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ओडिशा: अब आदिवासियों की जमीन भी खरीद सकेंगे गैर आदिवासी, ओडिशा सरकार ने बदले नियम

ओडिशा में आदिवासी (ST) समुदाय के लोग अब गैर आदिवासियों को अपनी जमीनें बेच सकेंगे।
Tribals

"उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार द्वारा दलितों की जमीन, गैर दलितों द्वारा खरीदने की तमाम अड़चनें खत्म कर दिए जाने के बाद अब ओडिशा सरकार ने आदिवासियों की जमीन खरीदने का रास्ता पूरी तरह खोल दिया है। जी हां, ओडिशा में आदिवासी (ST) समुदाय के लोग अब गैर आदिवासियों को अपनी जमीनें बेच सकेंगे। नवीन पटनायक की सरकार द्वारा किए गए इस संशोधन के बाद अब अनुसूचित क्षेत्रों में रह रहे अनुसूचित जनजाति (ST) के लोग राज्य सरकार की अनुमति से गैर-आदिवासियों को अपनी जमीन बेच सकेंगे। उधर, यूपी में दलितों (SC) की जमीन खरीद-बेच मामले में योगी सरकार ने अनुमति लेने की बाध्यता को भी खत्म कर दिया है।"

ओडिशा मंत्रिमंडल ने मंगलवार को कानून में संशोधन पारित किया जिसके बाद अब अनुसूचित क्षेत्रों में रह रहे अनुसूचित जनजाति (ST) के लोग राज्य सरकार की अनुमति से गैर-आदिवासी समुदाय को अपनी जमीन बेच सकेंगे। हालांकि नए प्रावधान के तहत अनुसूचित जनजाति समुदाय का कोई व्यक्ति अपनी पूरी जमीन नहीं बेच सकता क्योंकि उस स्थिति में व्यक्ति भूमिहीन या बेघर हो सकता है। ओडिशा के मुख्य सचिव प्रदीप कुमार जेना ने बताया कि इस कदम से राज्य में उद्योगों को बढ़ावा मिलने की संभावना है। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल की बैठक के बाद जेना ने बताया कि अनुसूचित जनजाति सलाहकार परिषद की सिफारिशों के बाद एसटी समुदाय के लोगों के व्यापक हित को देखते हुए ओडिशा अनुसूचित क्षेत्र अचल संपत्ति हस्तांतरण विनियमन, 1956 में संशोधन करने का फैसला लिया गया है।

खास है कि 2002 में इस कानून में संशोधन के बाद ST श्रेणी के नागरिकों को अचल संपत्ति को ट्रांसफर करने की इजाजत दी गई थी लेकिन केवल आदिवासियों को ही जमीन ट्रांसफर की जा सकती थी। यानी आदिवासी केवल आदिवासी को ही अपनी जमीन खरीद बेच सकते थे। अब किसी को भी बेच सकते हैं। यही नहीं, 2002 से पहले अनुसूचित जनजाति समुदाय के किसी भी सदस्य की कोई भी जमीन बेची ही नहीं जा सकती थी। इस नियम का मुख्य उद्देश्य यही था कि कोई भी दबंग व्यक्ति ST समुदाय के लोगों को डरा-धमकाकर उनकी जमीन न खरीद पाए।

कॉर्पोरेट के दबाव में झुकी नवीन पटनायक सरकार ?

आजादी के बाद किसानों और आदिवासियों को जमीन का हक देने के लिए 1950 में जमींदारी उन्मूलन कानून बनाया गया। इस कानून में किसी व्यक्ति और परिवार के पास कितनी जमीन रह सकती है, इसको भी निर्धारित किया गया। आदिवासी और अनुसूचित जाति के हितों की रक्षा के लिए ये नियम बनाया गया कि उनकी जमीन को गैर आदिवासी और गैर अनुसूचित जाति का व्यक्ति नहीं खरीद सकता है। लेकिन ओडिशा की नवीन पटनायक सरकार ने इस कानून में संशोधन कर दिया है। अब कोई भी व्यक्ति उप-कलेक्टर की अनुमति से किसी आदिवासी की जमीन को खरीद सकता है। यही नहीं अब आदिवासी अपनी जमीन को गैर कृषि कार्य के लिए बंधक भी रख सकते हैं।

