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इंटरनेशल थिएटर डे: 'रंगमंच एक विद्रोही कला है'

आज इंटरनेशल थिएटर डे है, पूरी दुनिया में आज के दिन थिएटर पसंद करने वाले लोग या फिर इससे जुड़े लोग अपने-अपने तरीक़े से रंगमंच को लेकर जागरूकता बढ़ाने और इसके महत्व को समझने की कोशिश करते हैं।
International Theater Day
फ़ोटो साभार: VOGUE INDIA

''आज भी थिएटर हो रहा है, आज के दौर में भी Relevant ( प्रासंगिक ) थिएटर हो रहा है, प्ले राइटर हैं जो लिख रहे हैं, थिएटर कर्मी हैं जो काम कर रहे हैं, जितने लोग हैं उतनी ही आवाज़ें हैं और थिएटर भी उसी तरह से हो रहा है। ऐसा नहीं है कि पहले बहुत शानदार हो रहा था और आज की तारीख़ में थिएटर अच्छा नहीं हो रहा है या बहुत ही पॉप कल्चर है, या बहुत ही बेमायने थिएटर हो गया है ऐसा नहीं है अब भी अच्छा थिएटर हो रहा है।''

हमारे एक सवाल से शायद कुछ ख़फ़ा होकर ऐक्टर, शायर, थिएटर डायरेक्टर दानिश हुसैन ने ये जवाब दिया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज भी थिएटर हो रहा है और आज भी थिएटर के मुरीद हैं, लेकिन दिलचस्पी होने के बावजूद क्या हमें थिएटर की वैसी ही जानकारी है जैसी फ़िल्मों या फिर OTT प्लेटफॉर्म पर आ रही वेब सीरीज के बारे है? थिएटर को लेकर हमारी समझ कैसी है? आप और हम किस तरह के थिएटर के बारे में जानते हैं दिल्ली और मुंबई में होने वाले, दूर दराज़ के शहरों और कस्बों में होने वाले? मनोरंजन के लिए होने वाले या फिर जनता की आवाज़ उठाने वाले? 1 जनवरी 1989 में साहिबाबाद के झंडापुर में जन नाट्य मंच मज़दूरों की आवाज़ उठाने के लिए एक नाटक 'हल्ला बोल' कर रहा था और इस दौरान इस जनवादी ग्रुप पर हमला होता है जिसमें सफ़दर हाश्मी और एक मजदूर की हत्या कर दी जाती है, मज़दूरों की आवाज़ उठाने के लिए एक रंगकर्मी ने इतनी बड़ी क़ीमत चुकाई।

बहरहाल, जिन लोगों को थिएटर देखने का शौक है वे थिएटर देखते हैं, टिकट पर पैसे ख़र्च करते हैं और अच्छे नाटकों का इंतज़ार भी करते हैं, पर ऐसे लोगों की संख्या कितनी है?

रंगमंच दिवस

आज विश्व रंगमंच दिवस ( इंटरनेशनल थिएटर डे ) है। हर साल 27 मार्च को इस दिन को मनाया जाता रहा है। साल 1961 में इंटरनेशनल थिएटर इंस्टिट्यूट ( ITI ) ने इस दिन की स्थापना की थी। पूरी दुनिया में इस दिन थिएटर से जुड़े लोग और थिएटर पसंद करने वाले लोग अपने-अपने तरीक़े से इसे मनाते हैं हालांकि इसका मुख्य उद्देश्य लोगों में रंगमंच को लेकर जागरूकता बढ़ाना और इसके महत्व को समझना है।

क्या है अंतरराष्ट्रीय रंगमंच दिवस का थीम?

अंतरराष्ट्रीय रंगमंच दिवस थिएटर एंड ए कल्चर ऑफ पीस ( Theatre and a Culture of Peace) थीम पर मनाया जा रहा है। गौरतलब है कि हर साल इसे इसी थीम पर ही मनाया जाता रहा है।

इस मौक़े पर हमने 1985 में NSD ( National School of Drama ) से निकले और तब से लेकर आज तक थिएटर से जुड़े डॉ. लईक़ हुसैन से बातचीत की, डॉ. लईक़ के पास मौक़ा था कि वे भी मुंबई या फिर दिल्ली में ही रह कर थिएटर करते लेकिन उन्होंने अपने होम स्टेट राजस्थान को चुना और आज भी वे उदयपुर में लोक कला से जुड़े थिएटर को निखारने में लगे हैं।

''विद्रोही कला कहा जाता है''

