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आज़ाद भारत के 75 साल : कहां खड़े हैं विज्ञान और विकास?

तमाम भारतीयों के लिए विकास के एक वैज्ञानिक नज़रिये ने आज़ादी की तलाश को प्रेरित किया था। लेकिन,मौजूदा हुक़ूमत सिर्फ़ कुछ चुनिंदा लोगों की सहायता की ख़ातिर डर पर आधारित अंधविश्वास और राजनीति को आगे बढ़ा रही है।
CSIR

सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों को समाहित करने वाला परिकल्पित एक वैज्ञानिक नज़रिया भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का गहरा हिस्सा रहा था। आज़ादी को लेकर भारत का संघर्ष महज़ खुद को ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने भर का नहीं था। बल्कि भारत का यह संघर्ष एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण को लेकर भी था, जो अपने लोगों की तरक़्क़ी मुहैया कराता। यह आज़ादी सही मायने में पीड़ादायक होती, अगर इसने लोगों को उस घोर ग़रीबी से बाहर नहीं निकाला होता,जिसमें दो सदियों के औपनिवेशिक शासन ने उन्हें डुबो दिया था। इस विचार ने आज़ादी के आंदोलन के विभिन्न तबक़ों को एकजुट कर दिया था, इसमें वामपंथी नेताओं से लेकर नेहरू, अम्बेडकर और बोस तक थे। वे जानते थे कि भारत को अपनी उत्पादक शक्तियों को विकसित करने के लिहाज़ से विज्ञान और प्रौद्योगिकी में आगे बढ़ने की ज़रूरत है।

स्वतंत्रता आंदोलन के इन नेताओं को पता था कि विज्ञान को उधार नहीं लिया जा सकता या उसे ख़रीदा नहीं जा सकता। इसके अलावा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की क्षमताओं को विकसित किये बिना न तो उद्योग और न ही कृषि का विकास हो सकता है। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने समझ लिया था कि एक नये-नये स्वतंत्र हुए राष्ट्र को विकसित होने के लिए प्रकृति और समाज पर आधारित वैज्ञानिक नज़रिये को अपनाना होगा। यह लोगों को अंधविश्वास की बेड़ियों से मुक्त करने में मदद करेगा,क्योंकि अंधविश्वास ऐसे विश्वास होते हैं, जो आगे की बजाय पीछे मुड़कर देखते हैं। एक पौराणिक स्वर्ण युग की ओर देखते हुए भारत अगर पुष्पक विमान, ब्रह्मास्त्र वाले परमाणु हथियार, या आनुवंशिक इंजीनियरिंग वाली उड़ान में महारत हासिल करने की बात करेगा, तो एक नये भारत के निर्माण में बाधा पैदा होगी।

प्रकृति और समाज को लेकर वैज्ञानिक मिज़ाज या वैज्ञानिक नज़रिया यह है कि हम एक नये भविष्य को लेकर उत्पादक समझ कैसे विकसित करें। अपने अतीत को स्वीकार करने से हम झूठे इतिहास के दीनानाथ बत्रा स्कूल से निकलने वाली पौराणिक उपलब्धियों को नहीं,बल्कि गणित, खगोल विज्ञान, चिकित्सा या धातु विज्ञान जैसी अपनी वास्तविक उपलब्धियों को समझ पायें।

सरकारी योजना, विज्ञान और सार्वजनिक क्षेत्र

राष्ट्रीय आंदोलन के हमारे नेताओं ने दो पूरक कार्य किये: सभी भारतीयों के लिए योजना बनाना और एक ऐसी सरकार का निर्माण, जो मानव संसाधनों सहित अपने सभी संसाधनों का विकास। योजना आयोग और उसके पूर्ववर्ती,यानी कांग्रेस योजना समिति ने ये दोनों ही भूमिकायें निभायी थीं। बतौर कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में इस योजना समिति की स्थापना की थी, जिसकी अगुवाई करने के लिए उन्होंने नेहरू से कहा था। इन दोनों नेताओं ने 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद हुए सोवियत नियोजित विकास के प्रयोगों से प्रेरणा ली थी।

