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मुद्दा: नई राष्ट्रीय पेंशन योजना के ख़िलाफ़ नई मोर्चाबंदी

एनपीएस के विरोध में आज नयी बात क्या है? यह पूरी तरह से राजनीतिक एजेंडे पर वापस आ गया है। और भाजपा के ट्रेड यूनियन को छोड़कर सभी ट्रेड यूनियनों द्वारा 28-29 मार्च की दो दिवसीय हड़ताल में प्रमुख मुद्दों में से एक बन गया है।
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फ़ाइल फ़ोटो

नई राष्ट्रीय पेंशन योजना (एनपीएस) का विरोध काफी पुराना है। 1 अप्रैल 2004 के ‘शुभ’ दिन पर लागू किए जाने के लगभग 17 साल बाद, यह नए सिरे से विरोध का सामना कर रहा है और अब राष्ट्रीय एजेंडे पर वापस आ गया है।

वास्तव में, नई राष्ट्रीय पेंशन योजना पुरानी पेंशन योजना से बहुत कमतर है और दोनों के बीच अंतर इतना गहरा है कि यह सरकारी कर्मचारियों के साथ क्रमशः आने वाली सरकारों द्वारा किया गया क्रूर मज़ाक व अन्याय है।

आइए हम केंद्र सरकार के तीसरे वर्ग (class 3) के एक कर्मचारी के मामले को लें- मान लीजिए, एक रेलवे कर्मचारी 14 साल की सेवा पूरा करने के बाद सेवानिवृत्त हो रहा है। उसका मूल वेतन 46,000 रुपये है।

पुरानी पेंशन योजना के तहत, कर्मचारी पूर्ण पेंशन का हकदार होगा, भले ही उसने 10 साल की सेवा पूरी की हो और सेवानिवृत्त हो गया हो। (हालांकि, यदि वह स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेता/लेती है, तो वह पुरानी पेंशन योजना के तहत 20 साल की सेवा पूरी करने के बाद ही पेंशन पाने का हकदार होगा /होगी। कुछ राज्य कर्मचारियों के मामले में सेवा के वर्षों की संख्या भिन्न भी हो सकती है।) वह मासिक पेंशन के रूप में वेतन का 50%, यानी 23,000 रुपये प्राप्त करेगा/करेगी। वह कम्यूटेशन (पेंशन के कम्यूटेशन  का अर्थ है पेंशनभोगी द्वारा स्वेच्छा से सरेंडर किये पेंशन के एक हिस्से के बदले एकमुश्त राशि का भुगतान।) द्वारा एक बड़ी राशि निकालने का विकल्प भी चुन सकता/ सकती है और वह एकमुश्त भुगतान के रूप में पेंशन राशि के 40% तक कम्यूटेशन के लिए ऑप्ट सकता है। यानी वह 9200 रुपये तक का कम्यूटेशन कर सकता है। उन्हें एकमुश्त थोक भुगतान के रूप में 9 लाख रुपये की एकमुश्त राशि मिलेगी। यदि हम इस कम्यूटेड मासिक राशि को घटा देते हैं, तब भी उसे 13,800 रुपये की मासिक पेंशन मिलेगी। लेकिन, कम्यूटेशन के लिए ऑप्ट करने के बाद भी, उसे 23,000 रुपये के आधार पर महंगाई भत्ता मिलेगा। कर्मचारी की मृत्यु होने पर आश्रित साथी/ विधवा, अविवाहित या तलाकशुदा आश्रित पुत्रियों को भी पेंशन मिलेगी।

नई राष्ट्रीय पेंशन योजना के तहत उनके खाते में 12 लाख रुपये जमा होंगे। वह इसमें से 60%, यानी 7.2 लाख रुपये, एकमुश्त भुगतान के रूप में निकाल सकता है और शेष 4.8 लाख रुपये पेंशन के लिए वार्षिकी में निवेश कर सकता है। 523 रुपये प्रति लाख के आधार पर उसे मात्र 2510 रुपये प्रतिमाह पेंशन मिलेगी। देखिए, यह 13,800 रुपये की तुलना में आश्चर्यजनक रूप से कितना कम है, जो उन्हें पुरानी पेंशन योजना के तहत संबंधित महंगाई भत्ते के अलावा मूल पेंशन के रूप में प्राप्त होता। 2510 रुपये और 13,800 रुपये के बीच तुलना ही क्या की जाय? आपके परिपक्व सेवानिवृत्त वृद्धावस्था में, यदि आपकी मासिक आय एक-पांचवें से भी कम हो जाए, तो आपको कैसा लगेगा? ज़रा सोच कर देखें।

