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बनारस में गंगा किनारे दम तोड़ रहे कई तरह के पेशे!

बनारस में तांगा, रिक्शा चलाने वाले, बक्से, सिलबट्टे, हथकरघे आदि का काम करने लोगों के सामने रोज़ी-रोटी को लेकर किस तरह की चुनौतियां खड़ी हो गई हैं, पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की इस एक्सक्लूज़िव रिपोर्ट में।
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दुनिया की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले बनारस में तमाम फनकार, किस्से-कहानियों के हिस्से बनकर रह गए हैं। इस शहर से कई चीज़ें गुमशुदा हो गईं और कई हुनर भी। वो पेशे भी जिनके सहारे लोग कभी रोज़ी-रोटी चलाया करते थे। अब न उनके खरीददार बचे हैं और न पहले जैसे कारीगर। मौजूदा समय में बाज़ार तो हैं, लेकिन तौर-तरीके बदल गए हैं। अनूठे शहर बनारस में भी सिर्फ वही बच रहा है जो बदली हुई ज़रूरतों के हिसाब से खुद को बदलने की कोशिश कर रहा है।

न्यूज़क्लिक ने कई ऐसे फनकारों का हाल जानने की कोशिश की जिनकी बनारस में पहले धाक हुआ करती थी। गंगा घाटों के किनारे मालिश का काम करने वाले, पर्यटकों की फोटो खींचने वाले, तांगा वाले, रिक्शा वाले, टेलर मास्टर, हथकरघे पर रंगीन साड़ियां बुनने वाले फनकारों से लेकर लोहे का बक्सा और सिल-बट्टा बनाने वालों का दर्द एक-सा है। सभी महंगाई से बेहाल और मायूस हैं। इनके सामने रोज़ी-रोटी का बड़ा संकट है।

बनारस की पहचान एक ज़िंदादिल शहर के रूप में दुनिया भर के लोगों के ज़ेहन में है। सात बार नौ त्योहार मनाने वाले शहर में एक ऐसा हुनर दम तोड़ रहा है जिस पर कभी बनारस के रईस फिदा हुआ करते थे। गंगा स्नान से पहले घाटों पर मालिश करने वालों का एक बड़ा कुनबा बनारस में पलता था। गंगा घाटों पर सूर्योदय से पहले मालिश और चंपी करने वाले हाज़िर रहते थे। इन्हीं में एक हैं संतोष शर्मा। वह मूलतः चंदौली के रहने वाले हैं। बनारस के संकठा घाट पर सैलानियों की मालिश करने का काम करते हैं।

आखिर कैसे कटेगी ज़िंदगी?

संतोष पिछले डेढ़ दशक से गंगा घाटों पर मालिश करने का काम करते हैं। वह कहते हैं, "घंटे घड़ियाल और शंख–डमरुओं की लय पर हम लोगों के शरीर की मालिश किया करते थे। वे दिन अब लद गए जब धूप से नहाए गंगा किनारे चबूतरे पर पीठ टिकाकर आकाश के भूगोल को नापने वाले दूर क्षितिज की गहराई को समेटने वाले बनारसियों को हर पीड़ा हम दूर कर दिया करते थे। अब ये बीते दिनों की बात है। गंगा घाटों पर अब मालिश करने वाले कुछ फनकार ही बचे हैं। मालिश कराने वाले भी बहुत कम हैं। हमारे हुनर को सिर्फ खांटी बनारसी ही अहमियत देते हैं। मेरा एक ही बेटा है, उसी के भविष्य के लिए हम गंगा घाट पर पड़े हुए हैं, अन्यथा हम भी अपने गांव चले जाते।"

