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इंडियन टेलिफ़ोन इंडस्ट्री : सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के ख़राब नियोक्ताओं की चिर-परिचित कहानी

महामारी ने इन कर्मचारियों की दिक़्क़तों को कई गुना तक बढ़ा दिया है।
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मधुलिका लिखती हैं कि बेंगलौर में इंडियन टेलिफोन इंडस्ट्री (ITI- भारत की पहली सरकारी कंपनी) के कर्मचारियों द्वारा अपने नियोक्ताओं के खिलाफ़ प्रदर्शन किया जा रहा है। यह प्रदर्शन, व्यापक तौर पर देश में कुछ बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा श्रम कानूनों के उल्लंघन के मुद्दे को दर्शाता है।

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बैंगलोर में 80 कर्मचारी इंडियन टेलिफोन इंडस्ट्रीज़ (ITI) के खिलाफ़ बीते तीने महीनों से प्रदर्शन कर रहे हैं। आईटीआई देश की सबसे बड़ी सरकारी कंपनियों में से एक है। इन कर्मचारियों में कई महिलाएं हैं, कई दलित समुदाय से आते हैं, वे पिछले साल 1 दिसंबर से प्रदर्शन कर रहे हैं। उस दिन उन्हें के आर पुरम स्थित संयंत्र में प्रवेश करने से रोका गया था। फिर कुछ घंटों बाद उन्हें कंपनी के मानव संसाधन विभाग की तरफ से बताया गया कि उनकी नियुक्ति को कंपनी ने रद्द कर दिया है। ऐसा कंपनी के साथ समझौता करने वाली एजेंसी के बदलाव के कारण हुआ है।  

क्या करती है आईटीआई?

1948 में स्थापित आईटीआई देश की पहली सरकारी कंपनी है। अपनी स्थापना के बाद से कंपनी देश की टेलिकम्यूनिकेशन जरूरतों को 1994 तक पूरी करती है। 1994 में उदारवादी सुधारों के चलते टेलिकॉम नीति बदल दी गई और भारतीय टेलिकॉम सेक्टर को घरेलू और विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया।  कई सरकारी कंपनियां भारत के उदारवादी प्रयोग को बर्दाश्त नहीं कर पाईं और उन्हें अपना काम बंद करना पड़ा या अपनी बड़ी हिस्सेदारी निजी क्षेत्र को बेचनी पड़ी। लेकिन आईटीआई इस दौर में भी खुद को बचाए रखने में कामयाब रही, बल्कि अपनी सेवाओं और मुनाफ़ा कमाने के दायरे को भी कंपनी बढ़ाने में कामयाब रही। 

आज संचार मंत्रालय के तहत आने वाली आईटीआई फाइबर ऑप्टिक्स, ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी, डिफेंस-सर्विलांस तकनीक जैसे कई क्षेत्रों में अपनी सेवाएं देती है। 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़, कंपनी ने उस साल 111 करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कमाया था, जो पिछले साल से 9 फ़ीसदी ज़्यादा था। 

कर्मचारी प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं?

भले ही आईटीआई की वित्तीय हालत अच्छी रही हो, लेकिन पिछले एक दशक से इसके कर्मचारी भुगतान, करार और सामाजिक कल्याण फायदों के लिए परेशानियां झेल रहे हैं। कंपनी की नैनी, मानकपुर, रायबरेली, पलक्कड, श्रीनगर और बैंगलोर में निर्माण ईकाईयां हैं, अलग-अलग जगह संयंत्रों में श्रम समस्याएं देखने को मिल रही हैं।

जुलाई, 2020 में महामारी की प्रबलता के बीच बैंगलोर आईटीआई संयंत्र से बिना वेतन दिए 250 कर्मचारियों को निकाल दिया गया। भुगतान के अलावा कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन, प्रोविडेंट फंड और कर्मचारी बीमा जैसे सामाजिक कल्याण योजनाओं से भी वंचित रखा गया, जो कानूनी तौर पर अनिवार्य हैं। 

जुलाई, 2020 में महामारी की प्रबलता के बीच बैंगलोर आईटीआई संयंत्र से बिना वेतन दिए 250 कर्मचारियों को निकाल दिया गया। भुगतान के अलावा कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन, प्रोविडेंट फंड और कर्मचारी बीमा जैसे सामाजिक कल्याण योजनाओं से भी वंचित रखा गया, जो कानूनी तौर पर अनिवार्य हैं। कर्मचारियों के साथ यह व्यवहार तब किया गया, जब उन्होंने महामारी के दौरान जान बचाने वाले उपकरण जैसे वेंटिलेटर, चेहरे को ढंकने वाली शील्ड बनाने के लिए अतिरिक्त घंटों में काम किया। 

