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यौन उत्पीड़न मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट का बयान दुर्भाग्यपूर्ण क्यों है?

पॉक्सो एक्ट के तहत यौन उत्पीड़न को लेकर हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक विवदित फैसला सुनाया था जिस पर फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। हाईकोर्ट के इस फैसले की नागरिक समाज और महिलावादी संगठनों ने कड़ी आलोचना की थी।
Bombay High court
Image credit - Free press journal

"लड़की के ब्रेस्‍ट को ज़बरन छूना यौन उत्‍पीड़न नहीं है। अगर कपड़े के ऊपर से छुआ गया है और ‘स्किन टू स्किन टच’ नहीं हुआ है तो यह पॉक्‍सो कानून के सेक्‍शन 7 के तहत यौन उत्‍पीड़न और सेक्‍शन 8 के तहत दंडनीय अपराध नहीं है।”

बॉम्‍बे हाईकोर्ट का ये फैसला बीते कई दिनों से विवादों में है। आम लोगों से लेकर तमाम महिलावादी संगठन और सरकारी आयोग तक इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। इस फैसले को न सिर्फ गलत बताया जा रहा है बल्कि इसे आने वाले समय में अपराधियों के संरक्षण का जरिया भी माना जा रहा है।

आपको बता दें कि ये फैसला बॉम्‍बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच का है, जिसे इस महीने की 19 तारीख को न्यायमूर्ति पुष्पा गनेदीवाला की एकल पीठ द्वारा सुनाया गया। इस फैसले को राष्ट्रीय महिला आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है। तो वहीं राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) ने महाराष्ट्र सरकार को पत्र लिखकर इस निर्णय के खिलाफ "तत्काल अपील" दायर करने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर संज्ञान लेते हुए फिलहाल इस पर रोक लगा दी है।

पूरा मामला क्या है?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक ये केस (सतीश बनाम महाराष्ट्र राज्य) 2016 का है। एक 39 वर्षीय आदमी एक 12 साल की बच्‍ची को अमरूद देने के बहाने अपने घर ले गया उसका यौन उत्‍पीड़न करने की कोशिश की। पहले बच्ची के ब्रेस्ट को दबाया और उसकी सलवार उतारने की कोशिश ही कर रहा था, कि तभी बच्ची के चिल्लाने की आवाज़ सुनकर उसकी मां वहां पहुंच गई और उसे बचा लिया।

लड़की की मां के एफआईआर के मुताबिक जब लड़की चिल्‍लाई तो उस आदमी ने अपने हाथ से उसका मुंह दबाया और फिर कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर वहां से चला गया। तभी बेटी की आवाज सुनकर जब मां वहां आई तो उसने दरवाजा खोला और देखा की बेटी अंदर रो रही थी। फिर बेटी ने मां को अपनी आप बीती सुनाई।

हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फ़ैसले को पलटते हुए सज़ा कम कर दी

ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को पॉक्‍सो एक्ट और आईपीसी दोनों के तहत दोषी करार दिया। भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (शील भंग के इरादे से महिला पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग), 363 (अपहरण के लिए सजा) और 342 (गलत तरीके से बंदी बनाकर रखने की सजा) के तहत एक साल के कारावास की सजा सुनाई। साथ ही पॉक्‍सो एक्‍ट (प्रोटेक्‍शन ऑफ चिल्‍ड्रेन फ्रॉम सेक्‍सुअल ऑफेंस, 2012) के सेक्‍शन 8 के तहत तीन साल के कारावास की सजा सुनाई।

ट्रायल कोर्ट के बाद यह मामला हाईकोर्ट पहुंचा। जहां हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए आरोपी को पॉक्‍सो के मामले से मुक्त कर दिया। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “सिर्फ ब्रेस्‍ट को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा। इसके लिए यौन मंशा के साथ ‘स्किन टू स्किन कॉन्टेक्ट’ होना ज़रूरी है।”

यहां एक बात ख़ासी ध्यान देने वाली है की हाईकोर्ट ने उस व्यक्ति को पॉक्सो अधिनियम की धारा 8 के तहत बरी तो कर दिया। लेकिन आईपीसी की धारा 343 और धारा 354 के तहत दोषी ठहराया है। इस फैसले से उस व्यक्ति की सज़ा तो कम हो ही गई। साथ ही ये माना जा रहा है कि इसका असर भविष्य के पॉक्सो के मामलों पर भी पड़ सकता है।

बार एंड बेंच की खबर के मुताबिक, पॉक्सो एक्ट की धारा 8 के तहत यौन शोषण की सजा 3-5 साल है, जबकि आईपीसी की धारा 354 के तहत एक से डेढ़ साल तक की सजा का प्रावधान है।

हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले में क्या कहा?