बिहार के भभुआ जिले के कोमल शर्मा साल 1990 से बनारस के गंगा घाटों पर मालिश का ये काम रहे हैं। वह कहते हैं, "अब वो पहले वाली बात नहीं है। पहले हमारे यहां लाइन लगा करती थी और हमें ग्राहकों का इंतज़ार करना पड़ता है। पहले यह पेशा बहुत अच्छा था। खर्चा बढ़ गया है। महंगाई भी बढ़ गई है और कमाई पहले से कम हो गई है। कोई मसाज कराना नहीं चाहता। सोचिए, कैसे कटेगी ज़िंदगी। मौजूदा समय में करीब दो दर्जन मालिश करने वाले लोग ही गंगा घाटों पर यह काम कर रहे हैं। इस पेशे के महारथी पुरनिया लोग अब ज़िंदा नहीं है। हमें नहीं लगता है कि हमारा पेशा अब ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा रह पाएगा। तेज़ी से बदलते वक्त के साथ हम भी बीते दिनों की याद बनकर रह जाएंगे।"

टूट रही परंपराएं, दम तोड़ रहे पेशे

बनारस के गंगा घाटों पर एक और भी हुनर पलता था, वो था कानों की सफाई की कला। एक छोटे से थैले में रूई के रुई के फाहा, अपने ही कान पर पीतल की तीली और ज़रूरी हुआ तो थोड़ा-सा तेल लेकर कान साफ करने वाले हर जगह दिख जाते थे। अपने ग्राहक को खास अदा के साथ पहले कान देखने और बाद में फिर कान की सफाई की सलाह देने वाले ऐसे लोग अब कम ही बचे हैं।

बनारस के खांटी पत्रकार ऋषि झिंगरन काशी विश्वनाथ मंदिर के पास रहते हैं। वह कहते हैं, "गंगा घाटों पर मालिश और कान साफ करने वाले अब ढूंढे नहीं मिलते। बनारस ऐसा गुरु है जो मरना नहीं, जीना सिखाता है। यहां का हर बाशिंदा अपने मिजाज से जीता है। गंगा में डुबकी लगाने वाले आज भी कम नहीं हैं, लेकिन वो फनकार गिने-चुने बचे हैं जो स्नान करने से पहले शरीर की मालिश कर दर्द मिटाकर तरो-ताजा कर दिया करते थे। लगता है कि कान साफ करने वाले बनारस हमेशा के लिए लापता हो गए हैं। बनारस के सिर्फ पेशे ही नहीं, परंपराएं भी टूट रही हैं। बनारस में सुबह तो रोज़ होती है, लेकिन घरों में नलों और शावरों से नहाकर होती है। वैसे भी रफ्ता-रफ्ता बहती गंगा में डुबकी लगाने की फिक्र किसको है? किसी को इस बात से भी फिक्र नहीं है कि बनारस में क्या बचा है और क्या गुम हो गया है?"

फोटोग्राफर्स के सामने भी चुनौती!

दो दशक पहले किसी को यादगार तस्वीरों की ज़रूरत होती थो वह दशाश्वमेध घाट पहुंच जाता था। वहां उसे कई फोटोग्राफर मिल जाते थे जो ट्राईपॉड के ऊपर रखे डब्बानुमा कैमरे के साथ खड़े रहते थे। फोटोग्राफर सैलानियों को भांप लेते थे। उन्हें कैमरे के सामने बिठाते थे और अपना सिर कैमरे के पीछे लगे काले कपड़े में डाल देते थे फ़ोटो खींचने के लिए। फ़ोटो खींचने के चंद पलों में फ़ोटो को डेवलप कर दिया जाता था। यह काम आसान नहीं था। सिर्फ हुनरमंद फोटोग्राफर ही ऐसी तस्वीरें खींचा करते थे। समय बदला। पोलराइड कैमरे आए। समय ने फिर करवट ली। पोलराइड कैमरे बनने बंद हो गए। अब मोबाइल फोन में इनबिल्ट कैमरों का ज़माना है। अब हर कोई फोटोग्राफर है।