योजना आयोग ने आज़ादी के बाद ब्रिटिश विरासत, ग़रीबी और असमानता के दोहरे बोझ को दूर करने के लिए योजना समिति के उसी नज़रिये को आगे बढ़ाया था। राष्ट्रीय आंदोलन ने योजना और सार्वजनिक क्षेत्र को न सिर्फ़ उद्योग और कृषि को पुनर्जीवित करने, बल्कि सभी तबक़ों तक विकास के लाभों को पहुंचाने की ज़रूरत के रूप में देखा था। राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े नेता वैज्ञानिक ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए उत्पादक शक्तियों का विकास करना चाहते थे और उस शिक्षा की तरफ़ देखते थे, जो वैज्ञानिक क्षमताओं को देश के सबसे अहम संसाधन के रूप में आगे बढ़ाते हैं।

यही वजह है कि वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमताओं का विकास करना भारत सरकार की प्राथमिकता थी। उस सरकार ने केंद्रीय वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान (CSIR) प्रयोगशालाओं, पांच भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT), भारतीय सांख्यिकी संस्थान (ISI) और कई वैज्ञानिक संस्थानों का निर्माण किया था। पहली पंचवर्षीय योजना में सभी विश्वविद्यालयों को एक प्रशासनिक छतरी के नीचे लाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का ख़ूब विस्तार किया गया। भारतीय पूंजी, टेक्नोक्रेट और उद्योगपतियों ने मिलकर बॉम्बे योजना तैयार की थी, जिसमें जेआरडी टाटा और जीडी बिड़ला जैसे लोग शामिल थे, जिन्होंने कांग्रेस नेतृत्व के उस विचार को साझा किया था कि भारत को विकसित करने के लिए बुनियादी ढांचे की ज़रूरत है और सिर्फ़ सरकार ही इसे ज़रूरी पैमाने पर विकसित कर सकता है। एक के बाद एक आने वाली पंचवर्षीय योजनाओं ने इस नज़रिये को ठोस रूप दिया था।

इसका लक्ष्य महज़ कल-कारखानों और मशीनों को विकसित करना नहीं था, बल्कि मशीनों में निहित ज्ञान का विकास भी करना था। स्वतंत्र भारत ने प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के लिए आत्मनिर्भरता या 'मेड इन इंडिया' का लक्ष्य निर्धारित किया था। किसी भी विदेशी साझेदारी में सभी प्रौद्योगिकी को भारतीय इकाई को हस्तांतरित करने पर ज़ोर देने से इस नीति को मज़बूती मिली थी। ज्ञान का यह हस्तांतरण उतना ही अहम था, जितना कि बड़े-बड़े कल-कारखानों और मशीनरी का आयात करना। स्वदेशी विज्ञान और प्रौद्योगिकी को लेकर भारत की विकास योजना के केंद्र में विश्वविद्यालय और अन्य वैज्ञानिक संस्थान थे।

औपनिवेशिक शक्तियों ने भले ही राजनीतिक सत्ता नव-स्वतंत्र देशों को हस्तांतरित कर दी थी, लेकिन वे प्रौद्योगिकी या वैज्ञानिक ज्ञान को साझा नहीं करना चाहती थीं। उनका मानना था कि आज़ाद होने वाले भारत जैसे देशों को  ख़ुद को कृषि और कच्चे माल के उत्पादन तक ही सीमित रखना चाहिए और औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन उन्हीं "औपननिवेशिक" केंद्र पर छोड़ देना चाहिए। इस नीति के एक भाग के रूप में पश्चिमी देशों और/या विनिर्माताओं ने स्टील विनिर्माण, टर्बाइन, बॉयलर, फार्मास्यूटिकल्स, तेल की खोज आदि से जुड़ी प्रौद्योगिकी को हस्तांतरित करने से इनकार कर दिया था। इन हालात में भारत ने सोवियत संघ और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ प्रौद्योगिकी और निर्माण को लेकर कामयाब बातचीत की। पश्चिमी कंपनियों ने अनिच्छा के साथ भारत के इस औद्योगिक विकास में भागीदारी को लेकर अपनी सहमति जतायी।

