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महाराष्ट्र: विकास और आग ने कैसे नष्ट कर दिया जंगल?

पिछले सात सालों के दौरान राज्य में 1 लाख 70 हज़ार 660 हेक्टेयर जंगल नष्ट हो गया। सवाल है कि इस छोटी अवधि के दौरान इस सीमा तक जंगल नष्ट क्यों हुआ?
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फाइल फ़ोटो। साभार : TOI

पिछले सात सालों के दौरान महाराष्ट्र में 1 लाख 70 हज़ार 660 हेक्टेयर जंगल नष्ट हो गया। सवाल है कि एक विकसित कहे जाने वाले राज्य में इस छोटी अवधि के दौरान इस सीमा तक जंगल नष्ट क्यों हुआ?

दरअसल, सच्चाई यह है कि जहां एक तरफ परियोजनाओं के कारण राज्य के जंगलों को निशाना बनाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ आग के कारण बड़े पैमाने पर जंगल ख़त्म हो रहे हैं।

गढ़चिरौली ने तोड़ दिए रिकार्ड

जब साल 2021 कोरोना के कारण वैश्विक महामारी का साल था, तब भी राज्य में जंगल को आग से बचाने के लिए 63 हज़ार से अधिक बार अलर्ट किया गया था। सबसे ज़्यादा अलर्ट छत्तीसगढ़ से सटे वन बहुल क्षेत्र गढ़चिरौली ज़िले में दर्ज किए गए। महत्वपूर्ण बात है कि साल 2018 से 2023 तक इन पांच वर्षों के दौरान इसी ज़िले में जंगल में आग लगने की सबसे ज़्यादा 11 हज़ार 527 घटनाएं हुईं। इसमें 33 हज़ार 870 हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में आ गया। गढ़चिरौली ज़िले के बाद कोल्हापुर, ठाणे और चंद्रपुर ज़िलों के जंगल को आग से बचाने के लिए सबसे ज़्यादा अलर्ट दर्ज हुए। इन ज़िलों के साथ विदर्भ अंचल के अमरावती ज़िले में भी बड़ी संख्या में आग लगने की घटनाएं सामने आईं।

सालाना 25 हज़ार हेक्टेयर जंगल आग में स्वाहा!

साल 2018 में महाराष्ट्र राज्य के अंतर्गत जंगल की आग से जुड़ी कुल 8,397 घटनाएं दर्ज हुईं, इसमें 44,219 हेक्टेयर जंगल नष्ट हो गया। फिर साल 2019 में 7,283 आग की घटनाओं में 36,006 हेक्टेयर जंगल जल गए। इसके अगले साल यानी 2020 में 6,314 आग की घटनाओं में 15,175 हेक्टेयर जंगल जल गया। इसी तरह, साल 2021 में जंगल में आग लगने की 10,991 घटनाएं हुईं, इसमें 40,218 हेक्टेयर जंगल जल गया। साल 2022 के आंकड़े देखें तो 7,501 आग की घटनाओं में 23,990 हेक्टेयर जंगल जल गया। वहीं साल 2023 में अब तक 4,482 आग की घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिसमें 11,048 हेक्टेयर जंगल जल गया। इस लिहाज़ से, राज्य में सालाना सामान्यत: 25 से 30 हज़ार हेक्टेयर जंगल जल जाता है।

जंगल में आग लगना क्यों ख़तरनाक?

जंगल की आग का मतलब पहाड़ी, घास के मैदान और वन क्षेत्रों में प्राकृतिक या अप्राकृतिक कारणों से लगने वाली आग है। राज्य में इतनी बड़ी संख्या में जंगल की आग लगना और जंगल का नष्ट हो जाना एक चिंताजनक संकेत है। वजह है कि लगभग तीन साल पहले विश्व प्रसिद्ध अफ्रीका के अमेज़न के जंगल में आग लग गई थी, जिससे जंगल को भारी नुकसान हुआ था। इसका परिणाम यह है कि ऑक्सीजन की भारी कमी दर्ज की जा रही है। जब बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होता है तो जंगल इस उत्सर्जन को अवशोषित कर लेते हैं। लेकिन, अगर वही जंगल आग में नष्ट हो जाए तो यह उत्सर्जन अवशोषित कैसे होगा? दूसरी तरफ, हाल के वर्षों में दुनिया के कई बड़े जंगलों में आग की बढ़ती घटनाएं सामने आ रही हैं। जैसे कि कनाडा में भी भीषण आग लग गई थी जिससे कि लाखों हेक्टेयर जंगल जलकर खाक हो गए। इस धुएं का असर न सिर्फ कनाडा बल्कि पड़ोसी देशों पर भी पड़ा। वहीं, भारत में भी हर साल गर्मियों में हज़ारों हेक्टेयर जंगल जल जाते हैं। महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य के लिए हर साल हज़ारों हेक्टेयर जंगल का जलना चिंताजनक बात है कि यहां छत्तीसगढ़ या मध्यप्रदेश की तुलना में वैसे भी कम जंगल है।

जंगल की आग से जुड़ी घटनाओं के कारण राज्य में वनों का विकास अवरुद्ध हो रहा है और जंगल की विकास दर प्रभावित हो रही है। जंगल की आग से भारी मात्रा में प्रदूषण फैलता है। इससे कार्बन की मात्रा भी बढ़ती है। एक बार जंगल की आग भड़कने के बाद महीनों तक ऐसी ही बनी रह सकती है।

क्यों लग रही आग?