बनारस के गंगा घाटों पर कुछ फोटोग्राफर अपनी दुकान के सामने पुराना डब्बानुमा कैमरा आज भी रखते हैं। सिर्फ दिखाने के लिए साइन बोर्ड के तौर पर। गंगा घाटों पर सैलानियों की फोटो खींचने में जुटे जुगनू से हमारी मुलाकात हुई तो उनकी आंखों में एक अजीब-सी चमक उभरी। उन्हें लगा कि हम फोटोग्राफी करना चाहते हैं। उन्हें जब यह पता चला कि हम पत्रकार हैं तो वो मायूस हो गए और बोले, "इंसान की इन्हीं इच्छाओं को मूर्त रूप देने के लिए फोटोग्राफी की तमाम नई तकनीक सामने आ रही है। पहले फोटोग्राफर को एक सिंगल क्लिक में ही परफेक्ट आउटपुट देना होता था, लेकिन डिजिटल युग के कैमरों ने हर किसी को फोटोग्राफर बना दिया है। पहले लकड़ी के बॉक्स वाले, हेजल ब्लेड कैमरे से फोटोग्राफी होती थी। उनसे ब्लैक एंड व्हाइट फोटो बनते थे। डिजिटल युग में सभी यादें फिल्म की जगह छोटी सी चिप में समा गई। जब हाईटेक कैमरे नहीं थे, तब भी तस्वीरें बनती थी। जब कैमरे का आविष्कार हुआ, तो फोटोग्राफी भी अपनी रचनात्मकता को प्रदर्शित करने का ज़रिया बन गया। मौजूदा दौर में फोटोग्राफरों का हुनर समूची दुनिया देख रही है। फोटो खींचना पहले भी एक बड़ी कला था और आज भी है। यह ऐसी कला है, जो हर किसी को नहीं आती है।"

"शादी-विवाह में ही बिकते हैं बक्से"

बनारस का एक पुराना मोहल्ला है नरहरपुरा जिसे लोहटिया के नाम से जाना जाता है। यहां लोहे के सामान बनाए और बेचे जाते हैं। मैदागिन से लहुराबीर जाते समय कबीरचौरा से पहले रास्ते में लोहे के बक्से बिकते हुए देखे जा सकते हैं। यहां विजय कुमार गुप्ता, पुल्लू गुप्ता, बचाऊ, कुंवर यादव, राजकुमार जायसवाल बक्से के पुराने कारोबारी हैं। बक्शे के कारोबारी विजय कुमार गुप्ता से मुलाकात हुई तो वो अपनी पीड़ा सुनाने बैठ गए। कहने लगे, "हमारी कई पीढ़ियां बक्सा बनाते-बनाते खप गईं। हम बक्सा नहीं बनाते, बनारस की एक पुरानी परंपरा को ढो रहे हैं। आज के ज़माने की तरह ब्रांडेड कंपनियों वाले सूटकेस, ब्रीफ़केस पहले नहीं होते थे। पहले लोहे की चादरों के बक्सों का चलन था। ससुराल जाने वाली दुल्हन सुंदर नक्काशीदार बक्से लेकर जाती थी। स्कूल जाने वाले बच्चे भी ऐसे ही बक्से लेकर स्कूल जाते थे। बदलते वक्त में अब इनका कोई खरीदार नहीं बचा।"

विजय कहते हैं, "सिर्फ शादी-विवाह के समय ही हमारे बक्से बिकते हैं। बाकी समय सिर्फ बैठकर गुज़ारना पड़ता है। भूले-भटके बक्सों के खरीददार आते हैं। हम जीपी शीट पर बक्से बनाते हैं और ट्रंक भी। अनाज और पानी रखने के लिए ड्रम, मिठाई वालों के लिए किश्ती और नाव भी बनाते हैं। सरकारी नौकरी वालों की ज़िंदगी सबसे आराम से कटती है। हम सुबह साढ़े आठ बजे दुकान पर आ जाते हैं और रात साढ़े नौ बजे तक बैठे रहते हैं। हमारे तीन बच्चे हैं। उनकी परवरिश बक्सों के दम पर कर पाना बेहद कठिन हो गया है। अब तो भूले-भटके गांव वाले आते तो वही बक्सा खरीदकर ले जाते हैं। बनारस के छोटे-बड़े कस्बों में थोड़े लोग बचे हैं, जो अब ऑर्डर पर टिन के छोटे-बड़े बक्से बनाते हैं।"

सिर्फ बनारस ही नहीं, पूर्वांचल और बिहार में छोटे बच्चों का पहला खिलौना लकड़ी से बनी तीन चक्कों वाली गाड़ी ही हुआ करती थी। तब वॉकर का चलन छोटे शहरों-कस्बों में नहीं था और इन्हीं गाड़ियों के सहारे बच्चे चलना भी सीखते थे। लकड़ी की बैलगाड़ी का चलन मध्य भारत में खूब था। इन्हें बनाने और बेचने वाले बढ़ई अब थोड़े से रह गए हैं। खोजवां में कुछ फनकार ये गाड़िया बनाते हैं और हड़हा सराय में बेच देते हैं, लेकिन इसे खरीदने वाले भी कहां बचे हैं!