भारत के बिजली क्षेत्र, तेल और प्राकृतिक गैस, इस्पात और कोयला, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष क्षेत्र-ये तमाम क्षेत्र इसी नज़रिये का परिणाम हैं। अगर भारत जेनेरिक दवाओं का दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है, तो यह सीएसआईआर प्रयोगशालाओं (और पेटेंट अधिनियम, 1970 में बदलाव) का नतीजा है। औद्योगिक जगत में अंबानी और मित्तल की जो पैदाइश और उभार दिखता है,उसका आधार भी ओएनजीसी, इंडियन ऑयल और स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड है।

भारत विश्व बाज़ार में बिजली संयंत्रों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता भी बन सकता था। लेकिन,दुर्भाग्य से भारत ने वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के दौरान पश्चिमी और चीनी कंपनियों के लिए अपना बाज़ार खोल दिया, जिससे वह संभावना ख़त्म हो गयी। अहम बिजली संयंत्र आपूर्तिकर्ता भेल अब प्रमुख चीनी और दक्षिण कोरियाई कंपनियों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा कमज़ोर अंतर्राष्ट्रीय उत्पादक बनकर रह गया है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की आज़ादी के बाद की विदेश नीति का नज़रिया साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों के साथ गठबंधन करने और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों का समर्थन नहीं करने वाला रहा था। आरएसएस के लिए गुटनिर्पेक्षता और योजना अनिष्ट समाजवादी सिक्के के दो पहलू थे। इसके बजाय, उन्होंने यहूदी (यहूदी आंदोलनकारी इज़राइल) और हिंदू के बरक्स "अपवित्र" कम्युनिस्टों और मुसलमानों के ख़िलाफ़ ईसाइयों,यानी पूर्व-औपनिवेशिक शक्तियों और संयुक्त राज्य अमेरिका से बने एक "पवित्र" गठबंधन की बात की।

वैज्ञानिक नज़रिये को कमज़ोर करना

आज़ादी के बाद हमने जो कुछ भी निर्माण कार्य किया था, उसके बिल्कुल उलट जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने योजना आयोग को ही ख़त्म कर दिया है और इसकी जगह एक शक्तिहीन नीति आयोग ने ले ली है,जो महज़ एक सलाहकारी भूमिका में है। यह सरकार उच्च शिक्षा को तेज़ी से निजी हाथों, यहां तक कि विदेशी, विश्वविद्यालयों को सौंप रही है और ऐसे लोगों को नियुक्त कर रही है, जिनके पास उन्नत संस्थानों को चलाने के लिए विज्ञान या प्रौद्योगिकी की कोई समझ नहीं है। इसने अहम सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी हाथों में सौंप दिया है या प्रौद्योगिकी को हस्तांतरित करवाये बिना ही विदेशी पूंजी को आमंत्रित कर दिया है।

जिस तरह से सरकार अर्थव्यवस्था के साथ पेश आ रही है,वह बर्ताव ही आत्मानिर्भर भारत और आत्मनिर्भरता के बीच के इस अंतर को दर्शा देता है। मोदी सरकार के लिए तो बस इतना ही मायने रखता है कि भारत में उत्पादन का काम चल रहा है। मगर आत्मनिर्भरता का मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं होता कि आख़िरी तौर पर होने वाला उत्पादन स्थानीय स्तर पर हो, बल्कि  उसका मतलब यह भी होता है कि उत्पादन के लिए ज़रूरी ज्ञान और उपकरण दोनों ही स्वदेशी हों। मोदी सरकार यह नहीं मानती कि आज प्रौद्योगिकी विकास में अपने लोग और ज्ञान आवश्यक हैं।