कंपनी द्वारा उनका बकाया चुकाए जाने से इंकार करने के बाद कुछ आईटीआई कर्मचारी एकजुट हुए और महामारी की पहली लहर के दौरान अपने अधिकारों के लिए मोलभाव करने की कोशिश की। ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ़ ट्रेड यूनियन (एआईसीसीटीयू) से संबंधित कर्नाटक जनरल लेबर यूनियन में शामिल होने वाले आईटीआई कर्मचारियों ने क्षेत्रीय श्रम आयुक्त (केंद्रीय) के सामने महामारी भत्ता और न्यूनतम भत्ते के लिए केस दाखिल करना शुरू कर दिया। इन कर्मचारियों ने आयुक्त के सामने खुद को स्थायी कर्मचारी का दर्जा दिए जाने की गुहार भी लगाई। एआईसीसीटीयू से संबंधित मैत्रेयी कृष्णन, जो आंदोलन के मुख्य आयोजनकर्ताओं में से एक हैं, वे कहते हैं, "प्रबंधन कर्मचारियों की इस एकजुटता से परेशान था, इसलिए सिर्फ़ इसी वज़ह के चलते यूनियन बनाने वाले कर्मचारियों को निलंबित किया गया।" कृष्णन ने यह भी कहा कि दूसरे कर्मचारी, जिन्होंने यूनियन में शामिल होने का फ़ैसला नहीं किया था, उन्हें आईटीआई प्रबंधन ने वापस काम पर रख लिया। 

आईटीआई की कार्रवाई श्रम कानूनों के खिलाफ़?

कर्मचारियों पर आईटीआई प्रबंधन ने जो कार्रवाई की है, वो भारत के श्रम कानूनों के कुछ प्रावधानों का उल्लंघन करती है। पहला, कर्मचारियों के बड़े हिस्से को अवैधानिक तरीके से "संविदा कर्मचारी" बताया गया, जबकि वे कई सालों से एकसाथ कंपनी के लिए वही काम कर रहे थे, जो स्थायी कर्मचारी कर रहे थे। निलंबित कर्मचारियों में से कई कंपनी के साथ 5 से लेकर 35 साल से जुड़े थे। वे आईटीआई द्वारा की जाने वाली मुख्य गतिविधियों का हिस्सा थे, जिसमें टेलिकम्यूनिकेशन, गुणवत्ता निश्चित्ता, डेटा एंट्री आदि काम शामिल थे। 

संविदा कार्य पर भारत में कानून स्पष्ट है: संविदा श्रम (नियामन एवम् निरसन) अधिनियम, 1970 (संविदा श्रम अधिनियम) के मुताबिक़, कंपनियां उस काम को संविदा पर नहीं करवा सकतीं, जो कंपनी को सुचारू रखने के लिए अनिवार्य है। केवल उन्हीं कामों के लिए संविदा पर कर्मचारी रखे जा सकते हैं, जिन्हें सहयोगी कार्य माना जाता है। मतलब जो कंपनी का मुख्य कार्य नहीं होते। अगर कंपनी के मुख्य काम में कई वर्षों से संविदा पर कर्मचारी रखे जा रहे हैं, तो यह संविदा श्रम अधिनियम का उल्लंघन है। 

दूसरा, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(c) के तहत किसी भी कर्मचारी द्वारा अपना संगठित होना उसका अधिकार है। औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 भी स्पष्ट कहता है कि एक ट्रेड यूनियन में शामिल होने और संगठित होने के लिए किसी कर्मचारी का उत्पीड़न एक अन्याय भरा श्रम व्यवहार है। कर्मचारियों को उनके वैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों के अनुपालन के लिए सजा देकर, कंपनी संविधान और कानून का उल्लंघन कर रही है।  

तीसरा, श्रम आयुक्त द्वारा आईटीआई को पिछले साल निर्देश दिया गया था कि कर्मचारियों द्वारा कंपनी के खिलाफ़ जो शिकायत दायर की गई हैं, उनका फ़ैसला होने तक किसी को भी काम से नहीं निकाला जाएगा, लेकिन आईटीआई ने कर्मचारियों को काम से निकाला। यह औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुच्छेद 33 का उल्लंघन है, जो साफ़ कहता है कि किसी विवाद के लंबित रहने के दौरान काम की शर्तों में फेरबदल नहीं करना चाहिए। 