बनारस के पक्के मुहाल की गलियों में पहले चुड़िहारिन घूमा करती थीं। गली-गली घूमकर रंग-बिरंगी चूड़ियां पहनाने वाली महिलाएं चुड़िहारिन कहलाती थीं। किसी ज़माने में हर चुड़िहारिन के हिस्से कोई गांव या मोहल्ला होता था। उसके परिवार का ही कोई सदस्य गांवभर में घूमकर चूड़ियां पहनाकर जाता था, जिसके बदले पैसा अथवा अनाज मिलता था। आखिरी पीढ़ी की तरह चुड़िहारिन औरतें अब मेले-ठेले अथवा छोटे हाट-बाज़ार में ही नज़र आती हैं।

भूल-भुलैया में खो गए तांगे

रमेश सिप्पी की सुपरहिट फ़िल्म 'शोले' में बसंती का तांगा हर किसी को याद है। ज़्यादा पुरानी बात नहीं है जब बनारस शहर में तांगा, यातायात का सस्ता और सुलभ साधन हुआ करता था। इसे शान की सवारी समझा जाता था। अब तांगे की जगह टोटो और ऑटो ने ले ली है। यही वजह है कि जहां तांगों की भरमार होती थी, वहां अब मुश्किल से ही तांगे नज़र आते हैं। गोदौलिया, सारनाथ, चौकाघाट आदि स्थानों पर इनका जमघट लगता था। गोदौलिया का तांगा स्टैंड अब मल्टी लेवल पार्किंग में बदल दिया गया हैं। बनारस में तांगा चलाने वाले मोहम्मद युसूफ कहते हैं, "पहले तांगा चलाया करते थे तो कुछ पैसे बचा भी लेते थे। उसी पैसे से हमने अपना मकान भी बनवाया। अब बाल-बच्चों की परवरिश कर पाना दूभर हो गया है। दो वक्त की रोटी जुटाने में हमें दिक्कत है। हमारा पुश्तैनी पेशा पूरी तरह से ख़त्म होने की कगार पर है।"

काशी रेलवे स्टेशन के पास रहने वाले अनीश खां की कई पीढ़ियां तांगा चलाते हुए गुज़र गईं। अनीश कहते हैं, "बनारस में जाम के झाम के चलते तांगा वालों के लिए कोई रास्ता बचा ही नहीं है। हम तांगा चलाना भी चाहें तो पुलिस वाले ही चलने नहीं देंगे। पेट पालने के लिए हमने कुछ बग्घियां रख ली हैं। लगन सीज़न में थोड़ी कमाई हो जाया करती है। बाकी समय हमें अपने घोड़ों की देखरेख और उसके चारे के लिए इंतजाम करने में भी गुज़र जाता है। कोरोना के संकटकाल में हम भूखों मरने की स्थिति में आ गए थे, क्योंकि शादियों के लिए बग्घियों की बुकिंग पूरी तरह ठप हो गई थी। हमारे सामने रोज़ी-रोटी के लाले पड़ गए थे।"