ओडिशा देश के पिछड़े राज्यों में गिना जाता है। यहां की अधिकांश आबादी गरीब है। और सबसे बड़ी बात यह है कि राज्य में करीब 40 प्रतिशत आदिवासी और अनुसूचित जाति के लोग रहते है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इस कानून के बाद आदिवासियों की जमीन से बेदखली बढ़ने की संभावना है। क्योंकि देश में जहां-जहां आदिवासियों का निवास है, वहां की जमीन में खनिज संपदाओं का भंडार है। लंबे समय से कॉर्पोरेट की नजर खनिज भंडारों पर लगी है, वे खनिज के साथ ही कोयला और जंगल की लकड़ियों पर भी गिद्ध दृष्टि रखे हुए हैं। कॉर्पोरेट के दबाव में ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ की सराकरें समय-समय पर आदिवासियों के जमीन और जंगल संबंधित कानून में संशोधन करने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन भारी जनदबाव के कारण उन्हें ऐसे संशोधनों को वापस भी लेना पड़ता रहा है।

लेकिन अब ओडिशा कैबिनेट ने इस कानून में संशोधन कर दिया है। इस तरह से ओडिशा देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है जहां आदिवासियों की जमीन को गैर आदिवासी खरीद सकते हैं। अब अनुसूचित जनजाति (ST) के लोगों को उप-कलेक्टर की लिखित अनुमति के साथ अनुसूचित क्षेत्रों में गैर-आदिवासियों को अपनी जमीन हस्तांतरित करने की अनुमति मिल गई है। अब ओडिशा अनुसूचित क्षेत्र अचल संपत्ति हस्तांतरण (एसटी द्वारा) विनियमन, 1956 को कैबिनेट की मंजूरी मिल गई।

कैबिनेट बैठक के बाद ओडिशा के मुख्य सचिव पीके जेना ने कहा कि अब, एक एसटी व्यक्ति सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अपनी जमीन उपहार दे सकता है, बेच सकता है या कृषि, आवासीय घर के निर्माण, बच्चों की उच्च शिक्षा, स्व-रोज़गार, व्यवसाय या छोटा उद्योग स्थापित करने के लिए सार्वजनिक वित्तीय संस्थान में भूमि का एक टुकड़ा गिरवी रखकर ऋण प्राप्त कर सकता है। या इन उद्देश्यों के लिए इसे गैर एसटी समुदाय के किसी व्यक्ति के पक्ष में स्थानांतरित कर सकता है।”

ओडिशा सरकार के एक आधिकारिक नोट में कहा गया है कि “ऐसे प्रावधानों के कारण, एसटी समुदायों से संबंधित शिक्षित युवाओं को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। इस समस्या को समझते हुए और अनुसूचित जनजाति सलाहकार परिषद की सिफारिशों के आधार पर संशोधन किए गए है।”

राज्य के मुख्य सचिव ने कहा कि “हालांकि, एसटी समुदाय के एक सदस्य को अपने कब्जे वाली सभी संपत्तियों को बेचने की अनुमति नहीं दी जाएगी, क्योंकि वह व्यक्ति भूमिहीन नहीं हो सकता है। कलेक्टर और उप-कलेक्टर यह सुनिश्चित करेंगे।” यदि उप-कलेक्टर ऐसी भूमि के हस्तांतरण, बिक्री या बंधक की अनुमति नहीं देता है, तो व्यक्ति छह महीने के भीतर संबंधित जिला कलेक्टर के पास अपील कर सकता है, जिसका निर्णय इस संबंध में अंतिम होगा।

ओडिशा में घट रही है आदिवासियों की जमीन: कैग मसौदा रिपोर्ट  

भले ही राजनीतिक दल आदिवासी हित और विकास के दावे करते हो। लेकिन सच यह है कि ओडिशा में आदिवासियों की जमीन लगातार घट रही है। आदिवासियों के अस्तित्व के लिए जमीन एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में माना जाता है।

भारत के CAG (Comptroller and auditor general of India) की एक मसौदा रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि एक दशक में आदिवासियों की जमीन में 12 फीसदी की कमी देखने को मिली है।