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां: खराब़ नियोक्ताओं की चिर-परिचित कहानी

जो लोग सरकार द्वारा सरकारी क्षेत्र में नियुक्त किए जाते हैं, उनके लिए आईटीआई कर्मचारियों का संघर्ष एक जानी-पहचानी कहानी है। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड जैसी सरकारी कंपनियां, जो हवाई कार्यक्रमों, ऊर्जा उत्पादन और भारी माल व उपकरणों में काम कर रही हैं, वे सालों से संविदा पर नियुक्ति कर रही हैं। आईटीआई की तरह ही इन सरकारी कंपनियों में भी कर्मचारियों ने स्थायी भर्ती करवाने, अच्छे वेतन और सम्मानजनक काम की स्थितियों के लिए विरोध प्रदर्शन किए हैं।

संविदा कार्य पर भारत में कानून स्पष्ट है: संविदा श्रम (नियामन एवम् निरसन) अधिनियम, 1970 (संविदा श्रम अधिनियम) के मुताबिक़, कंपनियां उस काम को संविदा पर नहीं करवा सकतीं, जो कंपनी को सुचारू रखने के लिए अनिवार्य है। केवल उन्हीं कामों के लिए संविदा पर कर्मचारी रखे जा सकते हैं, जिन्हें सहयोगी कार्य माना जाता है। मतलब जो कंपनी का मुख्य कार्य नहीं होते। अगर कंपनी के मुख्य काम में कई वर्षों से संविदा पर कर्मचारी रखे जा रहे हैं, तो यह संविदा श्रम अधिनियम का उल्लंघन है। 

रिपोर्ट बताती हैं कि सरकार, संविदा पर भर्तियां करने के मामले में निजी क्षेत्र को बहुत पीछे छोड़ चुकी है। ट्रेक।इन की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि सरकारी कंपनियों में संविदा पर काम करने वालों की संख्या में 178 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक़, सार्वजनिक उद्यम सर्वे द्वारा प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में मार्च, 2016 में संविदा कर्मियों की संख्या 2,67,929 थी, जो मार्च, 2020 में बढ़कर 4,98,807 हो गई। एक आदर्श नियोक्ता की तरह व्यवहार करने के बजाए, सरकार ने ज़्यादा से ज़्यादा संविदा भर्तियों का रास्ता साफ़ किया। 

संविदा पर भर्तियां सरकारी और निजी क्षेत्र में इसलिए लोकप्रिय हैं, क्योंकि इससे यह दोनों क्षेत्र संविदा कर्मियों को सामाजिक कल्याण फायदे और काम के लिए सही भुगतान करने से बच जाती हैं, जबकि इन लोगों द्वारा वही काम किया जा रहा होता है, जो स्थायी कर्मचारी कर रहे होते हैं। संविदा कर्मी ज़्यादा जोख़िम में रहने वाला वर्ग भी हैं, क्योंकि यह लोग सेवा खत्म किए जाने के डर से संगठित नहीं होते। संविदाकर्मियों के लिए काम का यह शोषणकारी तरीका, जहां मानवीय सम्मान के ऊपर मुनाफ़ा रखा जाता है, वह  नौकरी की सुरक्षा से संविदाकर्मियों को वंचित रखता है, साथ ही उन्हें कम वेतन और सामाजिक कल्याण के लाभों से उन्हें वंचित रहने पर भी मजबूर करता है।

यह ध्यान दिलाना भी जरूरी है कि संविदा श्रम अधिनियम भारत सरकार द्वारा सभी संभावित जगहों पर संविदा कार्य के खात्मे के लिए लाया गया था। साथ ही जहां संविदा कार्य के खात्मे को तुरंत हासिल ना किया जा सकता हो, वहां उसे नियंत्रित करना भी इस अधिनियम का काम था। लेकिन संविदा पर काम को ख़त्म करने के बजाए, सरकार ने इसके उपयोग का दायरा बढ़ा दिया और अब ओएसएच कोड 2020 (व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य संहिता) के ज़रिए इसे सामान्य बनाने की कोशिश की जा रही है।