राज्य में जंगल की आग पकड़ने के पीछे कुछ प्रमुख कारणों की पहचान तो की गई है, मगर सरकार की ओर से समाधान की दिशा में कोई खास प्रयास नहीं नज़र आ रहे हैं। ज़्यादातर प्रकरणों में देखा गया है कि आग प्राकृतिक रूप से बढ़े हुए तापमान और पेड़ की शाखाओं के एक-दूसरे से रगड़ने से उत्पन्न घर्षण से लग रही है। इसके अलावा सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर लापरवाही के कारण तो कभी जान-बूझकर ठेकेदारों द्वारा अधिक मुनाफा पाने के लालच के चलते जंगलों में आग लगा दी जा रही है। साथ ही, जब पेड़ों की पत्तियां सड़ती हैं तो वहां मीथेन गैस पैदा होती है और वह वातावरण में आग पैदा करती है। यही आग कई बार व्यापक रूप धारण करके बड़े पैमाने पर जंगल का सफाया कर देती है। लेकिन, समय रहते इसे रोकने के लिए सरकार के पास कोई ठोस कार्य-योजना नहीं है।

वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में जहां चरागाह क्षेत्र जंगलों से सटे हुए हैं, आम धारणाओं में से एक धारणा यह है कि पुराने घास के डंठल को अगर जलाए नहीं रखा जाए तो वे सख्त बने रहते हैं। जब मवेशी नई घास चरते हैं तो ये डंठल जानवर के होठों पर चिपक जाते हैं। इसलिए जानवर ठीक से चर नहीं पाते। ऐसी गलतफहमी आम है। लिहाज़ा, गर्मियों में सूखी घास को जला दिया जाता है। इससे भी जंगल में आग लग जाती है। कुछ स्थानों पर यह भी माना जाता है कि पुरानी घास को जलाने से ही बरसात के मौसम में नई अच्छी घास पैदा होगी। इन धारणाओं को तोड़ने के लिए आवश्यक है कि शासन स्तर पर समुदाय के साथ संवाद स्थापित हों और उन्हें जंगल को बचाने से जुड़ी पहल के साथ जोड़ा जाए। लेकिन, ऐसे प्रयास भी नहीं दिख रहे हैं।

ज़द में दुर्लभ वनस्पति और जीव-जंतु

जंगल की आग के कारण कई वृक्ष प्रजातियां जो दुर्लभ हैं, विलुप्त हो रही हैं। इसके अलावा, अन्य प्रकार के पेड़ों को भी नुकसान पहुंच रहा है। इनके साथ-साथ जंगलों में रहने वाले पशु-पक्षी भी बड़ी संख्या में मर जाते हैं। कई पशु-पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। जंगल की आग में छोटे कीड़ों से लेकर बड़े जानवरों तक की मौत की घटनाएं सामने आई हैं। वन क्षेत्रों में कुछ जानवरों और पेड़ों की प्रजातियां कम हो रही हैं। जंगल की आग के कारण कई सारी प्रजातियां लुप्त हो सकती हैं। जंगल की आग के कारण बड़े पैमाने पर नष्ट हो रहे पेड़ व जीव-जंतुओं के चलते प्राकृतिक असंतुलन पैदा हो सकता है। लेकिन, इस दिशा में कोई अध्ययन या शोध कार्य को लेकर भी सरकार जागरूक नज़र नहीं आती है। जंगल की आग से जंगल के जलने का आंकड़ा तो फिर भी सामने हैं, लेकिन इसके चलते दुर्लभ प्रजातियों और जीव-जंतुओं के नष्ट होने का व्यवस्थित लेखा-जोखा नहीं है।

राज्य के प्रयास बेहद सीमित

इस संबंध में महाराष्ट्र राज्य वन विभाग द्वारा उपचारात्मक योजना के तहत पहाड़ी क्षेत्रों एवं पठारी क्षेत्रों में पहले से ही निगरानी में कुछ मीटर की पट्टी जला दी जाती है। इसका कारण यह है कि कुछ भाग पहले ही जल जाने के बाद पत्तों, सूखी लकड़ियों के बाद आग जलाने के लिए कोई सामग्री नहीं बचती है। इससे आग फैलने से रुक जाती है। यदि जंगल में आग लग भी जाती है तो वह एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक नहीं जाती है। इस तरह, आग नियंत्रण में रहती है। परिणामस्वरूप वन सुरक्षित रहते हैं। लेकिन, इस तरह के प्रयास के चलते आग से मामूली जंगल ही बचता है। राज्य में लगने वाली जंगल की आग से जुड़े आंकड़े और उसके चलते तेज़ी से नष्ट हो रहा जंगल चेता रहा है कि कहीं इस मुद्दे पर सरकार की अनदेखी धीरे-धीरे एक दिन भारी न पड़ जाए।

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