सीएजी ने ओडिशा में भूमि स्वामित्व पैटर्न का अध्ययन करने के लिए 2005-06 से 2015-16 तक 10 साल की अवधि ली है। जहां तक कृषि का सवाल है, राज्य का कुल परिचालन भूमि क्षेत्र 2005-06 में 50.19 लाख हेक्टेयर से घटकर 46.19 लाख हेक्टेयर हो गया है। द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, ऑडिट एजेंसी ने पाया “इसी अवधि के दौरान अनुसूचित जाति और अन्य लोगों के भूमि स्वामित्व क्षेत्र में 2005-06 की तुलना में 2015-16 में वृद्धि दर्ज की गई है, लेकिन आदिवासियों के मामले में कमी दर्ज की गई है। 2005-06 में कुल परिचालन भूमि का 17.48 लाख हेक्टेयर आदिवासियों के पास था, जो 2015-16 में घटकर 15.38 लाख हेक्टेयर हो गया, जिसमें 2.10 लाख हेक्टेयर (12 फीसद) की कमी दर्ज की गई।“

ओडिशा की जनजातीय स्थिति 

2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की जनजातीय जनसंख्या 95.91 लाख है जो राज्य की कुल जनसंख्या का 22.85 फीसद और भारत की जनजातीय जनसंख्या का 9.2 फीसद है। जनचौक की एक रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में 13 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों सहित 62 जनजातीय समुदाय हैं। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद ओडिशा में आदिवासी आबादी का तीसरा सबसे बड़ा केंद्र है। 314 ब्लॉकों में से 119 को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है। मार्च 2022 तक, राज्य का 44.7 फीसद भौगोलिक क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र है। अनुसूचित क्षेत्र की घोषणा का उद्देश्य जनजातीय स्वायत्तता, उनकी संस्कृति और आर्थिक विकास को संरक्षित करना है ताकि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय और शांति और सुशासन का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके।

भूमि ही भरण पोषण का मुख्य स्त्रोत

सीएजी ने अध्ययन में कहा था कि एसटी आबादी सामाजिक रूप से कमजोर समूहों में से एक है, जिन्हें अपने विकास के लिए राज्य के सामाजिक-आर्थिक समर्थन की आवश्यकता है। सीएजी ने ये भी कहा था कि “राज्य और केंद्र दोनों ने उनकी सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए हैं। उनकी आजीविका मूलतः वन उपज और खेती पर निर्भर है। इसलिए उनकी अपनी भूमि के साथ, उनके इलाकों की सार्वजनिक भूमि ही उनके भरण-पोषण का मुख्य स्रोत है।”

सीएजी ने बताया कि आदिवासियों द्वारा भूमि जोत का जिला और तहसीलवार वितरण न तो राजस्व और आपदा प्रबंधन विभाग या एससी और एसटी विकास विभाग द्वारा और न ही तहसीलों द्वारा बनाए रखा गया था। सीएजी ने छह दक्षिणी और उत्तरी ओडिशा जिलों का अध्ययन किया, जहां यह पाया गया कि 7.53 लाख आदिवासियों के पास 9.27 लाख हेक्टेयर क्षेत्र घटकर 8.44 लाख हेक्टेयर भूमि रह गया, जबकि 2005-06 और 2015-16 के बीच जनसंख्या मामूली रूप से बढ़कर 7.98 लाख हो गई।

आदिवासी आबादी के मामले में 2005-06 से वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन और गैर-अनुसूचित जनजातियों को उनकी भूमि की बिक्री पर प्रतिबंध के बावजूद उनकी भूमि जोत में कमी इस तथ्य का संकेत है कि उनकी भूमि का बड़ा हिस्सा अधिग्रहित किया जा सकता है। सार्वजनिक उद्देश्य के लिए सरकार द्वारा, “ऑडिट एजेंसी को संदेह है।

