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यूपी चुनाव के मिथक और उनकी हक़ीक़त

क्या ये कल्याणकारी योजनाएं थीं? या हिंदुत्व था? और बीजेपी ने चुनावों पर कितना पैसा ख़र्च किया?
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आम तौर पर चुनाव के नतीजे आने के बाद चुनाव के दौरान बनाए गए मिथकों को तोड़ने और नए मिथकों को जन्म देने का काम होता है। यह सभी चुनावों में होता है लेकिन जब चुनावों में उत्तर प्रदेश जैसा महत्वपूर्ण राज्य शामिल होता है - यह विचारों का पर्व बन जाता है। फिर, ऐसी पहेलियाँ हैं जिनका समाधान सभी के पास है।

सबसे पहले, नीचे दिए गए चार्ट पर एक नज़र डालें, जो चुनाव आयोग के आंकड़ों के आधार पर 2017 और 2022 में प्रमुख राजनीतिक दलों के वोट शेयर को दर्शाता है। जैसा कि हम सभी अब तक इस बात को जान गए हैं कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का वोट शेयर 41 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत हो गया है (सभी आंकड़े समान संख्या के हैं) जबकि समाजवादी पार्टी (सपा) गठबंधन की हिस्सेदारी 28 प्रतिशत से बढ़कर 36 प्रतिशत हो गई है। गठबंधन का स्वरूप अब बदल गया है - 2017 में, सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, जबकि 2022 में, इसने राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) सहित छोटे क्षेत्रीय दलों के एक समूह के साथ गठबंधन किया है। 

कांग्रेस का वोट शेयर और अधिक घटकर केवल 2 प्रतिशत रह गया, जबकि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) पिछली बार के 22 प्रतिशत से गिरकर इस बार 13 प्रतिशत पर अटक गया है। 'अन्य' और निर्दलीय उम्मीदवारों की हिस्सेदारी में भी गिरावट आई है। इस आधार को लेते हुए, आइए मिथकों और हक़ीक़त की उलटी-सीधी दुनिया की ओर मुड़ते हैं।

मिथक न. 1 - कल्याणकारी योजनाओं की सफलता के कारण भाजपा की जीत

हक़ीक़त: यह सबसे लोकप्रिय विचार है, जिसे खुद बीजेपी और मुख्यधारा के मीडिया ने गति दी है और गढ़ा है। महामारी के दौरान केंद्रीय योजना के तहत दिया गया मुफ्त खाद्यान्न, और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा बांटे गए खाना पकाने के तेल जैसी अतिरिक्त वस्तुओं से करीब 14 करोड़ लोगों को इस सहायता का पहुंचाना उनके समर्थन का आधार था। गरीबों के लिए घर, रसोई गैस, लड़कियों के लिए योजनाएं और अन्य ने भी मदद की है। किसानों को सालाना 6,000 रुपये की राशि मिली। इसका एक परिणाम यह है कि इन योजनाओं ने सुनिश्चित किया कि इन योजनाओं के कारण महिला मतदाताओं ने निर्णायक रूप से भाजपा का समर्थन किया।

निःसंदेह इसमें कुछ सच्चाई है लेकिन यह भयावह तर्क है। यदि लोग केवल आर्थिक सहायता और राहत से संबंधित मुद्दों पर मतदान कर रहे हैं, तो उच्च बेरोजगारी और आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतें द्वारा निश्चित रूप से इस सद्भावना को नष्ट कर देना चाहिए था। कोविड से तबाही, विशेष रूप से गरीब परिवारों पर उच्च आर्थिक दबाव को भी इस सकारात्मक भावना को खत्म कर देना चाहिए था। यह भी याद रखें कि कई दशकों से, राज्य ने एक मौजूदा पार्टी को फिर से नहीं चुना है। बल्कि यह एक अस्थिर और बेचैन मतदाता है जिसने इसे चुना है।

साथ ही, अगर यह सबसे बड़ा कारण होता तो बीजेपी पिछली बार की तुलना में 50 से अधिक सीटों पर क्यों हारती? कुछ सबसे गरीब क्षेत्रों में बीजेपी का वोट शेयर क्यों गिर गया? - बुंदेलखंड की 19 सीटों में, उसका वोट शेयर 2017 में 46 प्रतिशत से गिरकर इस बार 39 प्रतिशत हो गया, दक्षिण पूर्व यूपी (मिर्जापुर, सोनभद्र, आदि) की 40 सीटों पर उसका वोट शेयर पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश (कुशीनगर, महराजगंज, बलिया और श्रावस्ती के पूर्वी तराई आदि) में यह 39 प्रतिशत से घटकर 34 प्रतिशत रह गया। यह 38.6 प्रतिशत से मामूली रूप से बढ़कर 39.9 प्रतिशत हो गया, हालांकि इस बेल्ट में भाजपा की सीटें कुल 82 में से 63 से घटकर 49 हो गईं।

