मध्यप्रदेश में चल रहे सियासी संकट से नुकसान सिर्फ़ जनता का है
मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार पर छाया खतरा अब गंभीर रूप लेता जा रहा है। राज्यपाल लालजी टंडन के स्पष्ट निर्देश के बावजूद सोमवार को बजट सत्र के पहले दिन फ्लोर टेस्ट नहीं कराया गया। इससे नाराज राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को दूसरा पत्र लिखकर चेतावनी दी कि 17 मार्च यानी मंगलवार तक विधानसभा में फ्लोर टेस्ट कराकर बहुमत साबित करें, अन्यथा माना जाएगा कि वास्तव में आपको बहुमत नहीं प्राप्त है।
दूसरी ओर भाजपा ने अपने 106 विधायकों की राजभवन में परेड कराकर कांग्रेस पर दबाव बढ़ा दिया है। साथ ही राज्यपाल के आदेश का पालन नहीं किए जाने को लेकर वह सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई, जिस पर मंगलवार को ही सुनवाई होनी है।
फिलहाल सभी विश्लेषण, भविष्यवाणियां और हालात इसी तरफ इशारा कर रहे हैं कि कमलनाथ के हाथ से कुर्सी फिसल रही है। वह जिस तरह का दांव खेल रहे हैं उससे साफ जाहिर है कि गेंद उनके पाले में नहीं है। जब भी किसी राज्य में ऐसी स्थितियां बनती हैं तो सत्ताधारी दल विश्वास मत परीक्षण को किसी तरह से टालने की कोशिश करते रहते हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि शायद ज्यादा टाइम मिलने पर वह हालात को मैनेज करने में सफल हो जाएगा।
वैसे भी मध्य प्रदेश में हालात देखें तो विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। जनता ने अपने जनादेश में बीजेपी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था तो कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। वह बहुमत से मामूली सी दूरी पर थी और बसपा, सपा के समर्थन से सरकार बनाई थी। हालांकि अब हालात बदल गए हैं। बड़ी संख्या में कांग्रेस के विधायक बगावत पर उतर आए हैं। ऐसे में सबसे आसान रास्ता यही है कि कमलनाथ सदन में बहुमत परीक्षण साबित करें अन्यथा अपनी कुर्सी छोड़ दें।
इससे इतर एक सवाल यह भी उठता है कि क्या इस बात पर विचार नहीं होना चाहिए कि जनता के जनादेश के हिसाब से सरकार का गठन हो। साथ ही उन्हें अस्थिरता से कैसे बचाया जाए? अभी के हालात यह हैं कि जनता मतदान के जरिए जनादेश दे रही है लेकिन सदन में बहुमत उसके चुने हुए विधायकों द्वारा तय हो रहा है और विधायक इस जनादेश का मनमाना इस्तेमाल कर रहे हैं। वह जनता की चुनी हुई सरकार से छेड़छाड़ कर रहे हैं और अस्थिरता का माहौल पैदा कर रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ जनता ही ठगी जा रही है।
ऐसे में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और उनका विश्वास मजबूत रखने के लिए सुधार की जरूरत है। चूंकि सियासी दल तात्कालिक लाभ के फेर में रहते हैं और जब जिसे मौका मिलता है वही सत्ता हासिल करने में जुट जाता है इसलिए आवश्यक सुधारों की पहल या तो निर्वाचन आयोग को करनी चाहिए या फिर सुप्रीम कोर्ट को। किसी लोभ-लालच में दलबदल किया जाना जनादेश को ठेंगा दिखाने के साथ ही लोकतांत्रिक मूल्यों पर प्रहार भी है।
गोवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और अब मध्य प्रदेश में चल रहे सियासी संकट से यह साफ जाहिर है कि जनता के हाथ में केवल जनादेश देना बचा है और राजनीतिक दल इस जनादेश का मनमाना इस्तेमाल कर रहे हैं।
इसका कोई मतलब नहीं कि जनता जिस दल को शासन करने का अधिकार दे वह अपने विधायकों या सांसदों की बगावत के चलते सत्ता से बाहर हो जाए। आम तौर पर यह बगावत मौकापरस्ती ही होती है।
इस मौकापरस्ती से बचने के लिए ऐसे नियम-कानून बनने ही चाहिए जिससे किसी चुनी हुई सरकार को एक निश्चित समय तक शासन करने का मौका मिल सके। जनता द्वारा चुनी गई सरकारों को अस्थिरता की आशंका से मुक्त करके ही बेहतर शासन के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
ऐसी सरकारें सुशासन की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकतीं जो अपनी स्थिरता को लेकर चिंतित बनी रहें। लेकिन सवाल कई हैं क्योंकि इससे दूसरी तरफ निरकुंशता का ख़तरा बना रहता है।
मध्यप्रदेश में जो कुछ हो रहा है उससे सबसे अधिक नुकसान वहां की जनता को ही हो रहा है। किसी भी राज्य के लिए यह बहुत जरूरी है कि वहां राजनीतिक अस्थिरता का दौर लंबा न खिंचे।
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