खुले तौर पर कॉरपोरेट समर्थक, दक्षिणपंथी, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के तहत संविदा कर्मियों के अधिकार और भी ज़्यादा तेजी से ख़त्म होते जाएंगे। कोविड महामारी और उसके बाद लगाए गए लॉकडाउन का लाभ उठाते हुए सरकार ने तीन नई श्रम संहिताओं को सितंबर 2020 में जल्दबाजी में पारित करवाने का कदम उठाया। यह संहिताएं, 2019 में पारित की गई वेतन संहिता के साथ मिलकर उन सभी कानूनों की जगह लेंगी, जो अभी तक भारत में श्रम संबंधों को नियंत्रित करते रहे हैं। इन तीनों संहिताओं को पूरे देश में ध्वनिमत से कामग़ार विरोधी बताया गया है, इनके नाम हैं- औद्योगिक संबंध संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य संहिता (जिसने संविदा कार्य को ख़त्म करने के बजाए, इसके दायरे को और प्रबल कर दिया है।)

इससे पहले संविदा श्रम अधिनियम उन संस्थानों पर लागू होता था, जहां 20 से ज़्यादा कर्मचारी काम करते थे। लेकिन नई संहिता के तहत 50 से ज़्यादा कामग़ार रखने वाले प्रतिष्ठानों पर यह नियम लागू होंगे। ओएसएच कोड, संविदा श्रम अधिनियम में उल्लेखित उस प्रावधान को भी खत्म करता है, जो किसी कंपनी को उसकी मुख्य गतिविधियों के लिए अस्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति प्रतिबंधित करता था। 

कामग़ार समूहों और सामाजिक आंदोलन से समर्थन

इस स्याह कहानी में प्रकाश की किरण यह रही है कि पूरी दुनिया से आईटीआई कर्मचारियों को जन आंदोलनों और कामग़ार समूहों से जबरदस्त समर्थन मिला है। आईटीआई कर्मचारियों को यूरोप, मालदीव, फिलिस्तीन और मोरक्को की ट्रेड यूनियनों से समर्थन मिला है। स्थानीय स्तर पर जनआंदोलनों ने आईटीआई कर्मचारियों को अपना समर्थन दिया है। इनमें सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर द्वारा स्थापित "नेशनल अलायंस ऑफ़ पीपल्स अलायंस" के साथ-साथ बृहत बेंगलुरू महानगर पालिका पौराकार्मिक संघ (बीबीएमपी सफाईकर्मी संघ) शामिल हैं।

सार्वजनिक उद्यम सर्वे द्वारा प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में मार्च, 2016 में संविदा कर्मियों की संख्या 2,67,929 थी, जो मार्च, 2020 में बढ़कर 4,98,807 हो गई। एक आदर्श नियोक्ता की तरह व्यवहार करने के बजाए, सरकार ने ज़्यादा से ज़्यादा संविदा भर्तियों का रास्ता साफ़ किया। संविदा पर भर्तियां सरकारी और निजी क्षेत्र में इसलिए लोकप्रिय हैं, क्योंकि इससे यह दोनों क्षेत्र संविदा कर्मियों को सामाजिक कल्याण फायदे और काम के लिए सही भुगतान करने से बच जाती हैं, जबकि इन लोगों द्वारा वही काम किया जा रहा होता है, जो स्थायी कर्मचारी कर रहे होते हैं।

बीबीएमपी सफाई कर्मियों को बहुत बुरी स्थितियों में काम करना पड़ता था। उन्होंने विरोध प्रदर्शनों की एक श्रृंखला के ज़रिए 2017 में दमन करने वाले संविदा तंत्र का खात्मा करने पर सरकार को मजबूर किया था। बीबीएमपी के इस संघर्ष से प्रेरणा लेते हुए कई आईटीआई कर्मियों को उम्मीद है कि वे भी ऐसी गलत श्रम स्थितियों को बदलने में कामयाब होंगे। उन्हें उम्मीद है कि संगठित होने से हासिल होने वाली ताकत से वे अपने लिए बेहतर काम की स्थितियों और नौकरी की निश्चित्ता वाले भविष्य का निर्माण कर पाएंगे।

(मधुलिका चेन्नई में रहने वाली वकील हैं। वे श्रम कानून और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में रुचि रखती हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

साभार: द लीफ़लेट

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Indian Telephone Industries – Familiar Story of a Terrible Public Sector Employer

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