एक सवाल के जवाब में डॉ. लईक़ हुसैन कहते हैं कि '' थिएटर लोगों को जागरूक करता है, वे उन सारे मुद्दों को उठाता है जो लोगों के लिए ज़रूरी हैं फिर समाज में फैली रूढ़ियां हों, भ्रांतियां हो या फिर भ्रष्टाचार। थिएटर हमेशा ही मुद्दों को उठाता रहा है और उठाता रहेगा, इसलिए थिएटर को 'विद्रोही कला' कहा जाता है और विद्रोही कला होने के नाते थिएटर को कभी-कभी दबाने की कोशिश भी होती रही है, लेकिन बहुत से लोग हैं जो इसे संरक्षण भी देते रहे हैं, हालांकि थिएटर के लोगों को अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए हमेशा ही संघर्षरत रहना पड़ा है और मैं समझता हूं कि आगे भी रहेंगे क्योंकि ये वे लोग हैं जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं, ये समाज को कुछ देने के लिए काम करते हैं, थिएटर के लोग हमेशा ही इसी तरह का काम करते रहे हैं और करते रहेंगे''

''जब तक इंसान है तब तक थिएटर रहेगा''

वहीं हमने ऐक्टर, थिएटर डायरेक्टर दानिश हुसैन से पूछा कि वे रंगमंच को कहां और कैसा देखते हैं तो इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि '' फौरी तौर पर देखें तो इतना बड़ा भंवर है, इतना बड़ा जाल है, बवक़्त इतनी चीजें हो रही हैं कौन क्या बता सकता है कि किसका क्या मुक़ाम है ये तो बाद में ही समझ में आता है, लेकिन थिएटर को लेकर एक चीज़ समझनी पड़ेगी कि थिएटर एक फिज़िकल मीडियम है वह जब भी होगा फिजिकल स्पेस में होगा जहां बवक़्त उसे कुछ चंद लोग ही देख सकते हैं वे कभी भी मास स्केल टीवी, इंटरनेट का मुकाबला नहीं कर पाएगा उसकी रीच हमेशा लिमिटेड रहेगी, लेकिन थिएटर अपने आप में ही बहुत पावरफुल मीडियम है, जो थिएटर में बैठा है, अनुभव कर रहा है उसके लिए ये बहुत ही प्रभावशाली है, ये थिएटर का advantage है। जो भी लोग थिएटर देखते हैं ये उनके लिए गहन अनुभव होता है और यही चीज़ है जो थिएटर को हमेशा जिन्दा रखती है''।

वे आगे कहते हैं कि ''थिएटर में नाटक पेश करने वाला और आप आमने-सामने होते हैं यह वह अनुभव है जो डिजिटल या मास मीडिया कभी कैप्चर नहीं कर पाएगा, तो थिएटर अपनी जगह पर हमेशा रहेगा, कहा जाता रहा है कि थिएटर ख़त्म हो रहा है, थिएटर ख़तरे में है लेकिन थिएटर आज भी चल रहा है और चलता रहेगा आगे भी। जब तक इंसान ज़िन्दा है तब तक ज़बान ज़िन्दा है और जब तक ज़बान ज़िन्दा है तब तक कहानी ज़िन्दा है और जब तक कहानी ज़िन्दा है तब तक थिएटर होता रहेगा''।

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भारत ही नहीं पूरी दुनिया में थिएटर का इतिहास बहुत पुराना है, बात विलियम शेक्सपीयर के गढ़े गए महान नाटकों की हो या फिर हमारे देश में आज़ादी से पहले और आज़ादी के संघर्ष की कहानी कहते थिएटर की। देश में थिएटर की बात होगी तो इंडियन पीपुल्स थि‍एटर एसोसिएशन (इप्टा) जिसे हिन्दी में भारतीय जन नाट्य संघ कहा जाता है का ज़िक्र ज़रूर होगा। बीबीसी पर इप्टा के इतिहास पर एक रिपोर्ट पढ़ी जिसमें आज़ादी मिलने की रात इप्टा से जुड़े कलाकार जो मजदूर, स्त्री और पुरुष थे कुछ यूं जश्न मना रहे थे-

''घड़ी की सुई रात के 12 बजाती है और मेहनतकशों का मजमा नाचने-गाने लगता है। एक आवाज़ हवा में लहराती है और सब उसके साथ-साथ झूमते हैं-

झूम-झूम के नाचो आज

गाओ ख़ुशी के गीत

झूठ की आख़िर हार हुई

फिर आज़ाद पवन में अपना झंडा लहराया

आज हिमाला फिर सर को ऊंचा करके मुसकाया''

