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हिजाब बनाम परचम: मजाज़ साहब के नाम खुली चिट्ठी

यहां मसला ये है कि आंचल, घूंघट, हिजाब, नक़ाब हो या बिकनी, हमेशा से पगड़ी के फ़ैसले इन सब पर भारी रहे हैं। इसलिए अब हमें आपके नज़रिए में ज़रा सा बदलाव चाहिए। जी! इस बार हमें आंचल भी चाहिए और आज़ादी भी। आप समझ रहे हैं न!
Majaz Lakhnawi,

मजाज़ साहब (असरार-उल-हक़ मजाज़) को मिले

मजाज़ साहब! आप मेरे महबूब शायर हैं और रहेंगे। आपके कलाम से गुस्ताखी का इरादा भी नहीं, मगर वक़्त कुछ ऐसा आन पड़ा है कि आपके ख्याल से मेरे मेरा नजरिया कुछ बाग़ी सा होता जा रहा है। अपनी शिकायतें आपके पास दर्ज कराने की दो वजहें हैं मेरे पास। एक तो जिस बरस आप पैदा हुए थे उसी साल इंटरनेशनल विमेंस डे दुनिया में अपने पैर पसार रहा था और दूसरी ये कि इस मौके पर कितने ही लोग आपके इस कलाम से अपनी बात शुरू या खत्म करते हैं...

तेरे माथे पर ये आंचल बहुत ख़ूब है लेकिन,

तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

मगर यहां मसला ये है कि आंचल, घूंघट, हिजाब, नक़ाब हो या बिकनी, हमेशा से पगड़ी के फ़ैसले इन सब पर भारी रहे हैं। इसलिए अब हमें आपके नज़रिए में ज़रा सा बदलाव चाहिए। जी! इस बार हमें आंचल भी चाहिए और आज़ादी भी। आप समझ रहे हैं न!

पता नहीं कब और कैसे हर तरक्की पसंद ने ये मान लिया कि इस आंचल ने आजादी को छुपा रखा है। नहीं! ऐसा नहीं। ऐसा सोचने वालों की निगाह इस आंचल के पार जा ही नहीं पाती बल्कि उससे टकराकर लौट आती है। ये समझ कर कि ये आंचल  नहीं ढाल है जिसके उस पार सिर्फ गुलामी है। और यहीं पर ये निगाहें महरूम रह जाती हैं उस पार की दुनिया से जहां कसे जबड़े, तनी हुई नसें और खयालात के उफान में बेशुमार बगावतों के ज्वार भाटे हैं। इन आंचल, घूंघट, हिजाब या नक़ाब की आड़ में भी ऐसे तमतमाए चेहरे है जिन्होंने आप और आप जैसी कई तरक्की पसंद हस्तियों को फरेब दे दिया। जिन्हें तरक्की पसंद दुनिया दकियानूसी समझकर नफरत की नजर से देखती है, उस बिरादरी को अपने वजूद की जंग लड़ते और कितनी ही बेड़ियों चकनाचूर करते देखा है हमने। मेरी नज़र में मसला लहराता हुआ आंचल नहीं, जकड़ी हुई पगड़ी है।

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इसी हिजाब और घूंघट वालियों को अपने हक़ की उस लड़ाई के लिए लड़ते देखा है, जिसने एक से एक ऐंठी पगड़ियों के बल निकाल दिए हैं। मेरी गुज़ारिश है कि आप भी एक बार मेरे नज़रिए से इनकी हिम्मत देखिए। जिस दौर में आप 'नौजवान खातून से' मुख़ातिब हुए थे, और उस वक़्त इंक़लाब के जो मक़सद थे, आज उनमे उतने बदलाव तो नहीं हुए मगर भटकाव बहुत आ चुके हैं।

मजाज़ साहब! हमें इस आंचल का क्या करना है ये फ़ैसला हम खुद ही करें तो बेहतर है। अब हमें हमारे सर पर आंचल भी चाहिए और आज़ादी भी। आज़ादी के नाम पर आंचल की कीमत अदा करना हमें मंज़ूर नहीं।