यह, निश्चित रूप से, कुछ शर्तों के तहत एक विशिष्ट उदाहरण है। यदि सेवा के वर्ष और पेंशन कॉर्पस भिन्न हैं और कम्यूटेशन के विभिन्न स्तर हैं, तो अंतिम पेंशन के आंकड़े भी अलग-अलग होंगे। लेकिन बात यह है कि किसी भी स्थिति में एक कर्मचारी को एनपीएस में पुरानी पेंशन योजना के तहत मिलने वाली पेंशन की तुलना में अधिक पेंशन नहीं मिल सकती है।

आक्रोश... एकमात्र यही भावना पैदा होती है जब पिछले 17 वर्षों में अधिक से अधिक सेवानिवृत्त कर्मचारियों को एनपीएस के तहत पेंशन के रूप में दयनीय रूप से कम राशि मिलने लगती है। चूंकि डेढ़ दशक से अधिक समय बीत चुका है, सरकारों को शायद उम्मीद थी कि एनपीएस का विरोध खत्म हो जाएगा। लेकिन अन्याय के स्तर को देखते हुए, एनपीएस को खत्म किए जाने तक यह कभी समाप्त नहीं होगा। यह हर प्रमुख राजनीतिक मोड़ पर बार-बार सामने आता रहेगा। आखिर ऐसा अब हो ही गया है।

एनपीएस के विरोध में आज नयी बात क्या है? यह पूरी तरह से राजनीतिक एजेंडे पर वापस आ गया है और उत्तर प्रदेश में चुनावी मुद्दा भी बना। समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में जीतने पर पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने का वादा किया। प्रियंका गांधी द्वारा अशोक गहलोत को राजस्थान में पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने का निर्देश देने के बाद अब यह राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर छा गया है।

14 मार्च 2022 को अपनी बजट प्रस्तुति के दौरान अशोक गहलोत द्वारा घोषित करने के बाद कि राजस्थान पुरानी पेंशन योजना में वापस आ जाएगा, कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ ने भी तुरंत इसका पालन किया। सबसे महत्वपूर्ण, यह भाजपा के ट्रेड यूनियन को छोड़कर सभी ट्रेड यूनियनों द्वारा 28-29 मार्च 2022 को आयोजित दो दिवसीय हड़ताल में प्रमुख मुद्दों में से एक बन गया है। स्पष्ट रूप से केंद्र और भाजपा शासित राज्य सरकारों पर दबाव बनने लगा है।

दबाव का मतलब सिर्फ विपक्षी कांग्रेस द्वारा कुछ सामान्य किस्म का राजनीतिक दबाव नहीं है। बल्कि, यह प्रभावित कर्मचारियों द्वारा एक बहुत ही ठोस आंदोलनकारी दबाव है। उदाहरण के लिए, राजस्थान में पुरानी पेंशन योजना में वापसी की घोषणा के अगले ही दिन हिमाचल प्रदेश में सरकारी कर्मचारी सड़कों पर उतर आए। राज्य के लगभग सभी कोनों में पदयात्राएं शुरू हो गईं। ये पदयात्रा 9 दिनों तक चली और 3 मार्च को एक लाख से अधिक सरकारी कर्मचारी राज्य की राजधानी शिमला में एक विशाल रैली में जुटे। हिमाचल के छोटे से राज्य में इतनी बड़ी भीड़ शायद ही कभी देखी गई हो।

कर्मचारियों का आक्रोश इतना अधिक था कि हिमाचल प्रदेश के भाजपाई मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने एक समिति का गठन किया और इसे नई पेंशन योजना को जारी रखने या पुरानी योजना में वापस जाने के निर्णय को संदर्भित किया है।

इसलिए, एनपीएस के तहत पेंशन में कमी अब कर्मचारी संघों के आंदोलन के पर्चों और नारों में कोई मुद्दा नहीं रह गया है। यह अब किसी के सेल फोन के कैलकुलेटर में केवल गणना की बात भी नहीं है। जैसे-जैसे अधिक से अधिक लोग सेवानिवृत्त होते जा रहे  हैं, वे हर महीने अपनी पासबुक में आय में कमी देख रहे हैं। दिन-प्रतिदिन के खर्चों को पूरा करने के लिए पैसे ट्रांसफर करने के बाद जब भी वे बैंक बैलेंस देखते हैं तो उन्हें प्रत्यक्ष कष्ट महसूस होता है। अपने सेवानिवृत्त वरिष्ठ साथियों की दुर्दशा देखकर आज सेवा करने वालों में भी एक नई चेतना का संचार हुआ है कि कर्मचारियों के साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ है। कई लोगों को लगता है कि उन्हें बड़ी आसानी से मूर्ख बनाया गया है।

