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क्या पुरुषों का स्त्रियों पर अधिकार जताना ही उनके शोषण का मूल कारण है?

एक स्त्री को समय-समय पर यह महसूस कराया जाता है कि उसे पुरुष संरक्षण की बेहद आवश्यकता है जिससे उसके आत्मविश्वास में कमी आती है और वह दब्बू व डरपोक प्रवृत्ति की बन जाती है जिसका लाभ ऐसे पुरुषों को मिलता है।
पुरुषों का स्त्रियों पर अधिकार जताना

इस पुरुष वर्चस्व वाले समाज में एक स्त्री ताउम्र अपने निर्णय स्वयं ले सकती है और बिना किसी पुरुष के सहारे के अपनी जिंदगी व्यतीत कर सकती है ऐसा लोगों की कल्पना से परे हैl यह हमारे पितृसत्तात्मक समाज की  सोच है कि स्त्रियों को कदम कदम पर एक पुरुष के सहारे की आवश्यकता होती है जिसके बिना वो असहाय व निर्बल हैl मेरे अनुसार समाज की यह सोच बहुत ही घटिया है और पुरुषों को स्त्रियों पर अपना अधिकार जताने के लिए प्रेरित करती है व स्त्रियों के शोषण का कारण बनती हैl

एक स्त्री को समय-समय पर यह महसूस कराया जाता है कि उसे पुरुष संरक्षण की बेहद आवश्यकता है जिससे उसके आत्मविश्वास में कमी आती है और वह दब्बू व डरपोक प्रवृत्ति की बन जाती है जिसका लाभ ऐसे पुरुषों को मिलता है जो स्त्रियों की इस कमजोरी का फायदा उठाकर उन पर आसानी से अपना नियंत्रण करके हुकुम चलाते हैंl 

कबीर सिंह -  स्त्रियों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाती एक सुपरहिट फिल्म

21 जून 2019 मे रिलीज हुई। वी एस रेड्डी द्वारा निर्देशित फिल्म कबीर सिंह की हीरोइन प्रीती सिक्का एक ऐसी ही सीधी-सादी और शांत प्रकृति की फर्स्ट ईयर मेडिकल स्टूडेंट है जो इसी कॉलेज में पढ़ने वाले कबीर सिंह नाम के थर्ड ईयर मेडिकल स्टूडेंट के प्यार में पड़ जाती है जो स्वभाव से काफी हठी, गुस्सैल और तेजतर्रार है व कॉलेज में सारे विद्यार्थियों पर हुकूमत चलाता है।

वह कॉलेज में यह घोषणा कर देता है कि "प्रीति की तरफ कोई आंख उठा कर नहीं देखेगा क्योंकि प्रीति सिर्फ उसकी बंदी है" जिससे यह साबित होता है कि वह प्रीति को अपनी जागीर समझता हैl उसका प्रीति से यह कहना, "कौन है तू कबीर सिंह की बंदी है तू वरना इस कॉलेज कैंपस में कोई नहीं जानता तुझे"  अत्यधिक घमंड से भरे हुए पुरुष का वास्तविक रूप है। 

इस फिल्म में कबीर सिंह को काफी बोल्ड और आक्रामक दिखाया है और प्रीती सिक्का को इसके विपरीत बहुत ही दब्बू स्वभाव का दिखाया है जो एक ऐसी लड़की का प्रतिबिंब है जिसे इस पुरुष प्रधान समाज में कदम कदम पर समझौता करना सिखाया जाता है और जो अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकतीl

प्रीति सिक्का के मां बाप द्वारा इस रिश्ते की स्वीकारोक्ति न मिलने पर कबीर सिंह क्रोध में आकर प्रीति सिक्का को धमकी देता है व उसको थप्पड़ मार देता है लेकिन फिर भी प्रीति चुप रहती है और इसका विरोध नहीं करती जो बहुत ही आश्चर्यजनक है क्योंकि एक लड़की जो भविष्य में डॉक्टर का पेशा अपनाने वाली है वह कबीर सिंह के धमकी देने व थप्पड़ मारने पर कोई रिएक्शन नहीं देती और चुपचाप चली जाती है जो कहानीकार द्वारा इस बात को दर्शाता है कि पुरुषों द्वारा स्त्रियों को डराना, धमकाना और उन पर हाथ उठाना एक आम सी बात है वह मेरी नजर में बिल्कुल गलत हैl