क्या है ओडिशा अनुसूचित क्षेत्र अचल संपत्ति हस्तांतरण विनियमन  

ओडिशा सरकार ने 4 सितंबर, 2002 से आदिवासियों की भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर रोक लगाने के लिए ओडिशा अनुसूचित क्षेत्र अचल संपत्ति हस्तांतरण (OSATIP) विनियमन, 1956 को 2000 में संशोधित किया था। अधिनियम का प्रावधान कहता है कि 4 अक्टूबर 1956 और 4 सितंबर 2002 के बीच आदिवासी व्यक्ति से अर्जित कृषि भूमि के कब्जे में एक गैर-आदिवासी को परिस्थितियों और भूमि के कब्जे के तरीके को बताते हुए सक्षम प्राधिकारी को एक घोषणा प्रस्तुत करनी होगी। घोषणा को 4 सितंबर, 2002 से दो साल के भीतर प्रस्तुत किया जाना था। यदि घोषणा असंतोषजनक पाई जाती है या मालिक घोषणा प्रस्तुत करने में विफल रहता है, तो कृषि भूमि मूल आदिवासी मालिक को वापस कर दी जानी चाहिए।

सीएजी ने पाया, ”OSATIP विनियमों के तहत दायर मामलों के निपटान के लिए समय सीमा के निर्धारण के अभाव में कुल 2134 लंबित मामलों में से, 1347 मामले 10 साल से अधिक समय तक लंबित रहे और 391 मामले 6 से 10 वर्षों से लंबित थे।” एजेंसी ने आगे बताया, “जुलाई 2008 और सितंबर 2021 के बीच तहसीलदार से जांच रिपोर्ट प्राप्त होने के बावजूद 66.57 एकड़ भूमि से जुड़े 20 परीक्षण-जांच किए गए मामलों में, संबंधित उप-कलेक्टर द्वारा मामलों का निपटारा नहीं किया गया था।”

यूपी में दलितों की जमीन, गैर दलितों को बेचने में डीएम की अनुमति की बाध्यता भी खत्म 

यूपी में दलितों की जमीन, गैर दलितों को बेचने में डीएम की अनुमति की बाध्यता को भी खत्म कर दिया गया है। प्रदेश में नई टाउनशिप नीति में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की भूमि लेने के लिए जिलाधिकारी से अनुमति लेने की अनिवार्यता खत्म करने के प्रस्ताव पर सियासत शुरू हो गई है। सपा व कांग्रेस के साथ कुछ संगठनों ने इस पर आपत्ति जताई है। ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) ने सरकार के इस फैसले को दलितों को भूमिहीन बनाने की साजिश करार दिया है।

आईपीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी ने कहा है कि जिलाधिकारी की पूर्व अनुमति का उद्देश्य दलितों की जमीन की आसानी से खरीद-बेच को रोकना था, ताकि उनकी जमीन उनके पास बची रहे। अनुमति की अनिवार्यता खत्म कर दिए जाने से अब इसकी पूरी संभावना है कि दलितों की जमीन दूसरे लोग लालच या दबाव से खरीद लेंगे और दलित तेजी से भूमिहीन हो जाएंगे।

उन्होंने कहा कि सपा सरकार ने दलितों की जमीन केवल दलितों द्वारा खरीदे जाने की शर्त को खत्म किया था। इसके बाद बड़ी संख्या में दलितों की जमीन बिक गई थी। उन्होंने सरकार से डीएम से अनुमति लेने की बाध्यता खत्म करने संबंधी फैसला वापस लेने की मांग की है। वहीं, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष शाहनवाज आलम ने कहा है कि उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन व भूमि सुधार अधिनियम 1950 के तहत कांग्रेस सरकार ने दलितों को ज़मीन का मालिक बनाने और उनके जमीनों की रक्षा के लिए यह कानून बनाया था। जिससे दलितों को दिए गए जमीन के पट्टे उनसे ऊंची जातियों के लोग नहीं छीन पाते थे।

दलितों के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण में इस कानून का सबसे बड़ा योगदान है। अब प्रदेश सरकार फिर से दलितों की जमीनों पर कब्जा दिलाने के लिए इस कानून को बदल रही है। अब भाजपा के लोग दलितों की जमीन धमकाकर लिखवा लेंगे। सपा एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्य ने ट्वीट के जरिए सरकार के इस फैसले पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि सरकार ने अपने ही बनाए कानून को ठेंगा दिखाया है। उन्होंने इस फैसले को दलित विरोध बताते हुए निंदा की है।

साभार : सबरंग 

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