इस समय बाज़ार के पूंजीकरण के हिसाब से दुनिया की शीर्ष छह कंपनियों में से पांच कंपनियां डिजिटल एकाधिकार वाली कंपनियां हैं। मार्केट कैप,यानी बाज़ार पूंजीकरण के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी एपल इंक को ही लें। इसके पास अपनी एक भी फ़ैक्ट्री नहीं है। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि यह काम कैसे करती है ? यह डिज़ाइन, सॉफ़्टवेयर और एप्पल ब्रांड का मालिक है। एपल को ख़ुद के बेचे जाने वाले हर एक आईफ़ोन के लिए तक़रीबन 300 डॉलर मिलते हैं, जबकि फ़ोन बनाने वाली कंपनी फ़ॉक्सकॉन को सिर्फ़ 8 डॉलर ही मिलते हैं। यही ज्ञान से चलने वाली अर्थव्यवस्था की प्रकृति है। यह वह जगह नहीं,जहां आप उत्पादन करते हैं, बल्कि आपके पास जो ज्ञान है, वही यह तय करता है कि आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में विजेता कौन होगा और विजित कौन होगा। फ़ॉक्सकॉन को भारत में शॉप स्थापित करने के लिए आमंत्रित करने से उस दावे के मुक़ाबले अर्थव्यवस्था में बहुत कम का इज़ाफ़ा होता है,जो कि सरकर की तरफ़ से की जाती है। लोगों का विकास ही असल में देश के भविष्य की कुंजी है। यही वजह है कि राष्ट्रवाद ख़ुद को अतीत से जुड़े लोगों से नहीं,बल्कि ज़मीन से परिभाषित करता है।

मोदी के मेक इन इंडिया के ज़बरदस्त प्रचार-प्रसार के बावजूद भारत की साल-दर-साल जीडीपी वृद्धि अप्रत्याशित रूप से काफ़ी धीमी रही है। कोविड-19 की दूसरी लहर के ख़त्म होने के बाद भी भारत की अनुमानित 2022 जीडीपी, 2019 के आंकड़े से महज़ 1.5% ही ज़्यादा थी। यह आंकड़ा इस दावे का मुंह चिढ़ाता है कि भारत जल्द ही पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश बन जायेगा।

आरएसएस-भाजपा के लिए "उचित" विचारधारा का होना ज्ञान के विकास से कहीं ज़्यादा अहम है। ज्ञान को लेकर भाजपा की यह अनदेखी सामाजिक विज्ञानों के लिए ही ख़तरनाक़ दिखायी दे सकती है। जिस तरह से इसने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) को तबाह कर दिया है, वह उसके विध्वंसक नज़रिये का सबसे स्पष्ट उदाहरण हो सकता है। लेकिन, यह सरकार और विश्वविद्यालयों को लेकर चलने वाली इसकी हरक़तें सिर्फ़ सामाजिक विज्ञान पर हमला करने तक ही सीमित नहीं हैं। जेएनयू को तबाह करने तक भी सीमित नहीं है। असल में उनका यह हमला आख़िरकार ज्ञान पर है। एक-एक संस्था में दृष्टिविहीन और मामूली समझ-बूझ वाले लोगों को प्रभावशाली ओहदे पर बैठाया गया है। ऐसा लगता है कि ज्ञान भाजपा के लिए गौण है। अहम यह है कि ये विश्वविद्यालय छात्रों को आरएसएस-भाजपा की विचारधारा से अवगत कराते हुए उन्हें दीक्षित कर रहे हैं।

आज़ादी मिलने के बाद के दशकों चली कोशिशों के उलट, शिक्षा और अनुसंधान संस्थानों,यानी तर्क और विज्ञान पर लगातार होता हमला ही मौजूदा दौर को परिभाषित करता है। मिथक और पागलपन अपना वेश बदलकर विज्ञान और इतिहास के रूप में उड़ते हुए रथों और ग्रहों के बीच की यात्रा, महाभारत में आनुवंशिकी, और विकासवाद के झूठा साबित करने के साथ-साथ आगे बढ़ रहे हैं। या फिर जैसा कि आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति जी.नागेश्वर राव ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 2019 के एडिशन में कहा था कि विकासवाद की जगह दशावतार का "बहुत ही बेहतर" सिद्धांत ले रहा है। आज इस सब का मक़सद धार्मिक पहचान पर आधारित "राष्ट्रवादी" भारत है। ऐसे में इसके समर्थकों के लिए यह ज़रूरी है कि वे तर्क और इतिहास को ध्वस्त करें। यह सरकार एक ऐसा बहुसंख्यक भारत चाहती है, जहां अल्पसंख्यकों के पास बहुत कम अधिकार हों, एक ऐसा भारत, जहां तर्क को पुराने और नये मिथकों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़े और जहां धन और जाति ही पात्रता या योग्यता हो।