आपने कुछ बेहतर सोचा होगा, शायद हमारी सहूलियतों की खातिर। आपकी सोच सर आंखों पर। मगर जब से आपका दौर बीता है, यहां तो सारी बिसात ही बदल चुकी है। बाज़ार नाम का एक ऐसा ज़ुल्म का शिकंजा सामने है जो आज़ादी के नाम पर हमारे पहनावे को तार तार कर रहा है। सीमेंट की बोरी से लेकर मर्दानी शेविंग किट तक की बिकवाली इस नौजवान खातून के जिस्म की मोहताज हो चुकी है। अलबत्ता इसी बाज़ार ने ऐसे लुभावने सामान परोसे हैं कि एक से एक मॉडर्न औरत की आंखों पर पर्दा डाल दिया है। कहीं टेलीविजन में ड्रामों के नाम पर जंजाल जैसे रस्मो रिवाज हैं, तो कहीं झिलमिल करते ग्लैमरस नकाब और हिजाब। जिन्हें पहनने के बाद उसका मकसद ही बेमकसद हो जाता है। इसकी चकाचौंध हर आँख को इसकी तरफ उठने को मजबूर कर देती है।

आपने यह भी कहा कि

तेरी नीची नज़र ख़ुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है,

तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था।

अगर बात की जाए नीची नज़र की तो यक़ीन कीजिए कि इधर आपने नज़र नीची की और उधर सामने वाले ने अपनी निगाहों से आपको गटकने में कोई कसर नहीं छोड़ी। शायद तभी आपने

इस नश्तर की तेज़ी आज़माने पर ज़ोर दिया।

सच, अगर आंख में आंख डाल कर बात न करें तो कुछ लोग निगाहों से हमलावर होते हैं। हमने पिछले दिनों ही ये जाना कि आप सामने वाले से आंख मिला कर बात करते हैं तो उसकी निगाह का चोर झिझकते हुए आंख चुराने लगता है।

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शायद आप होते तो आज कहते कि सर पर आंचल या घूंघट रखो चाहे न रखो, मगर ख़यालत के परचम को ऊपर और बहुत ऊपर ले जाओ। जानते है मजाज़ साहब! ये आंचल वांचल तो बस बस यूं ही है। इनका जज़्बे या हालात से कोई ताल्लुक़ नहीं होता। आप होते तो किसी रोज़ फैमिली कोर्ट ले चलते आपको। फिर आप भी देख लेते कि कितनी घूंघट वाली या नकाबपोश खातून हर दिन यहां अपने हक़ की लड़ाई लड़ने आती हैं और अगली तारीख लिए पूरी उम्मीद के साथ यहां से वापसी करती है। उनके पसीने से तर ये आंचल में हमें हमेशा एक कमांडो नज़र आता है। और ये मेरा यक़ीन है कि इस कमांडो का दीदार आपको ऐसा कुछ लिखने पर मजबूर कर देता जहां आंचल को परचम में बदलने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती। 

मजाज़ साहब! मेरी याददाश्त में बॉम्बे सेन्ट्रल की एक याद हमेशा के लिए महफूज़ है। बॉम्बे सेन्ट्रल मुंबई का वह इलाक़ा है जहां तीन पहिये वाला ऑटो नहीं चलता। यहां की आम घरों की औरतें बाहर निकलती है और जब उन्हें टैक्सी करनी होती है तो दबी सिमटी सी वो पिछली सीट में पनाह नहीं लेतीं। बिलकुल कमांडो के अंदाज़ में आती हैं, टैक्सी रोकती है और अगर पिछली सीट पर सवारी ज़्यादा और गुंजाईश कम होती है तो बड़ी ही शान से अगला दरवाज़ा खोलकर ड्राइवर के बराबर वाली सीट पर सवार हो जाती हैं। इनमे से कई सारी अपने आंचल के साथ होती हैं। आपके रुदौली और हमारे लखनऊ में ऐसा नज़ारा अभी तक देखा तो नहीं हां, इन्तिज़ार ज़रूर है।

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आप तो खुद भी लखनऊ में रहे हैं। बेगमों वाले इस शहर ने भी तरक्की की है, मगर पता नहीं किस नामुराद ने इस तरक्की को तंग और कम लाबादे से जोड़ दिया। अब सारी दुनिया में घूंघट और नकाब वालियों को गिरी हुई निगाह से देखा जाता है। ऐसा लगता है ज़्यादा कपड़े पहनने वाली कम कपड़े पहनने वालियों की कर्ज़दार हैं। उन्हें लाइनों में धक्का देकर पीछे करते हैं। दुकानदार भी अपनी खुन्नस इन्हीं पर निकाल लिया करते हैं। कुछ तो इतने काबिल है कि उनकी नज़र में घूंघट या नकाबवालियां चोर या बच्चा उठाने वाली बन चुकी हैं।

एक और बात भी बता दें आपको मजाज़ साहब! अगर आप होते तो अकबर इलाहाबादी (पता नहीं यहां पर प्रयागरजी लिखना होगा या नहीं) से एक सवाल ज़रूर पूछते। अकबर साहब ने बीबियों के जिस परदे को मर्द की अक्ल पर पड़ा बताया था अब वह उनके किरदार की पर्दापोशी कर रहा है। आप कहते थे न- 'ज़माने से आगे तो बढ़िए मजाज़,'

