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4जी के दौर में 2जी: कश्मीरी छात्रों पर भारी पड़ता कभी न ख़त्म होने वाले लॉकडाउन

अपने ही देश के नागरिक जिस ख़ास भेदभाव का सामना कर रहे हैं, उस पर मीडिया और देश की मुख्यधारा के राजनीति की ख़ामोशी पर सवाल उठाये जाने की ज़रूरत है।
4जी के दौर में 2जी

जिस समय देश में 4जी हाई-स्पीड इंटरनेट की पहुंच हो और लॉकडाउन के दौरान वेबिनार (इंटरनेट पर आयोजित किये जा रहे सेमिनार) और ऑनलाइन कक्षायें संचालित हो रहे हों, ठीक उसी समय कश्मीर के साथ ख़ास तौर पर मोबाइल टेलीफ़ोन और इंटरनेट तक बुनियादी पहुंच के मामले में भेदभाव किया जा रहा है।

अब इस खंडित केंद्र शासित प्रदेश में लॉकडाउन शब्द और अनिश्चितता यहां रहने वालों के जीवन का एक स्थायी हिस्सा बन गये हैं। धारा 370 के निरस्त होने के बाद से जम्मू-कश्मीर का छात्र समुदाय संचार बंदिश की दोहरी मार झेल रहा है और शैक्षणिक संस्थान अनिश्चित समय के लिए बंद हैं। ऑनलाइन क्लास को लेकर जो यहां उत्साह था,धीरे-धीरे वह उत्साह ग़ायब होता जा रहा है,क्योंकि यहां इंटरनेट सेवायें 2G तक सिमट गयी हैं।

कश्मीर में ऑनलाइन कक्षाओं को लेकर दिये गये सरकारी दिशानिर्देशों को लागू नहीं किया जा सकता है और ये हालात वहां के छात्रों पर भारी पड़ रहे हैं। क़रीब-क़रीब सभी एप्लिकेशन और इंटरैक्टिव सॉफ़्टवेयर,जो वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग और इंटरेक्शन की सुविधा मुहैया करा सकते हैं, वे सबके सब 4 जी पर निर्भर हैं और इस 4 जी तक पहुंच नहीं होने के चलते यहां लोग पीछे रह जा रहे हैं।

जम्मू के कठुआ ज़िले की रहने वाली मधुबाला, जो पीएच.डी. की छात्रा हैं और सहायक प्रोफ़ेसर की नौकरी के लिए ज़रूरी पात्रता हासिल करने के लिए नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट (NET) की तैयारी कर रही हैं,वह कहती हैं, "यहां जम्मू-कश्मीर में ऑनलाइन क्लासेज किसी ढकोसले से ज़्यादा कुछ भी नहीं हैं। देश भर के छात्र जहां 4 जी से चलने वाले इस ऑनलाइन क्लासेस से फ़ायदे उठा रहे हैं,वहीं हम यहां 2 जी से जूझ रहे हैं। सरकार को हमारी इन परेशानियों को लेकर अपनी आंखें खोलनी चाहिए।”

इस केन्द्र शासित प्रदेश में अध्ययन और अध्यायपन को उन ऑडियो और छोटे-छोटे वीडियो क्लिप रिकॉर्ड करने और उन्हें व्हाट्सएप पर छात्रों के साथ साझा करने तक सीमित कर गया है, जिन्हें डाउनलोड करने के लिए छात्रों को घंटों संघर्ष करना होता है।

10-15 मिनट के किसी वीडियो क्लिप को डाउनलोड करने में दिन लग सकते हैं और शिक्षकों (भेजने वाले के तौर पर) और छात्रों (पाने वाले के तौर पर) दोनों को 2G कनेक्शन की सीमित गति का इस्तेमाल करके व्हाट्सएप पर 25-30 एमबी की ऑडियो क्लिप को अपलोड / डाउनलोड करने के लिए घंटों का इंतज़ार करना पड़ता है।

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बांदीपुरा के एक हाई स्कूल के शिक्षक नसीर अहमद कहते हैं, “इंटरनेट की इस ख़राब स्पीड के चलते हम शिक्षक काफ़ी दुखी हैं और हम अपने लेक्चर को ठीक से नहीं पहुंचा पा रहे हैं। शुरू में इन कक्षाओं से जुड़ने की कोशिश कर रहे छात्रों की तादाद अच्छी ख़ासी थी, लेकिन अब यह संख्या हर दिन कम होती जा रही है।”