अप्रैल 2004 के बाद, कई लोगों ने उम्मीद खो दी थी, हालांकि वे इस झटके से उबर नहीं पाए थे। अंदर ही अंदर गुस्से से उनका खून खौल रहा था। यह एक ऐसी पीड़ा है जो महीने-दर-महीने दैनिक आधार पर सहन करना असंभव होता जा रहा है क्योंकि कोई व्यक्ति 2500 रुपये मासिक आय पाकर अच्छा जीवन नहीं जी सकता। राजस्थान और छत्तीसगढ़ की पुरानी पेंशन योजना की ओर लौटने के बाद अब कर्मचारियों में एक नई उम्मीद जगी है।

उन्होंने अपनी आंखों से देखा है कि डेढ़ दशक बाद भी पुरानी पेंशन योजना में वापस जाना व्यावहारिक रूप से संभव है। तो, उनकी अब केवल एक ही मांग है: “पुरानी पेंशन योजना पर वापस जाओ!”

अक्सर, लोगों के ज्वलंत मुद्दे प्रमुख राजनीतिक पुनर्गठन ला सकते हैं। कांग्रेस इस नए एनपीएस की वास्तुकार थी। यह वही कांग्रेस है जो अब यह मांग कर रही है कि भाजपा सरकार को 2004 से पहले की पुरानी पेंशन योजना पर वापस जाना चाहिए। कांग्रेस से परे भी राजनीतिक संरेखण (alignment) बदल गया है। 2004 में, एनपीएस की शुरुआत के समय, वामपंथियों के अलावा अन्य सभी दलों ने एनपीएस का समर्थन किया था। उनमें से अब सपा और द्रमुक ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया कि वे अपने-अपने राज्यों को पुरानी पेंशन योजना में वापस ले जाएंगे। ये अलग बात है कि सपा अब विपक्ष में है।

आज पश्चिम बंगाल को छोड़कर अन्य 28 राज्यों में एनपीएस प्रचलन में है। जहां तक वामपंथ का सवाल है, जब तक वे पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में शासन कर रहे थे, उन्होंने एनपीएस में जाने से इनकार कर दिया था और पुरानी पेंशन योजना पर ही टिके रहे थे। केरल में वाम के सत्ता गंवाने के बाद, यूडीएफ ने 2013 में वहां एनपीएस की शुरुआत की। इसी तरह, त्रिपुरा में भाजपा द्वारा वामपंथियों को हटाने के बाद, वे 2018 में एनपीएस की ओर बढ़े। केवल ममता बनर्जी, हालांकि वह अन्य मुद्दों पर सीपीआई (एम) की प्रबल विरोधी रहीं, पेंशन के मुद्दे पर उन्होंने साथ दिया था, और पश्चिम बंगाल ऐसा करने वाला अकेला राज्य होने के बावजूद पुरानी पेंशन योजना को जारी रखा। उसने दिखाया है कि यह निर्णय राज्य के वित्त को अनावश्यक रूप से प्रभावित नहीं करेगा। यदि पश्चिम बंगाल जैसे आर्थिक रूप से तनाव झेल रहे राज्य में ऐसा करना संभव है, तो इसे राजस्थान या छत्तीसगढ़ में या केरल और तमिलनाडु सहित किसी भी अन्य राज्य में संभव बनाया जा सकता है।