हाईकोर्ट ने मुताबिक पॉक्सो एक्ट के तहत मामला तब बनता, जब व्यक्ति बच्ची का गुप्तांग छूने का प्रयास करता या उसे अपना गुप्तांग छूने के लिए मजबूर करता। लेकिन यहां यह मामला नहीं है। इस मामले में किसी भी तरह का सीधा शारीरिक संपर्क ‘स्किन टू स्किन कॉन्टेक्ट’ नहीं हुआ है। 12 साल की बच्ची का ब्रेस्ट दबाने के मामले में इसकी जानकारी नहीं है कि आरोपी ने उसका टॉप हटाया था या नहीं? न ही यह क्लियर है कि उसने टॉप के अंदर हाथ डाल कर ब्रेस्ट दबाया था। ऐसी सूचनाओं के अभाव में इसे यौन शोषण नहीं माना जाएगा। यह आईपीसी की धारा 354 के दायरे में आएगा, जो स्त्रियों की लज्जा के साथ खिलवाड़ करने से जुड़ा है।

जज के अनुसार पॉक्सो के तहत यौन हमला एक अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है। जिसमें यौन इरादे के साथ कोई एक्ट किया गया हो, इसमें निजी अंगों को छूना या बच्चे को आरोपी के निजी अंग को छूना शामिल है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आपराधिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत यह है कि अपराध के लिए सजा अपराध की गंभीरता के अनुपात में होगी। इस तरह कोर्ट ने दोषी की सजा कम कर दी।

पॉक्सो का कानून क्या कहता है?

इस कानून के अधिनियम 7 के मुताबिक कोई भी व्यक्ति जो किसी यौन मकसद से किसी बच्चे का वज़ाइना, पेनिस, एनस और ब्रेस्ट टच करे, या फिर उस बच्चे से अपना या किसी दूसरे व्यक्ति का वज़ाइना, पेनिस, एनस और ब्रेस्ट टच करवाए, या फिर यौन मकसद से कोई ऐसा फिजिकल कॉन्टेक्ट करे, जिसमें पेनिट्रेशन शामिल न हो, सेक्सुअल असॉल्ट कहलाएगा।

कानून के जानकारों के अनुसार पॉक्सो कानून में यौन शोषण की परिभाषा विस्तृत है। इसमें शरीरिक संपर्क शामिल हो भी सकता है और नहीं भी लेकिन जो एक महत्वपूर्ण बात है वो यौन मकसद है जिसे शायद इस फैसले में नज़रअंदाज़ किया गया है। यह कानून अंग विशेषों को अलग से रेखांकित करते हुए उसे टच करने या टच करवाने की बात को स्‍पष्‍ट करने के बाद उसी वाक्‍य में आगे कहता है, “Any other act with sexual intent” यानी यौन मंशा के साथ किया गया ‘और कोई भी काम’  सेक्सुअल असॉल्ट माना जाएगा।

महिलावादी संगठनों का क्या कहना है?

बॉम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर हमारे समाज और सिस्टम में पितृसत्ता की पैठ पर बहस तेज़ कर दी है। महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण के तमाम दावों के बीच समाज में आधी आबादी के प्रति उनकी मानसिकता की कलई खोल दी है। महिलाओं के लिए कई सालों से काम करने वाली कमला भसीन से लेकर शबनम हाशमी तक हाईकोर्ट के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं तो वहीं ऐपवा, एडवा समेत कई महिलावादी संगठनों ने एक सुर में इसकी निंदा की है।

‘ये फ़ैसला पॉक्सो कानून की आत्मा के बिल्कुल विपरीत है'

पूर्व सांसद और अखिल भारतीय जनतांत्रिक महिला संगठन (एडवा) की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुभाषिनी अली ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा कि पिछले सालों में महिलाओं और बच्चियों के साथ हिंसा और यौन उत्पीड़न पर बहुत कानूनों में परिवर्तन हुआ है और सख्ती के साथ इन कानूनों को लागू भी किया जा रहा है। पॉक्सो एक्ट की परिभाषा बहुत विस्तृत है। उसमें केवल शरीर को छूना, हमला करना या यौन हिंसा करना ही शामिल नहीं है बल्कि इसमें मानसिक उत्पीड़न और यौन उत्पीड़न का मकसद भी शामिल है।

सुभाषिनी के मुताबिक “बॉम्बे हाईकोर्ट की जज ने बहुत ही अजीब फैसला दिया है, जो समझ से परे है। इस फैसले से बच्चियों को न्याय देने की प्रक्रिया में रुकावट पैदा हो सकती है। हमारा मानना है कि कोई भी बेंच इसे सही नहीं ठहराएगी क्योंकि ये कानून की आत्मा के बिल्कुल विपरीत है। ये फैसला तार्किक आधार पर भी बिल्कुल कमज़ोर है।”

सुभाषिनी आगे कहती हैं कि इस फैसले ने ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर जो न्यायपालिका में जज की कुर्सी पर बैठते हैं, वो किस सोच के लोग हैं और न्याय के बारे में उनका ज्ञान कितना कमज़ोर है।

