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हम भारत के लोग: झूठी आज़ादी का गणतंत्र!

दरअसल सरकारें ग़रीब आदमी की बजाय पूंजीपतियों के हाथ में खेलती हैं इसलिए ग़रीबों का हक़ मारकर उनका पैसा अमीरों, दलालों, सत्तासीन वर्गों के पास चला जाता है। जब तक इस पर अंकुश नहीं लगेगा तब तक यह आज़ादी झूठी ही समझी जाएगी।
hum bharat ke log

राजनीति भरोसे से चलती है और लोकप्रियता पाखंड से। मगर लोकतंत्र चलता है निष्ठा, विश्वास, नैतिक मूल्यों और मनुष्यता के प्रति ईमानदारी के बूते। समता, सौहार्द और देशप्रेम ऐसे मूल्य हैं जिनसे कोई भी लोकतंत्र मजबूत बनता है। यह हमारा लोकतंत्र जो पिछले सात दशकों में इतनी ऊँच-नीच झेल चुका है कि हर बार लगता है कि अब लोकतंत्र खतरे में है पर लोकतंत्र पूरी मजबूती के साथ खड़ा रहता है और इसकी वजह है कि हमारे अपने देश की बहुरंगी एवं बहुलतावादी संस्कृति। कोई एक संस्कृति या समुदाय यहां अपना एकाधिकार या अधिनायकत्व नहीं चला सकता। यही बहुलता इसकी ताकत है और यही इसके विवाद की जड़। मगर यह नहीं होती तो भारत वह देश नहीं होता जो तमाम झंझावतों के बावजूद अपने लोकतंत्र को पूरी शिद्दत के साथ जिंदा रखता।

एक इतना बड़ा मुल्क जो आबादी के लिहाज से आज दुनिया में नंबर वन है वह अगर अपने लोकतंत्र को यथावत रखता है तो किसी चमत्कार से कम नहीं। आज जबकि बीसवीं सदी में आजाद हुए सारे मुल्क एक-एक कर अपने लोकतंत्र को ध्वस्त करते गए ऐसे में भारत में लोकतंत्र का बने रहना आश्चर्य-सा लगता है। इसीलिए अपनी बहुलतावादी संस्कृति को बनाए रखना और उसमें और रंग भरना आज की जरूरत है।

हर साल गणतंत्र दिवस पर हम यह शपथ लेते हैं और इसे यथावत रखने का प्रदर्शन भी करते हैं पर लोकप्रिय बने रहने की हमारे राजनेताओं की ललक इस शपथ को कहीं न कहीं तोड़ती रहती है।

हमारे देश को आजादी भले 15 अगस्त 1947 को मिल गई हो लेकिन एक संप्रभु राष्ट्र तब ही बनता है जब उसका अपना संविधान हो और राजकीय व्यवस्था हो। इस लिहाज से भारत को एक संप्रभु राष्ट्र का दर्जा 26 जनवरी 1950 को मिला जब हमारी संविधान सभा के 366 सदस्यों ने संविधान को पारित किया। इसके पहले ब्रिटिश सरकार ने इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट के तहत देश की बागडोर हमें सौंपी थी। यह एक्ट यूनाइटेड किंगडम में जार्ज छठे के साम्राज्य वाली पार्लियामेंट ने अपने सारे उपनिवेशों को आजादी देते वक्त बनाया था। यानी 26 जनवरी 1950 के पहले तक हमारे देश में लगभग वही कानून अमल में थे जो 1935 में ब्रिटिश संसद ने संशोधित औपनिवेशिक कानून पास किए थे।

हालांकि आजादी मिलने के तत्काल बाद 28 अगस्त 1947 को ही डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में संविधान निर्मात्री समिति का गठन कर दिया गया था। और आनन-फानन में ही इस समिति ने उसी वर्ष चार नवंबर को एक ड्राफ्ट कांस्टीट्यूट असेंबली (धारा सभा) के पास भेज भी दिया। धारा सभा ने कुल 166 अधिवेशन किए और खूब बहस-मुबाहिसों के बाद आखिरकार दो वर्ष 11 महीने और 18 दिन बाद अंतत: एक संप्रभु भारत राष्ट्र का संविधान धारा सभा के 308 सदस्यों ने दस्तखत कर सरकार के पास 24 जनवरी 1950 को भेज दिया। इसकी दो प्रतियां थीं एक हिंदी में और दूसरी अंग्रेजी में। दो दिन बाद यह जस का तस 26 जनवरी को सरकार ने मान लिया।