प्रीति का कहीं अन्य विवाह हो जाने पर कबीर सिंह यह सोच कर बदहवास हो जाता है कि जिस लड़की पर उसका हक था उसे छोड़कर किसी दूसरे  के पास कैसे चली गई? उसे शराब और ड्रग्स की लत लग जाती है जिसका दोषी कहानीकार द्वारा प्रीती सिक्का को जो कि इस फिल्म की हीरोइन है ठहराने की कोशिश की गई है जो बहुत ही गलत उदाहरण है और स्त्रियों के साथ पक्षपात है व दर्शकों के दिमाग में स्त्रियों की तुलना में पुरुषों के प्रति अधिक संवेदनशीलता उत्पन्न करता हैl इस फिल्म में कबीर सिंह जिस तरह की अशोभनीय हरकत करता है उससे यह साफ जाहिर होता है की स्त्री पर पुरुष का एकाधिकार वाकई खतरनाक है।

कहानीकार ने फिल्म में जिस तरह से स्त्रियों का प्रस्तुतीकरण किया है उसे देखकर ऐसा लगता है कि उसकी नजर में स्त्रियों के लिए कोई इज्जत नहीं है व स्त्रियों पर शासन करना या उन पर हावी होना पुरुषों के लिए गौरव की बात है क्योंकि शराबी, ड्रग एडिक्ट और गुस्सैल होने के बावजूद स्त्रियां उसे अपनाने के लिए तैयार रहती हैंl क्या वास्तविक जिंदगी में स्त्रियां ऐसे पुरुषों को बर्दाश्त कर सकती हैं?

इस फिल्म का हमारे युवकों पर गलत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है क्योंकि अगर वे कबीर सिंह की लाइफ स्टाइल का पालन करते हैं तो हमारे समाज में युवतियों की कोई कद्र नहीं रह जाएगी और समय-समय पर युवकों द्वारा अपमान सहना पड़ेगाl इस वजह से मैं इस तरह की फिल्मों के सख्त खिलाफ हूं जो समाज में युवकों को दिग्भ्रमित करती हैं और स्त्रियों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाती हैंl

थप्पड़  -  इस पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की मनो स्थिति को दर्शाती एक फिल्म

थप्पड़ फिल्म चार स्त्रियों की अलग-अलग परिस्थितियों पर आधारित है जो इस पुरुष प्रधान समाज में अपने अस्तित्व को तलाशना चाहती हैंl
सुनीता घरों में काम करने वाली एक नौकरानी है जो रोज अपने पति से मार खाती है फिर भी अनदेखा कर देती है और ऊपर से हंसती रहती है पर अंत में उसकी सहनशक्ति जवाब दे जाती है और वह इसका विरोध करती हैl फिल्म का एक डायलॉग  "तुझे मारने के लिए लाइसेंस चाहिए क्या मुझे" एक पुरुष के मनो मस्तिष्क पर जड़ जमाए श्रेष्ठता का बोध है जो स्त्री को सदैव अपने से कमजोर और स्वयं को मालिक समझता आया हैl

माया जो एक पेशेवर वकील है उसके पति द्वारा बार-बार यह कहना उसकी पहचान जस्टिस जय सिंह की बहू और रोहित जय सिंह की बीवी के रूप में है उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाता है जैसे कि उसका कोई अस्तित्व ही न होl उसके पति रोहित द्वारा बार-बार उसका शोषण करने के बावजूद वो रिश्ते को निभाती रहती है पर अंत में उसे एहसास होता है और अपनी घुटन भरी जिंदगी से छुटकारा पाना चाहती हैl

सुनीता एक पढ़ी-लिखी हाउसवाइफ है जो अपने पति विक्रम की हर छोटी-बड़ी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखती है और अपने को काफी खुशहाल समझती है किंतु अचानक एक पार्टी में उसका यह भ्रम टूट जाता है जब विक्रम क्रोध में आकर उसके गाल पर थप्पड़ मार देता हैl क्या स्त्री की यही अहमियत है कि पुरुष मौका मिलते ही उस पर अपनी कुंठा उतारे?