यदि कल्याणकारी योजनाएं चुनाव जीता रहीं थी, तो भाजपा इन क्षेत्रों को अत्यधिक गरीबी से मुक्त करा चुकी होती। तो - यह अकेले ये योजनाएं नहीं हैं जिन्होंने भाजपा के लिए चुनाव जीता। यह कुछ और है।

मिथक न. 2 - हर कोई सांप्रदायिक हो गया है

हक़ीक़त: यह विचार कुछ अच्छे तबकों के बीच लोकप्रिय है जो भाजपा की जीत की व्याख्या करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। फिर, इसमें कुछ सच्चाई है लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति होगा  कि हिंदुत्व इस जीत का आधार है। सबसे पहले, कुछ डेटा पर नज़र डालते हैं। यद्यपि भाजपा को लगभग 46 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं, यदि कोई कुल मतदाताओं में उनके मतों के हिस्से की गणना करता है, तो यह लगभग 27 प्रतिशत बैठता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के एक बड़े हिस्से यानि लगभग 40 प्रतिशत - ने बिल्कुल भी वोट नहीं दिया है। इसलिए, 15 करोड़ मतदाताओं और 24 करोड़ आबादी वाले इस विशाल राज्य में भाजपा समर्थकों को किसी भी हद तक बहुमत में नहीं माना जा सकता है।

लेकिन, इसके अलावा, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा के पांच साल के शासन ने वास्तव में हिंदुत्व के प्रभुत्व को काफी हद तक स्थापित किया है। मुस्लिम समुदाय को हाशिए पर डालकर, उन्हे कलंकित कर और लोगों के बड़े तबकों के बीच हिंदू श्रेष्ठता की पूरक भावना में परिलक्षित किया है। इसने, बदले में, हिंदुत्व के वाहन, यानि भाजपा के साथ एक बंधन बनाया है।

राम मंदिर निर्माण का उत्सव मनाना, 700 मंदिरों के जीर्णोद्धार का दावा करना, वाराणसी में काशी-विश्वनाथ गलियारे का निर्माण करना, स्थानों का नाम बदलना, और सबसे बढ़कर, मुसलमानों के खिलाफ लगातार आरएसएस/भाजपा का प्रचार, हर मौके पर कपटपूर्ण तरीके से किया गया है। योगी के नेतृत्व में भाजपा ने एक सचेत रास्ता चुना है, और इसने वास्तव में उसके लिए एक समर्थन का आधार बनाया है।

फिर भी, भाजपा को 46 प्रतिशत वोट मिले हैं, और बाकी शेष विपक्षी दलों को मिले हैं। किसान आंदोलन, दलितों पर अत्याचार, बेरोजगारी, महंगाई, किसानों की आय दोगुनी करने के झूठे वादे आदि सभी हिंदुत्व वोट बैंक से कट गए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि राज्य में सांप्रदायिक ज़हर को व्यापक रूप से बोया गया है और यह गणतंत्र की नींव को गंभीर रूप से खतरे में डाल रहा है। लेकिन यह चुनाव कोई अंतिम चुनाव नहीं है, और न ही यह कोई हिंदू राष्ट्र की जीत है।

मिथक न. 3 - विपक्ष ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया फिर भी वह हार गया

हक़ीक़त: विपक्ष का सक्रिय रूप से मतलब सपा गठबंधन है – और जिसने जोरदार चुनाव अभियान चलाया था। कथित तौर पर, सपा नेता अखिलेश यादव ने कुल 131 रैलियों को संबोधित किया। लेकिन इसकी कल्पना करना भूल होगी कि विपक्ष इतना ही कर सकता था।

विपक्ष की सबसे बड़ी बाधा या कमजोरी यह थी कि उसने व्यावहारिक रूप से चुनाव से दो-तीन महीने पहले ही अपना काम शुरू किया था। पिछले पांच सालों से और खासकर 2019 के आम चुनावों में सपा-बसपा गठबंधन की करारी हार के बाद विपक्ष सुस्त या लुप्त सा हो गया था।  हालांकि प्रियंका गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस अपने तरीके से काफी सक्रिय थी, लेकिन लोगों में उनकी जड़ें अब इतनी कमजोर हैं कि इनका केवल कुछ सेलिब्रिटी जैसा मूल्य रहा गया है और इससे कोई राजनीतिक समर्थन हासिल नहीं हुआ। 