एमके स्टालिन ने चुनावी घोषणा पत्र में पुरानी पेंशन योजना की वापसी का वादा किया था। हालाँकि उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ लिए ठीक एक वर्ष हो गया है, लेकिन उन्होंने अब तक ऐसा नहीं किया है; न ही उन्होंने किसी निश्चित तारीख की घोषणा की है कि वह  इस स्विचओवर के लिए कब तैयार होंगे। तेलंगाना में भी के चंद्रशेखर राव ने पुरानी पेंशन योजना में वापस जाने का चुनावी वादा किया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद वह खुद अपनी बात  से पीछे हट गए हैं और केंद्र पर सारा दारोमदार छोड़ दिया है। लेकिन केसीआर यहां गलत हैं, क्योंकि एनपीएस किसी भी राज्य के लिए बाध्यकारी नहीं है। एनपीएस से संबंधित अधिनियम के खंड 12(4) में कहा गया है, "यदि राज्य सरकारें चाहें तो वे अपने कर्मचारियों को एक घोषणा के बाद एनपीएस के तहत ला सकते हैं।" आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ने भी इस मुद्दे को एक समिति में फंसा रखा है और फिलहाल टालमटोल कर रहे हैं।

दुर्भाग्य से, केरल के सीएम पिनाराई विजयन ने पहले के यूडीएफ के फैसले को नहीं बदला, ताकि वे अपनी पार्टी के स्टैंड के अनुरूप पुरानी पेंशन योजना में वापस चले जाते। यह किसी वामपंथी पार्टी के लिए समझ से परे है। यदि विजयन ऐसा करते, तो यह जरूर अन्य राज्यों में माकपा की उन कतारों की स्थिति को मजबूत करता, जो सड़कों पर उतरकर पुरानी पेंशन योजना में वापसी की मांग कर रहे थे। अन्यथा, सीपीआई (एम) रैंकों को कड़ा जवाब मिलेगा, कि पहले वे केरल में अपने दल के सीएम से ऐसा करने के लिए कहें। हम केवल आशा ही कर सकते हैं कि सीपीआई (एम) का अखिल भारतीय नेतृत्व राजनीतिक रूप से इतना अधिक मजबूत हो कि उनके एकमात्र मजबूत नेता, जो उनकी सत्ता वाले एकमात्र राज्य में मुख्यमंत्री हैं, को एक सैद्धांतिक स्टैंड लेने के लिए प्रभावित कर सके।

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कुछ गुलाबी अखबारों (pink papers) और बिजनेस टीवी चैनलों ने कांग्रेस के पुरानी पेंशन स्कीम को वापस लाने के कदम की निंदा की है। फाइनेंशियल एक्सप्रेस ने इसे 'राजकोषीय आपदा' (fiscal disaster) बताया है। बिजनेस लाइन ने इसे ‘राजकोषीय लोकलुभावनवाद’ (fiscal populism) के रूप में समय-परीक्षित सुधारों का रिवर्सल और एक अवांछनीय मिसाल बताकर निंदा की है।

अब, आइए हम इस उत्क्रमण की जमीनी स्तर पर व्यवहार्यता के प्रश्न का समाधान करें। एनपीएस एक शून्य-बजट प्रस्ताव है। इसका मतलब है कि कर्मचारी संपूर्ण रूप से अपने पेंशन की लागत को पूरा करने के लिए भुगतान करेंगे और संबंधित सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ शून्य होगा। इसके विपरीत, पुरानी पेंशन योजना वह है जहां लागत का एक हिस्सा राजकोष (exchequer) द्वारा वहन किया जाता रहा है। बिल का एक हिस्सा राज्य भरता है। इसलिए, पुरानी पेंशन योजना में कोई स्विचओवर भी एक कीमत के साथ आएगी।

राज्यों पर ठोस अतिरिक्त वित्तीय बोझ अभी तक संबंधित राज्य सरकारों द्वारा दर्शाया नहीं गया है। कुछ स्वतंत्र अनुमानों ने इस आंकड़े को कुल पेंशन बिल में 7.5% की वृद्धि बताया है। पेंशन कुछ समय के लिए कल्याण और ढांचागत विकासात्मक गतिविधियों के बरखिलाफ प्राथमिकता ले सकती है। लेकिन यह किसी भी कीमत पर असहनीय बोझ नहीं है।

55 लाख से अधिक केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारी पहले ही एनपीएस के तहत आ चुके हैं। उनमें से लगभग 14 लाख नेशनल मूवमेंट फॉर ओल्ड पेंशन स्कीम (NMOPS) नामक एक मंच में गोलबंद हो चुके हैं। यदि 28-29 मार्च 2022 की आम हड़ताल भविष्य के घटनाक्रम की गति को निर्धारित करती है, और बाद में यदि यह NMOPS केंद्र व राज्य सरकार के कर्मचारियों द्वारा ठोस सीधी कार्यवाही (direct action) के साथ आगे बढ़ती है तो यह एक नया इतिहास रचने के बराबर होगा।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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