सिमटते जा रहे रिक्शा चालक

बनारस को अनूठी पहचान देने वाले रिक्शा चालक भी गुम होते जा रहे हैं। एक वक्त वो भी था जब रिक्शे ही बनारस की पहचान हुआ करते थे। इन्हें खींचने वालों में ज़्यादातर बिहारी और बंगलादेशी हैं। यहां मुंगेर, मोतिहारी, सीतामढ़ी के रिक्शा चालकों का दबदबा रहा है। लाकडाउन के बाद ज़्यादातर रिक्शा चालाक अपने घर-गांव लौट गए। जो बचे हैं उनके पास बेबसी और दम तोड़ती उम्मीदों के अलावा कुछ भी नहीं बचा है। बिहार के मोतिहारी से यहां रिक्शा चलाने वाले सोमारू से हमारी मुलाकात हुई तो उन्होंने गमछे से मुंह पोछा और फिर हमारी तरफ मुखातिब हुए। बोले, "दो दिन पहले गांव से फोन आया था। मां और पत्नी दोनों की तबीयत खराब है। दवा के लिए पैसे नहीं है। हम जितना कमाते हैं, राशन में ही खत्म हो जाता है। कहां से पैसे भेजें? पहले पांच-सात सौ रुपये कमा लेते थे। अंगरेज़ मिल जाया करते थे तो कमाई हज़ारों में हो जाया करती थी। अब पूरे दिन टकटकी लगाए रहते हैं कि कोई सवारी मिल जाए तो कुछ पैसे पॉकेट में आ जाएं।"

सतरंगी चादर में लिपटी काशी के सितारों में एक तबका कुम्हारों का भी है। लाकडाउन के बाद से ही इनकी ज़िंदगी ठहरी हुई है। कुल्हड़ के अलावा मिट्टी का कोई भी बर्तन नहीं बिक पा रहा है। दिवाली के समय कुछ दीये बिक जाया करते हैं। बाकी समय इनकी चाक के पहिए लाक ही रहते हैं। बनारस के ऐढ़े, इदिलपुर, नई बस्ती, भट्ठी, आयर, उदयपुर आदि इलाकों में कुम्हारों की चाक घूमती है। हज़ारों शिल्पकार मिट्टी पर कला उकेरकर अपना पेट भरते हैं। ऐढ़े गांव के बेचई प्रजापति का कुनबा कई पीढ़ियों से मिट्टी के बर्तन बना रहा है। वह कहते हैं, "हमारी ज़िंदगी के अरमान अब मटियामेट होते जा रहे हैं। घड़ा, गगरी, सुराही की बिक्री नहीं के बराबर होती है। हमारा पेशा भले ही खानदानी है, लेकिन कुम्हार समुदाय के पास मिट्टी पर अपना हक नहीं है। बनारस में कुम्हारी कला बची है तो सिर्फ कुल्लड़ों के दम पर। मिट्टी का दाम बढ़ने से हमारी पहचान मिट्टी में मिलती जा रही है। नई पीढ़ी कुम्हारी कला को सीखने के लिए तैयार नहीं है। कुम्हारी कला तभी बच पाएगी जब भूमिहीन कुम्हारों को ज़मीन और मुफ्त आवास मिलेगा।"

कैंची का धार हुई कमज़ोर

बनारस में पेशेवर नाइयों के धंधे भी इतिहास के पन्नों में सिमटते जा रहे हैं। पहले गंगा घाटों पर हजामत बनाने वालों का जखेड़ा मजमा लगाए रहता था। धार्मिक आयोजनों पर सिर का बाल उतारने वाले नाइयों की कहानी भी कम दुखदायी नहीं है। बदलते वक्त के साथ इनकी कैंची की धार कमज़ोर हो गई है। पेट भरने के लिए अब भारी इन्हें जद्दोजहद करनी पड़ रही है। एक छोटा-सा झोला हाथ में लिए, बाएं कंधे पर ललका गमछा लटकाए नाइयों को देखकर लोग आवाज़ लगाया करते थे और कुछ ही देर में हजामत बन जाया करती थी। इनका कहना है कि अब ज़मीन पर बैठकर कोई हजामत नहीं बनवाना चाहता। लाचारी में कुछ नाइयों ने काठ की कुर्सी रख ली है, जिससे उनकी ज़िंदगी घिसट-घिसटकर चल रही है।

