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झारखंड : ‘मरांग बुरु’ (पारसनाथ) को लेकर आदिवासी-मूलवासी समुदायों ने दिखाई एकजुटता

गत 10 जनवरी को हुए महाजुटान को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने एक स्वर में कहा, कल तक हमें विकास के नाम पर विस्थापित किया गया और अब तथाकथित धार्मिक आस्था के नाम पर विस्थापित किया जा रहा है। ऐसा नहीं होने दिया जाएगा।
parasnath

पारसनाथ पहाड़ी का मुद्दा धार्मिक से ज्यादा सामाजिक-राजनीतिक विवाद का मुद्दा बनाने में राजनीतिक शक्तियां लगी हुई हैं। इसमें उनको अपना वोट-साधने का हित दिखने लगा है। वैसे भी प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा हेमंत सरकार के ख़िलाफ़ उठने वाले किसी भी मुद्दे को कभी नहीं छोड़ती है। इसीलिए इस मामले में भी जब जैन समाज के लोगों ने राज्य सरकार के विरोध में अपनी मांगों को लेकर सड़क पर उतरे तो भाजपा और विश्व हिंदू परिषद सबसे आगे बढ़कर उनके मुखर समर्थन में उतर गयी।

केंद्र सरकार, जिसके वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 2019 में ही इस पूरे इलाक़े को ‘इको सेंसेटिव ज़ोन’ घोषित कर दिया था, उसने जैन समाज की मांगों पर हमदर्दी जताते हुए आनन फानन झारखंड सरकार से पारसनाथ पहाड़ी क्षेत्र को ‘जैन समाज के पवित्र-धार्मिक स्थल’ घोषित करने के लिए अनुशंसा पत्र भेजने का फ़रमान दे दिया। हालांकि ‘इको सेंसेटिव ज़ोन’ घोषणा को वापस लिए जाने का मामला जो इसी संदर्भ से जुड़ा हुआ अहम पहलू था, उसे बड़ी चालाकी से चर्चा में आने ही नहीं दिया।

वहीँ, पिछले रघुवर दास के शासन काल में “मॉबलिंचिंग हब” बन रहे झारखंड के मुस्लिम-इसाई अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों पर तमाशाई बने रहने वाले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भी त्वरित संज्ञान लिया और झारखंड की सरकार को जल्द से जल्द जैन समाज को हर संभव सहयोग देने का सुझाव भेजा।

दूसरी ओर, भाजपा की सियासी तिकड़मों से जूझ रही हेमंत सरकार ने भी ख़ुद को चैंपियन साबित करने के लिए पारसनाथ को जैन धर्म का “पवित्र धार्मिक स्थल” बनाने का अनुशंसा-पत्र भेज दिया जिसमें उस क्षेत्र के मूलनिवासी संताल आदिवासी और अन्य मूलवासियों के आराध्य ‘मरांग बुरु’ पहलू की कहीं कोई चर्चा नहीं है।

अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान सरकारी गज़ट में पीसी राय द्वारा लिखित ‘हज़ारीबाग़ गजटियर 1932’ (तब गिरिडीह भी इसी ज़िले में शामिल था) में पारसनाथ पहाड़ी श्रृंखला का उल्लेख ‘मरांग बुरु’ के रूप में था। साथ ही इसमें यह भी दर्ज़ था कि यहां हर वर्ष संताल आदिवासी व अन्य मूलवासी समुदाय के लोग सरहुल व कई अन्य पर्व मनाने के लिए भारी तादाद में इकट्ठे होते थे। जो सबसे पहले मरांग बुरु के सम्मान में सफ़ेद मुर्गे की बलि देकर हड़िया के प्रसाद का पान कर रात भर सामूहिक नाच-गान करते थे।

इतने बड़े सच को भाजपा समेत केंद्र व झारखंड की सरकारों द्वारा अनदेखा किये जाने से आदिवासी-मूलवासी समुदाय में भारी नाराज़गी फैल गयी। सभी को लगने लगा कि जैन आस्था की आड़ में उनकी हक़मारी कर उन्हें हमेशा के लिए यहां से विस्थापित करने की साज़िश रची जा रही है। विशेषकर झामुमो की चुप्पी ने आदिवासी-मूलवासियों को सबसे अधिक परेशान किया।

यही मूल कारण बना कि 10 जनवरी को ‘मरांग बुरु बचाओ’ अभियान के लिए पारसनाथ पहाड़ी पर ‘महाजुटान’ करने का ऐलान किया गया। अपने पुरखों की पारंपरिक धरोहर और आस्था के स्थल से हटाये जाने तथा यहां आकर मांस-मदिरा खाने के विरोध के नाम पर सबके आने पर ही प्रतिबंध लगाने की बात ने सभी को आक्रोशित कर दिया। उनका कहना था कि यहां कल तक हम इसके घोषित मालिक थे और आज यहां हमारे ही आने जाने पर रोक लगाई जा रही है।

इतने संवेदनशील मसले पर अपनी पार्टी की निराश करने वाली भूमिका से तंग आकर झामुमो के वरिष्ठ विधायक लोबिन हेम्ब्रम ‘मरांग बुरु बचाओ अभियान’ के अग्रणी में शामिल हो गए और उन्होंने अपने बयान में कहा कि मरांग बुरु, पारसनाथ पहाड़ी ज़माने से यहां के आदिवासी-मूलवासियों का रहा है, आज इसका अधिकार हमें नहीं मिला तो अपनी सरकार को भी आईना दिखाया जाएगा। हेमंत सोरेन चाहें तो हमें पार्टी से हटा सकते हैं, माटी से नहीं हटा सकते।