तो वाक़ई ज़माना बढ़ा भी और खूब तरक्की भी की। इस तरक्की का एक हिस्सा है सोशल मीडिया का इनबॉक्स। जहां एक से एक सफ़ेदपोश मर्द किसी भी खातून के इनबॉक्स में जाकर अपनी हकीकत बता आते हैं। इज़हार ए ख़याल ऐसे होते हैं कि हव्वा की बेटी उसका ज़िक्र भी नहीं करती और इनबॉक्स का पर्दा इनकी शराफत पर आंच नहीं आने देता।

आपको दस बरस पुराना एक किस्सा भी बताते चलें। फेसबुक पर एक बचपन की शर्मीली दोस्त को ज़माने बाद देखा। हमने भी बजाए फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने के उसे इनबॉक्स किया, मगर जवाब नहीं मिला तो चुपचाप किनारे हो लिए। फिर कुछ दिनों बाद जब एक महफ़िल में उससे मुलाक़ात हुई तो नाराज़गी के साथ पूछ ही लिया कि फेसबुक पर रहती हो और जवाब भी नहीं देतीं? पता है उसने क्या जवाब दिया? नहीं दोस्त! हम तो घर पर रहते हैं। तफसील जानने पर पता चला कि उनके शौहर ने अपनी बीवी की फेसबुक आईडी बना रखी है ताकि जान सकें कि उसका कहीं कोई अफेयर तो नहीं हुआ था पिछली ज़िन्दगी में और इस वक़्त उसके किरदार में कोई कमी न आने पाए इसपर भी नज़र रखने के लिए अच्छा खासा वक़्त खर्च करते हैं उसके साहब।   

बात निकली है तो अब एक और मामला भी जान ही लीजिये। आप तो ज़ुल्फ़ों के पेच ओ ख़म से ही उलझ जाते थे इस लिए इल्यूजन मेकअप का नाम ज़रा हैरान करेगा आपको। मेरी नज़र में इस मेकअप से बेहतर है वह माथे का आंचल जो किसी खातून को एक कमांडो वाला कॉन्फिडेंस दे जाए। कितनी ही औरतों को इस आंचल की आड़ में अपनी ही धुन में देखा है। वैसे इल्यूज़न मेकअप के नाम से ही आपने अंदाज़ा लगा लिया होगा कि ये क्या बला है। चेहरे पर इतनी परतें चढ़ा दी जाती हैं की रोना तो दूर मुस्कुराने की भी इजाज़त नहीं होती। नहीं तो मेकअप क्रैक हो जायेगा और हज़ारों लाखों रुपया बर्बाद हो जायेगा।

मेरी इन बातों से आप ये मतलब न निकाल लीजियेगा कि घूंघट, नक़ाब या हिजाब को लेकर इस दुनिया में मज़हब का बहुत बोलबाला है। यहां भी वही साज़िशें। यहां भी मज़हब के नाम पर इस नकेल का सिरा पगड़ियों के पास है। मायके में बेटी को ढक लपेट कर पालते हैं और शर्त ये होती है कि ससुराल वाले जैसा रखें वैसा रह लेना। कोई ब्याही बेटी अगर वेस्टर्न पहनावे में दिख जाए तो उसे आज़ाद मत समझ लीजियेगा। हकीकत में ये उस नकेल की ढील है जिसका दूसरा सिरा पगड़ी की पकड़ में है। पिछले दिनों एक नकाबपोश शेरनी वाइरल हो गई थी सोशल मीडिया में। आंचल के ठेकेदारों ने इनाम की बारिश कर दी थी उसपर।

हमने इस आंचल को अपनी अलग पहचान बनाते देखा है। तब जब इनके पैरों में स्पोर्ट्स शूज़ और पीठ पर किताबों के बैग होते हैं। तब जब इनके हाथों में स्कूटी का हैंडल या चार पहिया का स्टेयरिंग भी होता है। ज़ात और मज़हब से अलग हट कर आंचल वाली ये वह बिरादरी है जिसके जिस्म पर भले ही आपको खोल नज़र आता हो मगर दिमाग़ की तमाम परतों को इन्होंने उतारना शुरू कर दिया है। 

हमें इस बात की पूरी उम्मीद है कि अगर आज आप यहां होते तो आंचल को अलग कर इन तमाम खोलों को उतारने और उन्हें जला देने वाला कलाम लिखने के लिए अपना कलम उठा लेते।

उम्मीद है मेरी कोई भी बात आपको नागवार नहीं लगेगी।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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