आरएसएस ने नियोजित विकास और सार्वजनिक क्षेत्र का कड़ा विरोध किया था और उन्हें नापाक "समाजवाद"का हिस्सा बताया था। वह चाहता था कि भारत को पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर दिया जाये और भारत वैश्विक पूंजी में बिना किसी हस्तक्षेप के दाखिल हों। सरकार को महज़ एक ही भूमिका निभानी चाहिए और वह यह कि भारतीय पूंजी विदेशी पूंजी के साथ चले। दूसरे शब्दों में कहा जाये,तो आज इसी वजह से क्रोनी कैपिटलिज्म सक्रिय है। यह जहां एक तरफ़ वैश्विक पूंजी को भारत के सस्ते श्रम का शोषण करने की एक दावत है, वहीं दूसरी तरफ़ कर से छूट और सब्सिडी हासिल करने की क़वायद है, जिसमें वस्तुतः मुफ़्त दी जाने वाली ज़मीन भी शामिल है। यही वजह है कि मोदी ने योजना आयोग की जगह एक ऐसे दंतहीन थिंक टैंक बनाया है, जिसे वह नीति आयोग कहते हैं। यही कारण है कि वह सार्वजनिक क्षेत्र को ख़त्म कर रहे हैं, इन्हें अपने क़रीबी पूंजीपतियों को बेच रहे हैं और मेक इन इंडिया के नारे के तहत विदेशी पूंजी को आमंत्रित कर रहे हैं। आत्मनिर्भरता से रिलायंस तक का यह सफ़र एक विश्वासघाती सफ़र है !

हिंदुत्व के राष्ट्रवाद के अलगाववादी नज़रिये में तो भूमि ही राष्ट्र है। यह वह भूमि है, जो कि पवित्र है। सावरकर की पुण्य-भूमि और पितृ-भूमि की तरह। इसीलिए, मोदी ने सितंबर 2016 में दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती पर उनका हवाला देते हुए कहा था कि मुसलमानों को पूरी तरह से भारतीय होने के लिए 'विशुद्ध' (परिष्कार) होना होगा। इस तरह, उनका मानना है कि वैश्विक पूंजी भारत में आने भर से ही पूरी तरह भारतीय हो जाती है !

अल्पसंख्यकों और कुछ जातियों और समुदायों के ख़िलाफ़ होने वाले हमले कोई असामान्य बात तो है नहीं। वे तो इस बात के मूल हैं कि आरएसएस, भाजपा और उनके अग्रिम संगठन किस तरह सोचते हैं। ये हमले दरअस्ल आर्थिक लोकतंत्र सहित अपने संविधान में निहित मूलभूत मूल्यों पर भी हैं। ये हमले तब हो रहे हैं, जब भारत उतना ही ग़ैर-बराबरी वाला देश बन गया है, जितना कि वह अंग्रेज़ों के अधीन था। अगर हम फ़्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के शब्दों का सहारा लेकर कहें, तो हम ब्रिटिश राज से अरबपति राज के अधीन हो चले हैं। महामारी के दौरान भारत में चालीस नये अरबपति और बन गये, जबकि 84% परिवारों की आय में गिरावट आयी। भारत के अब दो अरबपति-गौतम अडानी और मुकेश अंबानी दुनिया के शीर्ष दस सबसे अमीर लोगों में से हैं और इसी अवधि में दुनिया में वैश्विक स्तर पर अगर कहीं ग़रीबी सबसे ज़्यादा बढ़ी है, तो वह भारत ही है।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

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