बनारस की रेलवे कॉलोनी में सड़क के किनारे कुर्सी लगाए बैठे मनोज शर्मा कहते हैं, "ढलती उम्र के इस पड़ाव पर हम अपना पुश्तैनी धंधा नहीं छोड़ सकते हैं। दूसरा धंधा करने के लिए चाहिए पूंजी और अनुभव। दोनों ही चीज़ें हमारे पास नहीं हैं। बनारस शहर में तमाम तारांकित सैलून खुल गए हैं। तमाम पूंजीपति इस धंधे में आ गए हैं। हमारा पुश्तैनी धंधा तो पहले से ही चौपट हो गया है।"

बनारस के पक्के महाल की गलियों में टेलरिंग का हुनर भी पलता था जो अब दम तोड़ रहा है। इस शहर की गलियों में टेलर मास्टर बैठा करते थे जो लोगों के मन-मुताबिक हर तरह कपड़े सिल दिया करते थे। जब से टेलरिंग करने वाली बड़ी-बड़ी दुकानें खुल गई हैं तब से इन्हें कोई पूछने वाला नहीं रह गया है।

गायघाट इलाके में दशकों से टेलरिंग का काम कर रहे शिवकुमार श्रीवास्तव से मुलाकात हुई तो वह अपने दुखड़ा सुनाने लग गए। प्रसिद्ध मलाई साव की कचौड़ी की दुकान के सामने एक छोटे-से कमरे में अपनी पुरानी सिलाई मशीन लेकर बैठे रहते हैं। भूले-भटके कोई आता है तो बगैर हीला-हवाली के काम लेकर सिलाई करने में जुट जाते हैं। वह कहते हैं, "हमारी दुकान 75 साल पुरानी है। पहले हमारे पिता गुलाब दास श्रीवास्तव और उससे पहले हमारे दादा बैजू राम कपड़ों की सिलाई करते थे। हमारी दुकान काफी मशहूर थी। चौक तक से लोग हमारे यहां कपड़े सिलवाने के लिए आया करते थे। हमें लेडीज़ और जेंट्स दोनों के कपड़ों को सिलने का हुनर आता है, लेकिन महंगा कपड़े लेकर कोई इस डर से नहीं आता कि कहीं हम ड्रेस बिगाड़ न दें। हम पहले की तरह दुकान खोलते और बंद करते हैं। कुछ लोगों को पुराने कपड़ों को अल्टर करने काम मिल जाया करता है। बस किसी तरह से हमारी रोज़ी-रोटी चल रही है।"

शाही-ब्याह या किसी और तरह का आयोजन हो, गांव-देहातों में यहां तक की शहरों में भी खाने-पाने के लिए दोना-पत्तल का इस्तेमाल आम होता था। लेकिन अब बाज़ार में उनकी जगह नई किस्म के मशीन से बनने वाले कागज़, थर्मोकोल और प्लास्टिक के सफ़ेद-चमकीले दोने-पत्तलों ने ले ली है। यही वजह है कि हरे पत्तल-दोने अब कम ही नज़र आते हैं और इसी के साथ उन लोगों की रोज़ी-रोटी भी ख़तरे में पड़ गई है जो इन्हें बनाते थे। बनारस के कर्णघंटा की दुकानों में अब दोना पत्तल नहीं, कागज के दोना और थालियां बिका करती हैं।

सिलबट्टे का चलन गायब

बनारस में पत्थर के सिलबट्टे से मसाले पीसने का चलन सालों पुराना रहा है। बनारस के कई इलाकों में सिलबट्टे आज भी बिकते हैं, लेकिन मिक्सी मशीन आने के बाद इसके कद्रदान न के बराबर रह गए हैं। सिलबट्टा दो शब्दों से बना है, सिल और बट्टा। सिल एक सपाट पत्थर का स्लैब होता है जिसे आसानी से पीसने के लिए खुरदरा किया जाता है। बट्टा (जांता) एक बेलनाकार पत्थर होता है जिसके ज़रिये से किसी भी चीज़ को पीसा जाता है। इसका इस्तेमाल आमतौर पर गीली चटनी या पेस्ट बनाने के लिए किया जाता है। कुछ मल्टीनेशनल कंपनियां सिलबट्टा बना रही और मोटा मुनाफा भी कमा रही हैं। बाज़ारबाद में कोई पिस रहा है तो वह हैं कुछ साख जातियां जो दशकों से इस पेशे में लगी हैं।