महामारी की अवधि के दौरान सपा और बसपा दोनों ही जमीन से काफी हद तक अनुपस्थित थे। लाखों लौटने वाले प्रवासी, गंगा नदी में तैरती लाशें, ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए बेताब जनता, ध्वस्त स्वास्थ्य व्यवस्था - इन सभी संकटों में इन दलों ने जनता को कोई समर्थन नहीं दिया, उन्होंने किसी के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। या, शायद, वे अपनी उपस्थिति के मामले में महत्वहीन हो गए थे। इससे पहले, जब योगी सरकार ने नागरिकता कानून का विरोध करने के लिए मुसलमानों और अन्य धर्मनिरपेक्ष लोगों के खिलाफ आक्रामक शुरुआत की थी, तो इन दलों ने व्यावहारिक रूप से कुछ नहीं किया था।

चुनावी रैलियों में भी, लग रहा था कि लोग अखिलेश यादव उन्हें और उनकी पार्टी, सपा का समर्थन करेंगे। वास्तव में, उन्होंने बार-बार जोर देकर कहा कि वह चुनाव नहीं लड़ रहे हैं बल्कि लोग लड़ रहे हैं। उन्होंने बीजेपी/आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की सांप्रदायिक और जहर फैलाने वाली भूमिका पर भी कोई हमला नहीं किया, उन्होंने लोगों को पीएम नरेंद्र मोदी और सीएम योगी की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ भी नहीं उकसाया। यह सिर्फ कोरी बयानबाजी थी। ऐसा ही उनके कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने किया होगा। यह भाजपा के संगठन और समर्थन आधार के साथ कभी मेल नहीं खाता है। 

मिथक न. 4 – दलितों ने SP+ का समर्थन नहीं किया

हक़ीक़त: सीट-वार इसे दिखाने के लिए कोई डेटा नहीं है, हालांकि विश्लेषकों का कहना है कि दलितों का एक वर्ग पहले की तरह बीजेपी के साथ रहा, जबकि बसपा का 12 प्रतिशत वोट शेयर मुख्य रूप से जाटव समुदाय से आया है, जो यूपी में सबसे बड़ा दलित समुदाय है। हालांकि, इसका एक और संकेतक है: अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 सीटों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित दो सीटों के परिणाम। 2017 में, बीजेपी को इन 86 सीटों पर लगभग 42 प्रतिशत वोट मिले थे और उनमें से 73 पर जीत हासिल की थी। सपा को 23 फीसदी और बसपा को 24 फीसदी वोट मिले थे। इस बार के दौर में, बीजेपी का वोट शेयर थोड़ा गिरकर 39 फीसदी पर आ गया, लेकिन उसे 21 सीटों का नुकसान हुआ, जो 52 सीट पर सिमट गया। एसपी का वोट शेयर बढ़कर 30 प्रतिशत हो गया और इसकी सीटें 10 से 23 हो गईं। बसपा का वोट शेयर घटकर 14 प्रतिशत हो गया। स्पष्ट रूप से, दलितों का एक बड़ा वर्ग भाजपा को छोड़कर सपा में स्थानांतरित हो गया, यदि आरक्षित सीटों के मतदाताओं को उनके मतदान के लिए प्रॉक्सी के रूप में लिया जाता है तो यह एक ज़िंदा हक़ीक़त है।

पहेली - भाजपा ने कितना पैसा ख़र्च किया?

चुनावों की घोषणा से पहले पीएम मोदी ने 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की परियोजनाओं की घोषणा की थी, इसके अलावा, भाजपा ने इन चुनावों में एक बड़ी लेकिन अज्ञात राशि खर्च की होगी।

पीएम किसान की किस्त के रूप में श्रमिकों को ई-श्रम राहत दी गई। मीडिया में विज्ञापन (डिजिटल, आउटडोर, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया) पिछले चार महीनों से या उससे भी पहले से लगातार जारी है। पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और कई अन्य लोगों ने हेलीकॉप्टरों में उड़ते हुए दर्जनों रैलियों को संबोधित किया, जिसमें नेताओं की एक पूरी पलटन राज्य में पहुंचती थी। अपुष्ट दावे हैं कि गांव के स्तर पर पैसा पानी की तरह बहाया गया है। विपक्ष इस बाजीगरी की बराबरी नहीं कर सका। प्रत्येक ने कितना पैसा खर्च किया? यह एक ऐसी पहेली है जिसे कोई नहीं जानता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP Elections: Myths, Truths… and a Riddle

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