हर संप्रभु राष्ट्र की तरह हमारा देश भी अपने गणतंत्र दिवस 26 जनवरी के रोज हर साल एक भव्य समारोह आयोजित करता है। इस दिन रायसीना की पहाडिय़ों में स्थित राष्ट्रपति भवन से वाया राजपथ इंडिया गेट स्थित अमर जवान ज्योति तक एक परेड होती है और उस दिन करीब-करीब ढाई घंटे राष्ट्रपति महोदय अनवरत खड़े रहकर यह परेड देखते हैं। अमर जवान ज्योति पर पहुंच कर युद्ध में मारे गए शहीदों की याद में दो मिनट का मौन रखा जाता है और इसके बाद यह समारोह बर्खास्त हो जाता है। इसके तीन दिन बाद 29 जनवरी को बीटिंग रिट्रीट परेड होती है और सेना के अंगों की कोर के जवान परेड करते हैं तथा गणतंत्र दिवस समारोह की औपचारिक समाप्ति होती है।

1955 से एक और परंपरा चली आ रही है और वह कि इस दिन राष्ट्रपति अपने साथ एक राजकीय अतिथि को भी लाते हैं जो किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष होता है। शुरू के पांच वर्षों तक कोई राजकीय अतिथि नहीं बुलाया गया क्योंकि तब तक गणतंत्र दिवस समारोह का कोई स्थायी स्थल तय नहीं हुआ था। यद्यपि 1950 में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो भारत आए हुए थे इसलिए उन्हें इस समारोह में बुलाया गया था। और 1951 में नेपाल के किंग त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह पहुँचे हुए थे। 1952 और 53 में कोई नहीं रहा किंतु 1954 में भूटान नरेश किंग जिग्मे दोरजी वांग्चुक भारत में थे। वे भी गणतंत्र दिवस समारोह में शरीक हुए थे।

1955 से यह प्रथा स्थायी बना दी गई और तब पहले राजकीय अतिथि पाकिस्तान के राष्ट्रपति गवर्नर जनरल मलिक गुलाम मोहम्मद राजपथ के समारोह की परेड में शामिल हुए। इसके बाद यह सिलसिला चल निकला और दो बार तो खुद युनाइटेड किंगडम (ग्रेट ब्रिटेन) से अतिथि आए। पहली बार 1961 में क्वीन एलिजाबेथ और दूसरी बार 1993  में प्रधानमंत्री जान मेजर। अब तक सबसे ज्यादा बार फ्रांस के राष्ट्रपति ने शिरकत की है कुल पांच बार। 2008 में उनके राष्ट्रपति सरकोजी अपनी नवेली पत्नी के साथ गणतंत्र दिवस परेड में आए थे। 2016 में भी फ़्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद राजकीय अतिथि थे। भूटान नरेश भी चार बार इस परेड में राजकीय अतिथि बन चुके हैं। आखिरी बार मौजूदा भूटान नरेश 2013 में आए थे। रूस से तीन बार राजकीय अतिथि आया। दो बार सोवियत रूस से तथा आखिरी बार मौजूदा रूसी गणतंत्र के राष्ट्रपति पुतिन 2007 में आए थे।

हम पिछले 72 साल से अनवरत यह दिन मना रहे हैं पर यह सत्य है कि अपने संविधान की मूल भावना पर अमल हम अभी तक नहीं कर पाए हैं। संविधान हर व्यक्ति को रोजी-रोटी व कपड़ा का भरोसा देता है, संविधान हर व्यक्ति को उसकी मर्यादा को बनाए रखने तथा उसे अपनी बात कहने की पूर्ण आजादी प्रदान करता है। संविधान हर देशवासी को बिना किसी लैंगिक, जातीय, सामुदायिक व सांप्रदायिक भेदभाव के गुजर बसर करने का पूरा अधिकार देता है। संविधान गारंटी देता है कि भारत में हर नागरिक समान है और उसे भय-भूख के चलते प्रताड़ित नहीं किया जाएगा। देश में हर व्यक्ति को न्याय व सम्मान मिलेगा।