अहमद भी सरकार से इंटरनेट सेवाओं को बहाल करने का आग्रह करते हैं, ताकि कश्मीर के बच्चों को भी तबतक ऑनलाइन शिक्षा मुहैया करायी जा सके, जब तक कि यहां लॉकडाउन क़ायम रहता है।

ऑनलाइन कक्षाओं और सेमिनारों के संचालन में ज़ूम और गूगल मीट जैसे वीडियो इंटरैक्टिव सॉफ़्टवेयर के इस्तेमाल में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। लेकिन, ऐसे समय में इस पूर्ववर्ती राज्य जम्मू और कश्मीर के छात्रों को जम्मू-कश्मीर के नये प्रशासन द्वारा जटिल बना दिये गये संस्थागत भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।प्रशासन का दावा है कि इस महामारी से लड़ने में "2 जी इंटरनेट कोई बाधा नहीं बन रहा "।

इस राज्य में 4 जी इंटरनेट सेवाओं को बहाल करने को लेकर किसी भी आदेश को पारित करने से शीर्ष अदालत का इनकार भी बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। अदालत ने इस फ़ैसले को गृह मंत्रालय पर छोड़ दिया है, जिसने अव्वल तो प्रतिबंध लगा दिये हैं और इन प्रतिबंधों को जल्द उठाने का उनका कोई इरादा भी नहीं है। उच्चतम न्यायालय में इस इंटरनेट ब्लैकआउट को चुनौती देते हुए आग्रह किया गया था कि "हमारी मांग बस इतनी है कि हमें भी ऑनलाइन स्कूली शिक्षा हासिल करने दी जाए …"।

श्रीनगर में रहने वाले एक रिसर्च स्कॉलर,जो अपना नाम नहीं बताना चाहते,कहते हैं,"हमारे लिए लॉकडाउन कुछ नया नहीं है। हम पिछले कई सालों से उनमें से बहुत सारी चीज़ों को देखते आ रहे हैं और झेलते रहे हैं। हमारे स्कूल और कॉलेज औसतन हर साल चार-पांच महीने बंद ही रहते हैं। लेकिन, ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि हम इन सीमित संसाधनों का भी इस्तेमाल करें, और यह बेहद दर्दनाक है।"  

हालांकि राजनीतिक अशांति का मतलब है कि शिक्षा का प्रतिबंधों, इंटरनेट बंदी, और कर्फ़्यू के हाथों परेशान होना। इस महामारी ने उन छात्रों पर एक गहरा असर डाला है, जिन्हें अपने संस्थानों और विश्वविद्यालयों के बंद होने के बाद जम्मू-कश्मीर स्थित अपने-अपने घर लौटना पड़ा था। वे अब अपने सभी सहपाठियों के उलट ऑनलाइन कक्षाओं और वेबिनार में भाग नहीं ले सकते।

कई विशेषज्ञों ने इंटरनेट को प्रतिबंधित करने के केंद्र सरकार के इस फ़ैसले को "अनुच्छेद 16 में अवसर की समानता के संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार, और अनुच्छेद 19 में मौलिक अधिकार के रूप में परिभाषित सूचना के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन" बताया है। भारत के नागरिकों के तौर पर कश्मीरियों को भी उन्हीं संसाधनों के इस्तेमाल की ज़रूरत है, जिसका इस्तेमाल भारत के बाकी लोग कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या सरकार कश्मीरियों को भारत का नागरिक मानती भी है?’

इसी तरह, अपने ही देश के नागरिक जिस तरह से ख़ास भेदभाव का सामना कर रहे हैं,उस पर मीडिया और देश की मुख्यधारा की राजनीति की ख़ामोशी पर सवाल उठाये जाने की ज़रूरत है। यह भेदभाव बरतने जाने वाला बर्ताव कश्मीर के युवाओं में अलगाव की भावना को ही बढ़ाता है।

इस अस्थिर क्षेत्र में सुरक्षा को सुनिश्चित करने की ज़रूरत को देखते हुए कश्मीर के छात्रों और युवाओं को देश के बाक़ी हिस्सों से काटकर रखना और इस तरह से डिजिटल विभाजन को गहरा करते हुए उन्हें मौक़े देने से इनकार करना राष्ट्र हित में नहीं है।

लेखक उत्तराखंड के श्रीनगर स्थित गढ़वाल विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी विभाग में डॉक्टरेट के छात्र हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को भी आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

2G in the Times of 4G: Unending Lockdowns Take Toll on Kashmiri Students

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