उधर, पूर्व घोषित कार्यक्रम के तहत 10 जनवरी को पारसनाथ पहाड़ी पर ‘महाजुटान’ में शामिल होने के लिए भारी तादाद में जगह-जगह से लोग आए। झारखंड समेत कई राज्यों के आदिवासी युवा और महिलाएं-पुरुष पैदल-जत्थों की शक्ल में पारसनाथ पहाड़ी की ओर पहुंचने लगे लेकिन प्रशासन ने पूरे इलाक़े को पुलिस छावनी में तब्दील कर लोगों को आगे बढ़ने से रोक दिया। परिणामस्वरूप ‘महाजुटान’ कार्यक्रम पारसनाथ पहाड़ी के नीचे अवस्थित पुलिस थाना से सटे हटिया मैदान में हुआ।

इस महाजुटान को संबोधित करते हुए सभी वक्ताओं ने एक स्वर में कहा, कल तक हमें विकास के नाम पर विस्थापित किया गया और अब तथाकथित धार्मिक आस्था के नाम पर विस्थापित किया जा रहा है। ऐसा नहीं होने दिया जाएगा।

‘मरांग बुरु’ हमारी आस्था, पहचान और अस्तित्व का प्रतीक है और हम यहां के मालिक हैं। बाहर से आकर यहां पूजा-अराधाना करने वालों के धार्मिक पवित्रता की रक्षा के नाम पर हमारे आराध्य पहाड़ी क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश, हमारे अस्तित्व पर हमला है। हम भी अपनी पवित्रता किसी क़ीमत पर नष्ट नहीं होने देंगे।

इस बात की भी घोषणा की गयी कि आगामी 25 जनवरी तक यदि केंद्र और झारखंड की सरकारों ने ‘मरांग बूरु’ को आदिवासी-मूलवासियों का पारंपरिक आराधना-स्थल घोषित नहीं किया तो व्यापक स्तर पर हमारा भी आंदोलन शुरू हो जाएगा। कार्यक्रम के दौरान नरेंद्र मोदी और हेमंत सोरेन सरकार विरोधी नारे लगाते हुए उनके पुतले को जलाकर विरोध दर्ज किया गया।

पूरा कार्यक्रम शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हुआ और कहीं से भी कोई अप्रिय घटना की ख़बर नहीं आई। लेकिन मीडिया की ख़बरों में बताया गया कि यहां पहुंच रहे आदिवासी तीर-धनुष इत्यादि पारंपरिक हथियारों से पूरी तरह लैस हैं, जबकि ये तीर धनुष उनका पारंपरिक हथियार है। इतना ही नहीं कई चैनलों की भाषा तो ऐसी रहा कि मानो- आदिवासी यहां चढ़ाई करने आ रहे हों।

उक्त प्रकरण में हो रही सियासत को देखते हुए यह सच फिर से सामने आ गया है कि आदिवासी समाज जो भाजपा व उससे जुड़े संगठनों को लेकर हमेशा सशंकित रहता है, वह यूं ही नहीं है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो पारसनाथ पहाड़ी क्षेत्र के स्थानीय मूलनिवासी आदिवासी-मूलवासियों समेत झारखंड व अन्य राज्यों में बसे लोगों को सबसे गहरी पीड़ा है।

लोगों की नाराज़गी इस बात को भी लेकर है कि जैन समाज का आंदोलन और उसके पक्ष में मुखर होकर उतरे भाजपा-विहिप की सक्रियता को जितनी तत्परता से मीडिया ने महत्व देकर उनके पक्ष में प्रभा मंडल रचा, ‘मरांग बुरु बचाओ’ अभियान को लेकर यहां के मूल निवासी संताल आदिवासी व अन्य मूलवासियों के पक्ष में वह कहीं से भी नहीं दिखा।

बल्कि इसके उलट मीडिया की नकारात्मक भूमिका देखकर यह कहना ग़लत नहीं होगा कि वर्षों शासन-प्रशासन के “ग्रीन हंट” का सामना करने वाले आदिवासी-मूलवासी अब “मीडिया हंट” के निशाने पर हैं।

अलबत्ता, एक राहत भरी ख़बर ज़रूर है कि गिरिडीह ज़िला प्रशासन ने तमाम अफ़वाहों और उलूल-जलूल क़यासों को ख़ारिज़ करते हुए ये ज़ोर देकर कहा है कि विगत 8 जनवरी को ही जैन समाज और संताल आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों समेत अन्य जनप्रतिनिधियों की संयुक्त बैठक हो चुकी है। जिसमें सबकी सहमति से ये तय हुआ है कि पारसनाथ पहाड़ी क्षेत्र में जैन समाज के लोगों के साथ साथ यहां के आदिवासी-मूलवासियों की आदिकाल से चली आ रही पूर्ववत परम्पराएं जारी रहेंगी। इनमें न कुछ नया जोड़ा जाएगा और न ही हटाया जाएगा। बैठक के मुख्य आयोजक गिरिडीह ज़िला डीसी ने दोहराया कि पारसनाथ पर्वत ‘मरांग बुरु’ थे, हैं और रहेंगे !

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