लेकिन वास्तविकता कहीं उलटी है। सत्य तो यह है कि संविधान के भरोसे के बावजूद देश में हर आदमी को न तो मुकम्मल आजादी है न ही निर्भय होकर जीने की गारंटी। हमारे संविधान निर्माताओं ने एक ऐसा संविधान रचा था जिसमें हर तरह की सामाजिक सुरक्षा की बात थी पर हमारी सरकारों ने उसमें इतने सारे संशोधन कर इतने ज्यादा उसकी मूल भावना को ही जगह-जगह से बाधित कर दिया है। पिछले 72 सालों की सरकारों ने अपनी सुविधा और वोट बैंक का ख्याल कर इसका मनचाहा इस्तेमाल किया है। जबकि संविधान की नजर में हर देशवासी समान है भले वह सत्ता पर बैठा राजनेता हो, नौकरशाह हो अथवा पूंजीपति पर मजा देखिए कि आज सबसे कमजोर  स्थिति उस व्यक्ति की है जो संविधान को ही अपना रक्षक मानता रहा है। दरअसल इसकी वजह इस संविधान की रक्षा में सन्नद्ध एजेंसियों की नीयत में खोट होना रहा है।

अगर हमने संविधान की भावना के अनुरूप अपने देशवासियों को उनकी मूल जरूरतें भी पूरी नहीं कीं तो उसकी जवाबदेही भी तय करनी होगी। राष्ट्रपति भले ही देश के कार्यपालक अधिकारी न हों पर संविधान के अनुरूप वे हमारे इस राष्ट्र की तीनों संवैधानिक इकाईयों के प्रमुख हैं। विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका उनके अधीन रहकर काम करती है इसलिए उन्हें उन सब गतिविधियों पर नजर रखनी होगी जो संविधान की मूल भावना के विरुद्ध जा रही हों। एक सक्षम राष्ट्र में राष्ट्राध्यक्ष को तय करना होता है कि संविधान की एक-एक धारा पर यथावत अमल करने की आजादी देशवासियों को मिले। तथा इसके साथ ही विधायिका व कार्यपालिका को भी तय करना होगा कि वे हर देश वासी के दुख को दूर कर सकें। उन्हें निर्भय रहकर जीने की आजादी प्रदान करें।

जिस दिन इस देश के हर एक आदमी की आंख का आंसू दूर हो जाएगा उसी दिन सही मायनों में हम गणतंत्र की अपनी अवधारणा पर खरे उतरेंगे। गणतंत्र दिवस को याद करना एक रस्मी आयोजन नहीं है बल्कि इसके बहाने सरकार पर भी दबाव बनता है कि कैसे हर एक आदमी को आजादी मिले। संविधान-सम्मत आजादी का मतलब है हर गरीब के आंसू पोंछना। उसके सहज जीवन-यापन के लिए सरकारों को पूरी तरह चाक-चौबंद रहना। सरकारें देशवासियों के कल्याण के लिए बनती हैं न कि इसलिए कि वे शासकों के शाहाना ठाठ-बाट का खर्च उठाएं। मगर देखा जाए तो आज तक हर गरीब के आंसू पोंछना तो दूर सरकारें देश में हर आदमी को पीने का पानी तक नहीं मुहैया करा पाई हैं। हर गांव को न तो बिजली मिली है न हर घर को चूल्हा और न ही हर घर में पानी या शौचालय। यह काम सरकार के हैं और इनके लिए सक्षम एजेंसियों को चाहिए कि वे सख्ती से ये काम करवाएं। मगर गांवों में कुछ नहीं है। आज भी हर गांव में स्कूल तक नहीं हैं। दरअसल सरकारें गरीब आदमी की बजाय पूंजीपतियों के हाथ में खेलती हैं इसलिए गरीबों का हक मारकर उनका पैसा अमीरों, दलालों, सत्तासीन वर्गों के पास चला जाता है। जब तक इस पर अंकुश नहीं लगेगा तब तक यह आजादी झूठी ही समझी जाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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