बनारस के कैंट-रोहनिया मार्ग पर जनजाति के कुछ लोग इसी हुनर के ज़रिए अपना पेट पालते आए हैं। ऐसे ही एक परिवार की 56 बरस की कंचन देवी बताती हैं कि मिक्सी के बढ़ते चलन के कारण पिछले एक दशक से उनका कारोबार काफी कम हो गया है। कुछ ही घरों में सिलबट्टे इस्तेमाल किए जाते हैं। आमतौर पर सिलबट्टे पर चटनी और मसाले पीसे जाते हैं। सिलौटी बनाना हमारा खानदानी काम है। सिलौटी बनाते समय कई बार पत्थर उड़कर आंखों में चले जाते हैं। अगर आंखों में पत्थर जाएगा तो वह निकल भी जाएगा, पर शीशा गया तो निकल पाना मुश्किल हो जाता है।"

"सिलबट्टा बनाने के लिए हम सीतामढ़ी से पत्थर का सिलाप खरीद कर लाते हैं। उसी से हम सिलौटी और जांता बनाते हैं। एक सिलाप में तीन सिलौटी व जांता की जोड़ी बन जाती है। छैनी और हथौड़ी की मदद से पटिया पर हमें नक्काशी करनी पड़ती है। एक सिलौटी बनाने में हमें कम-से-कम दो घंटे का समय लगता है। एक सिलबट्टा हम 350-400 रुपये में बेचते हैं। सिलबट्टा नहीं बिकता तो उसे लेकर हम गांव-गांव में घूमते हैं। किसी दिन सभी सिलौटी बिक जाती है और किसी दिन खाली हाथ लौटना पड़ता है। बारिश के दिनों में हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ता क्योंकि उस वक्त सिलबट्टे की बिक्री कम होती है।"

पावरलूम के शोर में हथकरघे गुम

शादी कहीं भी हो, दांपत्य का रिश्ता बनारस की रेशमी साड़ियों से ही गाढ़ा होता है। बनारस के जिन घरों में ये रिश्ते बुने जाते हैं, उनके फनकार संकट में हैं। यूं तो बनारस के मदनपुरा, लोहता, बजरडीहा, पितरकुंडा के अलावा ग्रामीण इलाकों में बनारसी साड़ियों की बुनाई होती है। बनारस में पहले 80 हज़ार से ज़्यादा हथकरघे हुआ करते थे। हथकरघे की जगह अब पावरलूम ने ली ली है। हाथ से साड़ियों की बुनाई करने वाले गिने-चुने बुनकर ही बचे हैं। इन्हीं में एक हैं लल्लन। वह बनारस के नागेपुर गांव में हथकरघे पर रेशमी साड़ियां बुनतेत हैं। वह कहते हैं, "हमारे पास इतना पैसा कहां है जो हम पावरलूम बैठा पाएंगे। बुनकरी से अब ज़िंदगी नहीं चल सकती। पूरे दिन हम साड़ियों की बुनाई करते हैं तो मुश्किल से डेढ़ से दो सौ रुपये ही कमा पाते हैं। हर कोई जानता है कि हथकरघे पर बुनी साड़ियों की डिमांड ज़्यादा है और वह महंगी भी होती है, लेकिन कम मज़दूरी व अधिक समय लगने की वजह से यह पेशा हाशिए पर चला गया है।"

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "बनारस में लोग कभी न जाने के लिए आते हैं, लेकिन इस शहर से बहुत कुछ चला गया। ज़िंदगी की एक लय और सुकून ही नहीं, हज़ारों फनकारों का हुनर भी गुमशुदा हो गया। वो फनकार जिनकी अदा पर बनारस फिदा होता था। जिनके हुनर का हर कोई दीवाना हुआ करता था। अब सिर्फ बेचैनियां भरी पड़ी हैं। आडंबर है, बेबसी है खलबली है। लोग कहते हैं कि समय बदल रहा है, लेकिन वक्त के साथ जो चीज़ें बदल रही हैं अब उनका कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता। होता भी है तो सिर्फ किस्से और कहानियों में।"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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