सूर्य, चंद्र, नदी,पहाड़ आदि का पूजन करते थे। ऋग्वेद में जो देवासुर संग्राम की बात है, उसमें इंद्र द्वारा असुरों के बड़े-बड़े पुर या क़िले तोड़ने की बात की गई है, वह मूलतः आर्यों द्वारा सिन्धु घाटी सभ्यता को नष्ट करने का वर्णन ही लगता है। सिन्धु घाटी की सभ्यता की सील आदि पर घोड़े के चित्र कहीं नहीं मिले हैं, जबकि ऋग्वेद में अश्व की बहुत चर्चा है, इससे इस तथ्य को बल मिलता है कि आर्यों की घुड़सवार सेना ने इस सभ्यता का विनाश कर दिया।

वास्तव में शुरू से ही संघ परिवार आर्यों के आगमन सिद्धांत को ग़लत मानता था, हालाँकि उनके न‌ मानने के पीछे कोई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक या पुरातात्विक प्रमाण नहीं है, बल्कि आज इसके पीछे कुछ विशुद्ध राजनीतिक कारण हैं। संघ परिवार इससे यह सिद्ध करना चाहता है कि भारत में रहने वाले ; विशेष रूप से उत्तर भारतीय ही इस देश के मूल निवासी तथा शुद्ध आर्यरक्त वाले हैं। बाहर से केवल मुग़ल-तुर्क आए हैं, इसलिए वे विदेशी हैं। इस अवधारणा के अनुसार हिन्दू इस देश के मूल निवासी हैं और मुस्लिम विदेशी आक्रमणकारियों की संतानें हैं। उनकी यह अवधारणा जर्मन फासीवादियों की उस अवधारणा से मिलती-जुलती है, जिसमें हिटलर जर्मन नस्ल को शुद्ध आर्यरक्त वाला मानता था तथा यहूदियों को विदेशी। इसी अवधारणा के अंतर्गत लाखों यहूदियों को द्वितीय महायुद्ध के दौरान गैस चैंबरों में बंद करके उनकी हत्या करवाई गई थी। संघ के पहले संघचालक गुरु गोलवलकर हिटलर के ज़बरदस्त प्रशंसक थे। उनकी 1936 में प्रकाशित पुस्तक 'वी ऑर अवर नेशनहुड डिवाइन' में जर्मनी के तानाशाह हिटलर द्वारा प्रतिपादित नाज़ी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को महिमामंडित किया गया है।

इधर दो दशकों में विज्ञान ; विशेषकर जीवविज्ञान में अत्यधिक विकास के बाद अब यह जानना संभव हो गया है, किसी व्यक्ति का डीएनए किसी अन्य देश के व्यक्ति-जाति-समुदाय के डीएनए से मिलता-जुलता है या नहीं। इस संबंध में उत्तर भारत के ढेरों लोगों के डीएनए पश्चिमी एशिया से लेकर यूरोप तक के लोगों के डीएनए से मिलते-जुलते हैं। इससे तथ्यत: वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि इन सभी लोगों के पूर्वज कभी न कभी बाहर से आकर यहाँ बसे थे। हम सभी का मिश्रित रक्त है तथा कोई भी शुद्ध रक्त वाला नहीं है। हरियाणा के एक प्रमुख हड़प्पा स्थल राखीगढ़ी में उत्खनन से प्राप्त एक महिला के कंकाल की हड्डी के डीएनए के जाँच से पता लगा कि उसका डीएनए उन उत्तर भारतीय लोगों के डीएनए से मिलता-जुलता है, जो‌ मूलत: मध्य एशिया से आए थे। इस संबंध में 'टोनी जोसेफ' की महत्वपूर्ण पुस्तक 'प्रारंभिक भारतीय' की भूमिका में प्रख्यात इतिहासकार 'रोमिला थापर' लिखती हैं, "हिन्दुस्तानियों के हज़ारों साल पहले के डीएनए अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे एक मिश्रित आबादी थे और एक ख़ास समय में उनका मिश्रण मध्य एशिया से आए लोगों के साथ भी हुआ था, चूँकि यह प्रारंभिक अध्ययन है, इसलिए इन डीएनए पहचानों को दूसरे स्रोतों से हासिल पहचानों का बताते समय इनका पठन इतिहास की माँग करता है।"

वास्तव में उपनिवेशवाद के दौर में अनेक राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भारतीय संस्कृति और सामाजिक ढाँचे की बढ़ा-चढ़ाकर बड़ाई की, इस धुन में उन्होंने जातिगत शोषण, निम्न जातियों के सामाजिक और आर्थिक शोषण एवं पुरुषवादी वर्चस्व को नज़रंदाज़ कर दिया। उन्होंने विश्व सभ्यता के विकास में भारत के योगदान को तो बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया, परन्तु भारत के विकास में अन्य संस्कृतियों के योगदान को दरकिनार कर दिया। इन राष्ट्रवादी इतिहासकारों के प्राचीन भारत के प्रति दृष्टिकोण से कुछ अत्यंत नकारात्मक परिणाम सामने आए, इसमें भारतवासियों की समस्त उपलब्धि के सूत्र प्राचीन सभ्यता से जोड़े गए, हिन्दू संस्कृति और सामाजिक ढाँचे पर बल दिया गया तथा ब्राह्मणवादी संस्कृति को प्राथमिकता दी गई। अतीत का गौरवगान हिन्दू साम्प्रदायिकता से जुड़ा तथा बाद में इसने हिन्दू-मुसलमानों के बीच विभाजन के बीज बोए।

ताराचंद, आरसी दत्त, यदुनाथ सरकार और रमेशचंद्र मजूमदार जैसे इतिहासकारों का लेखन भले ही साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ प्रगतिशील माना गया हो, लेकिन बाद के दौर में इस लेखन ने आधुनिक फासीवाद को ही बल प्रदान किया। आज का संघी राजनीति से प्रेरित कथित राष्ट्रवादी लेखन पहले के इतिहास लेखन से इसलिए भी ज़्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि यह भारतीय प्राचीन इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर भारत को फासीवादी राष्ट्र में बदलने का एक उपकरण हो गया है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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