इप्टा का इतिहास

पीपुल्स थिएटर का ये नाम वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने सुझाया था। 25 मई 1943 को बंबई में इप्टा का स्थापना सम्मेलन हुआ था। और ये वे दौर था जब देश पर ब्रिटिश हुकूमत थी। इप्टा का अपना इंकलाबी इतिहास रहा है। इप्टा से कई बड़ी हस्तियां भी जुड़ी थीं जिनमें रंगमंच और फ़िल्मों से जुड़े लोग भी शामिल थे। और इनमें जो ख़ास नाम थे वे - बलराज साहनी, भीष्म साहनी, क़ैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, ख़्वाजा अहमद अब्बास, ए.के हंगल, हबीब तनवीर, मज़ाज, मख़्दूम, शैलेंद्र, फारूख़ शेख़ इस फेहरिस्त में और भी कई बड़े नाम हैं।

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इप्टा के साथ सिर्फ़ रंगकर्मी या संगीतकर्मी ही नहीं बल्कि एक अच्छाख़ासा बुद्धिजीवी वर्ग भी जुड़ा था। इप्टा ने आज़ादी के पहले और बाद भी बहुत ही ख़ास भूमिका अदा की। बंगाल का अकाल हो या फिर आज़ादी की लड़ाई के दौरान इप्टा ने अपने गीतों और नाटकों को लोगों की आवाज़ बनाया, जनता के इस रंगमंच ने कई शानदार गीतों को रचा ऐसा ही एक गीत है

''पूरब देस में डुग्गी बाजी, फैला दुख का जाल

दुख की अग्नी कौन बुझाए, सूख गए सब ताल

जिन हाथों में मोती रोले, आज वही कंगाल

रे साथी, आज वही कंगाल

भूखा है बंगाल रे साथी, भूखा है बंगाल''

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वक़्त के साथ इप्टा की चमक कुछ धुंधला गई लेकिन 80 के दौर में एक बार फिर वे चमक एक बार फिर कई बड़े नाम और बुद्धिजीवी जुड़े। मौजूदा दौर में भी इप्टा जनता से जुड़े मुद्दों को रंगमंच पर उठा रहा है। इतना लंबा सफर तय करने वाला इप्टा आज जब पलट कर देखता है तो क्या बदलाव आ गया ये सवाल हमने इप्टा के नेशनल वर्किंग प्रेजिडेंट राकेश वेदा जी से पूछा तो उनका जवाब था कि- ''इप्टा का जन्म हुआ 1943 में ये वे दौर था जब देश में साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई चल रही थी और दुनिया एक तरह से फासीवाद के हमले से गुज़र रही थी जर्मनी, इटली और तमाम जगहों पर फासीवादी सिर उठा रहा था आज जब हम पलट कर देखते हैं तो दुनिया में साम्राज्यवाद तब भी फौज लेकर नहीं आता था और आज भी नहीं तब ईस्ट इंडिया कंपनी थी और आज बड़े-बड़े कॉरपोरेट पूरी दुनिया को अपने कब़्जे में ले रहे हैं और फासीवाद एकाधिकार प्रभुत्व वाली ताकतें हमारे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में दिख रही हैं, और ऐसे में स्वाभाविक है रंगमंच भी प्रभावित होता है, सारी कलाएं ही प्रभावित हो रही हैं, कमोवेश वैसे ही हालात आज फिर दिखाई दे रहे हैं, लेकिन आज चुनौतियां पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई हैं।

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सवाल: हाल ही में दिल्ली में NSD में उत्पल दत्त के लिखे नाटक 'तितुमीर' के मंचन को रद्द कर दिया गया, लेकिन नाटकों या फिर किताबों, फ़िल्मों पर इस तरह की रोक या फिर सेंसरशिप हर दौर में ही देखी गई है पहले और आज के दौर की सेंसरशिप में आप कितना अंतर देखते हैं?

जवाब- देखिए, उस दौर की सेंसरशिप जो थी वे औपनिवेशिक सत्ता के हाथ थी लेकिन फिर भी आवाज़ उठाने के लिए नाटक बना लिए गए जैसे नील की खेती पर बना ड्रामा ( दीन बंधु मित्रा का लिखा नील दर्पण) बहुत चर्चित हुआ, पारसी थिएटर में भी आवाज़ें उठाई गईं, धार्मिक नाटकों के माध्यम से भी आवाज़ उठा ली जाती थी, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना नाटक लिखा 'अंधेर नगरी' तो उसमें भी उन्होंने बताया कि कैसा ये अंधेर राज है, वे लिखते हैं कि''अंधाधुंध मच्यो सब देसा, मानहुं राजा रहत बिदेसा'' तो ये तब भी था और आज भी है लेकिन तब साम्राज्यवादी सरकार थी, लेकिन आज तो हमारी अपनी सरकार उसका इस्तेमाल कर रही है तो लड़ाई थोड़ी और जटिल है, मुश्किल हो गई है।

वक़्त बदला, रंगमंच बदला?