जजों की क्वालिफिकेशन में जेंडर सेंसटाइजेशन की ज़रूरत

बॉम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले को बेहद शर्मनाक बताते हुए अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन (ऐपवा) की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन इसे गैर-कानूनी कहती हैं। कविता के मुताबिक इस फैसले को महज़ ख़ारिज करना ही काफी नहीं है। जिन महिला जज ने इस फैसले को सुनाया है उन्हें जेंडर मामलों में आगे से फैसला देने से रोका जाना भी जरूरी है।

कविता कहती हैं, “ये फैसला ये दिखाता है कि हमारी ज्यूडिशियरी में जेंडर, जाति, उत्पीड़न आदि के मुद्दे को लेकर कितनी संवेदनहीनता है। जजों की क्वालिफिकेशन में जेंडर सेंसटाइजेशन की कितनी कमी है। इन मामलों में जजों को शिक्षित करने की जरूरत है।

महिला जज ही महिलाओं के मुद्दे पर असंवेदनशील कैसे हो सकती है?, इस सवाल के जवाब में कविता कहती हैं कि हमें इस बात पर बिल्कुल आश्चर्य नहीं है क्योंकि पितृसत्तात्मक सोच का शिकार कोई भी हो सकता है फिर चाहे वो महिला हो या पुरुष। फिलहाल समाज में जरूरी है कि महिलाओं की भागीदारी के साथ ही पितृसत्ता विरोधी सोच को बढ़ावा दिया जाए।

कविता के अनुसार बलात्कार का कानून जो साल 2013 में बना और पॉक्सो का कानून जो बच्चों के यौन शोषण के मामले देखता है, उसमें साफ-साफ कहा गया है कि किसी भी तरह का सेक्सुअल टच यानी किसी भी बच्चे को यौन मंशा से छूना यौन शोषण की कैटेगरी में आएगा। ये बिल्कुल बकवास बात है कि किसी बच्चे को कपड़े के ऊपर से छूना यौन शोषण नहीं है। ये घृणापूर्ण और शर्मनाक फैसला है जो भविष्य में ऐसे मामलों को बढ़ावा देगा।

मालूम हो कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में साल 2017 में पॉस्को के तहत यौन अपराधों के कुल 32,608 मामले दर्ज किए गए तो वहीं साल 2018 में ये आंकड़ा बढ़कर 39,827 हो गया। डाटा के मुताबिक 39,827 में से  नाबालिगों से रेप के कुल 21,000 मामले रिपोर्ट किए गए थे।

कोर्ट पहले भी ऐसे फ़ैसले सुना चुका है!

गौरतलब है कि ये कोई पहला मामला नहीं है जब किसी न्‍यायालय के फैसले को न्‍याय से ज्यादा औरतों के लिए दुख और अपमान की नज़रों से देखा जा रहा है। इससे पहले भी इंदौर हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में छेड़खानी करने वाले व्‍यक्ति को राखी बांधने की बात कही थी। राजस्‍थान हाईकोर्ट ने एक बार रेपिस्‍ट से शादी करवाने का फैसला दे दिया था तो वहीं भंवरी देवी केस में राजस्‍थान की निचली अदालत ने कहा था कि एक ऊंची जाति का आदमी निचली जाति की औरत को हाथ भी नहीं लगा सकता तो रेप कैसे करेगा। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तलाक के एक मामले में कहा कि अगर विवाहिता हिंदू रीति रिवाज के अनुसार चूड़ियां और सिंदूर लगाने से इनकार करती है, तो पति तलाक ले सकता है।

कानूनी लूप होल्स का फायदा उठाते हैं आरोपी

वकील आर्शी जैन कहती हैं, अक्सर कोर्ट में कानूनी लूप होल्स का फायदा उठाया जाता है। बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले में भी यही हुआ है। अगर केस को देखें तो फिजिकल कॉन्टेक्ट एक बड़ा प्वाइंट है जिस पर हाईकोर्ट की पूरी जजमेंट बेस्ड है लेकिन ये उसके मकसद को नहीं झुठला सकता। एक ओर जज खुद बच्‍ची के स्‍तन को जबर्दस्‍ती पकड़ने की बात स्‍वीकार कर रही हैं और दूसरी ओर यौन मंशा को पूरी तरह अलग-थलग कर केवल स्किन टू स्किन टच पर ज़ोर दे रही हैं।

आर्शी जैन के मुताबिक अब समय आ गया है कि पॉक्सो में सेक्सुअल असॉल्ट को और अच्छे और साफ़ शब्दों में विस्तृत तौर पर परिभाषित किया जाए। जिससे कोई इसके लूप होल्स का फायदा न उठा सके। साथ ही ऐसे मुद्दों पर थोड़ी संवेदनशीलता दिखाई जाए।

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