एक स्वाभिमानी स्त्री होने के नाते अमृता को काफी ठेस पहुंचती है और एक पल में ही विक्रम के प्रति उसका प्यार खत्म हो जाता हैl

लोगों के अनुसार " एक थप्पड़ ही तो था मार दिया तो क्या हुआ? औरत को बर्दाश्त करना सीखना चाहिए”। आप ही बताएं अगर यही थप्पड़ सुनीता विक्रम के गाल पर मारती तब भी क्या लोग यही कहते? एक पत्नी जो कदम कदम पर पति का साथ देती है और अपनी महत्वाकांक्षाओं को मार कर काफी हद तक वैवाहिक जीवन से समझौता करती है उसके साथ पति का दुर्व्यवहार करना व उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाना कहां तक उचित है? अमृता के रूप में कहानीकार ने एक ऐसी आत्मविश्वास से भरपूर स्त्री को दिखाया है जो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करती कि कोई पुरुष उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए जो वाकई प्रशंसनीय है। अमृता हमारे लिए कहानी का पात्र ही नहीं है बल्कि एक ऐसी स्त्री है जो पुरुषों को चुनौती दे रही है कि अब हम पर तुम्हारा हुकुम नहीं चलेगा l 

शिवानी एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली आत्मनिर्भर सिंगल मदर है जो अपनी बेटी के साथ एक अच्छी जिंदगी व्यतीत कर रही हैl उसके ऐशो-आराम को देखकर विक्रम का यह कहना  " यह करती क्या है " पुरुषों की उस मानसिकता को दिखाता है जो यह बर्दाश्त नहीं कर पाते कि कोई भी स्त्री रोजगार के क्षेत्र में उनसे आगे बढ़े और उन्हें चेतावनी दे।

इस फिल्म से यह निष्कर्ष निकलता है स्त्री चाहे किसी भी तबके की हो और चाहे किसी भी परिस्थिति में हो उसे अपने ऊपर हो रहे अन्याय का डटकर मुकाबला करना चाहिए तभी वह इस पुरुष प्रधान समाज मैं गौरव और आत्म सम्मान के साथ अपनी जिंदगी व्यतीत कर सकती हैl

क्या पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों की प्रधानता ही नारी के अपमान का कारण है?

मेरे ख्याल से घरों में अगर बचपन से ही लड़कियों की परवरिश इस ढंग से की जाए कि उन्हें इस बात का कदापि एहसास न हो कि वे किसी भी मामले में लड़कों से कम हैंl विभिन्न क्षेत्रों में जैसे कि शिक्षा, खेलकूद इत्यादि जिनमें लड़कियों की रुचि हो उन्हें आगे बढ़ाया जाए जिससे वे इस पितृसत्तात्मक समाज में अपनी उपयोगिता को साबित कर सकेंगी और उनका मूल्यांकन केवल रूप रंग से ना होकर उनकी बुद्धि और क्षमता से होगा जो उनकी उन्नति के लिए अति आवश्यक हैl लड़कियों के साथ पक्षपात न करके उन्हें वे सभी सुविधाएं और हक मिलने चाहिए जो घरों में लड़कों को मिलते हैं जिससे लड़कियों में हीन भावना नहीं पनपेगी और भविष्य में उनका मुकाबला अगर लड़कों से होता है तो वे बहुत ही आत्मविश्वास व  दृढ़ता के साथ उनका सामना कर पाएंगी। जिससे काफी हद तक लड़कियों के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदला जा सकता है और लड़कियां बिना किसी दबाव के अपने निर्णय ले सकती हैं व इस पुरुष प्रधान समाज में अपना अस्तित्व कायम कर सकती हैंl

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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