इस तरह की सेंसरशिप के बारे में लंबे समय से ( 1978 से अब तक ) रंगमंच से जुड़े नाटक लेखक राजेश कुमार से भी बात की, राजेश अपने नाटकों के माध्यम से वैचारिक जागरूकता फैलाने की कोशिश करते रहे हैं, राजेश कुमार जी ने देश में जब आपातकाल लगा था उस दौरान भी वे रंगमंच से जुड़े रहे और उस दौर को याद करते हुए वे कहते हैं कि उस दौर में भी लोगों ने प्रतिरोध की आवाज़ उठाई थी, जूलुस और नुक्कड़ नाटक किए थे। वे कहते हैं कि ''सेंसरशिप तो एक सरकारी प्रक्रिया है फिर चाहे वे फ़िल्मों में हो या फिर महानगरों में होने वाले नाटकों पर ये लगती रही है लेकिन अब तो छोटे-छोटे शहरों में भी ये सेंसरशिप दिखती है, 2018 में मैं शाहजहांपुर में 'गाय' नाटक का मंचन करना चाहता था यह एक व्यंग नाटक था तो पुलिस वालों ने उसे रोक दिया और कहा कि इससे शांति व्यवस्था भंग हो सकती है तो उन्होंने उसे रोक दिया, 'औरंगज़ेब' नाम के नाटक को रोक दिया गया कहा गया कि ये तो मुस्लिम नाम वाला है, तो उसे रोक दिया, फिर 'एक था गधा उर्फ़ अलादाद खां' नाम का नाटक ( शरद जोशी का लिखा) हमने 'गधा' या फिर 'एक था गधा' के नाम से किया तो हो गया लेकिन जब पता चला कि इसके पूरे नाम में 'अलादाद खां' भी जुड़ा है तो उसे रोक दिया गया था।

लेकिन मौजूदा दौर में हमने देखा है कि ऑटो सेंसरशिप आ गई है, पहले तो सरकार की तरफ़ से सेंसरशिप लगती थी अब क्या दिख रहा है आप देख लीजिए मंच से दलित मुद्दों से नाटक ग़ायब हो गए, मेरे एक स्टूडेंट ने मॉब लिंचिंग पर नाटक करने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए मुझ से नाटक लिखने को कहा और उस वक़्त ही मैंने उनसे कह दिया था कि आप इसका मंचन नहीं कर पाएंगे पर वे नहीं मानें हमने लिख कर दिया लेकिन उसका मंचन नहीं करने दिया गया। मैंने एक नाटक लिखा था ट्रोलिंग पर मुझे पहले ही चेता दिया गया था कि आप इसका मंचन नहीं कर पाएंगे, तो इन सबके बाद ख़ुद ही लोग इस तरह से नाटक लिखने से बचते हैं''

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भले ही लाख दिक्कतें गिनाई जा रही हों लेकिन रंगमंच फिर भी डटा हुआ है और नाटकों को लिखा जा रहा है उनका मंचन हो रहा है लेकिन हां ये एक मुश्किल दौर है और इसके भी गुज़र जाने की बात कही जा रही है और इसी पर डॉ. लईक़ हुसैन कहते हैं कि ''ये दौर हैं मुझे नहीं लगता इसमें कोई समस्या वाली बात है ये दौर है, दौर आते हैं और चले जाते हैं लेकिन थिएटर अपनी जगह कायम है और कायम रहेगा"।

इस स्टोरी को करने के दौरान हमने दिल्ली-मुंबई में थिएटर करने वाले, लोक कलाओं से जुड़े थिएटर करने वालों और जनता के सरोकार को उठाने वाले मुद्दों पर थिएटर करने वालों से बात की और इनसब से बात कर एक समझ बनती दिखाई दी कि कला की विधा थिएटर के भले ही बहुत से रंग है लेकिन सबका एक ही मकसद है और वे ये है कि रंगमंच कलाकार अपने सशक्त संवादों के साथ दर्शकों से एक राब्ता क़ायम कर उन्हें उस पड़ाव पर छोड़ जाते हैं जहां से दर्शक अपने साथ कुछ न कुछ लेकर ही घर लौटते हैं।

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